बुधवार, 17 सितंबर 2025

345. साम्प्रदायिक पुरस्कार-1

राष्ट्रीय आन्दोलन

345. साम्प्रदायिक पुरस्कार-1


1932

दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, जब अल्पसंख्यकों के दावे प्रस्तुत किए गए थे, तब यह सुझाव दिया गया था कि दलित वर्गों को एक पृथक निर्वाचक मंडल दिया जाएगा। दलित वर्गों के प्रतिनिधियों ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में मुस्लिम नेताओं और कुछ अन्य वर्गीय नेताओं की मदद से, सांप्रदायिक समझौते के प्रयासों को प्रभावी ढंग से विफल कर दिया था। यह गांधीजी और कांग्रेस के खिलाफ एक गुटबाजी थी, जिसका उद्देश्य कांग्रेस के प्रतिनिधि चरित्र पर सवाल उठाना था। इसका परिणाम 'अल्पसंख्यक समझौता' या 'अल्पसंख्यक अधिकारों की याचिका' थी, जिस पर यूरोपीय, एंग्लो-इंडियन, मुस्लिम, रोमन कैथोलिक और दलित वर्गों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए थे, जो भारत की 46 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते थे।

लोथियन कमेटी

गांधीजी के जेल में रहते हुए ही ब्रिटिश सरकार ने भारत की जनता को विभाजित करने के लिए एक और बड़ी चाल चली थी। उन्होंने अखबारों से जाना था कि भारत का प्रस्तावित नया ब्रिटिश संविधान न केवल हिंदुओं और मुसलमानों को, बल्कि 'दलित वर्गों' को भी पृथक निर्वाचिका प्रदान करेगा। मताधिकार और निर्वाचन की सीटों का निर्णय करने के लिए लोथियन कमेटी 17 जनवरी को भारत पहुंची। गांधीजी ने भारत मंत्री सर सैम्युअल होर को 11 मार्च 1932 को पत्र लिखा कि हिंदुओं द्वारा किया गया कोई भी प्रायश्चित, सदियों से दलित वर्गों को दी गई उनकी सोची-समझी अवनति की भरपाई नहीं कर सकता। लेकिन मैं जानता हूँ कि पृथक निर्वाचिका न तो कोई प्रायश्चित है और न ही उस विनाशकारी अवनति का कोई उपाय जिससे वे कराह रहे हैं। इसलिए, मैं महामहिम सरकार को सादर सूचित करता हूँ कि यदि वे दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचिका बनाने का निर्णय लेते हैं, तो मुझे आमरण अनशन करना होगा।

13 अप्रैल को सम्युअल होर का उत्तर आया कि मामला अभी भी चर्चा के लिए खुला है और कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है। उन्होंने आगे कहा, "मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि हम कोई भी आवश्यक निर्णय, केवल और केवल मामले के गुण-दोष के आधार पर, देने का इरादा रखते हैं। लॉर्ड लोथियन की समिति ने अभी अपना दौरा पूरा नहीं किया है, और हमें कोई निष्कर्ष निकालने में कुछ हफ़्ते लगेंगे, जिस पर वह पहुँच चुकी होगी। आप समिति की रिपोर्ट का इंतज़ार करेंगे, फिर उस पर पूरी तरह विचार करेंगे। इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता।"

7 मई 1932 को, जब कांग्रेस का पूरा नेतृत्व जेल में था और कांग्रेस संगठन अस्त-व्यस्त था, राव साहब मुनिस्वामी पिल्लई की अध्यक्षता में दलित वर्ग कांग्रेस का कैम्पटी में अधिवेशन हुआ। राव साहब पिल्लई ने अपने अध्यक्षीय भाषण में दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग का विरोध करने के लिए गांधीजी और कांग्रेस की कड़ी आलोचना की और अपने अनुयायियों से आह्वान किया कि वे "मुसलमानों, एंग्लो-इंडियन और भारतीय ईसाइयों जैसे अन्य समुदायों के साथ हाथ मिलाएं और संयुक्त निर्वाचिका के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराएं, जो एक ओर जहां एकता नहीं है, वहां राष्ट्रीय एकता के सपनों को साकार करता है, वहीं दूसरी ओर सांप्रदायिक सोच वाले... हिंदू बहुसंख्यक इसका इस्तेमाल राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए करेंगे जिससे वे कमजोर और पिछड़े अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न कर सकें।" सभा ने अल्पसंख्यक समझौते का समर्थन करते हुए तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन और क्रान्तिकारी आंदोलन की निंदा करते हुए प्रस्ताव पारित किए।

