राष्ट्रीय आन्दोलन
337. गणेश शंकर विद्यार्थी
1931
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कुछ
नाम ऐसे हैं जो सत्य और साहस के मार्ग को प्रकाशित करते हैं। ऐसे ही एक प्रकाश
पुंज हैं श्री गणेश शंकर विद्यार्थी। महान स्वतंत्रता सेनानी, निष्पक्ष पत्रकार और समाज सुधारक गणेश शंकर विद्यार्थी का
जीवन हमें निडरता, सत्यनिष्ठा व समाज के प्रति समर्पण की सीख देता
है। उन्होंने अपनी कलम को सत्य और न्याय की आवाज बुलंद की तथा समाज में व्याप्त
अन्याय के विरुद्ध अनवरत संघर्ष किया।
उनका जन्म 26 अक्टूबर 1890 को, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने एक क्लर्क और शिक्षक के
रूप में अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत की थी। इसके बाद वह कानपुर में शिक्षक बन गए। बाद में पत्रकारिता
और प्रकाशन से जुड़ गए। उन्होंने विक्टर ह्यूगो के उपन्यास "नाइन्टी-थ्री" का हिंदी में
अनुवाद किया था।
वह "प्रताप" समाचार पत्र के संस्थापक-संपादक के रूप में
प्रसिद्ध हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने किसानों, मजदूरों और आम लोगों की आवाज उठाई। 1913 में, उन्होंने अपने हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र, "प्रताप" की स्थापना मित्र शिवनारायण मिश्र
और नारायण प्रसाद अरोड़ा के सहयोग से की थी। वे कांग्रेस पार्टी के एक प्रमुख नेता थे फिर भी उनका भगत
सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन) के नेतृत्व वाले
क्रांतिकारी समूह के साथ घनिष्ठ संबंध था। भगत सिंह जैसे कई क्रांतिकारी भी प्रताप के कार्यालय में आते थे और
उनके कुछ लेख भी प्रताप में प्रकाशित हुए थे। उन्होंने न केवल अपने समाचार पत्र में क्रांतिकारी विचारों
को स्थान दिया बल्कि ब्रिटिश निगरानी से बचने वालों के लिए वित्तीय सहायता और
सुरक्षित ठिकाने भी प्रदान किए। 1930 तक प्रताप उपनिवेशीय भारत के उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक
प्रसारित समाचार पत्र बन गया था। अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध लिखने और स्पष्ट
तरीके से अपनी बात लिखने के कारण यह समाचार पत्र पत्रकारिता का प्रतिमान बन गया।
विद्यार्थी को पत्रकारिता उतनी ही प्रिय थी
जितनी देश का स्वराज्य का सपना। 1916 में, उन्हें लखनऊ में गांधीजी से मिलने का सौभाग्य
प्राप्त हुआ। यह मुलाकात विद्यार्थी जी के जीवन में एक नया दृष्टिकोण लेकर आई। वह कान्ग्रेस
(तब कान्ग्रेस का अर्थ स्वराज्य आन्दोलन करने वालों का दस्ता हुआ करता था) से जुड़
गए। गाँधीजी को उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया। विद्यार्थी जी गांधीजी के पद
चिन्हों का अनुसरण करते हुए सड़कों पर उतर आए। उन्होंने स्वयं को ब्रिटिश द्वारा
बोए गए सांप्रदायिक विभाजन के बीजों से निरंतर लड़ने के लिए समर्पित कर दिया।
उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को दशहरा और
मुहर्रम के दौरान मस्जिदों और मंदिरों के पास ढोल बजाने से बचने की दृढ़ता से
सिफारिश की। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई। होमरूल आंदोलन, असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन सहित
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके
लेखन और गतिविधियों के कारण उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया और कई मुकदमों का
सामना करना पड़ा। 1930 में उत्तर प्रदेश प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के
अध्यक्ष चुने गए। गणेश शंकर विद्यार्थी असहयोग आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़े रहे। उन्होंने कानपुर के मिल वर्करों की पहली
हड़ताल का नेतृत्व किया। रायबरेली के किसानों के दर्द को जनता के सामने रखा। उन्हें
रायबरेली कि किसानों के लिए बोलने पर जेल में डाला गया।
