मंगलवार, 31 मई 2011

भारत और सहिष्णुता-4 :: भारत निर्माण

clip_image002रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी  रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।

जितेन्द्र त्रिवेदी

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clip_image001[4]भारत के निर्माण की प्रक्रिया को जानना इसलिये भी मुझे अत्यन्त आवश्‍यक लगा है कि आज महाराष्ट्र ही नहीं भारत के कई प्रांतो में या खुलकर कहूँ तो सभी प्रांतो में अपने-अपने क्षेत्र के अतीत को अपने-अपने जाति के अतीत को अपने-अपने सम्प्रदाय के अतीत को अपनी-अपनी भाषा के अतीत को, यहाँ तक कि अपने-अपने शहरों के पुराने नामों के अतीत को याद कर अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ मानने की होड़ लग गयी है। ये सब लोग अपनी-अपनी प्राचीन संस्कृति और पुराने तत्वों को फिर से जगाने के लिये आवाज उठा रहे हैं, पर समग्रता के जागरण की बात, भारतीयता के जागरण की बात, सहिष्णुता की बात कोई भी नहीं कर रहा है। चाहे आप किसी भी चेहरे को देख लीजिये जो अपने-अपने स्तर पर अपनी-अपनी बपौती -(जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र, शहर, देहात आदि) की अधिक प्रखरता के लिये तो प्रयासरत हैं। इनमें उनका उतना बड़ा मकसद नहीं है कि वे वास्तव में उनके लिये प्राणपण देना चाहते हैं बल्कि उन्हें तो उसके माध्यम से सिर्फ वोट या अगाध प्रसिद्धि की ही चाह अधिक है। भले ही वे कभी अपने अस्तित्व पर खतरा जानकर ही इनका सहारा ले रहे हों, पर निराशा नहीं तो दुख की बात जरूर है कि ऐसा करने वालों को कोई रोकने की कोशिश और हिम्मत भी नहीं कर रहा।

वास्तव में वे जो बतलाना चाहते हैं वह है समाज, जाति, धर्म, क्षेत्र, संस्कृति का पुराना प्रतिमान कि हम वैसे ही रहें और वैसा रहने में उनको सबसे अधिक फायदा है। ऐसी स्थिति में भारत के निर्माण को समझना निहायत जरूरी है कि यह देश आखिर बना कैसे? किन तत्वों से इसकी रचना हुई है? कितने स्नेह-जल से इसकी धारा की सिंचाई हुई है? हम आज जो भी हैं उसमें हमारी पिछली बातों एवं कार्यो का भरसक योगदान है, पर अब हम उसी कीर्ति के बल पर उन्ही मान्यताओं के बल पर भारत को नही चला सकते। अगर हम इस बात को नहीं समझेगें तो हिन्द मिट जायेगा। उसकी ग्रहणशीलता ही तो उसका ऊर्जा केन्द्र है। संकीर्णता से उसका उत्स (श्रोत) सूख जायेगा। उदारता ने ही हिन्द को पाला पोसा है और उसके ना रहने पर हिन्दुस्तानियत कहाँ रह जायेगी?

अगर आज इस सोच में, जो तेरे-मेरे की बात करती है में, परिवर्तन न लाया गया तो स्वभवतः वे सारी की सारी विषमताएं भी पुनः सिर उठाएंगी ही, जिसमें अतीत में हमने अपने ही भाईयों पर सामाजिक अन्याय किया था। निम्न वर्णों पर विशेषतः शूद्रों और चण्डालों पर जिस तरह से अपात्रताएं थोपी गईं थीं, उन्‍हें आज के विचार में पुलर्व्याख्यायित करने की आवश्‍यकता है कि इन शक्तियों को पहचानने में हमें कोई भूल नहीं करनी चाहिये कि ''तेरे-मेरे’’ की अवधारणा व्यक्ति को कहां से कहां ले जा सकती है। तमिल कवि सुब्रहमण्‍यम भारती ने अपनी सुन्दर कविता में लिखा है- ''मैं और तू कहने से ओठ नहीं जुड़ते, पर हम कहने से तो जुड़ जाते हैं।''

प्राचीन मध्य और उसके बाद के काल की बहुत सी रूढ़ियां समकालीन भारत में भी हमारा पीछा करती हुई आ गई हैं। पुराने लोकाचार, मान्यताएं, सामाजिक रूढ़ियां और दकियानूसीपन और सैकड़ों कर्मकांडों की विधियां हमारे मन में इतनी गहराई तक पैठ गई है कि आज भी हम आसानी से इनसे छुटकारा नहीं पा रहे और बेवश होकर संकीर्णता के दावानल में गिर पड़े हैं। दुर्भाग्यवश ये पुराने दुराग्रह ही हमें आज भी उकसा रहे हैं और व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के विकास में आड़े आ-आकर हमारी समग्र भारतीय की सोच को बनने में अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं। इस तरह की बातों को पहले तो खासकर ब्रिटिश राज में और उसके बाद वोट बैंक की राजनीति में हमारे ही कर्णधारों ने, जिनको हमने देश की बागडोर थमा दी थी, हमारे भोलेपन का खूब फायदा उठाया और तत्कालीन परिस्थितियों में कभी गरीबी के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी दलित के नाम पर जान-बूझ कर बढ़ावा दिया गया। सिर्फ अपने क्षुद्र स्वार्थो की पूर्ति हेतु क्षणिक पदों को हथियाने की जोड़-तोड़ में घृणा को एक सिरे से दूसरे सिरे तक बढ़ा दिया और जब हम आज भ्रमित खडे़ है तो वे लोग मना कर रहे है कि हमने राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के लिये लड़ने को कभी नही कहा था। वे यह भी कह सकते हैं कि गरीबी भगाओ और दलित बढ़ाओं का नारा हमने तो दिया ही नही था और ''तुष्‍टीकरण’’ की राजनीति क्या होती है यह तो हमें आज तक पता ही नहीं है। वे चाहे जो कह सकते हैं और चाहे जो भी कहें, हमारे इस विश्‍लेषण का लुब्बो-लुबाव यहीं रहने वाला है कि जो उन्होंने कहा या हमने गलत समझ लिया था, अथवा जो भी है, हो चुका है, दंगे हो चुके है, खून बह चुका है, दूरियां वे बढ़ाना चाहते थे और अब दूरियां बेपनाह आ चुकी हैं। वे हममें घृणा भरना चाहते थे और अब हम सब एक दूसरे को इस कदर भी बर्दाश्‍त नहीं कर रहे कि अपने ही देश के आदमी के पास बैठना नहीं चाहते और एक राज्य का आदमी हमें दूसरे राज्य में नागवार मालूम गुजरने लगा है। तो अब हम क्या जीना छोड़ दे और मर जायें? या ऐसे ही जिएं और रोज लड़ें?

जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद हमारे देश के जनतांत्रिक रास्ते से एकता कायम रखते हुये आगे बढ़ने में बाधा डाल रहे है। जातीय व्यवधान और क्षेत्रीय अवरोध पढे़-लिखे लोगों, राजनेताओं और सरकारी पदों में ऊपर बैठे लोगों के मन में भी असहिष्णुता पैदा कर रही है। साथ-साथ रहने और समेकित संस्कृति के लक्षण को और सबसे अधिक शारीरिक श्रम और व्यक्तिगत प्रयासों की प्रतिष्ठा को स्थापित होने देने में व्यवधान पैदा कर रही हैं। आज के 21वीं सदी के दौर में भी हमें अपने सामान्य हित में, लोकहित में एक नहीं होने दे रही हैं। दलितों को, महिलाओं को, बच्चों को नागरिक अधिकार भले ही मिल गये हों लेकिन वे अपने कर्तव्यों को समझने में अभी भी लापरवाही कर रहे हैं। भारत के निर्माण के अध्ययन की विवेचना में हम तह में बैठकर पता लगा सकेंगे कि इन दुराग्रहों की जडे़ कहां हैं। हम साथ-साथ मिलकर उन कारणों को ढूंढ निकालने की कोशिश कर रहे हैं जिन पर सब प्रकार की असहिष्णुता टिकी हुई है और संकीर्णता को दिनानुदिन बढ़ावा मिल रहा है। अतः भारत के निर्माण की प्रक्रिया का विश्‍लेषण केवल मेरे लिये ही प्रासंगिक नहीं है, जो यह जानना चाहता है कि इस असहिष्णुता की वजहें क्या हैं और सहिष्णुता का सही स्वरूप क्या है बल्कि उन लोगों के लिये भी प्रासंगिक है जो देश की प्रगति में बाधा डालने वाले तत्वों को पहचानना चाहते है।

सोमवार, 30 मई 2011

नवगीत-गूंजता होगा तुम्हारा नाम

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श्यामनारायण मिश्रश्यामनारायण मिश्र

घाटियों में

गूंजता होगा तुम्हारा नाम।

 

