शनिवार, 6 सितंबर 2025

336. कराची कांग्रेस

राष्ट्रीय आन्दोलन

336. कराची कांग्रेस


1931

गांधी-इरविन समझौते को मंजूरी देने के लिए 29 मार्च, 1931 को कराची में कांग्रेस की 45वीं बैठक हुई। 23 मार्च को महान देशभक्त भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। हालांकि गांधीजी ने इन्हें बचाने के लिए पूरी कोशिश की थी, फिरभी युवा जुझारू वर्ग में आक्रोश और नाराजगी व्याप्त थी। उनका मानना था कि इस मुद्दे को लेकर गांधीजी को समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहिए था। "भगत सिंह ज़िंदाबाद" का नारा पूरे भारत में गूंज उठा। 24 मार्च, 1931 को शोक दिवस मनाया गया। बंबई और मद्रास में आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन हुए। कांग्रेस के बाहर भी भावनाएँ तीव्र थीं। 25 मार्च को कानपुर में हुए सांप्रदायिक दंगों ने एक प्रमुख कांग्रेसी नेता गणेश शंकर विद्यार्थी, (26 अक्टूबर 1890 - 25 मार्च 1931)  दंगों को रोकने की कोशिश करते हुए, हत्या कर दिए गए। गांधीजी ने कहा, "उनका खून वह सीमेंट है जो अंततः दोनों समुदायों को जोड़ेगा। कोई भी समझौता हमारे दिलों को नहीं बांध सकता। लेकिन गणेश शंकर विद्यार्थी ने जो वीरता दिखाई, वह सबसे कठोर दिलों को भी पिघला देगी, उन्हें एक कर देगी। हालाँकि, ज़हर इतना गहरा हो गया है कि विद्यार्थी जैसे महान, आत्म-त्यागी और अत्यंत साहसी व्यक्ति का खून भी आज हमें इससे मुक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता। यह नेक उदाहरण हम सभी को प्रेरित करे कि यदि अवसर फिर आए तो हम भी ऐसा ही प्रयास करें।"

कराची में, फाँसी वाले दिन, कांग्रेस के पूर्ण अधिवेशन के लिए प्रतिनिधि पहले से ही एकत्रित हो रहे थे, और अगले कुछ दिनों तक माहौल तनावपूर्ण बना रहा। पूरे देश का माहौल भावनाओं से भरा हुआ था। पंजाब और अन्य जगहों से कई युवा कराची पहुँचे थे। 23 मार्च की शाम को गांधीजी नई दिल्ली से कराची के लिए रवाना हुए। रेलवे स्टेशनों पर भीड़ तो थी, लेकिन इस बार उनकी चीखें जयकारे नहीं लगा रही थीं। वे गुस्से से भरी भीड़ थीं, क्योंकि गांधीजी भगत सिंह और उनके दो साथियों की जान नहीं बचा पाए थे और फिर भी वायसराय के साथ एक समझौता कर लिया था। कुछ लोग गांधीजी के डिब्बे में चढ़ गए और पूछा: "आपने भगत सिंह को कहाँ छोड़ दिया?" नौजवान भारत सभा ने कराची कांग्रेस के ठीक पहले कराची के मलीर रेलवे स्टेशन पर गांधीजी के विरुद्ध एक प्रदर्शन आयोजित किया था। उनको काले झंडे दिखाए गए थे। लाल कमीज़ पहने नवजवान सभा के सदस्य नारे लगाने लगे: "गांधी वापस जाओ", "गांधीवाद मुर्दाबाद", "गांधी के युद्धविराम ने भगत सिंह को फाँसी पर चढ़ा दिया", "भगत सिंह अमर रहें"।

उनसे नाराज़ होने के बजाय, गांधी के पास युवाओं के लिए कहने के लिए एक अच्छी बात थी। प्रेस को दिए एक बयान में उन्होंने कहा: "हालाँकि वे मुझ पर क्रोधित थे, उन्होंने अपने क्रोध को उस तरह से व्यक्त किया जिसे मैं सबसे गरिमापूर्ण कहूँगा। वे मुझे शारीरिक चोट पहुँचा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से परहेज किया। और वे मुझे कई अन्य तरीकों से अपमानित भी कर सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी नाराजगी मुझे काले कपड़े के फूल देने तक ही सीमित रखी, जो, मेरी कल्पना के अनुसार, उन तीन देशभक्तों की अस्थियों के प्रतीक थे। मुझे उम्मीद है कि वे कल पूरे कांग्रेस अधिवेशन में जो संयम बरत रहे थे, उसे बरतेंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि मैं उनके साथ उसी लक्ष्य तक पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ। बस मैं उनके तरीके से बिल्कुल अलग तरीका अपना रहा हूँ।"

