फ़ुरसत में ....
एक आत्मचेतना कलाकार
रघुवीर सहाय
(पुण्य तिथि ३० दिसम्बर)
मनोज कुमार
दिसम्बर का महीना आते हुए साहित्य जगत को एक अनमोल रत्न दे गया और जाते-जाते उन्हें हमसे लेता भी गया। उनके बारे में अज्ञेय जी का कहना था, ‘उनकी भाषा शिखरों की ओर न ताक कर शहर की चौक की ओर उन्मुख थी’ और ‘जो चट्टानों पर चढ़ नाटकीय मुद्रा में बैठने का मोह छोड साधारण घरों की सीढि़यों की धूप में बैठकर प्रसन्न रहता था’ और जिसका ‘स्वस्थ भाव कविताओं को एक स्निग्ध मर्मस्पर्शिता दे देता है जाड़ों के घाम की तरह उसमें तात्क्षणिक गरमाई भी और एक उदार खुलापन भी’ ..... उसी महान साहित्यकार को याद करते है आज फुरसत में.....!
9 दिसम्बर 1929 को लखनऊ में जन्मे रघुवीर सहाय अंग्रेजी साहित्य से एम.ए. थे। अपने पत्रकारिता जीवन की शुरूआत उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाले “नवजीवन” से किया। फिर दिल्ली आकर “प्रतीक” के सहायक संपादक हुए। आकाशवाणी के समाचार विभाग से भी जुड़े। हैदराबाद में “कल्पना” के संपादक मंडल के सदस्य और 1963-67 तक “नवभारत टाइम्स” के विशेष संवाददाता रहे। 1967-82 तक “दिनमान” से समाचार संपादक और प्रधान संपादक के रूप में जुड़े रहे। 82 से 90 तक स्वतंत्र लेखन किया। 30 दिसम्बर, 1990 को उनका निधन हुआ।
“लोग भूल गए हैं” के लिए साहित्य अकादमी से सम्मानित रघुवीर सहाय के सीढि़यों पर धूप में, आत्महत्या के विरूद्ध, हंसो हंसो जल्दी हंसो, कुछ पते कुछ चिट्ठियां और एक समय था, उनके द्वारा रचित कविता संग्रह है। रास्ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे है, उनके कहानी संग्रह हैं तथा दिल्ली मेरा परदेश, लिखने के कारण, ऊबे हुए सुखी, वे और नहीं होंगे जो मारे जाएंगे, भंवर लहरें और तरंग, शब्द शक्ति, अर्थात्, उनके निबंध और टिप्पणियां है।
“ कितना संपूर्ण होगा वह व्यक्ति जो सुन्दर को देख सकता है पर कुरूप की उपस्थिति में विचलित नहीं होता। निश्चय ही उसका अस्वीकार असुन्दर से है, कुरूप से नहीं”। -- रघुवीर सहाय
पत्नी विमलेश्वरी सहाय का कहना है कि सहाय जी नये साहित्य के आरंभकर्त्ताओं में रहे हैं। रघुवीर सहाय नई कविता के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। अज्ञेय के शब्दों में कहें तो – रघुवीर सहाय एक आत्मचेतना कलाकार हैं, और यह आत्मचेतना उनकी आधुनिकता की बुनियाद है। पत्रकारिता की भाषा को सृजनात्मक भाषा में बदलने का संघर्ष उनकी कविताओं की सफलता में साफ दिखाई पड़ता है। उनके विज़न में व्यापकता और गहराई है। भोंथरे, घिस चुके यथार्थ भी उनकी लेखनी का स्पर्श पाकर प्रकाश की चकाचौंध की तरह हमारी आंखों के सामने प्रस्तुत हो जाते हैं।
सहाय जी का मानना था,
“विचारवस्तु की कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है। जब हमारी कविता की जड़े यथार्थ में हों।”
कविता की विचारवस्तु को समय और समाज के यथार्थ से जोड़ कर प्रस्तुत करने के कारण ही उन्हें “समय के आर-पार देखता हुआ कवि” कहते हैं तभी तो वे कहते हैं –
घड़ी नहीं कहती ‘डिग’ जा अपने पथ से
डिग जाने पर घड़ी नहीं कहती है ‘धिक’
और यह तो वह कभी नहीं कहती है, साथी “ठीक” है
वह कहती है टिक-टिक-टिक-टिक
और टिक-टिक-टिक-टिक
और टिक और टिक
और टिक
और टिक
टिक्
दिन यदि चले गए वैभव के तृष्णा के तो नहीं गये साधन सुख के गये हमारे रचना के तो नहीं गए......... -- रघुवीर सहाय
यह टिकने की टेक है। ध्वनियों का खेल मात्र नहीं है यह। समय के आर पार देखने के लिए विचारधारात्मक दृष्टि की ज़रूरत पड़ती है। रघुवीर सहाय ने उस विद्या को हासिल किया जो हमें मुक्त करती है जो अपने समय के शासक-शोषक वर्गों की सही पहचान करा सके। भारतीय जीवन को गहराई से जानने वाले रचनाकार रघुवीर सहाय ने न सिर्फ वर्तमान की सही व्याख्या की बल्कि भविष्य का एक स्वप्न भी दे गए, जिसे साकार किया जा सके।
सब कुछ लिखा जा चुका है अतीत में
यह आकर मत कहो मुझ से पंडितजनों
एक बात अभी लिखी नहीं गई बाक़ी है
होने को भी बाक़ी लिखी जाए या न जाय
वह तुम जानते हो क्या? ....