दूर प्राची के अधर से

सारसों की दुधिया ध्वनि

              चू रही होगी।

पत्थरों पर से फिसलती धूप

झरने की तली को

              छू रही होगी।

फुनगियों पर

चढ़ा होगा सुआ पंखी घाम।

 

ओस भीगे छप्परों पर बिछे होंगे

कोहरे में मिली

         कोमल धूप के फाहे।

कंठ तक डूबी मथानी से

दही के साथ, मथ रहे होंगे

      तुम्हारे स्वप्न अनब्याहे।

उंगलियों से

कोहनी तक अटा होगा काम।

 

यहां आशा की किरण-कोपल

कहीं दिखती नहीं, धुंध से

       डूबी हुई कॉलोनियों में।

चिलचिलों में पैक

सस्ती सभ्यता का आदमी,

      ढ़ल रहा है शिश्नजीवी योगिनी में।

सुबह है

पर चेहरों पर लिख गई है शाम।

रविवार, 29 मई 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-68

भारतीय काव्यशास्त्र-68

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु ध्वनि, वस्तु से अलंकार, अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार ध्वनि पर चर्चा हुई थी। इस अंक में संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ कविप्रौढोक्तिसिद्ध पदद्योत्य ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु ध्वनि, वस्तु से अलंकार, अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार ध्वनि पर चर्चा की जाएगी।

सर्वप्रथम वस्तु से वस्तु ध्वनि का उदाहरण लेते हैं। प्रस्तुत उदाहरण एक प्राकृत भाषा का श्लोक है। उसके नीचे श्लोक की संस्कृत छाया भी दी गयी है।

राईसु चंदधवलासु ललिअमप्फालिऊण जो चावम्।

एकच्छत्तं विअ कुणइ भुवणरज्जं विजंभंतो।।

(रात्रीषु चन्द्रधवलासु ललितमास्फाल्य यश्चापम्।

एकच्छत्रमिव करोति भुवनराज्यं विजृम्भमाणः।। संस्कृत छाया)

अर्थात् चाँदनीयुक्त धवल वर्णवाली रातों में प्रकट होकर (कामदेव) अपनी धनुष की टंकारमात्र से पूरे विश्व पर एकछत्र सा राज्य करता है।

यहाँ उपर्युक्त वस्तु से यह वस्त्वर्थ ध्वनित होता है कि जिन कामी जन (स्त्री-पुरुष) का कामदेव राजा है, उनमें से कोई भी उसकी अवज्ञा नहीं करता और रातभर जागकर उपभोग में लगे रहते हैं।

अब वस्तु से अलंकार ध्वनि का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है-

निशितशरधियाSर्पयत्यनङ्गो दृशि सुदृशः स्वबलं वयस्यराले।

दिशि निपतति यत्र सा च तत्र व्यतिकरमेत्य समुन्मिषन्त्यवस्थाः।।

अर्थात् कामदेव युवती कामिनियों के कटाक्ष के तीक्ष्ण बाण को अपनी पूरी शक्ति अर्पित कर देता है, यही कारण है कि वह जिधर जाता है (पड़ता है) वहाँ एक साथ सभी अवस्थाएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

यहाँ उपर्युक्त वस्तु अर्थ से परस्पर विपरीत अवस्थाएँ- रोना, हँसना आदि काम की दस दशाएँ- एक साथ उत्पन्न हो जाती हैं यह व्यंग्यार्थ आता है, जिसमें विरोधालंकार है। उक्त व्यंग्यार्थ व्यतिकर पद से प्रकाशित होता है।

इसके बाद अलंकार से वस्तु ध्वनि का उदाहरण लेते हैं। यह भी प्राकृत भाषा का श्लोक है। साथ में इसकी संस्कृत छाया भी दी जा रही है-

वारिज्जन्तो वि पुणो सन्दावकदत्थिएण हिअएण।

थणहरवअस्सएण विसुद्धजाई ण चलइ से हारो।।

(वार्यमाणोSपि पुनः सन्तापकदर्थितेन हृदयेन।

स्तनभरवयस्येन विशुद्धजातिर्न चलत्यस्या हारः।।संस्कृत छाया)

अर्थात् संताप से व्यथित हृदय नायक के द्वारा बार-बार हटाए जाने पर भी हार (माला) विशुद्ध जाति का होने के कारण अपने मित्र स्तनों से नहीं हटता है।

इस श्लोक में काव्यलिंग अलंकार (जहाँ युक्ति (हेतु/कारण) देकर वाक्य या पद के अर्थ का कथन किया जाय, वहाँ काव्यलिंग अलंकार होता है) है, जिससे (काव्यलिंग अलंकार से) हार हटाने पर भी लगातार स्तनों पर लटक रहा है यह वस्तु अर्थ न चलति पद से व्यंजित हो रहा है।

अब अंक के अंत में अलंकार से अलंकार ध्वनि का उदाहरण लेते हैं। यह श्लोक भी प्राकृत भाषा का है। साथ में इसकी संस्कृत छाया भी है। इस श्लोक में संभोग शृंगार का वर्णन किया गया है-

सो मुद्धसामलंगो धम्मिल्लो कलिअललिअणिअदेहो।

तीए खंधाहि वलं गहिअ सरो सुरअसंगरे जअइ।।

(स मुग्धश्यामलाङ्गो धम्मिल्लः कलितललितनिजदेहः।

तस्याः स्कन्धाद्वलं गृहीत्वा स्मरः सुरतसङ्गरे जयति।। संस्कृत छाया)

अर्थात् नायिका के श्यामल केशपाश रूपी कामदेव एकबार संभोग के बाद नायिका के कंधों से बल प्राप्तकर पुनः सुरत-समर के लिए उत्कर्ष को प्राप्त कर लेता है।

इस श्लोक में श्यामल केशपाश को ही कामदेव कहा गया है, अर्थात् श्यामल केशपाश उपमेय कामदेव उपमान का रूप ले लिया है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है। यहाँ द्रष्टव्य है कि एकबार सुरत-व्यापर होने के बाद कारण समाप्त हो गया। पुनः सुरत व्यापार के लिए उद्यत होने का कथन, अर्थात् कारण के अभाव मे कार्य का होना (विभावना अलंकार) व्यंग्य है। और यह व्यंग्य स्कन्ध (कंधा) से व्युत्पन्न हो रहा है।

अगले अंक में कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध पदद्योत्य ध्वनि के भेदों पर चर्चा की जाएगी।

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शनिवार, 28 मई 2011

फुरसत में ... दिल ढूँढता है फिर वही ऊटी ... !

फुरसत में ...

दिल ढूँढता है फिर वही ऊटी ..!

IMG_0545_thumb[1]मनोज कुमार

झिंगूर दास 237आपको तो याद ही होगा … हाथों में हाथ डाले हनीमून कपल की चर्चा हमने पिछले पोस्ट में की थी। क्या कहा …. भूल गए ?!  ‘अरे! ये कैसे कर सकते हैं आप?’

झिंगूर दास 232स्वच्छंदता से घूमने-फिरने और रोमांस के लिए जस्ट मैरिड (नवविवाहित जोड़ों) की पसंदीदा रोमांटिक जगहों की भारत में कमी नहीं है। फिर भी मुझे लगता है कि सबसे अधिक वे पर्वतीय प्रदेशों में जाना पसंद करते हैं। इठलाती-मचलती नदी, अपनी ताज़गी से मदमाता प्राकृतिक सौन्दर्य, ऊंची-ऊंची बर्फ़ीली पर्वत चोटियां, सुंदर पशु-पक्षियों का समूह, हरे-भरे जंगलों से आच्छादित घाटी, चट्टानों पर गिरते झरने और फलों से लदे बाग, हनीमून मनाने के लिए लोगों की पहली पसंद तो होगी ही।

झिंगूर दास 180दक्षिण भारत में ऊटी भी इसी तरह का स्थल है! इस हिल-स्टेशन को कुदरत ने सदाबहार ख़ूबसूरती से नवाज़ा है। गरमी हो या सर्दी, यहां हर मौसम में मस्ती, रोमांस, रोमांच का एक संपूर्ण पैकेज मौज़ूद रहता है। इस जगह पर आकर हमें तो काफ़ी सुकून भरे एहसास का अनुभव हुआ। जीवन के सफ़र की शुरुआत करने वालों के लिए तो यह एक बहुत ही हसीन जगह है, जहां रंग-विरंगे फूलों की कतारें, हरी चादर से ढकी धरती स्वप्नलोक सरीखी लगती है। इसमें कोई शक नहीं कि नवदंपत्ती के लिए एक-दूसरे को समझने, एक-दूसरे के लिए समर्पण की भावना जगाने, तथा एक-दूसरे के दिल की गहराइयों में जगह बना लेने में ऊटी की सुरम्य वादियां निश्चित रूप से मददगार साबित होती होंगी।