लोथियन समिति - भारतीय मताधिकार समिति - की रिपोर्ट 3 जून 1932 को प्रकाशित हुई थी। रिपोर्ट में कोई विशिष्ट सिफारिश नहीं की गई थी और न ही दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचिका के प्रश्न पर कोई मार्गदर्शन दिया गया था, सिवाय इसके कि इसे विधानमंडलों में जनसंख्या के उस वर्ग के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के कई विकल्पों में से एक के रूप में उल्लेख किया गया था।

सीटों के आरक्षण और पृथक निर्वाचिका की माँग

दलित वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण और पृथक निर्वाचिका की माँग डॉ. आंबेडकर ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में पहली बार उठाई थी। सांप्रदायिक समस्या का समाधान खोजने के गांधीजी के सभी प्रयासों को विफल करते हुए, अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों, आगा खान, सर हेनरी गिडनी, डॉ. डा. बी. आर. आंबेडकर और अन्य ने एकजुट होकर अल्पसंख्यक समझौता या अल्पसंख्यक अधिकारों की याचिका नामक एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए, जिसमें अन्य बातों के अलावा, यह मांग की गई थी कि समझौते के पक्षकार समुदायों को "पृथक निर्वाचिकाओं के माध्यम से सभी विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व प्राप्त होगा... बशर्ते कि, दस वर्षों के बाद, पंजाब और बंगाल के मुसलमानों और किसी भी अन्य प्रांत के अल्पसंख्यक समुदायों के लिए संयुक्त निर्वाचिकाओं को स्वीकार करना खुला होगा... दलित वर्गों के संबंध में, संयुक्त निर्वाचिकाओं में कोई भी परिवर्तन... 20 वर्षों के बाद तक नहीं किया जाएगा..."

जैसा कि आंकड़े दर्शाते हैं, अल्पसंख्यक समझौते ने दलित वर्गों को उनकी अनुमानित जनसंख्या की तुलना में बहुत कम सीटें दीं। प्रांतीय परिषदों में प्रस्तावित कुल 1100 सीटों में से, प्रस्तावित व्यवस्था के तहत, दलित वर्गों को केवल 180 सीटें मिलनी थीं, जबकि उनके दावे के अनुसार, ब्रिटिश भारत की जनसंख्या का 19 प्रतिशत होने के कारण, उन्हें 209 सीटें आवंटित की जानी थीं। तो फिर डॉ. आंबेडकर और श्रीनिवासन ने प्रांतीय विधानमंडलों में दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के इतने कम स्तर को क्यों स्वीकार किया? उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि मुसलमानों, यूरोपीय लोगों, एंग्लो-इंडियन, भारतीय ईसाइयों आदि का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वालों ने मिलकर दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचिका की आंबेडकर की मांग को रेखांकित किया। इस मांग के पीछे ब्रिटिश सरकार का निहित और बाद में स्पष्ट समर्थन भी था, जिसके प्रतिनिधियों ने डा. आंबेडकर को प्रोत्साहित करने के लिए अपनी पूरी कोशिश की। अल्पसंख्यक समझौते के तहत अनुमानित कुल 1100 सीटों में से सवर्ण हिंदुओं और दलित वर्गों को कुल 613 सीटें आवंटित की गईं, जबकि ब्रिटिश सरकार के पंचाट ने उन्हें प्रांतीय सदनों की कुल 1463 सीटों में से कुल 757 सीटें (दलित वर्गों के लिए 71 विशेष सीटों सहित) दीं। अर्थात्, अल्पसंख्यक समझौते ने उन्हें 56 प्रतिशत से थोड़ी कम सीटें आवंटित कीं; सांप्रदायिक पंचाट ने इसे घटाकर 52 प्रतिशत से भी कम कर दिया, जबकि नवीनतम जनगणना के अनुसार, वे देश की जनसंख्या का 68 प्रतिशत से अधिक हिस्सा थे।

