शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

ऐसा हो नव-वर्ष

ऐसा हो नव-वर्ष

मेरा फोटोआचार्य परशुराम राय

यौवन मिले,

शैशव मिले ,

साँस न टूटे वैभव की,

संतति अरु सम्मान मिले।

धन-धान्य बढ़े,

सद्भाव बढ़े,

कृपा रहे जगदीश्वर की,

जीवन की सभी मुराद मिले।

सन्मित्र मिलें,

सद्बुद्धि मिले,

समृद्धि मिले मधुमास की,

जीवन-साथी का प्यार मिले।

दुख-दर्द मिटे,

सब कष्ट कटे,

सिद्धि मिले पुरुषार्थ की,

सबसे अच्छा स्वास्थ्य मिले।

ऐसा हो नव-वर्ष सभी का

ऐसा हो नव-वर्ष।

शिवस्वरोदय-24

शिवस्वरोदय-24

आचार्य परशुराम राय

शिवस्वरोदय के इस अंक में इडा नाड़ी के प्रवाह-काल में किए जाने वाले कार्यों का विवरण दिया जा रहा है।

समझने की सुविधा की दृष्टि से 102 से 105 तक के श्लोकों को भावार्थ के लिए एक साथ लिया जा रहा है।

स्थिरकर्मण्यलङ्कारे दूराध्वगमने तथा।

आश्रमे धर्मप्रासादे वस्तूनां सङ्ग्रहेSपि च।।102।।

वापीकूपताडागादिप्रतिष्ठास्तम्भदेवयोः।

यात्रादाने विवाहे च वस्त्रालङ्कारभूषणे।।103।।

शान्तिके पौष्टिके चैव दिव्यौषधिरसायने।

स्वस्वामीदर्शने मित्रे वाणिज्ये कणसंग्रहे।।104।।

गृहप्रवेशे सेवायां कृषौ च बीजवपने।

शुभकर्मणि संघे च निर्गमे च शुभः शशि।।105।।

अन्वय – स्थिर-कर्मणि शुभः शशी निर्गमे (यथा) अलङ्कारे दूराध्वगमने आश्रमे धर्मप्रासादे वस्तूनां संग्रहे अपि च वापीकूपताडागादिप्रतिष्ठास्तम्भदेवयोः यात्रा दाने विवाहे च वस्त्रालङ्कारभूषणे शान्तिके पौष्टिके चैव दिव्यौषधिरसायने स्वस्वमीदर्शने मित्रे वाणिज्ये कण-संग्रहे गृहप्रवेशे सेवायां कृषौ बीजवपने शुभकर्मणि संघौ च।

भावार्थ – स्थायी परिणाम देनेवाले जितने भी कार्य हैं, उन्हें इडा अर्थात बाँए स्वर के प्रवाह-काल में प्रारम्भ करना चाहिए, जैसे-सोने के आभूषण खरीदना, लम्बी यात्रा करना, आश्रम-मन्दिर आदि का निर्माण करना, वस्तुओं का संग्रह करना, कुँआ या तालाब खुदवाना, भवन आदि का शिलान्यास करना, तीर्थ-यात्रा करना, विवाह करना या विवाह तय करना, वस्त्र तथा आभूषण खरीदना, ऐसे कार्य जो शान्ति-पूर्वक योग्य हों उन्हें करना, पोषक पदार्थ ग्रहण करना, औषधि सेवन करना, अपने मालिक से मुलाकात करना, मैत्री करना, व्यापार करना, अन्न संग्रह करना, गृह-प्रवेश करना, सेवा करना, खेती करना, बीज बोना, शुभ कार्यों में लगे लोगों के दल से मिलना आदि।

English Translation – Any work, which has long-lasting results in our life, should be started during flow of breath through the left nostril, such as – procurement of golden ornaments, long journey, construction of Ashram or temple or church or mosque, collection of articles, sinking of well or pond, laying down stone of a house, going on pilgrimage, marriage or fixing of marriage, purchase of cloth or ornaments, doing any peaceful work, use of nutritive eatables and medicine, visit to master, friendship, business, Griha-pravesh, collection of grains, any service other than routine duty, agriculture, seed sowing, plantation, to visit the group of people who are involve in auspicious work etc.

अगले सात श्लोकों अर्थात 106 से 112 तक के श्लोकों को अर्थ समझने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए एक साथ लिया जा रहा है।

विद्यारम्भादिकार्येषु बान्धवानां च दर्शने।

जन्ममोक्षे च धर्मे च दीक्षायां मंत्रसाधने।।106।।

कालविज्ञानसूत्रे तु चतुष्पादगृहागमे।

कालव्याधिचिकित्सायां स्वामीसंबोधने तथा।।107।।

गजाश्वरोहणे धन्वि गजाश्वानां च बंधने।

परोपकारणे चैव निधीनां स्थापने तथा।।108।।

गीतवाद्यादिनृत्यादौ नृत्यशास्त्रविचारणे।

पुरग्रामनिवेशे च तिलकक्षेत्रधारणे।।109।।

आर्तिशोकविषादे च ज्वरिते मूर्छितेSपि वा।

स्वजनस्वामीसम्बन्धे अन्नादेर्दारुसङ्ग्रहे।।110।।

स्त्रीणां दन्तादिभूषायां वृष्टरागमने तथा।

गुरुपूजाविषादीनां चालने च वरानने।।111।।

इडायां सिद्धदं प्रोक्तं योगाभ्यासादिकर्म च।

तत्रापि वर्जयेद्वायुं तेज आकाशमेव च।।112।।

अन्वय – ये सभी श्लोक लगभग अन्वित क्रम में हैं, अतएव इनका अन्वय नहीं दिया जा रहा है।

भावार्थ – उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त निम्नलिखित कार्य भी चन्द्र नाड़ी के प्रवाह- काल में प्रारम्भ करना चाहिए-

अक्षरारम्भ, मित्र-दर्शन, जन्म, मोक्ष, धर्म, मंत्र-दीक्षा लेना, मंत्र जप या साधना करना, काल-विज्ञान (ज्योतिष) का अभ्यास करना, नये मवेशी को घर लाना, असाध्य रोगों की चिकित्सा, मालिक से संवाद, हाथी और घोड़े की सवारी या उन्हें घुड़साल में बाँधना, धनुर्विद्या का अभ्यास, परोपकार करना, धन की सुरक्षा करना, नृत्य, गायन, अभिनय, संगीत और कला आदि का अध्ययन करना, नगर या गाँव में प्रवेश, तिलक लगाना, जमीन खरीदना, दुखी और निराश लोगों या ज्वर से पीड़ित या मूर्छित व्यक्ति की सहायता करना अपने सम्बन्धियों या स्वामी सम्पर्क करना, ईंधन तथा अन्न संग्रह करना, वर्षा के आगमन के समय स्त्रियों के लिए आभूषण आदि खरीदना, गुरु की पूजा, विष-बाधा को दूर करने के उपाय, योगाभ्यास आदि कार्य इडा नाड़ी के प्रवाह-काल में सिद्धिप्रद होते हैं। लेकिन इडा नाड़ी में वायु, अग्नि अथवा आकाश तत्त्व सक्रिय हो वैसा नहीं होता, अर्थात इन तत्त्वों के इडा में प्रवाहित हो तो उक्त कार्य को न करना ही श्रेयस्कर है।

English Translation – In addition to the above, following work should also be started during the flow of breath through left nostril –

Akshararambh (start to learn writing of letters by children for the first time), visiting of a friend, initiation in Mantra, birth, liberation from bondage of birth and death, religious work, recitation of Mantra, Sadhana, study of astrology, newly purchased domestic animals, treatment of chronic diseases, conversation with master, riding, to tie horses and elephants in stable,, archery, donation to needy, safe-guarding of wealth; while starting to learn dancing, singing, music and other arts, entering any city or village, to apply Tilak, purchase of land; to help the people who are helpless or suffering from fever or who became faint, to contact with relatives or master (also bosses), collection of fire-wood, even fuel and grains; purchase of ornaments for ladies just before start of rainy season, honour of Guru, effort for subsiding poisonous effect in our body, Yogic practices.

All above good works are suggested to start at the time flow of breath through right nostril for desired results, but it is better to avoid it if air, fire or ether Tattva is active in left nostril breath.

सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति दिवारात्रिगतान्यपि।

सर्वेषु शुभकार्येषु चन्द्रचारः प्रशास्यते।।113।

अन्वय – दिवारात्रिगतान्यपि सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति, (अतएव) सर्वेषु शुभकार्येषु चन्द्रचारः प्रशास्यते।

भावार्थ – दिन हो अथवा रात इडा के प्रवाह-काल में किए गए सभी कार्य सिद्ध होते हैं, अतएव सभी कार्यों के लिए चन्द्र अर्थात इडा नाड़ी का ही चुनाव करना चाहिए।

English Translation – Whether it is day or night start of all good woks stated in previous verses gives always good results. Therefore we should select always left nostril breath for starting of all good works.

अगले अंक में सूर्य-नाड़ी के प्रवाह काल में किए जानेवाले कार्यों का विवरण दिया जाएगा।

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

आँच-50 राजीव कुमार की कविता “न जाने क्यों?”

आँच-50

राजीव कुमार की कविता “न जाने क्यों?”

परशुराम राय

My Photoश्री राजीव कुमार जी द्वारा विरचित कविता न जाने क्यों? चर्चा के लिए ली जा रही है। यह कविता उन्हीं के ब्लाग घोंसला पर पिछले दिनों प्रकाशित हुई थी। राजीव कुमार जी सरकारी नौकरी में हैं और फिलहाल दिल्ली में कार्यरत हैं।

प्रस्तुत कविता एक ऐसे मध्यमवर्गीय परिवारों में पत्नी के प्रति मानसिकता की भावभूमि पर लिखी गयी है, जो न आधुनिक बन पाते हैं और न ही पिछड़ा बने रहना चाहते हैं। ये दोनों की मानसिकता में जीते हैं। इनमें परम्पराओं के छूट जाने का भय भी बना रहता है और आधुनिक बने रहने का आकर्षण भी इन्हें चैन से रहने नहीं देता। ऐसी ही मानसिकता से उत्पन्न भावनाओं पर प्रस्तुत कविता में पत्नी की ओर से सात प्रश्न उठाए गए हैं सात फेरों के वचन की तरह।

सामान्यतया पत्नी से हमारी अपेक्षा रहती है कि वह हमारी आवश्यकताओं और रुचि का सदा ध्यान रखे और इन सबके ऊपर अहम अपेक्षा होती है कि पत्नी बहुत सुन्दर हो। वैसे भी पहला आकर्षण शारीरिक सौन्दर्य होता है जो हमें आकर्षित करता है और सम्पर्क की जिज्ञासा उत्पन्न करता है। सम्पर्क के बाद भाव-सौन्दर्य से परिचय होता है। भाव-सौन्दर्य आकर्षक हो या विकर्षक, दोनों ही परिस्थितियों में शारीरिक आकर्षण को धीरे-धीरे न्यून कर देता है। आकर्षण को सदा बनाए रखना एक कठिन साधना है। किसी का ज्ञान होते ही आकर्षण खो देना हमारा स्वभाव है। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा है कि अपनी पत्नी को हमेशा नयी स्त्री की तरह देखो अर्थात एक अपरिचित स्त्री की तरह तो आकर्षण सदा बना रहेगा। बात बड़े पते की है, पर यह इतना आसान नहीं है। इसके लिए सतत अभ्यास और साधना की आवश्यकता पड़ती है। अपरिचित के साथ हमारी अपेक्षाएँ नहीं होती हैं। अगर होती भी हैं तो दोनों एक-दूसरे की अपेक्षाओं का ध्यान रखते हैं। लेकिन हमलोग अपने पारिवारिक जीवन में प्रायः ऐसा नहीं करते। पत्नी की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की अधिकतर अनदेखी करते हैं। उनकी अपेक्षाओं को भोजन और वस्त्र तक सीमित कर देते हैं। प्रायः पुरुष और स्त्रियाँ दोनों ही स्त्रियों को चारित्रिक शंका से देखते हैं यदि वे किसी दूसरे पुरुष से बातें करती हैं। महाकवि भवभूति भी अपने प्रसिद्ध नाटक उत्तररामचरितम् में लिखते हैं- यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः अर्थात लोग जैसे स्त्रियों की पावनता के प्रति सदा शंकाशील रहते है, वैसे ही वाणी के प्रति भी सदा दोष-दृष्टि रखते हैं। इस प्रकार स्त्रियों को हम प्रायः संदेह के घेरे में कैदकर रखते हैं। ऐसा नहीं है कि पुरुष के प्रति इस प्रकार की जन-भावना का अभाव है, पर यह स्त्रियों जैसी स्थिति तो नहीं है। इन्हीं अपेक्षा-उपेक्षा, विश्वास-अविश्वास आदि के अन्तर्द्वन्द्व की भाव-भूमि पर रची गयी कविता है न जाने क्यों