नवजवान सभा के कुछ प्रतिनिधि गांधीजी के प्रतिनिधिमंडल में प्रतीक्षा कर रहे थे और उनसे खुलकर बातचीत की। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका इरादा उन्हें कोई शारीरिक क्षति पहुँचाने का नहीं था, उनका जीवन उनके लिए भी उतना ही प्रिय है जितना किसी और के लिए, और व्यक्तिगत आतंकवाद उनका धर्म नहीं है। वे युद्धविराम समझौते के विरोध में अड़े हुए थे, क्योंकि उनका मानना ​​था कि यह समझौता उन्हें भारत में मजदूरों और किसानों के स्वतंत्र गणराज्य के उनके लक्ष्य तक कभी नहीं पहुँचा सकता।

"लेकिन मेरे प्यारे नौजवानो," गांधी ने कहा, "बिहार जाकर देखो और तुम्हें वहाँ एक मज़दूरों और किसानों का गणराज्य काम करता हुआ मिलेगा। जहाँ दस साल पहले डर और गुलामी थी, वहाँ अब साहस, बहादुरी और अन्याय का प्रतिरोध है। अगर तुम चाहते हो कि पूँजी विलुप्त हो जाए या तुम धनवानों या पूँजीपतियों को खत्म करना चाहते हो, तो तुम कभी सफल नहीं होगे। तुम्हें बस पूँजीपतियों को श्रम की शक्ति का प्रदर्शन करना है और वे उन लोगों के ट्रस्टी बनने के लिए सहमत हो जाएँगे जो उनके लिए मेहनत करते हैं। मैं मज़दूरों और किसानों के लिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं चाहता कि वे खा सकें, घर और कपड़े खरीद सकें, और स्वाभिमानी इंसानों की तरह सामान्य आराम से रह सकें। ऐसी स्थिति आने के बाद, उनमें से सबसे बुद्धिमान व्यक्ति निश्चित रूप से बाकियों से ज़्यादा धन अर्जित कर लेगा। लेकिन मैंने तुम्हें बता दिया है कि मैं क्या चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि अमीर लोग अपना धन गरीबों के लिए ट्रस्ट में रखें, या उन्हें दे दें। क्या तुम जानते हो कि मैंने अपनी सारी संपत्ति गरीबों के लिए छोड़ दी थी टॉल्स्टॉय फार्म? रस्किन की "अनटू दिस लास्ट" ने मुझे प्रेरित किया और मैंने उसी तर्ज पर अपना फार्म बनाया। अब आप समझ गए होंगे कि मैं आपके किसानों और मज़दूरों के गणराज्य का एक संस्थापक सदस्य हूँ। और आप किस चीज़ को ज़्यादा महत्व देते हैं—धन या काम? मान लीजिए कि आप सहारा के रेगिस्तान में गाड़ियों भर-भरकर पैसों के साथ फँस जाएँ, तो इससे आपको क्या मदद मिलेगी? लेकिन अगर आप काम कर सकते हैं तो आपको भूखे नहीं रहना पड़ेगा। फिर धन को काम से बेहतर कैसे माना जा सकता है? जाइए और अहमदाबाद के मज़दूर संघ को खुद काम करते हुए देखिए और देखिए कि कैसे वे अपना एक गणराज्य स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।"