डा. बी. आर. आंबेडकर दलित वर्ग, जिन्हें अनुसूचित जाति (SC) कहा जाता है, के लिए संविधान में पृथक निर्वाचन अधिकार की माँग पर डटे थे। इस विषय पर गोलमेज सम्मेलन में भी चर्चा हुई थी। उस समय गांधीजी ने उसका विरोध किया था। गाँधीजी का तर्क था कि ऐसा कोई कानून तथाकथित अछूतों को न्याय दिलाने की मुहिम को कमजोर ही करेगा। दलितों को गांधीजी हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग मानते थे इसीलिए वे अपने शुरूआती दिनों से ही छुआछूत को हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा कलंक मानते थे और इस घृणित परंपरा को यथा शीघ्र समाप्त करने के लिए रचनात्मक कार्यक्रम के माध्यम से हर संभव प्रयास करते थे। गांधीजी मानते थे कि दलितों के लिए अलग मतदान का अंग्रेजी फरमान हिन्दू मुस्लिम समुदाय में बढते मतभेदों की तरह हिन्दू समुदाय में भी उच्च वर्ग और दलितों में वैसा ही स्थाई विभाजन कर देगा और यह विभाजन आजादी के आंदोलन की एकता को बहुत कमजोर कर देगा इसीलिए गांधीजी इस योजना को अमल में न आने देने के लिए अपनी जान की बाजी लगाने के लिए तैयार हो गये थे।

लेकिन महात्मा गाँधी के अछूतों को हिंदुओं से पृथक समुदाय की मान्यता का कड़ा विरोध के बावज़ूद ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडोनल्ड ने गोलमेज सम्मेलन में डॉ बीआर डा. बी. आर. आंबेडकर द्वारा प्रस्तुत किए गये तथ्यों और तर्कों को उचित मानते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचक मण्डल सहित दो मतों का अधिकार प्रदान किया।

गांधीजी ने अंग्रेज़ी हुक़ूमत के साथ पत्र-व्यवहार भी किया था। पत्र द्वारा ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी को धैर्य रखने को कहा था और आश्वासन दिया था कि सरकार गांधीजी से चर्चा किए बिना इस दिशा में कोई आदेश ज़ारी नहीं करेगी।

मरते दम तक विरोध

उस समय गांधी जी राजद्रोह के आरोपों में पुणे की यरवदा जेल में थे। गांधीजी ने प्रधानमंत्री को सूचित कर दिया कि वे इस अवार्ड का मरते दम तक विरोध करेंगे। उन्होंने 18 अगस्त को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडोनाल्ड को लिखा कि वे इस निर्णय का विरोध आमरण अनशन के माध्यम से करेंगे, जो 20 सितंबर को दोपहर से शुरू होगा। चूंकि यह तिथि एक महीने बाद थी, इससे ब्रिटिश अधिकारियों को नए निर्देश जारी करने का समय मिल जाएगा, और गांधीजी को अपनी योजना बदलने का भी समय मिल जाएगा, क्योंकि अनशन की उपयुक्तता को लेकर उनके मन में अभी भी कुछ संदेह था।

रामसे मैकडोनाल्ड, प्रधानमंत्री ने गांधीजी को जवाब देने के लिए सर सैमुअल होरे को कहा। सर सैमुअल ने एक बेहद विनम्र पत्र लिखा, जिसमें उसने कहा कि उसे समझ नहीं आ रहा कि गांधी को भूख से क्यों मरना चाहिए, "सिर्फ़ इसलिए कि दलित वर्ग, जो आज भयानक कमज़ोरियों से पीड़ित हैं, अपनी पसंद के सीमित संख्या में प्रतिनिधि हासिल न कर पाएँ," और उसने गांधीजी से पुनर्विचार करने का आग्रह किया। गांधीजी ने उत्तर दिया कि दांव पर हिंदू धर्म है, जिसके बारे में उन्हें उम्मीद नहीं थी कि एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री को अच्छी जानकारी होगी, और उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि वे स्वार्थी कारणों से ऐसा नहीं कर रहे हैं। यह उनका नौवाँ अनशन था, और उन्होंने बढ़ते उत्साह के साथ स्वीकार किया कि यह अब तक का उनका सबसे खतरनाक अनशन था।