नीलगिरी की पहाड़ियों में बसी नगरी ऊटी को दक्षिण भारतीय ‘पर्वतों की रानी’ कहते हैं। नीलगिरी संसार के सबसे पुराने पर्वत श्रेणियों में से एक है। यह हिमालय से भी पुराना है। दक्षिण भारत के तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक की संधि-स्थल पर स्थित यह पश्चिमी घाट झिंगूर दास 197पर्वत श्रृंखला अपने विशिष्ट जैव-विभिन्नता के लिए जाना जाता है। 36 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला यह हिल स्टेशन समुद्र तल से 2,240 मीटर की ऊंचाई पर है। गर्मियों में यहां का औसत तापमान 10 से 250 C और जाड़े में 0 से 210 C होता है। यहां की सैर के लिए अप्रील से जून और सितम्बर से नवम्बर अनुकूल मौसम होता है। गर्मी में तो हलके ऊनी वस्त्र से काम चल सकता है पर जाड़े में मोटे ऊनी वस्त्रों की ज़रूरत पड़ती है। यहां की सादगी भरी सुंदरता में ऐसा ग़जब का आकर्षण है कि यह देखने वालों को चकित कर देती है।

कोलाकाता की, शहरी भाग-दौड़ की ज़िन्दगी, तपती गरमी और उमस भरे वातावरण से हटकर ऊटी जैसे सुरम्य हिल स्टेशन पहुंचना हमारे लिए एक असीम आनंद की अनुभूति प्रदान करने वाला था। प्रकृति के सान्निध्य में कुछ क्षण सुकून के बिताने का अवसर वर्णनातीत है। अंग्रेज़ों ने तो जिस जगह की जलवायु और मौसम को इंगलैंड के ही समान माना था, उस जगह की सुरम्य वादियों का अनछुआ नैसर्गिक सौन्दर्य बरबस ही हमारा मन मोह ले रहा था। धुंध से ढ़की घाटियां और शीतलता प्रदान करता वातावरण मन में रूमानी अनुभूतियों का मेला सा लगाता प्रतीत होता रहा।झिंगूर दास 192

ooty-botanicalइस नगर को पहले ऊटकमंडलम के नाम से जाना जाता था। बाद में बिगड़कर के ऊटी हुआ। ऊटी के जिन स्थलों को हमने देखा उनमें बोटेनिकल गार्डेन ने काफ़ी प्रभावित किया। ट्वीडेल के मार्कुएस ने 1897 में 55 एकड़ में फैले इस उद्यान की नींव रखी थी। पेड़-पौधों में रुचि रखने वालों के लिए यह तो स्वर्ग ही है। इस उद्यान में 650 से अधिक प्रजातियों के पौधे हैं। कुछ तो बहुत ही दुर्लभ प्रजाति के हैं। इसमें बीस मीलियन वर्ष पुराना एक फ़ौसिल भी है। पूरा बाग बहुत ही करीने से सजाया गया है। इसके सैर करने की लुत्फ़ बड़ा ही मनभावन है।

झिंगूर दास 230रोज़ गार्डेन ऊटी शहर की शान में चार चांद लगाता है। ऐसा दावा किया जाता है कि जितने अधिक किस्म के गुलाब इस गार्डेन में हैं उतने देश में अन्यत्र किसी गार्डेन में नहीं है। मंत्रमुग्ध होकर हम तो इसके क़रीब 2,500 क़िस्म के गुलाबों का नज़ारा करते रहे।

toy-train1897 में स्थापित टॉय ट्रेन से आप मेट्टुपलयम से ऊटी तक की इन हसीन वादियों में 45 किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं। इस यात्रा में 16 गुफाओं से यह ट्रेन गुज़रती है। बलखाती पहाड़ियों पर सुरंगों से गुज़रती ट्वाय ट्रेन जब धीरे-धीरे आगे बढ़ती है तो मन अद्भुत रोमांच से भर जाता है।

झिंगूर दास 244बोट हाउस यहां का सबसे प्रसिद्ध स्थल है। 1894 में ऊटी के तत्कालीन कलक्टर जॉन सुल्लिवान द्वारा इस कृत्रिम झील का निर्माण किया गया था। ऊटी के सुहाने मौसम का भरपूर आनंद इस झील में बोटिंग कर के कई गुना बढ़ जाता है। पानी की लहरों पर बोट चलाना एक असीम आनंद देने वाला अनुभव होता है। कुछ लोग मोटर बोट से भी मज़ा उठाते हैं पर पैडल बोट की आनंद ही कुछ और है!

बोट हाउस की दूसरी तरफ़ थ्रेड गार्डेन है। इस झिंगूर दास 196आश्चर्य जनक कारीगरी को गिन्नीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज़ किया गया है। 60 मीलियन मीटर की एम्ब्रॉयडरी की कारीगरी 50 कुशल कारीगरों द्वारा 12 वर्षों में तैयार हुई थी।

ऊटी से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित डोड्डाबेट्टा नीलगिरी की सबसे ऊंची चोटी है। पूर्व और पश्चिम घाट की संधि-स्थल पर स्थित यह पहाड़ी समुद्र तल से 2,623 मीटर की ऊंचाई पर है। यहां से पूरे प्रदेश का विहंगम दृश्य देखने का सुख ही अलग है। इस ऊंची चोटी से अन्य चोटियों को और नीचे घाटी और समतल की ओर देखने का सुख ही अलग है। इस जगह से ढ़लती सांझ क नज़ारा देखने लायक होता है। इस पर एक टेलिस्कोप घर भी है। यहां से ऊटी की अद्भुत प्राकृतिक सुषमा देख कर इसी पर्वतीय-प्रदेश में बस जाने का मन करता है।

झिंगूर दास 202डोड्डाबेट्टा के रास्ते में टी म्यूज़ियम पड़ता है। यह सबसे ऊंची जगह पर बनी चाय की फ़ैकटरी है। यहां चाय की पत्ती के निर्माण की प्रक्रिया के बारे में जानने का अविस्मरणीय अनुभव हुआ। इसे हम अगली पोस्ट में साझा करेंगे। इस फ़ैक्ट्री से पूरे ऊटी शहर का नज़ारा मन को हर्षित कर गया।

हर क़दम पर यहां भरपूर सौंदर्य बिखरा पड़ा है। इसे छोडकर जाने का मन तो करता नहीं, पर अपनी मज़बूरी वापस तो जाना ही था। ऊटी से 105 कि.मी. का सफ़र सड़क से तय कर हम कोयंबटूर पहुंचे और वहां से हवाई यात्रा से वापस कोलकाता आ गए। वापसी के समय जिस मोटर कार से कोयंबटूर एयरपोर्ट की तरफ़ जा रहे थे उसमें यह गीत बज रहा था और हम मन ही मन गाए जा रहे थे ...

दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन -
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए


जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर -
आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए

या गरमियों की रात जो पुरवाईयाँ चलें -
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें देर तक
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए

बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर -
वादी में गूँजती हुई खामोशियाँ सुनें
आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुए

शुक्रवार, 27 मई 2011

शिवस्वरोदय – 44

शिवस्वरोदय – 44

आचार्य परशुराम राय

या नाडी वहते चाङ्गे तस्यामेवाधिदेवता।

सन्मुखेSपिदिशा तेषां सर्वकार्यफलप्रदा।।238।।

भावार्थ जब व्यक्ति की उचित नाड़ी में उचित स्वर प्रवाहित हो, अभीष्ट देवता की प्रधानता हो और दिशा अनुकूल हो, तो उसकी कभी कामनाएँ निर्बाध रूप से पूरी होती हैं। यहाँ यह पुनः ध्यान देने की बात है कि श्लोक संख्या 75 के अनुसार चन्द्र स्वर (बाँए) की दिशा उत्तर और पूर्व एवं सूर्य स्वर (दाहिने) की पश्चिम और दक्षिण।

English Translation – When breath of a person flows through appropriate nostril, required god is favourable and direction is in conformity of the side through which the breath is flowing, his all desires are fulfilled without any hurdles. Here it is reminded that north and east are related to left nostril breath and right nostril breath to west and south as per verse No.75.

आदौ तु क्रियते मुद्रा पश्चाद्युद्धं समाचरेत्।

सर्पमुद्रा कृता येन तस्य सिद्धिर्न संशयः।।239।।

भावार्थ – युद्ध करने के पहले मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, तत्पश्चात युद्ध करना चाहिए। जो व्यक्ति सर्पमुद्रा का अभ्यास करता है, उसके कार्य की सिद्धि में कोई संशय नहीं रह जाता।

English Translation – A soldier should practice posture before starting war and then he starts fighting. He, who practices snake posture, undoubtedly he gets success.