लेकिन उनकी आत्मा में लोहा बैठ गया था: "पंजाब में गुंडा राज है, महात्माजी। आपको हृदय परिवर्तन कहाँ दिखाई देता है?" गांधीजी ने टिप्पणी की: "लेकिन मैंने कभी नहीं कहा कि सरकार की ओर से हृदय परिवर्तन हुआ है।" उन्होंने पूछा, "तो फिर आपने लॉर्ड इरविन को ऐसा प्रमाणपत्र क्यों दिया?" मुस्कुराते हुए गांधीजी उनकी ओर मुड़े और बोले: "जैसे मैंने आपको एक प्रमाण पत्र दिया है। मैंने आपके संयम की प्रशंसा की है, हालाँकि मैं आपके द्वारा मेरे विरुद्ध किए गए कार्य को अस्वीकार करता हूँ। उसी तरह मैं लॉर्ड इरविन की स्पष्टवादिता, ईमानदारी और मित्रता से प्रभावित हुआ और मैंने उसे श्रद्धांजलि अर्पित की। मेरे लिए यह कोई असामान्य बात नहीं थी। हृदय परिवर्तन का कोई प्रश्न ही नहीं था। युद्धविराम को मैंने कभी हृदय परिवर्तन का संकेत नहीं माना था। अगर सरकार ने सज़ाएँ कम कर दी होतीं, तो मैं निश्चित रूप से हृदय परिवर्तन का श्रेय सरकार को देता।"

कराची अधिवेशन महत्वपूर्ण था। असामान्य समय को देखते हुए, अध्यक्ष पद के चुनाव की सामान्य प्रक्रिया स्थगित कर दी गई और सरदार पटेल को इस पद के लिए चुना गया। अधिवेशन का समय दिसंबर से मार्च में स्थानांतरित कर दिया गया, ताकि कांग्रेस में लगातार बढ़ती संख्या में आने वाले गरीबों की सुविधा हो सके। यह अधिवेशन 29 मार्च, 1931 को एक खुले स्टेडियम में आयोजित किया गया था, जिसमें 3,200 से ज़्यादा प्रतिनिधि और हज़ारों दर्शक मौजूद थे। अधिवेशन में भाग लेने वाले 3,200 प्रतिनिधियों में से आधे से ज़्यादा सत्याग्रही थे जिन्होंने आंदोलन के दौरान जेल की सज़ाएँ काटी थीं। इसमें खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान के नेतृत्व में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के लाल कमीज़ समर्थकों का एक मज़बूत दल शामिल था। शाम छह बजे, नवनिर्वाचित अध्यक्ष सरदार पटेल पंडाल में आए, उनके बाद लाल कमीज़ समर्थक ढोल और वाद्य यंत्र बजाते हुए आए। जुलूस में गांधीजी, कार्यसमिति के अन्य सदस्य और नवजवान सभा के नेता सुभाष चंद्र बोस भी शामिल थे।

कांग्रेस ने प्रस्ताव पास कर क्रांतिकारियों की वीरता और बलिदान की प्रशंसा की, साथ ही किसी भी तरह की राजनीतिक हिंसा का समर्थन न करने की अपनी बात भी दोहराई। कांग्रेस के कराची-अधिवेशन ने गांधी-इरविन-समझौते पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाते हुए उसकी जो व्याख्या की वह समझौते की धाराओं की अपेक्षा कांग्रेस के उद्देश्यों के अधिक निकट और मेल खानेवाली थी। इस अधिवेशन का मुख्य प्रस्ताव दिल्ली समझौते और गोलमेज सम्मेलन के संबंध में था। कांग्रेस ने ‘दिल्ली समझौते’ को अपनी मंजूरी दी। कराची में कांग्रेस अधिवेशन, जो बोस के अनुसार, महात्मा गांधी की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा का शिखर था, ने गांधी को दूसरे गोलमेज सम्मेलन में अपना एकमात्र प्रतिनिधि चुना। पूर्ण स्वराज के अपने लक्ष्य को दोहराया। कांग्रेस के अंदर वामपंथी विचार रखने वाले जवाहरलाल नेहरू भी इस कांग्रेस में अपने उग्र विचार को त्यागकर समझौते को समर्थन करने वाले मुख्य प्रस्ताव को रखने के लिए सहमत हो गए। प्रस्ताव पेश करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा: "हम एक ही समय में यहाँ या वहाँ रहकर दो काम नहीं कर सकते। इसके लिए मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप एक बार में ही फैसला कर लें। अभी तक हमने गांधीजी का पालन करने का फैसला किया है, और हमें तब तक ऐसा करते रहना चाहिए जब तक कि आगे की प्रगति का रास्ता अवरुद्ध न हो जाए।"