अंग्रेजों ने अपने फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। दलितों के हितैषी  डा. बी. आर. आंबेडकर ने कहा कि वह गाँधीजी की खातिर एक जायज माँग का बलिदान नहीं करेंगे, खासकर जब कोई वैकल्पिक प्रस्ताव पेश नहीं किया गया था। डा. बी. आर. आंबेडकर ने महात्मा गाँधी पर आरोप लगाया कि वो हिन्दुओं और दलितों के बीच की खाई को और चौड़ी कर रहे हैं। महात्मा गाँधी का मानना था कि दलितों को पृथक समुदाय और निर्वाचन देना भारतीय समाज को और अधिक टुकड़ों में बाँट देगा। उनका मानना था कि छुआछूत हिन्दू धर्म का अंग नहीं है और हिन्दुओं में अस्पृश्यता कलंक है। उनका यह भी मानना था कि निकट भविष्य में यह ख़त्म हो जाएगी, लेकिन पृथक निर्वाचन इस घाव को हमेशा हरा रखेगा और अछूतों अस्तित्व को खतरे में ही डालेगा।

गांधीजी ने मांग की कि दलित वर्गों के प्रतिनिधियों का चुनाव व्यापक, यदि संभव हो तो सार्वभौमिक, समान मताधिकार के तहत आम मतदाताओं द्वारा किया जाना चाहिए। साथ ही, उन्होंने दलित वर्गों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ाने की मांग पर भी कोई आपत्ति नहीं जताई।

‘साम्प्रदायिक पंचाट’ या साम्प्रदायिक निर्णयकी घोषणा

17 अगस्त 1932 तक कोई नया घटनाक्रम नहीं हुआ जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडोनाल्ड ने ‘साम्प्रदायिक पंचाट’ या साम्प्रदायिक निर्णयकी घोषणा की थी। 17 अगस्त, 1932 को साम्प्रदायिक अधिनिर्णय प्रकाशित हुआ। यह अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनाई गई फूट डालो और राज करो की नीति का ही एक दूसरा उदाहरण था। इस योजना ने प्रांतीय विधानसभाओं में सीटों की संख्या मौजूदा परिषदों की संख्या से लगभग दोगुनी तय कर दी। इस निर्णय में मुस्लिम, सिख आदि की तरह ब्रिटिश सरकार ने तथाकथित अछूत वर्ग को भी हिंदुओं से अलग समुदाय की मान्यता दी। भारत की चुनाव पद्धति के बारे में, अंग्रेज़ों की फूट डालो और राज करो नीति के तहत, ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैक्डोनैल्ड ने इस सांप्रदायिक निर्णय में दलित जातियों को पृथक निर्वाचन की घोषणा की जिसे साम्प्रदायिक पुरस्कार (Communal Award) भी कहा गया। अर्थात मुसलमानों का चुनाव केवल मुसलमानों द्वारा और सिखों का चुनाव केवल सिखों द्वारा किया जाना था, इत्यादि। दलित जातियों को आम (हिन्दू) निर्वाचन क्षेत्र में मतदान देने के साथ ही साथ अपने पृथक निर्वाचन क्षेत्र में भी मत देने का अधिकार दिया गया। इसका साफ मतलब यह था कि उनके लिए पृथक निर्वाचन-क्षेत्र भी बनाए जाएंगे और उन्हें दुहरा मताधिकार होगा। मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों को पहले ही अल्पसंख्यक माना जा चुका था। इस पंचाट ने दलित वर्गों (आज की अनुसूचित जातियों) को भी एक अल्पसंख्यक समुदाय घोषित किया, जिन्हें पृथक निर्वाचन क्षेत्र का अधिकार प्राप्त था और इस प्रकार उन्हें शेष हिंदुओं से अलग कर दिया।

