राष्ट्रीय आन्दोलन
343. दूसरा सविनय अवज्ञा आन्दोलन-1
1932
प्रवेश :
नमक सत्याग्रह (6 अप्रैल 1930 - 5 मार्च 1931) की सफलता के
परिणामस्वरूप गांधी-इरविन समझौता हुआ, जिसने अंग्रेजों को यह एहसास दिलाया कि उन्हें भारत की जनता को
सत्ता हस्तांतरित करने के बारे में सोचना होगा। निस्संदेह, टोरीज़ में कई
ऐसे लोग थे जो सोचते थे कि वे भारत में स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन की लहर
को रोक सकते हैं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए। 1931 की शरद ऋतु में संसदीय चुनावों
में टोरीज़ की जीत ने उनके हाथ मज़बूत कर दिए। 1931 में इंग्लैंड में मजदूर दल की सरकार के स्थान पर राष्ट्रीय सरकार सत्ता में आ चुकी थी, जिसमें मजदूर, अनुदार तथा उदार तीनों दल शामिल थे। भारत-सचिव सैमुएल होर था, जो पक्का अनुदारवादी था। लॉर्ड इरविन की जगह पर लॉर्ड विलिंगडन ने वायसराय का पद ग्रहण
किया था। उसका मानना था कि ‘गांधीजी ख़ुराफ़ाती जीव हैं’, ‘उन्हें तो कालापानी
भिजवा दिया जाना चाहिए’, ‘गांधीजी का जड़-मूल से विनाश होगा तभी सल्तनत बच पाएगी’।
उसके द्वारा यह दिशा-निर्देश दे दिए गए थे कि ‘जहां
कहीं भी समझौता (गाँधी-इरविन) टूटे, एकदम प्रहार किया जाए और प्रहार कड़ा हो’। वर्ष 1932 की शुरुआत ब्रिटिश सरकार द्वारा कांग्रेस के
विरुद्ध पूर्ण युद्ध की घोषणा के साथ हुई। अंग्रेज़ सरकार ने सारे देश में भयंकर सख़्ती लगानी शुरू कर दी। कानून के बदले अध्यादेश द्वारा शासन चलाया जाने लगा। एक के बाद एक आपातकालीन
शक्तियां, ग़ैर-क़ानूनी सभा-समितियों, ग़ैर-क़ानूनी भड़काने वाली कार्रवाइयों और उपद्रव
एवं बहिष्कार संबंधी कई अध्यादेश निकाले गए। विलिंगडन ने ‘कोई समझौता
नहीं, कोई सुलह नहीं, कोई बातचीत नहीं और दुश्मन के लिए कोई जगह नहीं’ की नीति
अपना ली थी। लॉर्ड विलिंगड़न और ब्रिटेन की नई सरकार भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन
को कुचल देने पर आमादा थे। विलिंगडन ने गांधी-इरविन समझौते को फाड़कर रद्दी की
टोकरी में फेंक दिया और दी गई रियायतों को वापस ले
लिया।
कांग्रेस
कार्यसमिति ग़ैर-क़ानूनी घोषित
निकाले गए अध्यादेशों के ज़रिए कांग्रेस की
कार्यसमिति ही नहीं सभी प्रांतीय समितियां और बहुत-सी स्थानीय समितियां भी
ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दी गईं। कांग्रेस के नेताओं, कार्यकर्ताओं और सहानुभूति रखने
वालों को गिरफ़्तार किया जाने लगा। कांग्रेस का सारा पैसा और सम्पत्ति ज़ब्त कर ली
गई। इतना ही नहीं, कांग्रेस-संगठन की समर्थक या उससे सहानुभूति रखने वाली दूसरी अनेक
संस्थाएँ—युवक लीग, राष्ट्रीय विद्यापीठें, कांग्रेस वाचनालय एवं पुस्तकालय, कांग्रेस अस्पताल और चिकित्सालय आदि भी
गैर-कानूनी कर दिए गए। एक संकटकालीन अध्यादेश ज़ारी किया गया, जिसके तहत
सरकार किसी को भी गिरफ़्तार कर सकती थी और बिना मुकदमा चलाए उन्हें जेल में रख सकती
थी जिन्हें वह विद्रोही समझती थी। अंगेज़ों के इस अनवरत दमन
की कार्रवाइयों ने कांग्रेस को दूसरा सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ करने के लिए बाध्य
कर दिया।
सत्याग्रह फिर से प्रारंभ
लंदन में हुआ दूसरा गोलमेज सम्मेलन किसी नतीजे