प्रस्तुत रचना मध्यम वर्ग की सोच या अन्य वर्ग के लोग जिनकी इस प्रकार की पुरुष-जन्य सोच है, उस पर प्रश्न है- न जाने क्यों? अन्य महिलाओं को बाजार, उत्सव या अन्यत्र सजे-धजे देखकर हमारा मन अनायास उनकी ओर आकर्षित होता है। उसी तरह अपनी पत्नी को सजे-धजे देखने की इच्छा हमारे मन में उठती है और अचानक एक दिन हम अपने अपनी पत्नी को सजने-सँवरने की सलाह दे बैठते हैं। लेकिन जब अपने मध्यम-वर्गीय मनोराज्य में प्रवेश करते हैं तो हमारा साहस घुटने टेक देता है और उसके खुले सिर को हम आँचल से ढक देते हैं, न जाने क्यों? बाहर लड़कियों को जिंस और टॉप पहने देखते हैं तो अच्छा लगता है और अपनी पत्नी के लिए भी खरीद लाते हैं। लेकिन अपनी सोच में लौटते ही हमारा साहस काफूर हो जाता है तथा पत्नी को कभी उन्हें पहनकर बाहर नहीं निकलने देते, न जाने क्यों? अन्य महिलाओं को गाड़ी चलाते हुए देखकर पत्नी का ड्राइविंग लाइसेंस तो बनवा लेते हैं, उसके बगल में बैठकर उसे गाड़ी चलाने के लिए उकसाते भी हैं। लेकिन उसे गाड़ी चलाते देख हमारे चेहरे का रंग उड़ जाते हैं, न जाने क्यों? कवि को लगता है कि पति की सोच और पुरुष की सोच का अन्तर हमेशा उसे परेशान करता रहा जिससे वह अपनी पत्नी के सौन्दर्य, इच्छाओं आदि को समझने और संकल्प तथा विकल्प के परे उन्हें देख नहीं पाते, न जाने क्यों? जबकि पत्नी हमारे सपनों को जीती है, लेकिन उसके सपनों के विषय में सोचते तक नहीं, न जाने क्यों? सदा हम रीति-रिवाज, परम्पराओं, पुरुष-जन्य सोच, अपने अहं भाव आदि से अपने अन्दर के खारापन अर्थात मन की कठोरता बढ़ाते रहते हैं, न जाने क्यों?

यदि इन प्रश्नों को देखें तो लगता है कि हम अपने को, अपने सम्बन्धों को सदा दूसरों की दृष्टि से देखते हैं, फिर हमारा व्यवहार केवल प्रतिक्रिया बनकर रह जाता है और ये प्रश्न हमें घेर लेते हैं। जिससे हम न तो खुद जी पाते हैं और न ही अपने सम्बन्धों को। एक घटना मुझे याद है। सत्तर का दशक था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय कैम्पस में बिरला छात्रावास का वार्षिकोत्सव था। महादेवी जी उसकी मुख्य अतिथि थीं। डॉ. विजयपाल सिंह, हिन्दी के विभागाध्यक्ष कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। महादेवी जी लगभग एक घंटे तक निर्बाध बोलती रहीं। लेकिन अपने सिर से अपना आँचल नहीं गिरने दिया। ऐसा भी नहीं कि वे पिछड़ी हुई थीं। अपने समय में उन्होंने सबका विरोध सहते हुए वेदों का अध्ययन किया। महिलाओं पर थोपे हुए सभी अनावश्यक विचारों और परम्पराओं का घोर विरोध किया। अतएव आवश्यकता है अपने विचारों और परम्पराओं के प्रति अपने दृष्टिकोण को अपने विवेक से पल्लवित होने देने की। इन सभी भावों को सहेजे कविता “न जाने क्यों?” हमें प्रेरित करती है कि हम अपने जीवन के प्रति अपना दृष्टकोण रखें, न कि दूसरों के दृष्टिकोण से अपने अन्दर के खारापन को बढ़ने दें।

सबकुछ के बावजूद कविता में कुछ कमियाँ हैं। कविता में काफी बिखराव है। इसमें प्रस्तुत भाव को व्यक्त करने के लिए इतना वृहद आकार देने की आवश्यकता नहीं थी। शब्द संयम भी जहाँ-तहाँ कविता में प्राञ्जलता को भंग करते दिखते हैं, यथा- चौथे बन्द में

रियर-व्यू मिरर में देखा था मैंने

तुम्हारे चेहरे का बदलता रंग,

बदरंग होता हुआ

जब लोगों ने देखा था मुझे

इसके स्थान पर यदि इस प्रकार लिखा जाता तो अच्छा रहता-

रियर-व्यू मिरर में देखा था मैंने

तुम्हारे चेहरे का उड़ता हुआ रंग,

जब देखा था मुझे लोगों ने,

उक्त परिवर्तन से पुनरावृत्ति भी दूर हो जाती, शब्दों का बोझ कम होता और प्राञ्जलता बढ़ जाती। इसी प्रकार की कमियाँ कविता में अन्य स्थानों पर भी हैं। यहाँ केवल संकेत मात्र किया जा रहा है। वैसे ये मात्र मेरे दृष्टिकोण हैं। कवि का पाठक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

लुच्‍चा के मौगत माघ महीना ..

लुच्‍चा के मौगत माघ महीना


करण समस्‍तीपुरी


प्‍यार तेरा...... दिल्‍ली की सर्दी । आ...हा...हा...... उ..... हु.... हु.... हु... हु.... । बाप रे..... ! दिल्‍ली में तो जानमारूक ठन्‍डी है। लगता है खून जम जायेगा। देखिए न... ससुर हाथो ऐसन ठिठुर गया है कि की बोर्ड खटखटाने में भी तरद्दुद है। हो बाबू..... ! अब देखिए न राते देसिल बयना भी नहीं लिख पाये। इहां जो हिसाब-किताब है उ को देख कर तो एक्कहि कहावत याद आती है – “लुच्‍चा के मौगत माघ महीना।”

अब का बतायें....... बंगलोर से दिल्‍ली आ तो गये मगर........ कहां उ सोलह से पच्‍चीस डिग्री और कहां इ दू से आठ डिग्री...... ! उपर से साफ्टवेयर के सोफ्ट बाबू सब.... एगो लैपटोपिया बैग में अधकट्टी पैन्‍ट और अंग्रेजी कुर्ती (टी शर्ट) कोंचे और जीन्‍स पर ब्‍लेजर तान के चल दिए। रे बाबू...... ! दिल्‍ली की सर्दी कहीं ई ब्‍लेजर से सुनता है...... ? एक्कहि दिन गुरगांव से दरियागंज आये-गये कि ऐसन वायवरेशन मोड लगा जो अभी तक हिलिये रहे हैं और नाक सुसरी अलगे गंगोतरी के तरह सुर-सुर बह रही है। उ का कहते हैं....... “लुच्‍चा का मौगत माघ महीना।” मगर हमरा तो ई पूसे में हो गया। खैर चलिये... सर्दी-गर्मी तो लगले रहता है.... अब देर सवेर आज आपको यही देसिल बयना बुझा देते हैं।

समरगंज वाली भौजी का छोटका भाई है न... लुचरूआ......... सार का नाम भी है लुचरू और काम भी लुच्‍चे वाला। लुच्‍चा कहते हैं हमरे ऐसन फोकटिया हीरो को। देह में दम नहीं बजार में धक्‍का। ससुर दिखाबे के चक्कर में जान गंवाये।

ऐसन लुच्‍चा था उ लुचरूआ भी। झार-फानुस, इतर-गुलाब और जुल्‍फी के बड़ी शौकीन। बरमहले (हमेशा) आते रहता था शीतलपुर। हमलोग उसे बड़ी चिढ़ाते थे। समझिए कि उसका नामे हो गया था लुच्‍चा।
उ दफे अपने गांव दिश भी ऐसने शीत-लहरी हुआ था। आदमी तो आदमी ..... ससुर पेड़-पौधा... गाय-गोरू सब के प्राण अवग्रह में। जमीन के अन्‍दर रहे वाला सांप उंप उहो कितना चित हो गया था।

वही माघ महीना में लुचरूआ आया था तिल-सन्‍क्रान्ति का चिउरा-दही और कदीमा लेके। ससुर समरगंज से साइकिले खरखराते हुए आया था। उका डरेस था....... देख के तो हमरो कलेजा पर सांप लोट गया था। टटे-टाइट बेल-बटन पर चमाचम हवाई शर्ट......... पैर में कोल्हापुरी चप्‍पल, कमर में चमरौंधा बेल्‍ट और माथा पर कटिनगर जुल्‍फी .... एकदम हीरो जैसा।


उ दिन तो खूबे हंसी-मजाक हुआ.... सब उ लुचबा को चिढ़ाये कि ससुर दरिद्दर....; स्‍वेटर-टोपी बेच के दालमोट खा गया..... !” और उ अकेले सब को हांके हुए..... “मारो भुच्‍चर सब... फैशन का हाल का जाने..... !”


खैर अगला दिन पिलान बना जोगी चौक मीना पिच्‍चर पलेस में सनिमा देखे का। हम भी बड़ी मचल कर महतारी से गुहार किये थे। मगर डांट ही मिला, “खबरदार......... ! ई शीत-लहरी में प्राण गंवाये का कौनो जरूरत नहीं है।” खादी-भण्‍डार वाला मोटका चद्दर का गांती कसते हुए महतारी बोली थी।

खैर जोखन भैय्या, लालटेन सिंघ, चम्‍पई लाल और लुचरू तैय्यार हो कर चले मैटनी शो के लिए। रे बलैय्या के.... बांकी सब तो स्‍वेटर-टोपी और दुशाला ओढ़ के तैय्यार है मगर ई लुचरूआ लुच्‍चा के तरह ही जायेगा का.....? जोखन भैय्या बोले भी कि “अरे स्‍वेटर पहिन लो.... ठंडी मार देगा आने में।”

“जवानी के खून में एतना गर्मी है कि ठन्‍डी की बाप भी कुछो नहीं बिगाड़ेगा !” लुचरूआ चबा-चबा कर बोला था।

समरंगज वाली भौजी फेंकन भाई वाला गलेबन्‍द ला के दी थी, “भैय्या.... कम से कम ई बांध लो.... माथा-कान तो ढका रहेगा....... !