यह जो समझ है इतिहास की भ्रष्ट है
भय अत्याचार को शाश्वत रखने की
अन्यायी भाषा है कि जिसके प्रतिष्ठान में विद्या बंद है
विद्या जो मुक्त हमें करती है
वह विद्या लोग जो भूल गए हैं-(भविष्य)
उन्होंने समय और समाज को काफी गहराई में उतर कर देखा था। उनका कहना था, ‘अगर इंसान और इसांन के बीच एक गैरबराबरी का रिश्ता है और उस रिश्ते को कोई आदमी मानता है कि ऐसे ही रहना चाहिए, तो वह कोई रचना नहीं कर सकता।’ “अधिनायक” कविता में वे कहते हैं-
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत भाग्य विधाता है
फटा सुथन्ना पहले जिसका
गुन हरचरना गाता है ,
कौन कौन है वह जनगण मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
कवि और रचनाकार रघुवीर सहाय को दया, सहानुभूति और करूणा जैसे मानवीय भावों में भी कहीं-न-कहीं असमानता और अभिजात्यवादी अहं की गंध महसूस होती थी। अपनी संवेदना उन्होंने न सिर्फ कहानियों या गध में बयान किया बल्कि कविताओं में भी प्रस्तुत किया। “सीढियों पर धूप में” स्पष्ट रूप से अपनी संवेदना प्रकट करते कविता रची “हमने यह देखा”,
हम ही क्यों तकलीफ उठाते जाएं
दुख देने वाले दुख दें और हमारे
उस दुख के गौरव की कविताएं गायें
यह भी अभिजात तरीक़े की मक्कारी
इसमें सब दुख है, केवल यही नहीं है;
... अपमान, अकेलापन, फाका, बीमारी
हमको तो अपने हक सब मिलने चाहिए
हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन
‘कम से कम’ वाली बात न हमसे कहिए
दायित्व कभी प्रतिकूल नहीं होता। वह एक निरंतर उद्योग है जो मेरा दायित्व है। यह जीवन को उन्नत करेगा; अपनी जिजीविषा को किसी तात्कालिक तुष्टि को समर्पित कर देने की भूल नहीं करूँगा। -- रघुवीर सहाय
सामाजिक अन्याय का प्रतिकार उनकी रचनात्मक आंदोलन का उद्देश्य था, तभी तो कहते हैं “गरीबी और बेकारी, युद्ध और गुलामी लेखक के दुश्मन हैं और मनुष्य के जानी दुश्मन है। उनसे ऐसा ही व्यवहार कीजिए जैसा दुश्मन दुश्मन के साथ करता है।’ शोषण, दमन और अन्याय के खिलाफ विद्रोह उनका तेवर था। लोकतंत्र के मूल्यों के अवमूल्यन से आहत थे। जातिवाद से जकड़े समाज में जो लोग इसके विरूद्ध आवाज उठाते रहे और उनकी कथनी और करनी में भेद पर मर्माहत सहाय जी लिखते हैं।
... बनिया बनिया रहे
बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे
पर जब कविता लिखे तो आधुनिक
हो जाए। खीसें बा दे जब कहो तब गा दे।
आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों पर भी उन्होंने कई कविताएं लिखी। अधिनायकवादी ताकतों के विरूद्ध जनता को एक जुट होने का आवाहन करती उनकी कविता “रामदास की हत्या होगी”- में लिखा है-
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रखकर
सधे कदम रख कर आये
लोग सिमटकर आंख गड़ाये
लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी।
रघुवीर सहाय ता उम्र मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और न्याय की लड़ाई लड़ते रहे। तानाशाही के खिलाफ तो वे लड़े ही, साम्प्रदायिक तत्वों और उनकी राष्ट्रविरोधी हरकतों का भी पर्दाफाश करते रहे। “फूट” शीर्षक कविता में वे साम्प्रदायिकता के माहौल पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, कि दंगों में मारे जाने वाले और बचे हुए के बारे में भी हमारे भीतर एक असमानता का बोध काम कर रहा होता है। असमानता की चेतना सिर्फ यह जानने की कोशिश करती है कि जो मारा गया वह हिंदू था या मुसलमान या सिख, वह ऐसा नहीं सोचने देगी की जो मारा गया एक इंसान था।