पर नहीं पहुँच सका। गाँधी जी को खाली हाथ लौटना पड़ा। 28 दिसम्बर को गांधीजी मुम्बई
पहुंचे। उन्होंने पाया कि देश का राजनीतिक वातावरण काफी अशांत है। लोगों की
राजनीतिक और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कठोर पाबंदी लगी हुई है। नेहरू और खान
अब्दुल गफ्फार खान को गिरफ्तार कर लिया गया था। गांधी-इरविन समझौता ख़त्म हो चुका
था। विलिंगडन राष्ट्रीय भावना को कठोरता पूर्वक दबा रहा था। अगले ही दिन कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई। सविनय
अवज्ञा आंदोलन को फिर से चलाने का निर्णय लिया गया। उसके
पहले गांधीजी वायसराय से मिलना चाहते थे। 29 दिसंबर
को गांधीजी ने वायसराय को भेजे गए तार द्वारा अध्यादेशों और गिरफ़्तारियों की
भर्त्सना की और उससे मिलने का समय मांगा, जो नहीं मिला। 31 दिसंबर
को वायसराय के सचिव ने उत्तर दिया कि कांग्रेस द्वारा सरकार का विरोध करने के कारण
ये अध्यादेश आवश्यक हैं। जब वायसराय ने गांधीजी से
मिलने से इंकार कर दिया, तो 1 जनवरी, 1932 को गांधीजी ने काफी लंबा तार वायसराय
के प्राइवेट सेक्रेटरी को दिया। गांधीजी के प्रत्युत्तर में कांग्रेस का बचाव किया गया और
संकेत दिया गया कि उन्हें सविनय अवज्ञा अभियान शुरू करना पड़ सकता है। 2 जनवरी को प्राइवेट
सेक्रेटरी ने धमकी भरा उत्तर दिया। गांधीजी ने जवाब दिया था,
"मेरा मानना है कि सविनय अवज्ञा न केवल
लोगों का स्वाभाविक अधिकार है, खासकर जब उनकी
अपनी सरकार में कोई प्रभावी आवाज़ न हो, बल्कि यह
हिंसा या सशस्त्र विद्रोह का विकल्प भी है।" वायसराय के प्राइवेट सेक्रेटरी ने
गांधीजी पर सविनय अवज्ञा आंदोलन फिर से शुरू करने की धमकी का आरोप लगाते हुए कहा
कि “कांग्रेस ने जिन उपायों को अपनाने
का इरादा ज़ाहिर किया है, उसके सब परिणामों के लिए हम गांधी और कांग्रेस को
उत्तरदायी समझेंगे और उनको दबाने के लिए सरकार सब उपायों का सहारा लेगी।” गांधीजी ने उसी दिन जवाब दिया। उन्होंने धमकी नहीं दी थी; उन्होंने अपनी
राय व्यक्त की थी। इसके अलावा, उन्होंने दिल्ली समझौते से पहले, जब सविनय
अवज्ञा आंदोलन चल रहा था, इरविन के साथ बातचीत की थी। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि
सरकार को उनके फैसले पर निर्भर रहना होगा। गांधीजी ने लिखा, "लेकिन मैं यह ज़रूर कहना चाहता हूँ कि कोई भी लोकप्रिय और
संवैधानिक सरकार हमेशा सार्वजनिक निकायों और उनके प्रतिनिधियों द्वारा दिए गए
सुझावों का स्वागत करेगी और उन पर सहानुभूति पूर्वक विचार करेगी... ।" उपनिवेश मंत्री
सैमुअल होर ने गांधीजी को साफ-साफ कहा, “अगर कांग्रेस ने सीधी कार्रवाई की
तो सरकार उसे बल प्रयोग से कुचल देगी।” गांधीजी ने सरकार के इरादों को
भांपते हुए मुंबई की एक सभा में कहा था, “पिछली लड़ाई में जनता को लाठियों के
वार सहने पड़े थे, इस बार गोलियां खानी होगी।” अब वर्किंग कमेटी के पास इसके सिवा कोई चारा
नहीं रह गया था कि वह फिर से सविनय अवज्ञा शुरू करे। देश भर में बड़े स्तर पर दमन
की कार्रवाई ज़ारी थी। होर ने घोषणा की, “इस बार फैसला होकर रहेगा।” 3 जनवरी को गांधीजी ने राष्ट्र
को सूचित किया, "सरकार ने मेरे मुंह पर दरवाज़ा पटक दिया है।" प्रेस को दिए एक साक्षात्कार में गांधी ने कहा था: "मेरी