फिर भी लुचरूआ इतरा के बोला था, “रहे दो बहिन। गलेबन्‍द शीतलपुर वाले को ही शोभता है। ई बान्‍धे से तो केश का इस्‍टायले चौपट हो जाएगा।” इतना कहे के साइकिल जोत दिया। उ.......हा..... हा..... हा..... हा..... हा..... गिरि्र्र्र्र्गर्गिर्र.............. गिरि्र्र्र्र्गर्गिर्र........... सांझ गिरते ही हार कंपकंपा देने वाली ठन्‍डी। रह-रह कर दांत किटकिटा जाते थे। सांझे से कुहासा घिरने लगा था। सब जने तो बोरसी (अंगीठी) सेबे हुए थे मगर समरगंज वाली भौजी भीतर-बाहर ... भीतर-बाहर कर रही थी, “ओह....... ! कैसी ठन्‍ड है.... लुचरू ने स्‍वेटर-टोपी भी नहीं लिया है ..... पता नहीं कब आयेगा.....?”

सात बज गया सबको अंदेसा होने लगा .. तभिए साइ‍किल की घंटी खनखनाई। चारो जने आ गये थे। फेकन भाई डपट के पूछे, “अरे! इत्ती देर काहे में लगी थी? कहीं तारी-दारू तो न पीये लगा था रास्ते में?”
जोखन भैय्या बोले, “इ सब अपने दुलरूआ साले से न पूछो।”

“ उ लुचबा है कहां......?”, फेंकन भाई पूछे थे ।
“हई का है.......?” लुचरू को बांह पकर कर आगे करते हुए जोखन भैय्या बोले थे।
“आहि तोरी के.... ई हीरो बाबू तो जोखन भैय्या के चद्दर का गांती बांधे हुए है...... !” हमलोग को अचरज हुआ था।

बाद में लालटेन सिंघ बताया, “सनीमा देख के निकले। बजार के भीड़-भार पार करते कोहरा घिर गया। ई लुचरू बबू चले थे, फुचुक्‍की पैन्‍ट और हवाई शार्ट में........ ठन्‍डी में देह भुलक (सिहर) गया... गिरे धराम से। नीचे अपने और उपर साइकिल। उहां से होश कर के बढ़े तो काली चौरी में फिर धराम भटक्का.... और चारो नाल चित। अब तो बाबू साहेब को उठने का भी होश ना रहा...... उ तो घुरचन साहु का ईख पेराई हो रहा था। हमलोग किसी तरह उठा-पुठा के लाये। घुरचन का बेटा चुल्‍लु भर करूआ तेल मला। आधा घंटा हाथ पैर सेंके। फिर जोखन के चद्दर का गांती बांध के साहेब को साइकिल पर पीछे बैठा के लाये हैं।”
फेंकन भाई बिगड़ कर बोले थे, “मारो साले को। ई शीत लहरी में स्‍वेटर-टोपी छोड़ के जाएगा लुचपनी करने तो दुर्दशा होगी ही न....।”

ओह तो ई कथा हुई थी....... सचे में बेचारा लुचरूआ का घुटना-केहुनी तो छिल ही गया था.... मुंह भी फूल के तुम्‍मा लग रहा था।

खैर तभी तो किसी तरह सेदा-मारी कर के सुलाये मगर अधरतिया से दोसरे तमाशा शुरू। लुचरू भगत को रद्द-दस्‍त जारी..... हाथ-पैर में ऐंठन।

जोखन भैय्य गये अधरतिये में जोगारी मिसिर वैदजी को बुला के लाये। वैदजी नबज टटोले। हथबत्ती जला कर जीभ देखे। चौंक कर कहे, “अरे बाप रे......... जीभ तो एकदम काली स्‍याह हो गई है। ई को तो भयंकर पाला मार दिया है। कहीं बाहर-उहर गया था का.....?”

फिर कथा का रिपीट टेलीकास्‍ट हुआ। जोगारी मिसिर कतरी सुपारी चबा कर बोले, बिस्‍टी पहने के शीत-लहरी से लड़े...... ! ऐसन लुच्‍चा का मौगत(दुर्दशा) माघे महीना में होता है....... फैशन के पाछे कपड़ा खोल के भागेंगे तो माघ की ठंडी तो पटका मारेगा ही..... !” कह के मिसिरजी पुरिया-पत्ती बनाने लगे।

उधर लुचरू बेचारा कराह रहा था और इधर हमलोगों को एगो नया फकरा मिल गया था, “लुच्चा के मौगत माघ महीना.... !” मतलब समय के विपरीत आचरण करने वाले आसान समय में तो निकल जाते हैं किन्‍तु कठिन समय में बुरे फंसते हैं।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

तमसो मा ज्योतिर्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

करण समस्तीपुरी

सारा बाज़ार ऐश्वर्यदात्री लक्ष्मी और सिद्धिदाता गणेश की मूर्तियों से पटा पड़ा था। पूजा के प्रसाधनों की धूम मची थी। स्थाई दूकानों के अलावे सड़क के किनारे और फूट-पाथों पर सामयिक दुकानदार अपने सामानों की बोली लगा रहे थे। एक हाथ से सामन का थैला और दूसरे से अपने अस्त-व्यस्त वस्त्रों को संभाले भीड़ की नज़रों को चीरती हुई वह रेडीमेड कपड़ों की दूकान में जा कर रुकी। भीड़ तो यहाँ भी थी  किन्तु बिजली पंखे की ठंडी हवा में उसे कुछ राहत महसूस हुई।

सेल्स-गर्ल द्वारा दिखाए गए कपड़ों में से बड़े मनोयोग से वह अपनी पसंद की चुन रही थी। तभी, "अरे श्रुति ! तुम?" भीड़ में से उठी एक आवाज़ पर वह चौंक गयी। उसकी अंगुली सामने गुलाबी सूट में खड़ी सांवली सी युवती की ओर उठी थी, "गरिमा ?"

"अच्छा... चलो शुक्र है पहचान तो गयी। लेकिन तुम इस शहर में कैसे ? दीपावाली की खरीदारी कर रही हो... ? कहाँ रहती हो..... ?" गरिमा के प्रश्नों की श्रृंखला जारी ही रहती अगर उसने बीच में टोका नहीं होता, "अरे बाबा ! सब यहीं पूछ लोगी क्या ?"

"अरे नहीं, चल पहले हम कॉफ़ी-शॉप में बैठ कर ढेर सारी बातें करेंगे... फिर शौपिंग। ओके।" कह कर गरिमा ने साधिकार उसे हाथ पकड़ कर उठा ही लिया था।

"वेटर को कॉफ़ी का आर्डर दे कर फिर दोनों सहेलियां मशगूल हो गयी। "सच में, तुम तो बिलकुल नहीं बदली", पहली बार श्रुति बोल पायी थी।

"हाँ ! लेकिन तुम तो एकदम बदल गयी हो। आंटी हो गयी हो आंटी।" श्रुति की बांह पर प्यार से चपत लगा कर गरिमा कहे जा रही थी, "चुप-चाप घर भी बसा लिया... और एक कॉल तक नहीं की?"

बड़ी मुश्किल से गरिमा के सवालों के बीच में श्रुति बोल पायी थी, "अरे ऐसी बात नहीं है। तुम रोहित को जानती थी न.... ?"

गरिमा की भौंहे नाच गयी थी, "हाँ ! लेकिन तू अभी रोहित को क्यूँ याद कर रही है ?"

"रोहित मेरे पति हैं।" श्रुति ने कहा था। सहसा हथेलियों पर टिका गरिमा का चेहरा आगे की ओर सरक गया था।

कब की बिछड़ी हुई दो सहेलियों की बात-चीत का सिलसिला शुरू जो हुआ तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। कॉफ़ी कब आयी और ख़त्म हुई पता भी नहीं चला। अचानक सामने टंगी घड़ी पर श्रुति की नजर गयी तो वह हड़बड़ा कर बोली, "अरे ! चार बजने वाले हैं....अब चलना चाहिए। घर पर बच्चे इंतज़ार करते होंगे।" "घबरा मत मैं छोड़ दूंगी।" गरिमा ने कहा था।

बची-खुची शौपिंग निपटा कर गरिमा श्रुति को छोड़ने अपनी कार में उसके घर तक आयी थी। रोहित उस समय घर पर नहीं थे। उसने थोड़ा इंतिजार भी किया था मगर देर होने पर दीपावाली में अपने घर उन्हें सपरिवार आने का निमंत्रण दे कर वापस चली गयी। पते के लिए अपना विसिटिंग कार्ड छोड़ गयी थी, "डॉ गरिमा प्रधान, एम बी बी एस, १० बी, कस्तूरी लेन, रानीगंज।" श्रुति के सास-ससुर को भी गरिमा से छोटी सी मुलाक़ात बहुत भाई थी। वह थी ऐसी ही। गरिमा के जाने के बाद श्रुति ने अनमने ढंग से गृह-कार्य निपटाया। फिर सास-ससुर और बच्चे को खिला कर हाथ में टीवी का रिमोट लेकर बैठी। उफ़... आज टीवी देखने का भी मन नहीं कर रहा। वह उठ कर अपने कमरे में चली गयी। रोहित अभी तक नहीं आये थे। आज गरिमा के साथ बिताये चन्द घंटे उसे अतीत की गहराइयों में खींचे लिए जा रहे थे।

श्रुति और गरिमा कक्षा में प्रथम-द्वितीय आते थे। अव्वल दर्जे की प्रतिद्वंदिता के बावजूद दोनों एक-दूसरे की सबसे अच्छी सहेली थी। गरिमा होस्टल में रहती थी। लेकिन वह हर हफ्ते श्रुति के रेलवे कोलोनी वाले घर जरूर आती थी। बारहवीं के बाद मेडिकल की पढाई के लिए वह वर्धा चली गयी थी और श्रुति ने पंचवर्षीय एलएलबी पाठ्यक्रम में दाखिला लिया था।

images (14)सतरहवाँ सावन पार करते ही रोहित से उसकी आँखे चार हो गयी थी। वह भी उसी कालोनी में रहता था। सांवला रंग, औसत कद-काठी, इकहरा वदन, न आवाज़ में कोई जादू न चेहरे में कोई कशिश। फिर भी वह उसकी नज़रों के सम्मोहन से नहीं बच पायी। वह आते-जाते उसे अपने क्वार्टर के बाहर वाले कमरे की खिड़की से उसे देखा करता था। पता ही नहीं चला कब यह आँखों की भाषा दिल में उतर कर कागज़ के पन्नो पर दौड़ने लगी थी। कुछ तो हुआ था... उन दिनों उसे कुछ-कुछ होने लगा था। क्लासेस के बीच में दोनों की मुलाकातें भी होने लगी।

कहते हैं कि 'इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपता। छोटी सी रेलवे कालोनी में यह चर्चा आग की तरह फैल रही थी। अचानक एक दिन कालेज से लौटते वक़्त पड़ोस में रहने वाले अंकित भैय्या ने पूछ दिया, "प्यार करती हो ?" सौम्य और शालीन अंकित से श्रुति को ऐसे सवाल की उम्मीद तो कतई न थी। वह डर के मारे कांपने लगी। अंकित ने उसे समझाया था। वह संयत-असंयत के बीच में अपने क्वार्टर में चली गयी थी।

आज-कल माँ उसके हर घड़ी का हिसाब रखना चाहती है। शाम में अब वह बाहर नहीं जाती। कोलेज से आने के बाद घर के कामों में माँ का हाथ बंटाती है। उस दिन अंकित को अपने घर आया देख उसका कलेजा धक् से रह गया था.... ? तो क्या अंकित भैय्या ऐसे निकलेंगे ? उन्होंने तो बड़े प्यार से मुझे भरोसा दिलाया था ? माँ को शायद कुछ-कुछ पता है लेकिन कहीं अंकित ने पापा को....नहीं-नहीं ! अच्छा हुआ पापा अभी नहीं हैं।