चन्द्रप्रवाहेSप्यथ सूर्यवाहे भटाः समायान्ति च योद्धुकामाः।

समीरणस्तत्त्वविदां प्रतीतो या शून्यता सा प्रतिकार्यनाशिनी।।240।।

भावार्थ – जब चन्द्र स्वर या सूर्य स्वर में वायु तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, तो एक योद्धा के लिए युद्ध हेतु प्रस्थान करने का उचित समय माना गया है। पर यदि अनुकूल स्वर प्रवाहित न हो रहा हो और सैनिक युद्ध के लिए प्रस्थान करता है, तो उसका विनाश हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं।

English Translation – The time, when Vayu tattva is present in the breath whether it is right breath or left breath, is appropriate for a soldier to start for a war. But if Vayu Tattva is not there and he starts for a war, he is killed without any doubt.

यां दिशां वहते वायुर्युद्धं तद्दिशि दापयेत्।

जयत्येव न सन्देहः शक्रोSपि यदि चाग्रतः।।241।।

भावार्थ – जिस स्वर में वायु तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, उस दिशा में यदि योद्धा बढ़े तो वह इन्द्र को भी पराजित कर सकता है।

English Translation -

यत्र नाड्यां वहेद्वायुस्तदङ्गे प्राणमेव च।

आकृष्य गच्छेत्कर्णातं जयत्येव पुरन्दरम्।।242।।

भावार्थ – किसी भी स्वर में यदि वायु तत्त्व प्रवाहित हो, तो प्राण को कान तक खींचकर युद्ध के लिए प्रस्थान करने पर योद्धा पुरन्दर (इन्द्र) को भी पराजित कर सकता है।

English Translation – If Vayu Tattva is active in the breath of the soldier and he starts for the war by fully breathing in, he can defeat even Indra, the king of gods.

प्रतिपक्षप्रहारेभ्यः पूर्णाङ्गं योSभिरक्षति।

न तस्य रिपुभिः शक्तिर्बलिष्ठैरपि हन्यते।।243।।

भावार्थ – युद्ध के समय शत्रु के प्रहारों से अपने सक्रिय स्वर की ओर के अंगों की रक्षा कर ले, तो उसे शक्तिशाली से शक्तिशाली शत्रु भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता।

English Translation – If a soldier safeguards body parts of the side through which nostril the breath is active, from the enemy attack, then even most powerful enemy cannot harm him.

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गुरुवार, 26 मई 2011

आंच-70 :: आलोचना और आलोचना-धर्मिता

आलोचना और आलोचना-धर्मिता

आचार्य परशुराम राय

गत शनिवार को फुरसत में मेरे परमप्रिय मित्र श्री मनोज कुमार जी ने एक बहुत ही सशक्त प्रश्न उठाया था कि क्या पाठक का विकल्प आलोचक है। काफी पाठकों ने इस लेख को सराहा था। मुझे भी बहुत अच्छा लगा था। लेकिन इंटरनेट देवता के अप्रसन्न होने के कारण मैं सम्भवतः कोई टिप्पणी नहीं कर पाया। लेकिन लेख को पढ़कर लगा कि इस विषय पर अपनी थाती और विद्वज्जनों से समय-समय पर हुई चर्चाओं के आधार पर पुनः एकबार कुछ कहा-सुना जाए। इस ब्लाग पर आज समीक्षा के लिए नियत दिन भी है, हमारे बॉस की अनुमति भी है। इसलिए आज आलोचना और आलोचना धर्मिता पर मैंने चर्चा करने का मन बनाया है। देखता हूँ कि जो मैं कहना चाहता हूँ, वह उसी तरह कह पाता हूँ कि नहीं।

मिश्र-बन्धुओं से लेकर आजतक समय-समय पर हिन्दी आलोचना के कई मानदंड आए और उसमें से काफी तिरोहित हो गए। यदि यह कहा जाय कि अबतक हिन्दी आलोचना का कोई निश्चित मानदंड नहीं है, तो गलत नहीं होगा। आज की आलोचना पद्धति पाश्चात्य आलोचना की लगभग अनुकृति है। चाहे हम कितना भी दम्भ भरें, लेकिन इस सत्य से मुख नहीं मोड़ सकते। मेरा कहना यह कदापि नहीं है कि आधुनिक पाश्चात्य आलोचना पद्धति का अनुकरण करना गलत है। क्योंकि पाश्चात्य आलोचना के जो मानदंड सुकरात और अरस्तू ने निर्धारित किए थे, उन्हें पाश्चात्य जगत कब का नकार चुका है। आज उनके यहाँ भी आलोचना के निर्धारित मानदंड नहीं हैं। पर यह भी नहीं है कि वे बिलकुल निरंकुश हैं। भाषा और व्याकरण जैसा कुछ सम्बन्ध साहित्य और आलोचना का है। जैसे पहले भाषा अस्तित्व में आयी और उसमें अन्तर्निहित शब्द, पद, वाक्य आदि के अनुशासन को भाषाविदों ने निरीक्षण करके उन्हें संग्रहीत किया, जिसे हम व्याकरण के नाम से जानते हैं। कालान्तर में भाषा के प्रयोग में परिवर्तन होते रहे, जिसे हम भाषा-विज्ञान में भाषा का विकास कहते हैं। प्रयोग में प्रचलित होने के कारण भाषाविदों द्वारा उन्हें व्याकरण के अन्दर समाविष्ट किया गया। जैसे यदि हम द्विवेदी युग को देखें, तो देवता शब्द का विभिन्न विभक्तियों में बहुवचन देवतों लिखा जाता था। पर आज हम देवताओं प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार भारतीय साहित्य और पाश्चात्य साहित्य में समय-समय पर लिखे जानेवाले साहित्य को समझने के लिए मानदंड बदलते रहे हैं। यही कारण है कि भारतीय काव्यशास्त्र में कई सम्प्रदायों और सिद्धान्तों का जन्म हुआ, यथा- अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, रस सम्प्रदाय, ध्वनि सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय और औचित्य सम्प्रदाय। इन सम्प्रदायों के अन्तर्गत प्रतिपादित सिद्धांतों की सीमा रेखा परवर्ती आचार्य खींचते रहे। इनपर चर्चा भारतीय काव्यशास्त्र स्तम्भ में की जा चुकी है। अतएव उन्हें संदर्भ के कारण संक्षेप में यहाँ लिया गया है। ये ही सिद्धांत संस्कृत साहित्य और हिन्दी साहित्य को परखने के लिए या उनका मूल्यांकन करने के लिए प्रयोग में आते रहे। किन्तु विदेशी संस्कृति के समागम के कारण अन्य विचार-धाराओं की तरह वहाँ के साहित्य और आलोचना के मानदंडों का भी आयात हुआ और भारतीय साहित्यिक मूल्यांकन की दृष्टि में बदलाव आया।

इसी प्रकार पाश्चात्य देशों में भी साहित्य को परखने के लिए समय-समय पर विभिन्न वादों और सिद्धांतों का अस्तित्व देखने में आता है, यथा- बिम्बवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यंजनावाद, व्यावहारिक समीक्षा-सिद्धांत, वस्तुवादी मानदंड और भाववादी मानदंड। इनपर भी आँच के अंक-55 में चर्चा की जा चुकी है। वैसे बहुत से विदेशी समालोचकों को भारतीय काव्यशास्त्र ने भी आकर्षित किया और लगभग सभी प्रमुख काव्यशास्त्र के ग्रंथों पर अंग्रेजी भाषा में कमेंट्री लिखी गयी। कुल मिलाकर जिस प्रकार अन्य ज्ञान-विज्ञान, वाणिज्य आदि क्षेत्रों में आयात-निर्यात होता रहा है, उसी प्रकार साहित्यिक विचार-धाराओं का भी आयात-निर्यात हुआ। इसके प्रति असहिष्णु होने की आवश्यकता नहीं है। किसी विचार-धारा में यदि कोई उत्तम विचार-धारा है, तो उसे स्वीकार करने में किसी को असुविधा नहीं होनी चाहिए। इसका एक उदाहरण महाकवि कालिदास द्वारा विरचित कुमारसम्भव के एक आधे श्लोक पर एक अज्ञात कवि की आलोचना को देखें-

एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः

इस श्लोकार्ध का अर्थ है- एक दोष गुण के समूह में उसी प्रकार डूब जाता है जैसे चन्द्रमा की किरणों में उसकी कालिमा छिप जाती है। यह हिमालय के सन्दर्भ में कहा गया है कि हिमालय में शीतलता की अधिकता एक दोष है, पर उसमें इतने अधिक गुण हैं कि शीतलताधिक्य का एक अवगुण वैसे ही तिरोहित हो जाता है, जैसे चन्द्रमा की किरणों में उसकी कालिमा। पर एक अज्ञात कवि ने उलटकर ऐसी बात कही कि पाठक चमत्कृत हुए बिना नहीं रह सकता-

एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोरिति यो बभाषे।

न तेन दृष्टं कविना समस्तं दारिद्र्यदोषो गुणराशिहारी।।

अर्थात् एक दोष गुण के समूह में उसी प्रकार डूब जाता है जैसे चन्द्रमा की किरणों में उसकी कालिमा, ऐसा जिस कवि ने कहा उसने ठीक से देखा नहीं। क्योंकि दरिद्रता एक ऐसा दोष है जो गुणों के समूह को निगल जाता है। और मैं समझता हूँ कि महाकवि कालिदास भले ही कविकुल-गुरु हों, महान हों, लेकिन प्रस्तुत सन्दर्भ में बिना किसी पूर्वाग्रह के इस अज्ञात कवि की बात स्वीकार करने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

यदि हम थोड़ा प्राचीन ग्रंथों पर ध्यान देते हैं तो पाते हैं कि बहुत से अर्वाचीन कवियों ने कथानक में परिवर्तन किया है। जैसे महाकवि तुलसीदास जी ने रामकथा के अपने वर्णन मे कई परिवर्तन किए हैं, यथा सीता-हरण के सन्दर्भ में लक्ष्मण जी रेखा खींचकर कहते हैं कि वे किसी भी हालत में उस रेखा को लाँघकर बाहर न जायँ। जबकि महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं कि रावण के आने पर माता सीता रावण का आतिथ्य-सत्कार करती हैं और कहती हैं कि आप विश्राम करें, मेरे स्वामी और भी बहुत से खाद्य पदार्थ लेकर आ रहे होंगे।

यहाँ यह द्रष्टव्य है कि महाकवि तुलसीदास जी द्वारा किए गए परिवर्तन के कई कारण हो सकते हैं। साधनागत आध्यात्मिक कारण भी हो सकते हैं या सामाजिक कारण, यथा साधुवेश में ठगी का प्रचलन अधिक बढ़ जाने के कारण लोगों को सजग होने की ओर संकेत के उद्देश्य से परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस की गयी हो। इसी प्रकार रश्मिरथी में “दिनकर” ने भी महाभारत के मूल कथानक में परिवर्तन किया है। महाकवि कालिदास ने अपने नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी इसी प्रकार का परिवर्तन किया है। यहाँ इन बातों का उल्लेख करने का उद्देश्य यह है कि चाहे पाठक हो या समीक्षक हो, किसी रचना का अध्ययन करते समय बहुत सारे तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए। समीक्षक या आलोचक किसी पाठक का विकल्प नहीं है। लेकिन आलोचक यदि समर्थ और तटस्थ है तो पाठक को एक रचना को समझने में सहायक अवश्य हो सकता हैरामचरितमानस के जितने पाठक हैं, उनमें से कितने ऐसे हैं जो तुलसीदास जी द्वारा कथित मानस के रहस्यों को समझ पाते हैं। अनेक व्यास उसपर प्रवचन करते आ रहे हैं। लोग उन्हें सुनते हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि व्यासों के अभाव में भी जनगण मानस का पाठ करता है और अपनी समझ के अनुसार उसे समझता है। रामचरितमानस का उदाहरण इसलिए लिया गया है कि हिन्दी साहित्य का ऐसा कोई भी दूसरा ग्रंथ नहीं है कि जिसे पढ़नेवालों की संख्या इतनी बड़ी हो।

आलोचना और आलोचना-धर्मिता पर कुछ कहने के पहले यह जानना आवश्यक है कि कवि के लिए क्या आवश्यक है। कवि की रचना उत्तम कैसे बनती है। इस सन्दर्भ में महादेवी जी की एक बात याद आती है- जिस रचना में यथार्थ और आदर्श की दूरी को जितनी कम हो वह उतनी ही महान रचना होगी और उसका रचयिता महान रचनाकार। एक रचनाकार के लिए क्या जानना आवश्यक है, इस पर संक्षेप में चर्चा कर लेते हैं। महान काव्यशास्त्री आचार्य मम्मट द्वारा उल्लेख किए गए तथ्य इस सन्दर्भ में काफी प्रासंगिक हैं-

कवि में अन्तर्निहित प्रतिभा (शक्ति), लोक-व्यवहार का ज्ञान, शास्त्र तथा काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुणता और काव्यज्ञ गुरु की शिक्षा के अनुसार काव्य-रचना का अभ्यास ये तीनों मिलकर काव्य के विकास का एक कारण है

लोक-व्यवहार का यहाँ तात्पर्य है स्थावर, जंगम जगत के व्यवहार का ज्ञान, शास्त्र का अर्थ- छन्द, व्याकरण, शब्दकोश (अमरकोश आदि), कला (चौंसठ कलाएँ), चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) को प्रतिपादित करनेवाले ग्रंथों, शालिहोत्र आदि द्वारा विरचित पशु-पक्षियों के लक्षणों को प्रतिपादित करनेवाले ग्रंथों, पुराणेतिहास आदि ग्रंथों का समुचित अध्ययन या उन विषयों का ज्ञान। तो यह निश्चित है कि आलोचक या समीक्षक को भी इन विषयों का ज्ञान होना आवश्यक है। तभी वह काव्य की वास्तविक भावभूमि पर जाकर काव्य को हृदयंगम कर सकता है, उसके मर्म को जान सकता है तथा उसपर उचित और तटस्थ विचार दे सकता है, चाहे समीक्षा के रूप में या किसी अन्य रूप में।

ब्लाग-जगत में लिखी जाने वाली अधिकांश ललित रचनाओं में यह देखने को मिलता है कि लोग उतने सजग नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर यहाँ एक बात कहना चाहूँगा- एक ब्लाग पर एक कविता कभी पढ़ी थी। कविता बहुत अच्छी थी। कवि का नाम और कविता का शीर्षक मुझे याद नहीं है। उसमें उन्होंने टेबुल पर पड़ी फाइलों से चेहरे पर उदासी (कुछ और भी हो सकता है) टपकने का उल्लेख किया था। अब ध्यान देने की बात है कि टपकना ऊपर से नीचे की ओर होता है, न कि नीचे से ऊपर की ओर। दूसरी बात ध्यान देने की है कि उदासी टपकती नहीं है, बल्कि पसरती है। इसी प्रकार एक ब्लाग पर एक कविता में कवि ने विहग शब्द प्रयोग किया है। उस पर एक अत्यन्त सजग पाठक ने तमाम व्याकरणगत दोषों (टंकणगत त्रुटियों) की ओर संकेत करते हुए टिप्पणी की है कि विहग के स्थान पर विहंग होना चाहिए। जबकि विहग और विहंग दोनों तत्सम शब्द हैं और सही हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे रचनाकार हो, पाठक हो या आलोचक हो, उनके अध्ययन का विस्तार निरन्तर होना चाहिए। तभी रचनाकार उत्तम रचना कर सकता है और आलोचक रचना की सर्वांगीण समीक्षा कर सकता है। एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्ति न तो अच्छा रचनाकार बन सकता है और न ही आलोचक।

इस निबन्ध में ब्लाग-जगत के जिन रचनाकारों और टिप्पणीकारों का उल्लेख किया गया है, इस अनुरोध के साथ मैं उनसे हृदय से आभार सहित क्षमा-याचना करता हूँ कि वे इसे अन्यथा न लें ।

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बुधवार, 25 मई 2011

देसिल बयना-82: देह में दम नहीं, बाज़ार में धक्का !

 

-- करण समस्तीपुरी

 

अजब लटारम है दुनियाँ में। पछिला कुछ हफ़्ता से ऐसन-ऐसन बदलाव देखे कि गीता-ग्यान याद आ गया, “परिवर्तन ही संसार का नियम है।” एक से दो हुए…. और एक से एक फ़करा भी सीखे ई बार रेवाखंड में। बियाह के उदेश्य से गये रहे गाँव। असली लौकिकता तो विध-व्यवहार में ही दिखता है न।

जाकी रही भावना जैसी…. हम तो जैसेही गंडकीपुर के देसी टीसन पर उतरे ऐसन-ऐसन देसिल बयना से भेंट हुआ कि साल भर और आपलोगों को किस्सा सुनायेंगे। हरि बोल। ई दफ़े फ़ागुन में लगन जोर नहीं पकड़ा था सो बैसाख-जेठ का लगन एकदम गहागही था। किसी तरह एक के दो भारा देकर टीसन से घर पहुंचे। अपना बियाह में हमही देर से पहुँचे थे बाकिये घर भर में पाहुन-कुटुम्ब का खूब गहमागहमी था।

लगन के घर में तो बुझले बात… सवा साल से इंतिजाम-बात करते रहिये फिर भी कुछ-न-कुछ घट्टी रहिये जाता है। दो दिन पहिले तो हम आये ही थे। एक दिन पहिले पता चला कि थोड़े कपड़ा लता और लावा-भुजाई का कुछ सामान चाहिये। खैर ई गुरमिंट में रस्ता-पैड़ा चकाचक बना दिया है। एगो संगी को साथ किये और फट से फटफटिया जोत दिये।