गिरफ्तारी के बाद मैं लोगों से यही कहूंगा कि वे अपनी नींद से जाग जाएं।"
इस प्रकार विलिंगडन के नेतृत्व में भारत सरकार अडिग रही और गांधीजी और
कांग्रेस से पूर्ण समर्पण की मांग करती रही। ऐसा लग रहा था जैसे नौकरशाही एक
संघर्ष को भड़काने पर तुली हुई थी, जिसे गांधीजी टालना ही बेहतर समझते, अगर टाला जा सकता होता। लेकिन अब मामला गरमा गया था, दोनों विरोधी पक्षों ने अपनी-अपनी जगह बना ली थी और खुद को जमीन पर टिका लिया
था।3 जनवरी, 1932 को गांधीजी ने टैगोर को गंभीरता से लिखा: "जब मैं
नींद की एक झपकी लेने की कोशिश करता हूँ, तो मुझे आपकी याद आती है। मैं चाहता हूँ कि आप उस यज्ञ में अपना सर्वश्रेष्ठ
दें जो प्रज्वलित हो रहा है?"
4 जनवरी को गिरफ़्तारी
4 जनवरी की सुबह तड़के गिरफ़्तार होने से पहले, गांधीजी
ने जो काम किया, उनमें से एक था, इंग्लैंड
और यूरोप में उनकी सुरक्षा के लिए तैनात दो अंग्रेज़ जासूसों को बेहतरीन अंग्रेज़ी
लीवर वाली घड़ियाँ उपहार में भेजना। वह एक तंबू में सो रहे थे जब देवदास खबर लेकर
आए कि बाहर पुलिस की दो गाड़ियाँ इंतज़ार कर रही हैं। गांधीजी मुसकुराए, पर कुछ नहीं बोले, उन्होंने
मौन व्रत धारण कर लिया। उन्होंने अपने एक अंग्रेज़ प्रशंसक वेरियर एल्विन को एक
नोट दिया,
जिसमें उन्होंने लिखा था: "मैं चाहता हूँ कि आप स्वयं अपने देशवासियों
से कहें कि मैं उनसे उतना ही प्रेम करता हूँ जितना अपने देशवासियों से करता हूँ।
मैंने उनके प्रति कभी भी घृणा या द्वेष से प्रेरित होकर कुछ नहीं किया है, और ईश्वर की इच्छा से,
मैं भविष्य में भी ऐसा कुछ नहीं करूँगा।" गांधीजी का अपने लोगों के लिए संदेश था: "ईश्वर की दया असीम है। सत्य
और अहिंसा से कभी विचलित न हों, कभी मुंह न मोड़ें,
और स्वराज पाने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दें।"
पुलिस ने सुबह तीन बजे उन्हें गिरफ्तार कर लिया। गांधीजी ने जब आन्दोलन करने की चेतावनी दी, तो 4 जनवरी 1932 को गांधी जी और कार्य-समिति के सदस्यगण गिरफ़्तार कर लिए गए और बिना मुकदमा चलाए पूना की यरवदा में बंद कर
दिए गए। उन्हें प्रसिद्ध विनियमन XXV के
तहत गिरफ्तार किया गया, जिसके तहत उन्हें सरकार की इच्छा के अनुसार
हिरासत में रखा जा सकता था। बम्बई से गांधीजी को यरवदा जेल ले जाया गया और उन्हें "सरकार
की इच्छा पर्यन्त" निरुद्ध कर दिया गया। इस बार अंग्रेज़ों ने गांधीजी को जेल में न रख कर पूना में आग़ा ख़ां महल में रखा। वे यरवदा जेल में महामहिम के मेहमान थे। कुछ
हफ़्ते पहले वे बकिंघम पैलेस में महामहिम के मेहमान थे। गांधीजी 8 मई 1933 तक पुणे के यरवडा में थे। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी
जिसमें उन्हें एक साल से अधिक तक जेल में रखा गया। वल्लभभाई पटेल और महादेव देसाई
भी उनके साथ जेल में थे। महादेव देसाई ने अद्भुत निष्ठा के साथ गांधीजी की रोजाना
की बात-चीत और पात्र-व्यवहार के ब्यौरे दर्ज किए हैं। सलाखों के पीछे इस बार
गांधीजी ‘परिंदे जैसे प्रसन्न’ नहीं थे, जैसा कि पिछली बार थे। इसका कारण यह था कि उन्हें
ब्रिटिश सरकार की इस साजिश का आभास हो चुका था कि अलग निर्वाचक मंडलों की संभावना
को बढाया जाए और इस प्रकार दिखावे के लिए ‘अल्पसंख्यकों’ के हितों की रक्षा के नाम पर राष्ट्र को
टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट दिया जाए।
गांधीजी की गिरफ़्तारी के बाद आर्देशर एदुलजी केटली को महल की जेल का इंचार्ज बना दिया गया था। 76 पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया था। सबसे बड़े नेता और राजनीतिक कैदी होने के कारण गांधीजी को जेल
में काफी सुविधा दी गई थी। जेल के गवर्नर मेजर मार्टिन ने गांधीजी के लिए फर्नीचर, मिट्टी
के बर्तन और अन्य बर्तन खरीदे। गांधीजी ने विरोध करते हुए कहा, "तुमने यह सब किसके लिए खरीदा है? कृपया
इसे ले जाओ।" मेजर मार्टिन ने कहा कि उन्हें केंद्रीय अधिकारियों से ऐसे
सम्मानित अतिथि पर कम से कम तीन सौ रुपये प्रति माह खर्च करने की अनुमति है।
गांधीजी ने कहा, "यह तो ठीक है, लेकिन
यह पैसा भारतीय खजाने से आता है, और मैं अपने देश पर बोझ नहीं बढ़ाना चाहता।
मुझे उम्मीद है कि मेरे रहने का खर्च पैंतीस रुपये प्रति माह से ज़्यादा नहीं
होगा।" विशेष उपकरण हटा दिए गए।
यरवदा में क्विन नाम के एक अधिकारी ने गांधीजी
से गुजराती सिखाने का अनुरोध किया और वे रोज़ाना उसे पढ़ाने आते थे। एक सुबह क्विन
नहीं आया, और पूछताछ करने पर गांधीजी को बताया गया कि
अधिकारी जेल में एक फाँसी के कार्यक्रम में व्यस्त है। गांधीजी ने कहा, "मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरी तबियत खराब हो जाएगी।" जेल
में गाँधीजी अपनी सामान्य शांत दिनचर्या में लगे रहे: प्रार्थना करना, पढ़ना, कताई
करना। मीराबेन उन्हें कताई के कतरे उपलब्ध कराती रहीं, और
कताई का काम बिना किसी रुकावट के चलता रहा, लेकिन
जैसा कि उन्होंने बताया, पिछले साल जैसी कुशलता से नहीं। वे खूब सोते थे, और
शिकायत करते थे कि सोना उनका बहुत ज़्यादा समय ले रहा है। उन्होंने रस्किन की
फ़ोर्स क्लैविगेरा पहली बार पढ़ी और उसे "बेहद गंभीरता से" पाया, और
खगोल विज्ञान में रुचि लेने लगे, जिसे उन्होंने पहले कभी खुशी से नहीं लिया था। गांधीजी
बाहर की तुलना में अखबारों को ज़्यादा ध्यान से पढ़ते थे, अपने
कपड़े खुद धोते थे, सूत कातते थे, रात
में तारों का अध्ययन करते थे और कई किताबें पढ़ते थे; उन्हें
अप्टन सिंक्लेयर की द वेट परेड, गोएथे की फॉस्ट, किंग्सले
की वेस्टवर्ड हो! और अन्य रचनाएँ पसंद थीं। उन्होंने एक छोटी सी किताब को भी अंतिम
रूप दिया, जिसका अधिकांश भाग उन्होंने 1930 में यरवदा में
साबरमती आश्रम को लिखे पत्रों के रूप में लिखा था। उन्होंने इसका शीर्षक
"यरवदा मंदिर से" रखा; 'मंदिर' का
अर्थ है मंदिर; जेल भी एक मंदिर था, वे
उसमें ईश्वर की पूजा करते थे। यह पुस्तिका, जिसमें
कभी-कभार लेख और अन्य समय में की गई घोषणाएँ भी शामिल हैं, मनुष्य
के स्वभाव और आदर्श आचरण पर गांधीजी के विचारों की कुंजी प्रदान करती है। और जब
उन्होंने पाया कि बर्साइटिस या कोई और अपंग करने वाली बीमारी उनके दाहिने हाथ को
प्रभावित कर रही है, जिससे उन्हें अपने बाएँ हाथ से लिखने के लिए
मजबूर होना पड़ रहा है, तो उन्होंने खुशी-खुशी शिकायत की कि अब जब
बुढ़ापा उन पर हावी हो रहा है, तो उन्हें यही उम्मीद करनी चाहिए। बंबई सरकार
के गृह-सचिव टामस जेल में मिलने के लिए गए तो उन्होंने गांधीजी से कहा—“आधी रोटी मिल रही है तो आज आप आधी को ही क्यों स्वीकार नहीं कर लेते?” इसपर गांधीजी ने कहा था, “मगर वह रोटी हो, पत्थर तो नहीं।”