वह अन्दर के कमरे से बैठक में चल रहे अंकित और माँ का वार्तालाप सुनने लगी। कुशल क्षेम के बाद अंकित ने कुछ कहा था। माँ घबराकर बोली थी, "नहीं... ! ये कभी नहीं हो सकता। श्रुति के पापा को उससे कितनी उम्मीदें हैं.... ? वह ऐसा नहीं कर सकती। हमें उस पर विश्वास है... !" माँ को बीच में ही रोक कर अंकित ने फिर कुछ कहा था। वाक चतुर अंकित के आगे भोली-भली गृहणी की कहाँ चलने वाली थी। माँ को समझा कर और पिता जी से मिलने की सहमति के बाद अंकित भैय्या चाय पी कर चले गए। अंकित तो चले गए लेकिन श्रुति के मन में छोड़ गए अनेक आशंकाएं एवं प्रश्न।

उस रात माँ ने शायद पिताजी से कुछ कहा था। बिफर पड़े थे पिताजी, "तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया....? नहीं ! अभी तो उसने कालेज जाना शुरू ही किया है। उसे एलएलबी करना है।" धीमी आवाज़ में माँ ने अंकित के सिखाये कुछ तर्क दिए जरूर थे। पता नहीं पिताजी पर उनका कितना असर हुआ मगर पिताजी ने कहा था, "ठीक है। मैं अंकित से मिल लूँगा.... ।" उस रात भी नींद नहीं आयी थी श्रुति को। यह सिलसिला कुछ दिनों तक चलता रहा था।

अंकित की बातों में जादू था। उनके चरित्र में सम्मोहन था। उस रविवार को पिताजी को भी निरुत्तर होना पड़ा था। उस तरफ की जिम्मेदारी रोहित पर ही थी। परिवार अपने एकलौते पुत्र की इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता था। श्रुति के सपनों को तो जैसे पंख लगे जा रहे थे।

बैंड बाजा बारात के साथ रोहित आये थे। पापा खुद उनके पैर धोकर मंडप में लाए थे। वैदिक मंत्र पढकर उत्सर्ग कर दिया था। अग्नि, वेद-वेदी, नक्षत्र भी साक्षी बने थे परिणय बन्धन का। अगले ही दिन उसकी डोली उतरी थी रोहित के आंगन।

उत्सवीय माहौल में नववधु का ज़ोरदार स्वागत किया गया था। ससुरजी ने ख़ुद आरती उतारी थी। ननदों ने भी द्वार छेकाई की नेग में ख़ूब छकाया था। कुछ दिन तो हास-खेल में ही बीते लेकिन वह स्वच्छंदता कहां? ओह ! … यह कैसी मरीचिका थी….? कहीं वह पिंजड़बद्ध तो नहीं हो गई …? हां वह भी सोने के पिंजड़े में बन्द ही तो है। एक मधुरभाषिनी पक्षी की तरह। जहां उसकी हर सुख सुविधा का ख़्याल है, नहीं है तो सिर्फ़ परिन्दे की आज़ादी।

जब तक वह परिवर्तनों को समझे एक और बड़ा परिवर्तन … मातृत्व! बड़ी बहू की ज़िम्मेदारी। एक मां की ज़िम्मेदारी .. धीरे-धीरे श्रुति को भी यह तीस बाइ चालिस का संसार रास आने लगा था। पर आज अपने चिर प्रतिद्वन्द्वी को उन्मुक्त गगन में अठखेलियां करते देख उसकी भी अभिलाषा बलवती हो गई थी। लेकिन वह बन्धन .. स्वामी का बन्धन … सात फेरों का बन्धन … यह तो ढीला नहीं हो सकता …! अचानक उसने पिंजड़े के अन्दर ही अपने पंखों को ज़ोर-ज़ोर से फरफराया …फर्र .. फर्र … फर…. !

अरे वाह …! इन पंखों में तो अभी भी ताक़त है। परिन्दे का हौसला भी जगा …! अब तो हवा से दो-दो हाथ ही हो जाए …!

श्रुति ने रोहित से अपने मन की बात कही थी। रोहित ने उसका भरपूर समर्थन किया था। फिर तो यह रात आंखों में ही कट गई। अगली शाम दोनों जा रहे थे गरिमा के घर। सहसा श्रुति के मुंह से निकल पड़ा ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय!’

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

नवगीत :: कब बजे पायल

नवगीत

कब बजे पायल

हरीश प्रकाश गुप्त

मुट्ठी में दबकर

फूल

हो रहे घायल।

 

हर गली में

घिर गया

रात सा तम,

टूट करके

फिर उनींदी

सो गई सरगम,

 

 

रग-रगों की पीर से

बोझिल हुई अब

उर्म्मियाँ,

चल पड़ीं वापस

थकीं वे

सांध्य की सब

रश्मियाँ,

 

आँसुओँ के साथ

खुशबू

ले उड़े बादल,

लौटकर

संकुल गली में

कब बजे पायल।

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रविवार, 26 दिसंबर 2010

भारतीय काव्यशास्त्र-50 :: भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद

भारतीय काव्यशास्त्र-50

भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में आचार्य भट्टलोल्लट और आचार्य शंकुक के रस संबंधी सिद्धांत क्रमशः उत्पत्तिवाद और अनुमितिवाद पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में आचार्य भट्टनायक द्वारा प्रतिपादित भुक्तिवाद और आचार्य अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद पर चर्चा की जाएगी।

भुक्तिवाद

आचार्य भट्टनायक ने सांख्य-दर्शन के आधार पर रसानुभूति के जिस मार्ग को प्रतिपादित किया उसे भारतीय कावय्शास्त्र में भुक्तिवाद कहा गया। सांख्य दर्शन के अनुसार सुख और दुख अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) के विषय हैं, आत्मा के नहीं। व्यक्ति का चित्त अपने अन्तःकरण से संबंध होने के कारण उसे सुख, दुख आदि की अनुभूति उपाधिगत रूप से होती। उसी प्रकार दर्शक में न रहने वाले रस का वह स्वयं को उसका भोक्ता मानता है। इसीलिए इनके मत को भुक्तिवाद कहा गया है। उनका मत है कि रस की निष्पति न तो अनुकार्य (अनुकरणीय) राम आदि में होती है और न ही अनुकर्त्ता नट (अभिनेता) आदि में। क्योंकि ये दोनों ही तटस्थ और उदासीन होते हैं। अतएव रस की अनुभूति उन्हें नहीं होती है, बल्कि रस की अनुभूति केवल दर्शक को ही होती है। जबकि आचार्य भट्टलोल्ल के मतानुसार से रस की अनुभूति मुख्यरूप से तटस्थ राम आदि में और गौण रूप से तटस्थ नट आदि में होती है। इनके अनुसार दर्शक (सामाजिक) रसानुभूति से अछूता रह जाता है। आचार्य भट्टलोल्लट के उत्पत्तिवाद पर इस प्रकार की आपत्ति या उसमें विसंगति देखने को मिलती है। वहीं आचार्य शंकुक “तटस्थ” नट आदि में रस की अनुमान द्वारा प्रतीति और संस्कारवश (वासना के कारण) सामाजिक अर्थात् दर्शकों द्वारा उसका आस्वादन मानते हैं।

आचार्य भट्टनायक ने अपने सिद्धान्त भुक्तिवाद की स्थापना हेतु शब्दों के अभिधा और लक्षणा शक्ति व्यापारों के अतिरिक्त भावकत्व” और भोजकत्व’ दो और व्यापार मानते हैं। उनका मत है कि नायक-नायिका की प्रेम-कथा का व्यक्ति-विशेष से संबंध होता है। अतएव अभिधा और लक्षणा से निकलने वाला अर्थ शब्द के ‘भावकत्व' शक्ति से परिष्कृत होकर सामाजिक दर्शक या पाठक के लिए “भोजकत्व” शक्ति या व्यापार से उपभोग्य होता है। दूसरे शब्दों में आचार्य भट्टनायक के अनुसार भावकत्व’ शक्ति से काव्यार्थ या रस का साधारणीकरण हो जाता है और भोजकत्व” व्यापार से उसका आस्वादन दर्शकों या पाठकों को होता है।

काव्यप्रकाश में आचार्यभट्टनायक के मत का उल्लेख करते हुए आचार्य मम्मट लिखते हैं-

न ताटस्थ्येन नात्मगतत्वेन रसः प्रतीयते, नोत्पदयते, नाभिव्यज्यते अपितु काव्ये नाट्य चाभिधातो द्वितीयेन विभावादिसाधारणीकरणात्मना भावकत्वव्यापारेण भाव्यमानः स्थायी, सत्त्वोद्रेक-प्रकाशानन्दमयसंविद्विश्रान्तिसतत्त्वेन भोगेन भुज्यते” इति भट्टनायकः।

आचार्य भट्टनायक ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों अर्थात् भट्टलोल्लट तथा शंकुक और समसामयिक आचार्य अभिनवगुप्त तीनों के मतों का ‘न प्रतीति होती है, न उत्पत्ति होती है और न ही अभिव्यक्ति होती है’ कहकर खण्डन एक ही वाक्य में कर डाला है। यहाँ ध्यातव्य है कि आचार्य भट्टनायक ने अपने सिद्धान्त की स्थापना करने के लिए अन्य सिद्धान्तों का खण्डन किया है। इनके मतानुसार रस केवल अनुभूति-स्वरूप है। काव्य अथवा नाटक में अभिधा तथा लक्षणा से भिन्न विभावादि के साधारणीकरण-स्वरूप भावकत्व नामक व्यापार से साधारणीकृत स्थायिभाव सत्त्वोद्रेक से प्रकाश और आनन्दमय अनुभूति की स्थिति के समान संविदविश्रान्तियुक्त(अपना बोध होश की विश्रांति) होने से भोग द्वारा आस्वाद्य होता है, ऐसा मत आचार्य भट्टनायक का है।

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आचार्य भट्टनायक के अनुसार शब्द के अभिधा व्यापार से दर्शक अर्थ समझता है और अपने सम्मुख प्रस्तुत प्रसंगों की विशेष स्थिति का ज्ञान करता है, भावकत्व व्यापार से विभावादि का साधारणीकरण होता है जिससे भावों का पात्रगत-बोध समाप्त हो जाता है तथा दर्शक की मनोवृत्ति या वासना प्रस्तुत विभावादि के कारण निर्वैयक्तिक हो जाती है, अर्थात आलम्बन और उद्दीपन का दर्शक या पाठक की व्यक्तिगत अनुभूति से तादात्म्य होने से उसकी वैयक्तिक भावना समाप्त हो जाती है। इस प्रकार विभावादि का साधारणीकरण होने के कारण दर्शकों या पाठकों में तमस् और रजस् शान्त हो जाता है तथा उनमें सत्त्व का उद्रेक होता है, जिसके कारण वे प्रकाश और आनन्द से युक्त होकर रस की अनुभूति करते हैं। यही भोजकत्व की स्थिति है।

आचार्य भट्टनायक द्वारा प्रतिपादित रसानुभूति का सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण है। ये रस को परब्रह्मानन्द स्वाद के तुल्य मानते हैं-

-अभिधातो द्वितीयेनांशेन भावकत्वव्यापारेण भाव्यमानो रसोSनुभवस्मृत्यादिविलक्षणेन रजस्तमोनुवेध वैचित्र्यबलाद्धृदिविस्तारविकासलक्षणेन सत्त्वोद्रेकः स्वप्रकाशानन्दमयनिज- संविद्विश्रांतिलक्षणेन परब्रह्मास्वादसविधेन भोगेन परं भुज्यते इति। (भट्टनायककृत हृदयदर्पण से)