हिंदू और सिख में
बंगाली और असमियों में
पिछड़े और अगड़े में
पर इनसे बड़ी फूट
जो मारा जा रहा है और जो बचा हुआ
उन दोनों में है।
उनका मानना था की असमानता की चेतना समाज में बुरी तरह से फैली हुई है। जब तक लोग इस भेदभाव को नहीं पहचानते एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की संरचना संभव नहीं है।
एक बड़े होटल के कमरे में बैठकर
सभी खानसमों में ऐसे मुस्कुराता है
जैसे वह शोषित के प्रति करूणाशील है।
वे नारी को भी समतावादी दृष्टिकोण से देखना पंसद करते थे। हिंदी के अधिकांश रचनाकार नारी को अबला समझकर उनके प्रति दया का भाव प्रदर्शित करते रहे हैं, पर सहाय जी इस दया को सामंती मूल्य मानते थे। उनका मानना था कि दया का भाव बराबरी के मूल्य पर चोट करता है।
माघवी,
या और भी जो कुछ तुम्हारे नाम हों,
तुक एक ही दुख दे सकी थीं
फिर भला ये और सब किसने दिये हैं?
जो मुझे हैं और दुख, वे तुम्हें भी तो हैं
यही या नहीं काफी तर्क है कि मुझे दया का पात्र मत समझो।
अज्ञेय जी ने कहा है – सहाय जी की कविता में एक भी पंक्ति ऐसी न मिलेगी जिस पर अप्रेषणीयता, क्ल्ष्टिता या दुरूहता का आरोप लगाया जा सकता हो।
इतने अथवा ऐसे शब्द कहां हैं जिनसे
मैं उन आंखों कानों नाक दांत मुंह को
पाठकवर,
आज आप के सम्मुख रख दूं
जैसे मैंने देखा था उनको कल-परसों।
रघुवीर सहाय की काव्यभाषा लगभग बोलचाल की भाषा है पर यह अपने सहजपन में जीवन यथार्थ के उलझाव भरे ताने-बाने के, आम आदमी के कटु अनुभवों को पूरी तल्खी में अभिव्यक्त करने में समर्थ हैं। वे ऐसी काव्यभाषा रचने का प्रयास कर रहे थे जो ठीक-ठीक वही अनुभव अभिव्यक्त कर सके जो अभिप्रेय है।
वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं
जहां सुना नहीं
उनका ग़लत अर्थ लिया और मुझे मारा।
....
इसलिए कहूंगा मैं
मगर मुझे पाने दो
पहले ऐसी बोली
जिसके दो अर्थ न हों
अच्छे घर में रोज काम आनेवाले बर्तन में मंजते रहने के कारण जो चमक होती है- जो उन्हें आलमारी में सजाने की प्रेरणा न देकर सहज व्यवहार में लाने की प्रेरणा देती है- कुछ वैसी ही प्रीतिकर सहज ग्राह्यता उनकी भाषा में है।
पढिए गीता
बनिए सीता
फिर इन सब में लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घरबार बसाइए।
होंय कंटीली
आंखें गीली
लकड़ी सीली, तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भर कर भात पसाइये।
रघुवीर सहाय की कविता में समाज की क्रूर विसंगतियों का लेखा-जोखा है। उसकी आलोचना है। उसके प्रति क्षोभ है। वे मानते थे कि वर्तमान को सर्जना का विषय बनाने के लिए जरूरी है कि रचनाकार वर्तमान से मुक्त हो। शोषक और शोषित की न सिर्फ उन्हें स्पष्ट पहचान थी बल्कि वे शोषक वर्ग की कलाबाजियां भी नंगा करने का प्रयास करते रहे। समानता और सामाजिक न्याय उनके रचनाकर्म का लक्ष्य था और नारी के प्रति दृष्टिकोण समता का रहा। सीढियों की धूप की भूमिका में अज्ञेय उन्हें “कुशल शिल्पी” मानते हैं।