1931 में जब 23 मार्च को भारत के तीन महान सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गई तो पूरे देश
में उबाल आ गया। कान्ग्रेस समेत तमाम क्रांतिकारियों ने देश में हड़ताल, धरने और बंद का आयोजन किया। कानपुर में भी बंद
बुलाया गया था। अंग्रेजों के शह पर दुकानें बंद ना करने के बाद
साम्प्रदायिक हिंसा भड़की। विद्यार्थी जी कराची जाने की तैयारी कर रहे थे। वह कान्ग्रेस
के वार्षिक अधिवेशन में शामिल होने की तैयारी में थे। जब उनके शहर (कानपुर) का
मिजाज बिगड़ गया तो वह यहीं रुक गए।
कानपुर दंगा अब तक का सबसे भयावह दंगा था। बड़े
पैमाने पर आगजनी, महिलाओं पर बर्बर हमले, बच्चों
का नरसंहार और अन्य भयावह कृत्य किए गए। कानपुर में सांप्रदायिक दंगों के दौरान
शांति बनाए रखने के लिए उनके प्रयास उनकी सामाजिक सामंजस्य के प्रति प्रतिबद्धता
का प्रमाण हैं। इसी प्रकरण में उनकी मृत्यु हुई। उत्तर प्रदेश प्रांतीय कांग्रेस
कमेटी के अध्यक्ष और स्थानीय राष्ट्रवादी पत्रिका प्रताप के संपादक और
हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए एक निडर योद्धा, गणेश
शंकर विद्यार्थी शहर भर में घूमे और हिंदू बहुल इलाकों से मुसलमानों और मुस्लिम
बहुल इलाकों से हिंदुओं को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया। गणेश शंकर विद्यार्थी
अंतिम क्षणों तक लोगों से दंगा रोकने की अपील करते रहे। उनकी आवाज़ में दृढ़ विश्वास था और इस तरह कई लोगों की जान
बच गई। गणेश शंकर विद्यार्थी को केवल इसलिए मारा गया था क्योंकि वह दंगों में फंसे
लोगों को बचा रहे थे। 25 मार्च 1931 को कानपुर में सांप्रदायिक दंगों के दौरान एक भीड़ द्वारा
उनकी हत्या कर दी गई थी। गणेश शंकर विद्यार्थी की जब हत्या हुई तब वह मात्र 41 वर्ष के थे। लेकिन 25 मार्च को उनकी हत्या कर
दी गई, जहाँ वे घायलों को राहत देने और गुस्सा शांत
करने गए थे। हत्या का तथ्य 27 मार्च को तब सामने आया जब इस शहीद के शव की पहचान
हुई। उन्हें एक निडर, समर्पित पत्रकार और देशभक्त के रूप में याद
किया जाता है जिन्होंने राष्ट्र के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान पत्रकारिता में प्रजातांत्रिक मूल्यों, सत्यान्वेषण और सामाजिक सरोकार में उनके योगदान
के लिए दिया जाता है।
गांधीजी ने कानपुर में हुए सांप्रदायिक नरसंहार
पर दुख व्यक्त किया, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी गई
थी। यह बहुत ही वीभत्स था। महिलाओं का अपमान किया गया; बच्चों
को मौत के घाट उतार दिया गया। इससे क्या फर्क पड़ता है कि वे महिलाएं और बच्चे
हिंदू थे या मुसलमान? उन्होंने घोषणा की: मेरे आसपास हो रहे नरसंहार
के बीच मैं बेफिक्र होकर नहीं रह सकता। मैं यह घोषणा करता हूँ कि जैसे ही मुझे लगे
कि जीवन असहनीय है, मैं इन खूनी झगड़ों को देखने के बजाय, अनशन
करने का साहस जुटा लूँगा। गांधीजी ने कहा, "उनका
खून वह सीमेंट है जो अंततः दोनों समुदायों को जोड़ेगा। कोई भी समझौता हमारे दिलों
को नहीं बांध सकता। लेकिन गणेश शंकर विद्यार्थी ने जो वीरता दिखाई, वह
सबसे कठोर दिलों को भी पिघला देगी, उन्हें
एक कर देगी। हालाँकि, ज़हर इतना गहरा हो गया है कि विद्यार्थी जैसे
महान, आत्म-त्यागी और अत्यंत साहसी व्यक्ति का खून भी
आज हमें इससे मुक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता। यह नेक उदाहरण हम सभी को
प्रेरित करे कि यदि अवसर फिर आए तो हम भी ऐसा ही प्रयास करें।"
27 मार्च को विषय समिति की बैठक में गणेश शंकर
विद्यार्थी को श्रद्धांजलि देते हुए, गांधीजी ने कहा: उनका महान उदाहरण हम सभी के लिए प्रेरणा
बने, यह हमें अपने कर्तव्य के प्रति जागृत करे...
कानपुर की शर्म हमें एक सबक सिखाए ताकि हम यह महसूस कर सकें कि 300 पुरुषों और
महिलाओं की जान भी स्थायी शांति के लिए बहुत बड़ी कीमत नहीं है।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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