बापू ने जेल में अनशन शुरू कर दिया था। मीरा
बहन और बा को बारडोली तालुके में गिरफ़्तार कर साबरमती जेल के ‘सी’ वर्ग में साधारण क़ैदियों के बीच रखा
गया। बापू के पास न होने से बा के मन में चिन्ता बनी रहती थी। उन्हें लगता कि बापू की जितनी सेवा मैं कर सकती हूं दूसरा नहीं कर सकती। जब बापू ने अनशन शुरू किया तो, सरकार ने बाद में बा को साबरमती जेल से हटा कर यरवडा जेल भेज दिया। उपवास ख़त्म होने के बाद बा को वापस भेज दिया
गया। मीरा बहन को बंबई की आर्थर रोड जेल में अपराधी महिलाओं के साथ रखा गया।
सविनय अवज्ञा में विरोध के तरीक़े
इस बार सविनय अवज्ञा आन्दोलन में
अलग-अलग तरह की गतिविधियाँ अपनाई गईं। इसका कारण यह था कि बहुत सी गतिविधियों को
अवैध घोषित कर दिया गया था। लोगों की हर तरह की आज़ादी छीन ली गई थी। सविनय अवज्ञा
में जो विरोध के तरीक़े इस बार अपनाए गए वे थे, कपड़े और शराब की दुकानों पर धरना
देना, बाज़ारों को बंद कराना, अंगेज़ों के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यापारिक
प्रतिष्ठानों का बहिष्कार करना, कांग्रेस के झंडे को प्रतीकात्मक रूप में लहराना,
सार्वजनिक रूप से कांग्रेस के अवैध अधिवेशन करना, नमक सत्याग्रह करना, चौकीदार कर
अदा न करना, लगान और मालगुज़ारी की अदायगी न करना, वन विभाग के क़ानून को तोड़ना,
किसी सीमा तक कांग्रेस की अवैध गतिविधियों को चलाना और बमों का प्रयोग करना। वन
विभाग के क़ानून को तोड़ना, किसी सीमा तक कांग्रेस की अवैध गतिविधियों को चलाना और
बमों का प्रयोग करना जैसे कार्यक्रमों की गांधीजी ने कड़ी निन्दा भी की थी।
दूसरे सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रभाव
सरकार को आशा थी कि कांग्रेस के
नेताओं को गिरफ्तार करके और कांग्रेस की धनसंपत्ति को ज़ब्त करके वह संगठन और
आंदोलन दोनों को ही तोड सकेगी। मुंबई में कांग्रेस की पकड़ काफी मज़बूत थी। यहाँ
कपास बाजार बुरी तरह से प्रभावित हुआ। गोरों की फर्में बरबादी के कगार पर आ पहुंची।
बंबई में सांप्रदायिक दंगे भी हुए। खेडा और बारडोली में आन्दोलन का प्रभाव सीमित
रहा। कर्नाटक के कुछ भागों में कर ना-अदायागी का आन्दोलन सफल रहा। दक्षिण भारत में
अनेक स्थानों पर वन सत्याग्रह हुआ। तमिलनाडु और आंध्र में आन्दोलन कमजोर रहा।
बिहार के कई भागों में कर न देने का अच्छा प्रभाव देखने को मिला। बंगाल में यह
आन्दोलन काफी सफल रहा। कश्मीर और अलवर जैसे दो रजवाड़ों में आन्दोलन काफी प्रभावकारी
रहा। अन्ततोगत्वा आन्दोलन का यह दौर अधिक दिनों तक नहीं टिका रहा। आंदोलन शुरू के
चार महीने तो खूब तेज रहा; पर उसके बाद जेल जाने और सज़ा पाने वालों की संख्या क्रमशः घटती गई (अप्रैल
1932 में जब कांग्रेस ने पं. मदनमोहन मालवीय के सभापतित्व
में दिल्ली में अपना वार्षिक अधिवेशन करने की कोशिश की तो बहुत अधिक गिरफ्तारियाँ
हुई थीं) और आंदोलन की रफ्तार बहुत मंद हो गई। यह नहीं कहा जा सकता की सविनय
अवज्ञा आन्दोलन की गति धीमी होने का कारण कांग्रेस के प्रति लोगों की निष्ठा में
कमी थी। बल्कि अंग्रेजों की क्रूरता के सामने बाध्य होकर आन्दोलनकारियों ने समर्पण