मिनिटे में पहुँच गये बजार। लेकिन का बताएं…. गाँव से बजार का रस्ता तो चकाचक मगर बजार में मौगत। बाप रे बाप मरवाड़ी बाजार और गुदरी का हालत तो और बेकार था। इधर पाँच साल में दोकान-दौरी तो ढेरेक बढ़ गया है मगर जगहवा तो ओतने है। दोकान तो दोकान…. सड़क के दोनो साइड ठेला और फ़ेरीवाला का भीड़ और बीच में कचरा का ढेर। लगन के ऐसन भीड़ कि उपर टहाटही धूप और नीचे कचरापारा…. और वही में लोगो रेला चलता था। का मरद का औरत…. सब धन बाइस पसेरी। टीसन चौक से लेकर गोबिन अगरवाल के दोकान तक एहि दिरिस था। हम भी किसी तरह झोला-झपटा को कंधा में टांगे एक हाथ से इंगलिस पैंट को एक बित्ता भर उठाए और दूसरे हाथ से नाक-मूंदकर कूद पड़े।

ई भीड़-भार में पबलिक के नाक में दम हो जता है मगर एकाध गो उचक्का सब को खूब हरियरी सूझता है। हमलोग बसंत मार्किट से निकल रहे थे। टीसन तरफ़ से मरद-जनानी का एक हांज भीड़-भार और गंदा-कचरा से बचते हुए साइडे-साइड जा रहा था। अपोजिट साइड से दु-चार लड़िका लोग आते दिखा। ससुरा सब चाले-ढाल से लुक्कर लग रहा था। उ में भी एगो खूब पहलवान जैसे डिल-डौल वाला लड़िका जो था उ किनार वाला मरद के लाइन से नहीं निकलकर बीच वाल औरतिया लाइन पकड़ लिया और दु-चार जर-जनानी को धकियाते हुए निकल गया। बेचारी जनानी सब अपना कपड़ा-लत्ता संभारते हुए कोढ़िया-मुँहझौंसा कह के रह गयी मगर कौनो मरदुआ का चौआ नहीं अलगा। हम थोड़ा अगियाये तो हमरा साथी हाथ पकड़ के पाछे खींच लिहिस…. “आहा… भैय्या… ई कौन खतरा को न्योता दे रहे हैं…. ई सब बौका गुरुप का आदमी है।” हमभी मन-मसोसकर रह गये।

हमरा मन तो भरिया गया था मगर कुछ नौजवान ऐसेभी थे जिनका जी लपलपाता हुआ स्पष्ट दिख रहा था। हमलोग वही रस्ता से बढ़्कर लड्डुलाल के दोकान पर चाट खा रहे थे। फिर वही दिरिस। मगर ई बार का जुआन सिकिया पहलवान था। ससुरा पाछे से आया और सामने से टर्न लेकर फिर वही गुरुप के में से एगो जनानी को धक्का मारते हुए बढ़ने लगा। जर-जनानी फिर कोढ़िया-सरधुआ की तो ई बार मरद-मानुस का भी पौरुष जगा। शायद सिकिया पहलवान का कमजोर देह-दशा देखकर। धोबिया-पछाड़ मार-मार के बढ़िया से धो दिया उ लुचबा को….।

उ तो सामने गया परसाद गुड़ वाले को दया आ गयी। बेचारे बीच में आकर छुड़ा दिये। मगर उ लुचबा भी भारी थेथर। एतना मार-पिटाई के बादो पहिल धक्का का जिकिर कर रहा है और अगर-बगर बोल रहा है। लोग तो एक बार फिर उमताया मगर रमेश जायसवाल उका हाथ पकड़ कर खींच लिये और डपटे, “मार ससुरा….. देह में दम नहीं और बाजार में धक्का लेने चला है। अरे उ तो देह-दशा से भी पहलवान है और उके पीछे पूरा बदमशहा गुरुप भी है। तू उका देकसी करने चला है…. तब हुआ न धुलाई सरफ़ इकसेल से। अभियो चेत जाओ नहीं तो जौन गत भी बचा हुआ है उ सब भी हो जायेगा। अपना औकात से बाहर काम नहीं करना चाहिये। देह में दम हो तभी बाजार में धक्का लेना चाहिये…. चल हट अब इहां से और अपना रस्ता नापो चुपचाप।

जयसवालजी के भाषण के बाद पूरे बाजार में सन्नाटा था मगर हमरे दिमाग में अजब झन्नाटा लगा था। तभी से हम सोच रहे थे कि उ पहलवान जैसा आदमी वही करम कर के सीना ताने चलता चला गया और ई सिकिया पहलवान  बेचारा पिटा गया आखिर काहे… ? अगर पहले की गलती नहीं थी तो इसने क्या गलत किया….? आखिर जयसवाल सेठ की बातों में जवाब मिल गया, “देह में दम नहीं बजार में धक्का।”

पहिले उचक्का के देह में दम था तो उ बजार में धक्का लेके भी बच गया। ई सिकिया पहलवान के देह में दम था नहीं लेकिन चला सरे-बाजार धक्का लेने तो हो गया ठोकाई। मतलब बात तो सही है। औकात-सामर्थ्य से बाहर जौन कोई काम करेगा उको तो भरना भी पड़ेगा। आखिर रहीम बाबा भी तो कहे हैं, “पैड़ ओतने पसारना चाहिये जेतना लंबा चादर हो।”

मंगलवार, 24 मई 2011

भारत और सहिष्णुता-3 :: भारत-निर्माण

clip_image002रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी  रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।

जितेन्द्र त्रिवेदी

अंक – 3

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यहाँ इस विषय पर लिखने का उद्देश्‍य भारतीय इतिहास का वर्णन करना नहीं, अपितु भारत जिन तत्वों से बना है, उनका सहारा लेकर अपनी बात को कहना प्रधान उद्देश्‍य है। भारत निर्माण की प्रक्रिया को दिखाते वक्त मैं अपने मूल उदृदेश्‍य से कितना भटका हूँ, इसका निर्णय तो इन अध्यायों के पाठक के ही सर्वाधिकार में है। विचलन की गुंजाइश होते हुए भी मेरी दृढ़ निष्ठा है कि मैं मूल विषय से कम से कम भटक पाऊँ।

भारत-निर्माण का अध्ययन और विवेचन केवल इसलिए नहीं किया जा रहा है कि मुझे अपने विचार रखने के लिये पुरातन घटनाओं में जाने की जरूरत पड़ रही है। उतना तो है ही अपितु भारत के निर्माण का अध्ययन इसलिये भी जरूरी है कि आधुनिक भारत में हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उनके संदर्भ में प्राचीन भारत की घटनाओं, महापुरूषों के उदय, विभिन्न धर्मों की स्थापना और प्रसार, संस्कृति के विकास के माध्यम से समकालीन भारतीयों की सोच में आ रहे अंतर को हम देख पाएंगे। भारत के अतीत में घुसने का मेरा एक ही मकसद है कि किसी भी प्रकार से मैं यह सत्य दिखाने में विनम्र कामयाबी हासिल कर लूँ कि वर्तमान में हम जिस देश अथवा जिन विचारों, क्षेत्र, धर्म, जाति, भाषा विशेष को अपना और सिर्फ अपना समझ बैठे हैं, वैसा कुछ भी नहीं है। ये सब तो हमारे सामूहिक विकास का प्रतिफल है और एक बहुत बड़े भौगोलिक क्षेत्र में रहने के कारण परस्पर आदान-प्रदान से हमारे अपने-अपने धर्मो का, अपने-अपने क्षेत्र का, अपनी-अपनी भाषा का एक पुख्ता स्वरूप निर्मित हुआ है, कम से कम यह एक बपौती जैसा तो कुछ भी नहीं है कि मैंने इस जाति में, इस क्षेत्र में, इस धर्म में जन्म लिया है, इसलिए मैं महान हूँ।

यह ऐसा ही है कि किसी पेड़ पर पैदा हुआ पक्षी उस पेड़ के विकास को ध्यान में रख कर की जाने वाली टिप्पणी से नाराज होकर पेड़ पर रहने वाले सभी पक्षियों को यह बताए कि हम जिस पेड़ पर पैदा हुए हैं, उसके बारे में भला कोई अन्य, जो दूसरे पेड़ पर पैदा हुआ है, कोई टिप्पणी कैसे कर सकता है। इससे उन पक्षियों को कोई फायदा मिले या न मिले, किन्तु उस पेड़ का नुकसान अवश्‍यसंभावी है, क्योंकि पेड़ का विकास रुक जायेगा और निश्‍चय ही वह एक दिन मुरझा जायेगा।