अभिव्यक्तिवाद

अभिव्यक्तिवाद आचार्य अभिनवगुप्त का मत है। यद्यपि कि इस मत का आगमन आचार्य भट्टनायक के मत ‘भुक्तिवाद’ के साथ हुआ। क्योंकि दोनों ने एक दूसरे के मतों का खण्डन किया है। इससे लगता है कि दोनों समसामयिक थे। लेकिन ‘भुक्तिवाद’ अनुभव-सिद्ध न होने के कारण साहित्य जगत में स्थान नहीं बना पाये। आचार्य अभिनवगुप्त एक दार्शनिक और साहित्य-प्रेमी दोनों ही थे। भारतीय श्रृंखला के अन्तर्गत ऐतिहासिक भाग के अन्तर्गत इनके कृतित्व और व्यक्तित्व की चर्चा की गई है। वहाँ से इनके व्यक्तित्व का अन्दाजा लगाया जा सकता है। इन्होंने ‘अभिव्यक्तिवाद’ आचार्य आनन्दवर्धन के सिद्धान्त ध्वनि को आधार मानकर प्रतिस्थापित की है। वैसे निष्पत्ति के लिए अभिव्यक्ति शब्द इन्होंने आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र से ही लिया है- एवमेते काव्यरसाभिव्यक्तिहेतवः एकोनपञ्चाशद्भावाः प्रत्यवगन्तव्याः एभ्यश्च सामान्यगुणयोगेन रसाः निष्पद्यन्ते।

काव्यशास्त्र की दृष्टि से यह मत अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। इसीलिए काव्यशास्त्र में इसे अधिक महत्त्व दिया गया। यही कारण है कि इस परिचर्चा में इसे अन्त में लिया गया है।

आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार दर्शक या पाठक के अन्तःकरण में स्थित स्थायिभाव ही रसानुभूति का साधन है। क्योंकि मन के संवेग या वासना रति आदि स्थायीभाव संस्कार रूप मे दर्शक या पाठक के अन्दर रहते है। वे ही विभावादि की उपस्थिति में साधारणीकृत होकर सक्रिय होते हैं, जिसके कारण सामजिक या पाठक रस का आस्वादन या अनुभव करता है। नाट्यसूत्र पर ‘अभिनवभारती’ नामक अपनी टीका में रसोत्पत्ति के विवेचन के केन्द्र में सामाजिक या पाठक की रसानुभूति ही है। आचार्य भट्टनायक के शब्द-निहित दो व्यापारों- भावकत्व औपर भोजकत्व को केवल काल्पनिक मानते हुए उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया है।

काव्यप्रकाश में आचार्य अभिनवगुप्त के मत को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया गया है-

लोके प्रमदादिभिः स्थाय्यनुमानेSभ्यासपाटववतां काव्ये नाट्ये च तैरेव कारणत्वादिपरिहारेण विभावनादिव्यापारत्त्वादलौकिकविभादिशब्दव्यावहार्य्यै-र्ममैवैते, शत्रोरेवैते, तटस्थस्यैवैते, न ममैवैते, न शत्रोरेवैते, न तटस्थस्यैवैते, इति सम्बन्धविशेषस्वीकारपरिहारनियमानध्यवसायात् सादारण्येन प्रतीतैरभि- व्यक्तः सामाजिकानां वासनात्मकतया स्थितः स्थायी रत्यादिको नियतप्रमातृगतत्वेन स्थितोSपि साधारणोपायबलात् तत्कालविगलितपरिमित-प्रमातृभाववशोन्मिषितवेद्यान्तरसम्पर्कशून्यापरिमितभावेन प्रमात्रा सकलसहृदय-संवादभाजा साधारण्येन स्वाकार इवाभिन्नोSपि गोचरीकृतश्चर्व्यमाणतैकप्राणः, विभावादिजीवितावधिः, पानकरसन्यायेन चर्व्यमाणः पुर इव परिस्फुरन्, हृदयमिवप्रविशन्, सर्वाङ्गीणमिवालिङ्गन्, अन्त्यसर्वमिव तिरोदधद्, ब्रह्मास्वादमिवानुभावयन्,

अर्थात लोक में प्रमदा आदि से स्थायी भावों के अनुमान में निपुण सहृदयों का, काव्य तथा नाटक में कारणत्व आदि छोड़कर विभावन आदि व्यापार से युक्त होने से विभावादि शब्दों से व्यवहार्य उन्हीं (प्रमदा आदि रूप कारण, कार्य, सहकारियों) से जो ‘ये मेरे ही हैं’ या ‘शत्रु के ही हैं’ या ‘तटस्त के ही हैं’ अथवा ‘ये न मेरे ही हैं’, ‘न शत्रु के ही हैं’ और ‘न तटस्थ के ही हैं’ इस प्रकार के सम्बन्ध-विशेष का स्वीकार या परिहार करने के नियम निश्चित होने के कारण साधारण रूप से प्रतीत होनेवाले विभादि से ही अभिव्यक्त होनेवाला और सामाजिकों में वासना रूप में वर्तमान रति आदि स्थायीभाव नियत प्रमाता में स्थित होने पर भी साधारणोपाय के बल से उसी काल में परिमित प्रमातृभाव के नष्ट हो जाने से वेद्यान्तर के सम्पर्क से शून्य और अपरिमित प्रमातृभाव जिसमें उदित हो गया है, इस प्रकार के सामाजिक के द्वारा समस्त हृदयों के साथ समान रूप से अपनी आत्मा के समान अभिन्न होनेपर भी, आस्वाद का विषय होकर, आस्वादमात्र-स्वरूप, विभावादि की स्थिति पर्यन्त रहनेवाला, पने के रस की तरह आस्वाद्यमान, साक्षात प्रतीत होता हुआ सा, हृदय में प्रतीत होता हुआ सा, समस्त अंगों का आलिंगन करता सा, अन्य सबको तिरोभूत करता हुआ सा, ब्रह्म-साक्षात्कार का अनुभव कराता हुआ सा अलौकिक चमत्कार करनेवाला शृंगार आदि रस होता है।

आचार्य मम्मट ने आचार्य अभिनवगुप्त के उक्त मत के नाट्यसूत्र की टीका अभिनवभारती से यथावत उद्धृत किया है। आचार्य अभिनवगुप्त के उद्धृत उपर्युक्त विचार काफी संश्लिष्ट हैं। ये भोजकत्व को रस का स्वभाव मानते हैं और भावकत्व को भावों की विशेषता। क्योंकि आचार्य भरत के अनुसार काव्यार्थान् भावयन्ति इति भावाः अर्थात काव्य के अर्थों को प्रकट करनेवाले भाव कहलाते हैं। इस आधार पर भावकत्व और भोजकत्व व्यापारों की कल्पना को वे संगत नहीं मानते।

आचार्य अभिनवगुप्त के मत के उद्धरण से निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैँ-

1. ये शब्द के अर्थ-प्रकाशन और साधारणीकरण का कारण व्यंजना का विभावना व्यापार मानते हैं और रस को व्यंग्य।

2. स्थायिभाव व्यंग्य हैं और विभावादि व्यंजक रूप तथा व्यंजक-व्यंग्य सम्बन्ध ही संयोग है।

3. व्यंजना के विभावन व्यापार से विभावों और स्थायिभावों का साधारणीकरण होता है, साधारणीकरण और सामाजिक के अन्तःकरण स्थित वासना का संवाद होता है, अर्थात नायक आदि अनुकार्य के भाव सहृदय या सामाजिक के अन्तःकरण में निहित वासनारूप भावों को जाग्रत करते हैं।

4. उक्त स्थिति में सामाजिक के सुप्त स्थायिभाव निर्वैयक्तिक अभिव्यक्ति पाकर ब्रह्म के आस्वाद के तुल्य आनन्द का आस्वादन कराते हैं।

5. वे ही अलौकिक चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शृंगार आदि रस हैं।

अगले अंक में रस सम्बन्धी आचार्य धनंजय के मत और रस के मनोवैज्ञानिक रूप की चर्चा की जाएगी।

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शनिवार, 25 दिसंबर 2010

फ़ुरसत में .... एक आत्‍मचेतना कलाकार

फ़ुरसत में ....

एक आत्‍मचेतना कलाकार

रघुवीर सहाय

(पुण्य तिथि ३० दिसम्बर)

मनोज कुमार

दिसम्बर का महीना आते हुए साहित्‍य जगत को एक अनमोल रत्‍न दे गया और जाते-जाते उन्‍हें हमसे लेता भी गया। उनके बारे में अज्ञेय जी का कहना था, ‘उनकी भाषा शिखरों की ओर न ताक कर शहर की चौक की ओर उन्‍मुख थी’ और ‘जो चट्टानों पर चढ़ नाटकीय मुद्रा में बैठने का मोह छोड साधारण घरों की सीढि़यों की धूप में बैठकर प्रसन्‍न रहता था’ और जिसका ‘स्‍वस्‍थ भाव कविताओं को एक स्निग्‍ध मर्मस्‍पर्शिता दे देता है जाड़ों के घाम की तरह उसमें तात्‍क्षणिक गरमाई भी और एक उदार खुलापन भी’ ..... उसी महान साहित्‍यकार को याद करते है आज फुरसत में.....!

9 दिसम्‍बर 1929 को लखनऊ में जन्‍मे रघुवीर सहाय अंग्रेजी साहित्‍य से एम.ए. थे। अपने पत्रकारिता जीवन की शुरूआत उन्‍होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाले नवजीवन” से किया। फिर दिल्‍ली आकर प्रतीक” के सहायक संपादक हुए। आकाशवाणी के समाचार विभाग से भी जुड़े। हैदराबाद में कल्‍पना” के संपादक मंडल के सदस्‍य और 1963-67 तक नवभारत टाइम्‍स” के विशेष संवाददाता रहे। 1967-82 तक दिनमान” से समाचार संपादक और प्रधान संपादक के रूप में जुड़े रहे। 82 से 90 तक स्‍वतंत्र लेखन किया। 30 दिसम्‍बर, 1990 को उनका निधन हुआ।

लोग भूल गए हैं” के लिए साहित्‍य अकादमी से सम्‍मानित रघुवीर सहाय के सीढि़यों पर धूप में, आत्‍महत्‍या के विरूद्ध, हंसो हंसो जल्‍दी हंसो, कुछ पते कुछ चिट्ठियां और एक समय था, उनके द्वारा रचित कविता संग्रह है। रास्‍ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे है, उनके कहानी संग्रह हैं तथा दिल्‍ली मेरा परदेश, लिखने के कारण, ऊबे हुए सुखी, वे और नहीं होंगे जो मारे जाएंगे, भंवर लहरें और तरंग, शब्द शक्ति, अर्थात्, उनके निबंध और टिप्‍पणियां है।

“ कितना संपूर्ण होगा वह व्‍यक्ति जो सुन्‍दर को देख सकता है पर कुरूप की उपस्थिति में विचलित नहीं होता। निश्‍चय ही उसका अस्‍वीकार असुन्‍दर से है, कुरूप से नहीं”। -- रघुवीर सहाय

पत्‍नी विमलेश्‍वरी सहाय का कहना है कि सहाय जी नये साहित्‍य के आरंभकर्त्ताओं में रहे हैं। रघुवीर सहाय नई कविता के महत्‍वपूर्ण कवियों में से एक हैं। अज्ञेय के शब्‍दों में कहें तो – रघुवीर सहाय एक आत्‍मचेतना कलाकार हैं, और यह आत्‍मचेतना उनकी आधुनिकता की बुनियाद है। पत्रकारिता की भाषा को सृजनात्‍मक भाषा में बदलने का संघर्ष उनकी कविताओं की सफलता में साफ दिखाई पड़ता है। उनके विज़न में व्‍यापकता और गहराई है। भोंथरे, घिस चुके यथार्थ भी उनकी लेखनी का स्पर्श पाकर प्रकाश की चकाचौंध की तरह हमारी आंखों के सामने प्रस्‍तुत हो जाते हैं।