कराची अधिवेशन में वामपंथियों को प्रसन्न करने के लिए मौलिक अधिकारों और आर्थिक नीति से संबंधित एक प्रस्ताव भी पारित किया गया। इसके अलावे लोकतांत्रिक मांगे (नागरिक स्वतंत्रता, क़ानूनी समानता, व्यस्क मताधिकार, निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा, और धर्म निरपेक्षता) थी। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने यह भी घोषणा की कि जनता के शोषण को समाप्त करने के लिए राजनीतिक आज़ादी के साथ-साथ आर्थिक आज़ादी भी ज़रूरी है। गांधीजी के ग्यारह सूत्रों का भी समावेश कर लिया गया था। ज़मीदारी प्रथा समाप्ति का कोई उल्लेख नहीं था। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज को पारिभाषित किया।

सत्र के तीसरे दिन, 31 मार्च को, आठ प्रस्ताव पेश किए गए और पारित किए गए। ये प्रस्ताव सविनय अवज्ञा पीड़ितों, सांप्रदायिक दंगों, निषेध, खद्दर, शांतिपूर्ण धरना, दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और संविधान में परिवर्तन पर थे। इसके बाद बर्मा पर एक प्रस्ताव आया, जिसे बर्मी नागरिक मौंग जी ने पेश किया था। इसने बर्मा के लोगों के भारत से अलग होने का दावा करने और एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने या स्वतंत्र भारत में एक स्वायत्त भागीदार के रूप में रहने के अधिकार को मान्यता दी, जिसमें वे किसी भी समय अलग होने के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं।

नेहरू ने सीमांत प्रांत में सरकार की अग्रगामी नीति पर प्रस्ताव पेश किया। उन्होंने कहा, "पिछले कई वर्षों से, अफ़गानों को ऐसे बर्बर लोगों के रूप में चित्रित किया जाता रहा है जो हत्या और लूटपाट पर तुले हुए हैं और जैसे ही ब्रिटिश सरकार भारत से बाहर होगी, सर्वत्र लूट मच जाएगी।" उन्होंने कहा कि सरकार जानबूझकर भारत पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए बोगी को बढ़ावा दे रही है। गफ़्फ़ार ख़ान ने प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा कि वो दिन गए जब ब्रिटिश सरकार अफ़गान बोगी द्वारा भारत को विभाजित रख सकती थी। आज पठानों को गांधी और उनके तरीकों पर पूरा भरोसा था। उन्होंने कांग्रेस को आश्वासन दिया कि अगर भविष्य में वे सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करते हैं, तो पठान भारत को स्वराज दिलाने में पीछे नहीं रहेंगे। केवल गांधी ही पठानों की धरती पर शांति बहाल कर सकते हैं और इस तरह भारी सैन्य खर्च को कम करने में मदद कर सकते हैं।

यदि पिछले वर्ष (1930) के लाहौर अधिवेशन का ऐतिहासिक महत्व इस बात में निहित है कि इसने भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु गांधीजी के नेतृत्व में पहले देशव्यापी अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन को अधिकृत किया, तो कराची कांग्रेस अधिवेशन इस बात के लिए उल्लेखनीय है कि इसने आंदोलन को औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया और नेतृत्व को लक्ष्य प्राप्ति हेतु ब्रिटिश सरकार के साथ वार्ता में भाग लेने के लिए अधिकृत किया। लाहौर कांग्रेस के प्रस्ताव में परिभाषित स्वतंत्रता का लक्ष्य वही रहा: कराची कांग्रेस ने जो किया वह यह था कि उसने एक साधन, अर्थात् सामूहिक सविनय अवज्ञा, को त्याग दिया और लक्ष्य प्राप्ति के लिए वार्ता का दूसरा साधन आजमाया। कराची अधिवेशन मुख्य रूप से गांधीजी के वामपंथी आलोचकों की कमजोरियों को उजागर करने के लिए महत्वपूर्ण है। जवाहरलाल नेहरू कराची में समझौते का समर्थन करने वाले प्रमुख प्रस्ताव को पेश करने के लिए सहमत हो गए। कराची अधिवेशन मौलिक अधिकारों और राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम पर अपने प्रस्ताव के लिए यादगार बन गया। हालाँकि कांग्रेस ने अपनी स्थापना के समय से ही लोगों के आर्थिक हितों, नागरिक स्वतंत्रताओं और राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया था, यह पहली बार था जब कांग्रेस ने परिभाषित किया कि स्वराज का जनता के लिए क्या अर्थ होगा। कराची के प्रस्ताव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता, स्वतंत्र सभा और संघ बनाने की स्वतंत्रता जैसे बुनियादी नागरिक अधिकारों की गारंटी दी गई; जाति, पंथ या लिंग के आधार पर कानून के समक्ष समानता; सभी धर्मों के संबंध में राज्य की तटस्थता; सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव; और मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा। कराची प्रस्ताव बाद के वर्षों में भी कांग्रेस का मूल राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम बना रहा। बिपन चन्द्र ठीक ही कहते हैं कि कराची कांग्रेस जहां एक ओर समझा-बुझाकर मतभेदों को समाप्त कर देने में गांधीवादी दर्शन की राजनैतिक सफलता का द्योतन करता है, तो दूसरी ओर कांग्रेस के कार्यक्रम में परिवर्तनकारी, समाजवादी प्रवृत्तियों के प्रभावशाली ढंग से आने का सूत्रपात होता है