करना शुरू कर दिया था।
लॉर्ड विलिंगडन - क्रूर ही नहीं नृशंस भी
अंग्रेजों के दमन का सामना करते हुए
कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन पूरे वर्ष साहसपूर्वक संघर्ष करता रहा।
अंग्रेज़ शासकों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन पर कहर ढाना शुरू कर दिया। गांधीजी की गिरफ़्तारी के साथ वार्ता टूट गई और हर जगह तीव्र
प्रहार हुआ। सरदार वल्लभभाई पटेल को गांधीजी के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और
नज़रबंद कर लिया गया। उसी दिन जवाहरलाल नेहरू पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें दो
वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। राजेंद्र प्रसाद, जिन्हें सरदार पटेल के बाद कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त किया
गया था, 5 जनवरी को और उनके बाद डॉ. अंसारी, 8 जनवरी को गिरफ्तार कर लिए गए। 10 जनवरी तक, पूरे भारत के प्रमुख कांग्रेसी जेल में थे।
चार कठोर अध्यादेश जारी किए गए, जिनसे मजिस्ट्रेटों और पुलिस अधिकारियों को अत्यंत व्यापक
शक्तियाँ प्रदान की गईं। ये अध्यादेश थे, (1) आपातकालीन शक्तियां अध्यादेश, (2) गैरकानूनी
उकसावे अध्यादेश, (3) गैरकानूनी संघ अध्यादेश, और (4) छेड़छाड़ और बहिष्कार अध्यादेश की रोकथाम। एक इतिहासकार ने इसे 'सिविल मार्शल लॉ' कहा है। इससे नागरिक स्वतंत्रता समाप्त हो गई और अधिकारी
व्यक्ति और संपत्ति दोनों को जब्त कर सकते थे। यह पूरे भारत के लिए एक प्रकार की
घेराबंदी की घोषणा थी। अध्यादेशों में से एक की एक नई विशेषता यह थी कि माता-पिता
और अभिभावकों को अपने बच्चों या आश्रितों के अपराधों के लिए दंडित किया जाना था। लॉर्ड
इरविन ने लंदन में सार्वजनिक रूप से कहा कि यदि वे अभी भी भारत में होते, तो वे भी ऐसा
ही करते।
प्रशासन को मनमाना अधिकार देने वाले
अनेकों अध्यादेश ज़ारी किए जा चुके थे। नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया था।
अधिकारी जब चाहते, किसी को भी गिरफ़्तार कर लेते। गांधीजी तो जेल में थे ही, एक हफ़्ते के भीतर ही स्वतंत्रता आन्दोलन के लगभग सभी वरिष्ठ कांग्रेसी
नेता वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू,
राजेन्द्र प्रसाद, अब्दुल कलाम आज़ाद,
आदि गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हें जेल में डाल दिया गया। जनता में आक्रोश की लहर
फैल गई। कांग्रेस को ज़बरदस्त समर्थन मिला। लाखों लोगों ने शराब और विदेशी कपड़ों की
दुकानों पर धरना दिया। अवैध सभाएं, अहिंसक प्रदर्शन, अध्यादेशों की अवहेलना के
अनेकों कार्यक्रम आयोजित किए गए। सरकार ने इस अहिंसक आंदोलन का मुक़ाबला दमन से
किया। सभी गांधी आश्रमों पर पुलिस ने क़ब्ज़ा जमा लिया। शांतिपूर्ण ढंग से धरना
देनेवालों, सत्याग्रहियों और प्रदर्शनकारियों पर बेरहमी से लाठियां बरसायी गईं।
कठोर कारावास की सज़ा दी गई। भारी ज़ुर्माना लादा गया। ज़ुर्माना न देने पर जायदाद को
मुंहमांगी क़ीमत पर नीलाम कर दिया गया। जेल में जुल्म ढाए गए। कोड़े लगाना तो आम बात
थी। नंगा करके भी कोड़े लगाए जाते। बिजली के झटके दिए जाते। महिलाओं को भी नहीं
बख्शा जाता। विंस्टन चर्चिल ने घोषणा की कि दमनकारी उपाय 1857 के विद्रोह के बाद से