सहाय जी का मानना था,

“विचारवस्‍तु की कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है। जब हमारी कविता की जड़े यथार्थ में हों।”

कविता की विचारवस्‍तु को समय और समाज के यथार्थ से जोड़ कर प्रस्‍तुत करने के कारण ही उन्‍हें समय के आर-पार देखता हुआ कवि” कहते हैं तभी तो वे कहते हैं –

घड़ी नहीं कहती ‘डिग’ जा अपने पथ से

डिग जाने पर घड़ी नहीं कहती है ‘धिक’

और यह तो वह कभी नहीं कहती है, साथी “ठीक” है

वह कहती है टिक-टिक-टिक-टिक

और टिक-टिक-टिक-टिक

और टिक और टिक

और टिक

और टिक

टिक्‌

दिन यदि चले गए वैभव के तृष्णा के तो नहीं गये साधन सुख के गये हमारे रचना के तो नहीं गए......... -- रघुवीर सहाय

यह टिकने की टेक है। ध्‍वनियों का खेल मात्र नहीं है यह। समय के आर पार देखने के लिए विचारधारात्‍मक दृष्टि की ज़रूरत पड़ती है। रघुवीर सहाय ने उस विद्या को हासिल किया जो हमें मुक्‍त करती है जो अपने समय के शासक-शोषक वर्गों की सही पहचान करा सके। भारतीय जीवन को गहराई से जानने वाले रचनाकार रघुवीर सहाय ने न सिर्फ वर्तमान की सही व्‍याख्‍या की बल्कि भविष्‍य का एक स्‍वप्‍न भी दे गए, जिसे साकार किया जा सके।

सब कुछ लिखा जा चुका है अतीत में

यह आकर मत कहो मुझ से पंडितजनों

एक बात अभी लिखी नहीं गई बाक़ी है

होने को भी बाक़ी लिखी जाए या न जाय

वह तुम जानते हो क्‍या? ....

यह जो समझ है इतिहास की भ्रष्‍ट है

भय अत्‍याचार को शाश्‍वत रखने की

अन्‍यायी भाषा है कि जिसके प्रतिष्ठान में विद्या बंद है

विद्या जो मुक्‍त हमें करती है

वह विद्या लोग जो भूल गए हैं-(भविष्‍य)

उन्‍होंने समय और समाज को काफी गहराई में उतर कर देखा था। उनका कहना था, ‘अगर इंसान और इसांन के बीच एक गैरबराबरी का रिश्‍ता है और उस रिश्‍ते को कोई आदमी मानता है कि ऐसे ही रहना चाहिए, तो वह कोई रचना नहीं कर सकता।’ अधिनायक” कविता में वे कहते हैं-

राष्‍ट्रगीत में भला कौन वह

भारत भाग्य विधाता है

फटा सुथन्‍ना पहले जिसका

गुन हरचरना गाता है ,

कौन कौन है वह जनगण मन

अधिनायक वह महाबली

डरा हुआ मन बेमन जिसका

बाजा रोज बजाता है।

कवि और रचनाकार रघुवीर सहाय को दया, सहानुभूति और करूणा जैसे मानवीय भावों में भी कहीं-न-कहीं असमानता और अभिजात्‍यवादी अहं की गंध महसूस होती थी। अपनी संवेदना उन्‍होंने न सिर्फ कहानियों या गध में बयान किया बल्कि कविताओं में भी प्रस्‍तुत किया। सीढियों पर धूप में” स्‍पष्‍ट रूप से अपनी संवेदना प्रकट करते कविता रची हमने यह देखा”,

हम ही क्‍यों तकलीफ उठाते जाएं

दुख देने वाले दुख दें और हमारे

उस दुख के गौरव की कविताएं गायें

 

यह भी अभिजात तरीक़े की मक्‍कारी

इसमें सब दुख है, केवल यही नहीं है;

... अपमान, अकेलापन, फाका, बीमारी

 

हमको तो अपने हक सब मिलने चाहिए

हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन

‘कम से कम’ वाली बात न हमसे कहिए

दायित्‍व कभी प्रतिकूल नहीं होता। वह एक निरंतर उद्योग है जो मेरा दायित्‍व है। यह जीवन को उन्नत करेगा; अपनी जिजीविषा को किसी तात्‍कालिक तुष्टि को समर्पित कर देने की भूल नहीं करूँगा। -- रघुवीर सहाय

सामाजिक अन्‍याय का प्रतिकार उनकी रचनात्‍मक आंदोलन का उद्देश्‍य था, तभी तो कहते हैं गरीबी और बेकारी, युद्ध और गुलामी लेखक के दुश्‍मन हैं और मनुष्‍य के जानी दुश्‍मन है। उनसे ऐसा ही व्यवहार कीजिए जैसा दुश्‍मन दुश्‍मन के साथ करता है।’ शोषण, दमन और अन्‍याय के खिलाफ विद्रोह उनका तेवर था। लोकतंत्र के मूल्‍यों के अवमूल्‍यन से आहत थे। जातिवाद से जकड़े समाज में जो लोग इसके विरूद्ध आवाज उठाते रहे और उनकी कथनी और करनी में भेद पर मर्माहत सहाय जी लिखते हैं।

... बनिया बनिया रहे

बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे

पर जब कविता लिखे तो आधुनिक

हो जाए। खीसें बा दे जब कहो तब गा दे।

आपातकाल के दौरान हुई ज्‍यादतियों पर भी उन्‍होंने कई कविताएं लिखी। अधिनायकवादी ताकतों के विरूद्ध जनता को एक जुट होने का आवाहन करती उनकी कविता रामदास की हत्‍या होगी”- में लिखा है-

खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर

दोनों हाथ पेट पर रखकर

सधे कदम रख कर आये

लोग सिमटकर आंख गड़ाये

लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्‍या होगी।

रघुवीर सहाय ता उम्र मनुष्‍य और मनुष्‍य के बीच समानता और न्‍याय की लड़ाई लड़ते रहे। तानाशाही के खिलाफ तो वे लड़े ही, साम्प्रदायिक तत्‍वों और उनकी राष्‍ट्रविरोधी हरकतों का भी पर्दाफाश करते रहे। फूट” शीर्षक कविता में वे साम्‍प्रदायिकता के माहौल पर टिप्‍पणी करते हुए कहते हैं, कि दंगों में मारे जाने वाले और बचे हुए के बारे में भी हमारे भीतर एक असमानता का बोध काम कर रहा होता है। असमानता की चेतना सिर्फ यह जानने की कोशिश करती है कि जो मारा गया वह हिंदू था या मुसलमान या सिख, वह ऐसा नहीं सोचने देगी की जो मारा गया एक इंसान था।

हिंदू और सिख में

बंगाली और असमियों में

पिछड़े और अगड़े में

पर इनसे बड़ी फूट

जो मारा जा रहा है और जो बचा हुआ

उन दोनों में है।

उनका मानना था की असमानता की चेतना समाज में बुरी तरह से फैली हुई है। जब तक लोग इस भेदभाव को नहीं पहचानते एक सभ्‍य और लोकतांत्रिक समाज की संरचना संभव नहीं है।

एक बड़े होटल के कमरे में बैठकर

सभी खानसमों में ऐसे मुस्कुराता है

जैसे वह शोषित के प्रति करूणाशील है।

वे नारी को भी समतावादी दृष्टिकोण से देखना पंसद करते थे। हिंदी के अधिकांश रचनाकार नारी को अबला समझकर उनके प्रति दया का भाव प्रदर्शित करते रहे हैं, पर सहाय जी इस दया को सामंती मूल्‍य मानते थे। उनका मानना था कि दया का भाव बराबरी के मूल्‍य पर चोट करता है।

माघवी,

या और भी जो कुछ तुम्‍हारे नाम हों,

तुक एक ही दुख दे सकी थीं

फिर भला ये और सब किसने दिये हैं?

जो मुझे हैं और दुख, वे तुम्‍हें भी तो हैं

यही या नहीं काफी तर्क है कि मुझे दया का पात्र मत समझो।

अज्ञेय जी ने कहा है – सहाय जी की कविता में एक भी पंक्ति ऐसी न मिलेगी जिस पर अप्रेषणीयता, क्ल्ष्टिता या दुरूहता का आरोप लगाया जा सकता हो।

इतने अथवा ऐसे शब्द कहां हैं जिनसे

मैं उन आंखों कानों नाक दांत मुंह को

पाठकवर,

आज आप के सम्मुख रख दूं

जैसे मैंने देखा था उनको कल-परसों।

रघुवीर सहाय की काव्‍यभाषा लगभग बोलचाल की भाषा है पर यह अपने सहजपन में जीवन यथार्थ के उलझाव भरे ताने-बाने के, आम आदमी के कटु अनुभवों को पूरी तल्‍खी में अभिव्‍यक्‍त करने में समर्थ हैं। वे ऐसी काव्‍यभाषा रचने का प्रयास कर रहे थे जो ठीक-ठीक वही अनुभव अभिव्‍यक्‍त कर सके जो अभिप्रेय है।

वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं

जहां सुना नहीं

उनका ग़लत अर्थ लिया और मुझे मारा।

....

इसलिए कहूंगा मैं

मगर मुझे पाने दो

पहले ऐसी बोली

जिसके दो अर्थ न हों

अच्‍छे घर में रोज काम आनेवाले बर्तन में मंजते रहने के कारण जो चमक होती है- जो उन्‍हें आलमारी में सजाने की प्रेरणा न देकर सहज व्‍यवहार में लाने की प्रेरणा देती है- कुछ वैसी ही प्रीतिकर सहज ग्राह्यता उनकी भाषा में है।

पढिए गीता

बनिए सीता

फिर इन सब में लगा पलीता

किसी मूर्ख की हो परिणीता

निज घरबार बसाइए।

होंय कंटीली

आंखें गीली

लकड़ी सीली, तबियत ढीली

घर की सबसे बड़ी पतीली

भर कर भात पसाइये।

रघुवीर सहाय की कविता में समाज की क्रूर विसंगतियों का लेखा-जोखा है। उसकी आलोचना है। उसके प्रति क्षोभ है। वे मानते थे कि वर्तमान को सर्जना का विषय बनाने के लिए जरूरी है कि रचनाकार वर्तमान से मुक्‍त हो। शोषक और शोषित की न सिर्फ उन्‍हें स्‍पष्‍ट पहचान थी बल्कि वे शोषक वर्ग की कलाबाजियां भी नंगा करने का प्रयास करते रहे। समानता और सामाजिक न्‍याय उनके रचनाकर्म का लक्ष्‍य था और नारी के प्रति दृष्टिकोण समता का रहा। सीढियों की धूप की भूमिका में अज्ञेय उन्‍हें कुशल शिल्‍पी” मानते हैं।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

शिवस्वरोदय-23 :: सक्रिय और निष्क्रिय स्वरों में किए कार्यों के परिणाम

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में सक्रिय और निष्क्रिय स्वरों में किए कार्यों के परिणामों चर्चा की गयी थी। वही क्रमशः दिया जा रहा है।

शून्यनाड्या विपर्यस्तं यत्पूर्वं प्रतिपादितम्।

जायते नान्यथा चैव यथा सर्वज्ञभाषितम्।।96।।

अन्वय – शून्यनाड्या विपर्यस्तं यत्पूर्वं प्रतिपादितं (तत्सर्वं भवति) न अन्यथा जायते यथा सर्वज्ञभाषितम्।

भावार्थ – उपर्युक्त श्लोकों में बताए गई विधियों के विपरीत अर्थात सक्रिय स्वर के विपरीत यदि हम निष्क्रिय स्वर में कार्य करते हैं, तो निश्चित रूप से विपरीत और अवांछित परिणाम होते हैं।

English translation – As mentioned in previous verses, if any work is undertaken during the period of breathing side, which is not suitable for the same, the result will be opposite, i.e. desired result is not obtained. This is the established view of wise-men.