सरकारी रवैया

इंग्लैंड में टोरी-प्रधान राष्ट्रीय सरकार सत्ता में आ चुकी थी। विश्व में आर्थिक संकट गहराया हुआ था। नई सरकार के समक्ष लंकाशायर और ब्रिटिश व्यापारियों के हितों की रक्षा करना प्रमुख लक्ष्य था। भारत-सचिव सैमुएल होर था। अप्रैल में लॉर्ड इरविन की वायसराय पद से छुट्टी हो गई। अप्रैल में गांधीजी बंबई में ही थे और वहीं से उन्होंने लॉर्ड इरविन को ( 19 अप्रैल को ) विदाई दी। नए वायसराय के रूप में लॉर्ड इरविन की जगह लॉर्ड विलिंगडन ने बंबई में पद ग्रहण किया, जो कट्टर टोरी था। वह इरविन की तरह की कल्पनाशीलता और ईमानदारी से रहित था। वह वैचारिक कट्टरता से ओतप्रोत था। उसने गांधीजी को मिलने के लिए नहीं बुलाया। उसका मानना था कि ‘गांधीजी ख़ुराफ़ाती जीव हैं’, उन्हें तो कालापानी भिजवा दिया जाना चाहिए। गांधीजी का जड़मूल से विनाश होगा तभी सल्तनत बच पाएगी। प्रांतीय राजधानी दिल्ली के घुटे हुए खुर्राट नौकरशाहों को इससे बडी खुशी हुई। गांधी-इरविन-समझौते को उन्हें कडवी घूँट की तरह निगलना पडा था। अब उनके मन का वायसराय आया था। अभी समझौते की स्याही भी नहीं सूखने पाई थी कि रगड-झगड शुरू भी हो गई। मई में यह दिशा-निर्देश दे दिए गए थे कि ‘जहां कहीं भी समझौता टूटे, एकदम प्रहार किया जाए और प्रहार कड़ा हो’। अंग्रेज़ सरकार ने सारे देश में सरकारी सख़्ती लगानी शुरू कर दी। देश में आतंक का वातावरण व्याप्त हो गया। ग्रामीण असंतोष बढ़ता गया। कीमतों की गिरावट, महंगाई, मालगुजारी, लगान और कर्जों के बोझ से स्थिति असह्य हो गई थी। आर्थिक दबावों के कारण देश में नीचे से भी दबाव उत्पन्न हो रहा था, जिसके कारण समझौता खटाई में पड़ने लगा। दोनों पक्ष एक दूसरे को समझौता भंग करने का आरोप लगाने लगे। समझौते के हस्ताक्षर मिटने लगे और दोनों पक्षों में तना-तनी उभर कर सामने आने लगी। गांधीजी को 9 जुलाई, 1931 के 'यंग इंडिया’ में 'चकनाचूर ?' शीर्षक से एक अग्रलेख लिखकर सरकार द्वारा समझौता-भंग की घटनाओं पर उदाहरण सहित प्रकाश डालने को बाध्य होना पडा। सरकार ने भी कांग्रेस पर समझौते की मंशा के प्रतिकूल आचरण करने का आरोप लगाया। इस तरह दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पर समझौते को भंग करने का आरोप लगाते रहे।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

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