अपने-अपने धर्म, जाति और क्षेत्र में बपौती की यह भावना वे क्यों रखे हुये हैं? भारत निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन करने पर सत्य नारायण के वे दर्शन कर लेंगे कि किसी भी धर्म, जाति तथा क्षेत्र विशेष पर उनकी वास्तव में तो कोई बपौती है ही नहीं। किसी जाति, धर्म, क्षेत्र में पैदा होना यदि कोई विलक्षणता है तो वह केवल दैवीय या ईश्वरीय मर्जी से अधिक तो नही है। ईश्‍वर आपको कहाँ पैदा करेगा, इस पर आपका या आपके माता-पिता का क्या योगदान हो सकता है, तो ऐसी ईश्वरीय मर्जी पर जिसमें हम किसी भी जाति, धर्म या क्षेत्र में पैदा हो उस पर इतराना और उसे अपनी बपौती मानना कितना खतरनाक हो सकता है, यह तो आज हम समकालीन भारत में जी रहे लोग देख सकते हैं। जिस संकीर्णता को लेकर आज का व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता है उससे वह व्यक्तिगत रूप से बहुत आगे बढ़ भी जाएं और शायद कुछ महत्वपूर्ण पद पा ले, धन, यश, सत्ता प्राप्त कर लें और कभी तुक्का लगे तो देश के प्रधानमंत्री या भारत में सबसे अधिक चर्चा में बने रहने वाली हस्ती भी बन जाएं, किन्तु इस व्यक्तिगत उपलब्धि की भूल-भूलैया में भारत बहुत पिछड़ जायेगा और जिन तत्वों से हिन्द की शान हैं, उन्हे गिरने में 50 सालों से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा।

भारत-निर्माण की प्रक्रिया को दिखाने का एक मकसद यह भी है कि हम उन तत्वों को पहचानें, जिन्होंने कई बार सत्य को 'हाइजैक' किया और आज भी करने की जुगाड़ में लगे हुये हैं।

विवेकानन्द का साहित्य जिसने नहीं पढ़ा है वह विवेकानन्द के चित्र को किन्ही संस्था विशेष के कार्यक्रमों में देखने पर सामान्य धारणा बना लेगा कि ये महापुरूष अमुक धर्म के अन्य धर्मों पर प्रमुखता के हिमायती हैं, जबकि विवेकानन्द के साहित्य का अध्ययन, विवेचन और विश्‍लेषण करके हमारा यह सत्य उद्घाटित करने का प्रयास रहेगा कि वे किसी विशेष धर्म की स्थापना की बात नहीं करते थे और वे हिन्दुओं के हिमायती तो कतई नहीं थे। वे तो कुछ ऐसे विचार रखते थे -

''यह कितने गौरव की बात है कि यहाँ इतने अधिक मार्ग हैं, क्योंकि यदि केवल एक ही मार्ग होता तो शायद वह केवल एक ही व्यक्ति के अनुकूल होता। इतने अधिक मार्ग होने से हर एक व्यक्ति को सत्य तक पहुँच सकने के अधिक से अधिक अवसर सुलभ हैं। यदि मैं एक भाषा के माध्यम से नहीं सीख सकता तो मुझे दूसरी भाषा आजमानी चाहिये और हम सबने बैठ कर यह निश्‍चय किया है कि हमें इस आदर्श का प्रसार करना है और चल पडे़ हम लोग - न केवल उस आदर्श का प्रसार करने के लिये बल्कि उसे और भी व्यावहारिक रूप देने के लिये। तात्पर्य यह कि हमें दिखलाना था हिन्दुओं की आध्यात्मिकता, बौद्धों की जीव-दया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बंधुत्व आदि। हमने अपने व्यावाहरिक जीवन के माध्यम द्वारा निश्‍चय किया - ''हम एक सार्वभौमिक धर्म का निर्माण करेंगे - अभी और यहाँ ही और हम रूकेंगे नहीं ..............''                                      (विवेकानन्द द्वारा दिये प्रसिद्ध भाषण - मेरा जीवन तथा ध्येय से).

वर्तमान भारत में विवेकानन्द की हिन्दू छवि के साथ सन्‌ 1900 की उनकी सर्वधर्मवादी मौलिक सोच (जो अभी तक हाइजैक नहीं हुई है) के साथ किसी संस्था विशेष के कार्यक्रम में लगे उनके चित्र को देखिए तो अनायास लगेगा कि या तो उक्त चित्र (विवेकानन्द की) को उस संस्था विशेष के कार्यक्रम में नहीं होना चाहिये था या फिर उसे दुनियाँ के सभी धर्मो और संस्थाओं के कार्यक्रम में हर हालत में होना चाहिये था।

मैं, ऊपर के इस उदाहरण के द्वारा यह दर्शाना चाहता हूँ कि ''बपौती की अवधारणा'' भ्रामक एवं नितांत झूठी होती है। वैसे ही जैसे कोई सम्प्रदाय, संस्था या धर्म विशेष विवेकानन्द या अन्य किसी महापुरुष को, चाहे वे हेडगेवार हों या अम्बेडकर; गांधी हों या (गनीमत है कि उन्हें आज कोई भी अपनी बपौती नहीं मानता सिवाय उनका नाम भुनाने के), मोहम्मद साहेब, ईसा हों या बुद्ध, महावीर या गुरुनानक हों अथवा रजनीश, उनको अपनी बपौती मान कर उन्हें लोगों तक पहुंचने से रोक देते हैं और कोई एक-दो साल तक नहीं वरन सदियों तक और इस आड़ में क्षुद्र हितों की वे पूर्ति करते रहते हैं। इन महापुरूषों की आड़ में अपने घृणित कार्यों को साफ छिपा जाना चाहते हैं।

उपरोक्त महापुरूषों के हवाले से मैं कुछ ज्वलन्त प्रश्‍न करने की विन्रम अनुमति चाहता हूँ कि क्या पैगम्बर मोहम्मद साहेब पर सिर्फ मुसलमानों का ही अधिकार है? क्या जिहाद सिर्फ मुसलमान ही कर सकते हैं? क्या जिहाद को इतने तंग दायरे में रखा जा सकता है जो आज तालिबान ने या अन्य आंतकी संगठनों ने रख दिया है?

क्या ईसा किसी क्रिश्चिचयन के ही बेटे थे? नहीं, वे यहूदी के बेटे थे और पैदा होते समय क्रिश्चिचयन नहीं अपितु यहूदी ही जन्मे थे ठीक वैसे ही जैसे पैदा होते समय हम सब बच्चे ही पैदा होते हैं, और भेद बाद में परिवार वाले करते हैं, फिर दुनियां वाले और फिर हम खुद। क्या बुद्ध पर सिर्फ बौद्धों का ही स्वामित्व है? क्या उनकी आड़ में किसी के द्वारा किये जाने वाले सभी उल्टे-सीधे काम स्वीकार किये जाने चाहिये? क्या बुद्ध की मूर्ति लगाने भर से कोई बौद्ध बनने का दंभ कर सकता है? नहीं, बौद्ध बनने के लिये सबसे बड़ी निशानी है – शील, मैत्री, त्याग, करुणा और अपरिग्रह। जबकि आज के उनके मूर्ति-निर्माता धड़ल्ले से धन संग्रहण करके अपने आपको बुद्ध भक्त साबित करने में लगे हैं। क्या महावीर धनी जैनियों के पिता जी की वसीयत हैं और ‘नवकार मंत्र’ एवं ''जियो और जीने दो का नारा'' सिर्फ उन्हीं के लिये है।

बात जिहाद की करें तो, जैसे बुराई के या अनाचर-अत्याचार के दम घोंटू वातावरण से उकताकर कोई भी मुसलमान जिहाद करने को स्वतन्त्र है, वैसे ही अन्य कोई भी चाहे वह किसी भी धर्म का हो पूरी तरह स्वतन्त्र है। जिहाद का अर्थ है - ''जद्दो-जहद’’ और जद्दो-जहद का मतलब है अथक प्रयास जिसमें जान भी देनी पड़े तो दे दी जाएगी लेकिन उस समय तक नहीं, जब तक अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध करने के अन्य सब रास्ते बंद न हो जायें। उससे पहले अल्लाह किसी भी कीमत पर जिहाद कबूल ही नहीं करेगा (कुराने पाक)। अगर सुलह-सफाई, विरोध, प्रतिरोध का एक भी रास्ता बाकी है तो पहले उसे ट्राई करना पड़ेगा तभी जिहाद के हकदार हम बनेंगे, उससे पहले कतई नहीं।

(ज़ारी ….)