डॉ. तारा चंद ने टिप्पणी की: "योजना में स्पष्ट रूप से यह मान लिया गया था कि भारत में केंद्र और प्रांतों में कार्यक्रम और दल आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक आधार पर नहीं, बल्कि धार्मिक और सांप्रदायिक हितों के आधार पर निर्धारित होंगे। इसलिए, शुरुआत से लेकर ऊपर तक, पूरा ढाँचा - निर्वाचन क्षेत्र, चुनाव, मंत्रालय - सांप्रदायिक आधार पर संगठित किया गया था।"

इस अवार्ड से देश भिन्न-भिन्न जाति सम्प्रदाय में बंट जाता। जाति के आधार पर मतदाता सूची से तो अस्पृश्यता और गहरी हो जाती। दुनिया के किसी भी देश में जाति के आधार पर मतदाता सूची नहीं बनाई जाती। इसका अनिवार्य परिणाम भारतीय लोगों में विभाजन और एक साझा राष्ट्रीय चेतना के विकास में बाधा उत्पन्न करना था। यह साफ था कि अंग्रेज़ सरकार चाहती थी कि देशवासी आपस में लड़ें और दुराव रखें। इससे अंग्रेज़ों का हित सधता। गांधीजी ने इस आधार पर इसका विरोध किया कि इससे हिंदू धर्म में एक विभाजन पैदा होगा जो असहनीय था और इस आधार पर भी कि यह दलित वर्गों को स्थायी बनाता है, जो पूरी तरह से अनुचित और भयावह है। जैसा कि उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में कहा था: "मैं चाहूँगा कि हिंदू धर्म नष्ट हो जाए बजाय इसके कि अस्पृश्यता जीवित रहे।" गांधीजी ने लिखा था, मुझे आपके इस फैसले का अपनी जान देकर भी विरोध करना होगा। ऐसा करने का एकमात्र तरीका यही है कि मैं नमक और सोडा के साथ या बिना पानी के अलावा किसी भी तरह के भोजन से हमेशा के लिए आमरण अनशन की घोषणा कर दूँ। यह अनशन 20 सितंबर को दोपहर 12 बजे शुरू होगा।

गांधीजी को विधानमंडलों में दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व पर कोई आपत्ति नहीं थी। वे समिति के अन्य सदस्यों की सहमति से उनके अति-प्रतिनिधित्व के लिए भी तैयार थे। उन्हें अस्पृश्यता में निहित स्वार्थ के निर्माण और कुछ लोगों पर अस्पृश्यता का कलंक हमेशा के लिए लगा रहने से आपत्ति थी। उनका मानना ​​था कि हिंदुओं को वैधानिक आरक्षण की बाध्यता के बजाय अपनी इच्छा से 'दलितों' के लिए सही काम करने का अवसर मिलना चाहिए।

लेकिन मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के विचार को कांग्रेस ने 1916 में ही मुस्लिम लीग के साथ समझौते के तहत स्वीकार कर लिया था। इसलिए, कांग्रेस ने यह रुख अपनाया कि यद्यपि वह पृथक निर्वाचक मंडलों के विरोध में थी, परंतु वह अल्पसंख्यकों की सहमति के बिना पंचाट में बदलाव के पक्ष में नहीं थी। परिणामस्वरूप, सांप्रदायिक पंचाट से पूरी तरह असहमत होने के बावजूद, उसने न तो इसे स्वीकार करने का और न ही अस्वीकार करने का निर्णय लिया। लेकिन दलित वर्गों को शेष हिंदुओं से अलग राजनीतिक इकाई मानकर उन्हें अलग करने के प्रयास का सभी राष्ट्रवादियों ने कड़ा विरोध किया। उस समय यरवदा जेल में बंद गांधीजी ने, विशेष रूप से, इस पर बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने इस पुरस्कार को भारतीय एकता और राष्ट्रवाद पर एक हमले के रूप में देखा, जो हिंदू धर्म और दलित वर्गों दोनों के लिए हानिकारक था, क्योंकि यह दलित वर्गों की सामाजिक रूप से पतित स्थिति का कोई समाधान नहीं करता था। एक बार जब दलित वर्गों को एक अलग समुदाय के रूप में मान लिया गया, तो अस्पृश्यता उन्मूलन का प्रश्न ही नहीं उठता और इस संबंध में हिंदू समाज सुधार का कार्य रुक जाता।

(क्रमश:) अभी जारी है ...

***  ***  ***

मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।