व्यवहारे खलोच्चाटे द्वेषिविद्यादिवञ्चके।

कुपितस्वामिचौराद्ये पूर्णस्थाः स्युर्भयङ्कराः।।97।।

अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में ही है, अतएव अन्वय नहीं दिया जा रहा है।

भावार्थ – यदि किसी के सक्रिय स्वर की ओर कोई दुष्ट या धोखेबाज, शत्रु, ठग, नाराज स्वामी अथवा चोर दिखाई पड़ जाय, तो समझना चाहिये कि उसे खतरा है अर्थात वह सुरक्षित नहीं है।

English Translation - If any bad man, cheater, boss or master who is not pleased or thieves appear on the side through which nostril breath is not flowing, that situation is not said to be safe.

दूराध्वनि शुभश्चन्द्रो निर्विघ्नोSभीष्टसिद्धिदः।

प्रवेशकार्यहेतौ च सूर्यनाडीप्रशस्यते।98।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम है।

भावार्थ – लम्बी यात्रा का आरम्भ करते समय फलदायक है और किसी कार्यवश  किसी के घर में प्रवेश करते समय सूर्य स्वर का सक्रिय होना फलप्रद होता है।

English translation – At the time of starting a long journey if breath is flowing  through left nostril, the journey undertaken will be successful in all respect. But if someone is to visit anybody for any work, he should enter his house when breath flows through right nostril for favourable results.

अयोग्ये योग्यता नाड्या योग्यस्थानेप्ययोग्यता।

कार्यानुबन्धनो जीवो यथा रुद्रस्तथाचरेत्।99।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – जिस व्यक्ति को स्वरोदय विज्ञान की जानकारी नहीं है और वह स्वर के विपरीत अपने कार्य करता है, तो वह उस कार्य के बंधन में बँधा रहता है। इस लिए सदा स्वर के अनुकूल कार्य करना चाहिए।

English Translation – A person who is not aware of Swaroday science and he does  the things in opposite breath flow, he develops attachment to the work and its results. It is therefore better to do the work in accordance with the favourable breath flow.

चन्द्रचारे विषहते सूर्यो बलिवशं नयेत्।

सुषुम्नायां भवेन्मोक्ष एको देवस्त्रिधा स्थितः।।100।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में होने के कारण इसका अन्वय नहीं दिया जा रहा है।

भावार्थ - चन्द्र स्वर के प्रवाह काल में विष से दूर रहना चाहिए। सूर्य स्वर के प्रवाह काल में किसी व्यक्ति को नियंत्रित किया जा सकता है। शून्य स्वर अर्थात सुषुम्ना नाड़ी के प्रवाह काल में मोक्ष-कारक कार्य करना चाहिए। इस प्रकार एक ही स्वर तीन अलग-अलग रूपों में काम करता है।

English Translation – We should keep ourselves away from poisonous things during the flow of breath through left nostril. Flow of breath through right nostril is suitable for having control on others. The period of breathing through right nostril is suitable for spiritual practices. Thus the very same breath works in three different ways.

शुभान्यशुभकार्याणि क्रियन्तेSहर्निशं यदा।

तदा कार्यानुरोधेन कार्यं नाडीप्रचालनम्।।101।।

अन्वय – यदा अहर्निशं शुभान्यशुभकार्याणि क्रियन्ते तदा कार्यानुरोधेन नाडीप्रचालनं कार्यम्।

भावार्थ – जब दिन अथवा रात के समय किसी व्यक्ति को शुभ-अशुभ कोई भी कार्य करना हो, तो उसे आवश्यकता के अनुसार अपनी नाडी को बदल लेना चाहिए।

English TranslationWhile doing any auspicious or inauspicious work during the  day or night, a person should change the side of breath according to need.

अगले अंक में इडा नाडी के प्रवाह-काल में किए जाने वाले कार्यों का विवरण दिया जाएगा।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

आँच-49 ‘मवाद’ पद का गुण दोष निरूपण

आँच-49

मवाद पद का गुण दोष निरूपण

हरीश प्रकाश गुप्त

अनामिका जी द्वारा विरचित 'मवाद' कविता पर आँच का अंक 9 दिसम्बर को आया था। उस पर एक पाठक ने 'मवाद' पद को लेकर आपत्ति व्यक्त की थी कि काव्यशास्त्र के अनुसार “ 'मवाद' एक अरुचिकर शब्द है, इस पर समीक्षा में कुछ लिखा जाता तो लगता कि समीक्षा हुई है। .... आदि । उनकी इच्छा थी कि उनकी टिप्पणी पर समीक्षक ही जवाब दे। अतएव सोचा कि क्यों न काव्यशास्त्र को आधार बनाते हुए इस पर एक शास्त्रीय चर्चा ही की जाए। अतएव यह अंक प्रस्तुत है। वैसे, 16 दिसम्बर के लिए यह नियत था लेकिन किन्हीं तकनीकी कारणों से उस दिन पोस्ट नहीं हो पाया।

जहाँ तक काव्यशास्त्र के अध्ययन की बात है, तो मैंने कालेज में काव्यशास्त्र अवश्य नहीं पढ़ा, लेकिन साहित्यिक परिवेश में रहते हुए और हिन्दी साहित्य के आचार्यों के सम्पर्क में रहकर काव्यशास्त्र को जाना है। भारतीय काव्यशास्त्र के रस सम्प्रदाय, अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय, ध्वनि सम्प्रदाय और औचित्य सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्यों द्वारा विरचित काव्यशास्त्र के ग्रंथों को पढ़ा नहीं है, उनका अध्ययन किया है। वामन, भामह, दण्डी, आनन्दवर्द्धन, क्षेमेन्द्र, मम्मट, अप्पय्यदीक्षित, जयदेव, विश्वनाथ आदि आचार्यों की कृतियोँ का गुरुजनों के सान्निध्य में अध्ययन किया है। इसके अतिरिक्त आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा0 नामवर सिंह आदि को भी पढ़ा है। हाँ, पाश्चात्य काव्यशास्त्र पढ़ने का अधिक अवसर अवश्य नहीं मिल पाया। लेकिन कहीं भी ‘अरुचिकर’ पारभाषिक शब्द अथवा अरुचिकर शब्दों की सूची देखने को नहीं मिली।

उपर्युक्त टिप्पणी से पाठक का तात्पर्य काव्यदोष है। अतएव इस अंक में काव्यदोषों पर ही चर्चा की जा रही है। आचार्य मम्मट और विश्वनाथ ने अपने ग्रंथों - क्रमश: काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण में काफी विस्तार से प्रकाश डाला है। अतएव प्रस्तुत चर्चा के लिए इन्हीं ग्रंथों को आधार बनाया जा रहा है।

इन ग्रंथों में रस में अपकर्ष लाने वाले कारकों को ही दोष माना गया है। आचार्य मम्मट और आचार्य विश्वनाथ, लगभग दोनों, काव्यदोष की इस परिभाषा से सहमत हैं। आचार्य क्षेमेन्द्र ने अनौचित्य को रसभंग का सबसे अहम कारण माना है - ‘अनौचित्यादृते नान्यत् रसगतस्य कारणम्’। कुछ इसी प्रकार का विचार ध्वन्यालोककार आचार्य आनन्दवर्धन का भी है।

भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य-दोषों के छ: भेद किए गए हैं:-

पद दोष, पदांश दोष, समास दोष, वाक्य दोष, अर्थ दोष और रस दोष।

निम्नलिखित तेरह दोष, पद, समास और वाक्य तीनों में पाए जाते हैं।

1- दु:श्रवत्व या श्रुतिकटुत्व

2- अश्लीलत्व

3- अनुचितार्थत्व

4- अप्रयुक्तत्व

5- ग्राम्य

6- अप्रतीत्व

7- संदिग्धत्व

8- नेयार्थत्व

9- निहतार्थत्व

10- अवाचकत्व

11- च्युतसंस्कारत्व

12- असमर्थत्व

13- निरर्थकत्व

उक्त दोषों के अतिरिक्त आचार्य मम्मट तीन दोषों - क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता को केवल समास-दोष मानते हैं। निरर्थकत्व, असमर्थत्व और च्युतसंस्कारत्व - तीन दोष केवल पदगत दोष माने गये हैं। इनमें से अधिकांश दोष पदांश दोष के अन्तर्गत भी आते हैं।

उक्त दोषों के अतिरिक्त आचार्य मम्मट ने 21 वाक्य दोष बताए हैं, जबकि आचार्य विश्वनाथ ने इनकी संख्या 23 बताई है। अर्थ-दोषों की संख्या दोनों ही आचार्यों ने तेईस बताई है। रस-दोषों की संख्या तेरह है।

सर्वप्रथम दु:श्रवत्व या श्रुतिकटुत्व दोष लेते हैं। चवर्ग, टवर्ग, रेफ आदि वर्णों की श्रुति-कटु वर्ण माना गया है। शृंगार आदि के वर्णन में इन वर्णों से युक्त-प्रयुक्त पदों (शब्दों) के कारण यह दोष आता है। जबकि रौद्र और भयानक रसों में गुणाधायक अर्थात् उत्कर्षकारक माना गया हैं।

अश्लीलत्व दोष तीन प्रकार के होते हैं - ब्रीडा (लज्जा), जुगुप्सा (घृणा) और अमंगल। ब्रीडा दोष वहाँ माना जाता है जहाँ गुप्तांगों को व्यंजित करने वाले पदो का प्रयोग कि गया हो। 'अपान वायु' आदि के व्यंजक पदों का प्रयोग जुगुप्सा के अन्तर्गत गृहीत होता है। अमंगल दोष अमंगल वाची पदों के प्रयोग के कारण पाया जाता है। इसके लिए संस्कृत का एक उदाहरण द्रष्टव्य है -

'प्रससार शनैर्वायुर्विनाशे तन्वि ते तदा।'

अर्थात् हे तन्वि, तुम्हारे विनाश (अदर्शन = चले जाने) के समय वायु धीरे से निकली।

यहाँ 'वायु' पद अपानवायु के लिए प्रयुक्त होने के कारण जुगुप्सा दोष कारक हो गया है और चले जाने के अर्थ में प्रयुक्त 'विनाश' पद कविता को अमंगल-दोष से दूषित करता है।

अनुचितार्थ दोष वहाँ होता है जहाँ प्रयुक्त पद उद्दिष्ट अर्थ से इतर अर्थ दे। जैसे युद्ध रूपी यज्ञ में पशुभूत वीर लोग अमरत्व प्राप्त करते हैं। यहाँ द्रष्टव्य है कि यज्ञ में पशुबलि के समय पशुओं में कातरता देखने को मिलती है, जबकि वीर युद्ध में साहस, धैर्य और शौर्य का परिचय देते हैं। अतएव यहाँ पशु शब्द प्रयोग से अनुचितार्थत्व दोष है।

कुछ पद ऐसे होते हैं जो व्याकरण कोष आदि की दृष्टि से तो उचित होते हैं किन्तु कवि वर्ग उनका प्रयोग नहीं करता। ऐसे पदों का काव्य में प्रयोग अप्रयुक्तत्व दोष कहलाता है। जैसे, व्याकरण और कोषादि के अनुसार 'पद्म' शब्द संस्कृत में पुल्लिंग और नपुंसक लिंग, दोनों में प्रयुक्त होता है, किन्तु संस्कृत में कवियों ने इसे नपुंसक लिंग में ही प्रयोग किया है। अतएव यदि इसका पुल्लिंग में प्रयोग करते हैं तो उसे अप्रयुक्तत्व दोष कहेंगे। वैसे, हिन्दी साहित्य के सदंर्भ में यह प्रासंगिक नहीं लगता।