किसी भी अन्य दमनकारी उपाय से कहीं अधिक कठोर थे।
अखबार और छापेख़ानों को भी इस बार नहीं छोड़ा गया।
प्रेस और समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाने वाले अध्यादेश ज़ारी किए गए।
पत्रकारों और प्रेस को
मनाही थी कि कोई दमनात्मक कार्रवाई के समाचार न छापे। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दुबारा शुरू होने के
शुरू के छह महीने में ही, यानी जुलाई तक, 109 संपादकों-संवाददाताओं और 98
छापाख़ानाओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जा चुकी थी। पत्रकारों
और प्रेस को मनाही थी कि कोई राष्ट्रीय संघर्ष से संबंधित समाचार न छापे।
राष्ट्रवादी साहित्य पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
विलिंगडन ने कहा था, “जनता या कानून की अवज्ञा करने वालों की ओर से किसी भी
प्रकार की गलतफहमी की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। इस मामले में कोई समझौता नहीं
हो सकता। मैं और मेरी सरकार राज्य के संसाधनों का पूर्ण उपयोग करके एक ऐसे आंदोलन
से लड़ने और उसे हराने के लिए दृढ़ हैं जो अन्यथा व्यवस्थित शासन और व्यक्तिगत
स्वतंत्रता के लिए एक सतत खतरा बना रहेगा। हालाँकि सरकार विशेष शक्तियों के किसी
भी दुरुपयोग को रोकने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगी, लेकिन सविनय
अवज्ञा के विरुद्ध वर्तमान में लागू उपायों में तब तक कोई ढील नहीं दी जा सकती जब
तक ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जो उन्हें आवश्यक बनाती हैं।”
राष्ट्रीय आन्दोलन का दमन करने के
लिए विलिंगडन ने सख्त-से-सख्त क़दम उठाए। किसानों ने जब कर ना-अदायगी का आन्दोलन
किया तो उत्तर प्रदेश में नेहरू और पुरषोत्तम दास टंडन एवं पश्चिमोत्तर सीमा
प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खान को जेल में डाल दिया गया। गुंडा गिरोह ने बंगाल
में कई दिनों तक उत्पात मचाया और राष्ट्रवादियों के मकानों को लूटा।
राष्ट्रवादियों के नेताओं को बड़ी संख्या में गिरफ्तार कर लिया गया। जनवरी में 14,800 लोगों को
राजनैतिक कारणों से जेल में डाल दिया गया। फरवरी में यह संख्या बढ़कर 77,800 हो गई। इतनी गिरफ़्तारियां यह साबित कर रही थीं कि इस बार अंग्रेज़ों का
दमन कहीं अधिक तीव्र और व्यवस्थित था। जेलों में सविनय अवज्ञा करने वाले कैदियों के साथ बहुत बुरा
व्यवहार किया जाता था। पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार, उनमें से 95 प्रतिशत से ज़्यादा को 'सी' श्रेणी में
रखा गया था। सिर्फ़ चार
महीने में यानी अप्रैल तक 45,000 से अधिक लोगों को सज़ा दी गई। नागरिक स्वतंत्रता समाप्त हो गई थी, और कोई भी
पुलिस अधिकारी किसी को भी गिरफ्तार कर सकता था। यज्ञ की अग्नियाँ भयंकर रूप से जल
रही थीं। लॉर्ड विलिंगडन
ने सिद्ध कर दिया कि वह क्रूर ही नहीं नृशंस भी है। लाखों लोगों को गिरफ़्तार कर और
उन्हें जेल में डाल कर उसने घोषणा की, “स्थिति पर्याप्त नियंत्रण में है।” इसी साल नवंबर में उसने लंदन जो रिपोर्ट भेजी उसमें लिखा था, “सविनय अवज्ञा आंदोलन मृतप्राय स्थिति में है।”
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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