संस्कृत में ‘श्रोणि’, ‘नितम्ब’ आदि पद नागर कहलाते हैं, जबकि 'कटि' शब्द को ग्राम्य माना गया है। ऐसे पदों के प्रयोग से काव्य में ग्राम्य दोष माना जाता है। वैसे, आज के संदर्भ में हिन्दी साहित्य में ग्राम्य दोष की भी सार्थकता नहीं है।

कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो शास्त्र विशेष में सामान्य अर्थ में प्रयुक्त न होकर विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। लेकिन यदि काव्यादि में भी उसी अर्थ में प्रयोग किया जाता है तो वे वहाँ अप्रतीतत्व दोष से दूषित कर देते हैं। जैसे - अशुभ कर्मों से उत्पन्न वासना नामक संस्कार के लिए योगशास्त्र में 'आशय' शब्द प्रयोग किया गया है। यदि उसी संस्कार का संकेत करने के लिए काव्य में उक्त शब्द का प्रयोग करते हैं तो अभीष्ट अर्थ की प्रतीति में बाधा पड़ेगी, अतएव वहाँ अप्रतीतत्व दोष होगा।

जहाँ कार्य में प्रयुक्त पद अर्थग्रहण में सन्देह पैदा करे, वहाँ संदिग्धत्व दोष होता है। ‘बकार’ और ‘वकार’ की अभिन्नता इस संदेह का कारण है। जैसे - बंदी और वंदी शब्दों में 'बंदी' कैदी के अर्थ में प्रसिद्ध है और 'वंदी' चारण आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः यदि ऐसे प्रयोग होते हैं तो वहाँ संदिग्धत्व दोष होगा।

नेयार्थ दोष वहाँ होता है जहाँ लक्षणा के दो कारणों - रूढ़ि और प्रयोजन के बिना लाक्षणिक शब्द का प्रयोग किया गया हो। जैसे - हे सुन्दरी, तुम्हारे मुख ने कमल को लात मारी, जिससे वह सुन्दर हो गया।

यहाँ मुख द्वारा लात मारने में लक्षणा के दोनों कारणों का अभाव है, क्योंकि मुख के पास लात (पैर) नहीं है। अतएव यहाँ नेयार्थ दोष है।

प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध दोनों अर्थों के वाचक शब्द का अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग निहतार्थत्व दोष कहलाता है। जैसे 'शम्बर' शब्द जल का भी पर्याय है, लेकिन इसका प्रयोग शम्बर नामक असुर के लिए होता है। अतएव जल के अर्थ में इसका प्रयोग निहतार्थ दोष के रूप में लिया जाएगा। इसी प्रकार 'शोणित' शब्द का लाल रंग के अर्थ में प्रयोग भी निहतार्थ दोष ही होगा।

अप्रयुक्तत्व दोष एकार्थक शब्द में होता है, जबकि निहतार्थत्व अनेकार्थक शब्द में।

यदि कोई शब्द ऐसे अर्थ में प्रयोग किया जाए जिसका वह वाचक न हो, तो वहाँ अवाचकत्व दोष होता है। जैसे सूर्य के प्रकाश से युक्त अवधि को ही 'दिन' कहा जाता है। यदि किसी अन्य प्रकाशयुक्त समय को दिन कहा जाये, तो वहाँ अवाचकत्व दोष होगा।

जहाँ पदों को इस प्रकार प्रयोग किया जाये कि अर्थ की प्रतीति में व्यवधान उत्पन्न हो तो वहाँ क्लिष्टत्व दोष माना जाता है। जैसे:-

'हे हर हार अहार सुत विनय करउँ कर जोरि' में 'पवनसुत' के लिए हर (शिव) के हार (सर्प) के आहार (पवन) सुत अर्थ की प्रतीति में बाधा उत्पन्न हो रही है। अतएव यहाँ क्लिष्टत्व दोष है।

सूरदास जी ने अपने पदों में इसका यत्र-तत्र प्रयोग किया है:-

' मघ पंचक लै गयो साँवरो

..... ..... ......

मंदिर अरध अवधि बदि हमसो हरि अहार चलि जात

..... ..... ......

नखत वेद गुह जोरि अर्ध करि सोइ बनत अब खात '

यहाँ 'मघ पंचक' मघा नक्षत्र से पाँचवाँ नक्षत्र चित्रा है जिसका अर्थ मन, मंदिर अरध अवधि, घर का आधा हिस्सा पाख या पक्ष कहलाता है जिसका अर्थ एक पक्ष अर्थात 15 दिन, 'हरि अहार', अर्थात सिंह का आहार मांस का अर्थ मास अर्थात एक महीना और 'नखत वेद ग्रह जोरि अर्ध करि' सत्ताइस नक्षत्र, चार वेद और नौ ग्रह को जोड़ने पर चालीस होता है और उसका आधा बीस से विष का अर्थ लिया गया है।

अविमृष्टविधेयांश दोष सामान्यतया समास के कारण आते हैं क्योंकि किसी समास में पूर्व पद प्रधान होता है, किसी में उत्तर पद प्रधान होता है, तो किसी में अन्य पद। यदि समास के कारण विधेय की प्रधानता अप्रधान हो जाये तो उसे अविमृष्टविधेयांश दोष कहेंगे।

व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध पद का प्रयोग च्युतसंस्कार दोष कहलाता है। जैसे:- पूज्यनीय, दैन्यता आदि। क्योंकि पूज्य या पूजनीय दानों का एक ही अर्थ है - पूजा करने योग्य, अतएव एक ही अर्थ के लिए दो भिन्न प्रत्ययों का एक साथ प्रयोग गलत है। वैसे ही 'दीन' शब्द से व्यतुपन्न भाववाचक संज्ञा दैन्य और दीनता हैं। दैन्य के साथ पुन: 'ता' भाववाचक प्रत्यय का प्रयोग भी च्युतसंस्कारत्व दोष के अन्तर्गत आएगा।

असमर्थत्व दोष वहाँ होता है जहाँ पद को ऐसे अर्थ में प्रयोग किया गया हो जिसे बताने की शक्ति शब्द में न हो।

जहाँ मात्र पाद (चरण) पूर्ति (छंदों में) के लिए ही, थी आदि शब्दों का प्रयोग किया जाये, वहाँ निरर्थकत्व दोष होता है।

विरुद्धमतिकारिता दोष एक समासगत दोष है। जैसे भवानीपति या रघुनन्दनवल्लभा-पति आदि इस दोष के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि भवानी का अर्थ भव (शिव) की पत्नी अर्थात् पार्वती, पुन: उनके पति - भवानीपति कहने से यह पार्वती के किसी दूसरे पति की प्रतीति कराता है। अतएव यहाँ विरुद्ध मति उत्पन्न होने के कारण विरुद्धमतिकारिता दोष होगा।

इसी ब्लाग पर आचार्य परशुराम राय द्वारा विरचित भारतीय काव्यशास्त्र की शृंखला चल रही है और यह विषय वहाँ चर्चा में आने वाला है, अतएव अन्य दोषों का यहाँ स्पर्श नहीं किया जा रहा है। काव्य दोषों का क्रम आने पर वे पूर्णरूपेण इनका विवेचन करेंगे। यहाँ केवल पद दोषों को ही, प्रसंगवश, लिया गया है। उक्त विवरण के परिप्रेक्ष्य में यदि हम देखें तो अश्लीलत्व दोष के दूसरे उपभेद जुगुप्सा (घृणा) व्यंजक पद के रूप में अनामिका जी की रचना में प्रयुक्त पद 'मवाद' को लिया जा सकता है। लेकिन उक्त रचना में 'मवाद' गुणकारी है क्योंकि रिश्ते रूपी नागफणी के काटों से बने व्रण से मवाद का निकलना सार्थक है। यह पद किसी भी रूप में भाव का अपकर्षक नहीं है, बल्कि उसमें भावोत्कर्ष देखने को मिलता है।

वीभत्स रस का स्थायिभाव जुगुप्सा ही है। अतएव वीभत्स रस में तथाकथित अरुचिकर एवं घृणा व्यंजक पदों का प्रयोग अनिवार्य भी है। वीभत्स रस के लिए हिन्दी की एक सवैया उदाहरण रूप में नीचे दी जा रही है जिसमें तथाकथित रूप से अरुचिकर शब्द दिखते हैं लेकिन इनके प्रयोग के बिना इतना स्वाभाविक चित्रण संभव नहीं होता। देखें -

सिर पै बैठो काग आँखि दोउ खात निकारत।

खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनँद उर धारत॥

गिद्ध जाँघ कहँ खोदि-खोदि के माँस उचारत।

स्वान आँगुरिन काटि-काटि के खान विचारत॥

बहु चील नोचि ले जात तुच, मोद मढ़्यो सबको हियो।

जनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ, आजु भिखारिन कहँ दियो॥

इसी प्रकार के प्रयोग कुछ अन्य कवियों द्वारा भी किए गए हैं। उदाहरण देखें -

हम गोरु तुम गुआर गुसाईं जनम-जनम रखवारे।

कबहुँ न पार उतरि चढ़ाएहु कैसे खसम हमारे।।

*** *** *** *** ***

कहै कबीर सुनौ रे सन्तौ मेरी - मेरी झूठी

चिरकुट फाड़ि चुहाड़ा लै गयो तनी तागरी छूटी।। - कबीर दास

अन्दर बाहर धींगामुश्ती, परमारथ में भारी सुस्ती

स्वारथ में तो बेहद चुस्ती, एक दूसरे की जड़ काटें

तकरीरों से अग जग पाटें, अंग्रेजी की धकापेल है

हिंदी उर्दू खतम खेल है ......... - नागार्जुन

माँ बहनों की इज्जत लूटी जिन लोगों ने

उनकी जय हो।

खून बहाया जिन लोगों मासूमों का, जिन लोगों ने

उनकी जय हो।

दाँत गड़ाने को जो व्याकुल, उन कुत्तों की

जय हो। - अरुण कमल (‘सबूत’ से)

! बे! अबे! सुन बे गुलाब! - महाकवि निराला (कुकुरमुत्ता से)

नागार्जुन की कविताओं के बारे में डॉ नगेन्द्र की उक्ति द्रष्टव्य है –

कविता में उनकी मार्क्स वादी चेतना, उनका तीक्ष्ण व्यंग्य और उनकी भदेश परिहास प्रियता अक्षुण्ण बनी रही। उनके जैसी तीक्ष्ण व्यंग्यात्मकता शायद ही किसी प्रगतिवादी कवि में हो

इसी प्रकार धूमिल की ‘मोचीराम’ कविता में अनेक अश्लील शब्दों का प्रयोग मिलता है। इसके बावजूद इस कविता के बारे में प्रख्यात समालोचक डॉ बच्चन सिंह लिखते हैं -

‘……………. धूमिल के मोचीराम का जिक्र किए बिना धूमिल प्रकरण अधूरा रहेगा ...... यह उनकी सर्वोत्तम रचना है निहायत संयमित और निहायत प्रभावशाली - जटिल व्यापारों और बिम्बों से गुँथी हुई ……………..

इसी कविता की एक पंक्ति देखिए –

..................................

या रंडियों की दलाली करके

रोजी कमाने में कोई फर्क नहीं है।

धूमिल की कविताओं में औरत के प्रति उनका रुख और उसके संदर्भ में प्रयुक्त बिम्ब विकृत हो चले हैं। इसके बावजूद वे प्रगतिशील चेतना के स्थापित कवि हैं और उनकी कविताओं को नकारा नहीं गया है।

उक्त संदर्भों को देखकर नहीं लगता कि अनामिका जी की रचना मवाद में प्रयुक्त मवाद पद काव्यशास्त्र की दृष्टि से या आज के संदर्भ में अन्यथा रूप से किसी भी प्रकार से अरुचिकर है या फिर अशोभनीय।

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