सोमवार, 23 मई 2011

नवगीत - मुक्त क्रीड़ामग्न होकर खिलखिलाना

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श्यामनारायण मिश्रश्यामनारायण मिश्र

ऊब जाओ  यदि  कहीं   ससुराल में

एक दिन के वास्ते ही गांव आना।

 

लोग   कहते   हैं   तुम्हारे  शहर में

हो   गये   दंगे   अचानक ईद को।

हाल  कैसे  हैं   तुम्हारे   क्या   पता

रात भर तरसा विकल मैं दीद को।

और,  वैसे  ही   सरल  है  आजकल

आदमी का ख़ून गलियों में बहाना।

 

शहर के ऊंचे मकानों के तले

रेंगते    कीड़े   सरीख़े   लोग।

औ’ उगलते हैं विषैला धुंआ

ये निरन्तर दानवी उद्योग।

छटपटाती  चेतना   होगी   तुम्हारी

ढ़ूंढ़्ने को मुक्त सा कोई ठिकाना।

 

बाग़  में  फूले   कदम्बों   के   तले

झूलने की लालसा होगी तुम्हारी।

पांव  लटका  बैठ मड़वे के किनारे

भूल जाओगी शहर की ऊब सारी।

बैठकर    चट्टान    पर    निर्झर    तले

मुक्त क्रीड़ामग्न होकर खिलखिलाना।

रविवार, 22 मई 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 67

भारतीय काव्यशास्त्र – 67

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में विवक्षितववाच्य ध्वनि (अभिधामूलध्वनि) के असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य और संलक्ष्यक्रमव्यंग्य का प्रथम भेद शब्दशक्त्युत्थ ध्वनि के पदद्योत्य (पदगत) दो भेदों- वस्तुध्वनि और अलंकार-ध्वनि पर विचार किया गया था। इस अंक में पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु व्यंग्य, वस्तु से अलंकार व्यंग्य, अलंकार से वस्तु व्यंग्य और अलंकार से अलंकार व्यंग्य- पर चर्चा की जाएगी।

सर्वप्रथम पदद्योत्य वस्तु से वस्तु व्यंग्य का उदाहरण लेते हैं। प्रस्तुत उदाहरण में अपने उपपति के साथ सहवास के उपरान्त उत्पन्न थकान को मिटाने के लिए स्नान करने आयी हुई एक नायिका से उसकी सखी की उक्ति है, जो उसके चोरी से किए रति के रहस्य को समझ चुकी है-

सायं स्नानमुपासितं मलयजेनाङ्गं समालेपितं

यातोSस्ताचलमौलिमम्बरमणिर्विस्रब्धमत्रागतिः।

आश्चर्यं तव सौकुमार्यमभितः क्लान्ताSसि येनाधुना

नेत्रद्वन्द्वममीलनव्यतिकरं शक्नोति ते नासितुम्।।

अर्थात् हे सखि, शाम के समय तुम ठीक से स्नान कर चुकी हो, शरीर पर चन्दन का लेप करवायी हो, सूर्य अस्ताचल के शिखर पर जा चुका है और धीरे-धीरे चलकर यहाँ तक आयी हो, फिर भी तुम इतनी थकी हुई लग रही हो, तुम्हारी आँखें मुदी जा रही हैं। तुम्हारी सुकुमारता पर आश्चर्य हो रहा है।

यहाँ यह व्यंग्य द्रष्टव्य है कि थकानेवाले कोई भी कारण नहीं है। नायिका स्नान कर चुकी है, चन्दन का लेप भी स्वयं नहीं किया, सूर्यातप की तीव्रता भी नहीं है, धीरे-धीरे चलकर आयी है, फिर भी उसकी आँखें मुदी जा रही हैं। कितनी सुकुमार है, सहेली को अच्छी तरह मालूम है कि वह इतनी कोमल नहीं है, इसलिए उसे आश्चर्य है। अर्थात् सहेली पूरी तरह जानती है कि वह किसी परपुरुष के साथ सहवास करने के कारण उसे थकान हुई है। यह वस्तु व्यंग्यार्थ पहले कही हुई वस्तु से अधुना (ऐसे समय में) पद से उद्दीप्त हुआ है। अतएव यहाँ पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि का प्रथम भेद वस्तु से वस्तु व्यंग्य है।

अब पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के दूसरे भेद वस्तु से अलंकार व्यंग्य का उदाहरण लेते हैं। यहाँ उद्धृत दोनों श्लोक विष्णुपुराण से लिए गए हैं।

तदप्राप्तिमहादुःखविलीनावशेषपातका।

तच्चिन्ताविपुलाह्लादक्षीणपुण्यचया तथा।।

चिन्तयन्ती जगत्सूतिं परब्रह्मस्वरूपिणम्।

निरुच्छ्वासतया मुक्तिं गताSन्या गोपकन्यका।।

अर्थात् उस भगवान कृष्ण न मिलने के कारण उत्पन्न महादुख से जिसके सम्पूर्ण पापों का नाश हो गया है तथा उनके (कृष्ण के) चिन्तन से उद्भूत आह्लाद से सम्पूर्ण पुण्य-समूह नष्ट हो गया है। परब्रह्मस्वरूप जगत के सृष्टिकर्त्ता भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए मूर्च्छित हो जाने के कारण कोई गोप कन्या मुक्त हो गयी।

पाप और पुण्य रूप कर्म हमारे अनेक जन्मों के कारण माने गये हैं। लेकिन भगवान कृष्ण के वियोग का दुख हजार जन्मों में भोगे जानेवाले दुख से अधिक था और उनकी चिन्ता (ध्यान) का आनन्द हजार जन्मों में भोगे जानेवाले पुण्य के सुख से अधिक था, जिसका अनुभव गोप कन्या ने किया। यहाँ पहले कहे वस्तु-अर्थ से अतिशयोक्ति अलंकार व्यंग्य है। यह व्यंग्य अशेष और चय पदों के कारण उत्पन्न हुआ है।

इसके बाद अब पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के तीसरे भेद अलंकार से वस्तु ध्वनि का उदाहरण लेते हैं।

क्षणदाSसावक्षणदा वनमवनं व्यसनमव्यसनम्।

बत वीर! तव द्विषतां पराङ्मुखे त्वयि पराङ्मुखं सर्वम्।।

अर्थात् हे वीर (राजन्), तुम्हारे पराङ्मुख (विमुख) हो जाने के कारण सबकुछ तुम्हारे शत्रुओं के विपरीत हो गया है- आनन्ददायी रात उनके लिए दुखदायी हो गयी है, वन उनके लिए अवन (रक्षा स्थल) हो गया है और उनका अव्यसन (गोचारण आदि) ही अब व्यसन बन गया है।

इस श्लोक में अर्थान्तरन्यास अलंकार है- जहाँ सामान्य कथन का विशेष कथन से अथवा विशेष कथन का सामान्य कथन से समर्थन किया जाता है, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। मुख्य व्यक्ति के विरुद्ध हो जानेपर सबकुछ विपरीत हो जाता है, ऐसी लोक-प्रसिद्ध कहावत है। इस उक्ति से वीर राजा के विमुख होने के परिणामों का समर्थन किये जाने के कारण यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार हुआ और इसस अलंकार से विधि भी तुम्हारी इच्छा का अनुसरण करता है, यह वस्तु सर्व पद से व्यंजित होता है।

इस अंक के अन्त में अब पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के अन्तिम भेद अलंकार से अलंकार ध्वनि पर चर्चा के लिए एक प्राकृत श्लोक का उदाहरण लेते हैं। यह एक नव विवाहिता वधू से प्रातःकाल उसकी सहेली द्वारा कही गयी उक्ति है-

तुह वलहस्स मोसम्मि आसि अहरो मिलाणकमलदलो।

इअ णववहुआ सोऊण कुणइ वअणं महिसंमुहम्।।

(तव वल्लभस्य प्रभाते आसीदधरो म्लानकमलदलम्।

इति नववधूः श्रुत्वा करोति वदनं महीसम्मुखम्।। इति संस्कृतच्छाया)

अर्थात् हे सखि, सबेरे अधरोष्ठ रूपी कमलदल मुरझाया था। यह सुनकर नव-वधू अपना मुख नीचा कर ली।

इसमें अधरोष्ठ-कमलदल में रूपक अलंकार है। तुमने अधरोष्ठ का इतना अधिक चुम्बन किया कि वह म्लान हो गया यह व्यंग्य है, जो काव्यलिंग अलंकार की स्थिति बनाता है। जहाँ युक्ति द्वारा कारण बताकर पद या वाक्य का समर्थन किया जाता है, वहाँ काव्यलिंग अलंकार होता है। यहाँ अधरोष्ठ म्लान होने का कारण अधिक बार चुम्बन करना व्यंग्य से आया है। अतएव रूपक अलंकार से यहाँ काव्यलिंग अलंकार की व्यंजना म्लान पद से हई है।

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शनिवार, 21 मई 2011

फ़ुरसत में … क्या पाठक का विकल्प आलोचक है?

फ़ुरसत में

क्या पाठक का विकल्प आलोचक है?

IMG_0130_thumb[1]मनोज कुमार

आज के “फ़ुरसत में ...” स्तम्भ में हमें ऊटी भ्रमण को आगे ले जाना था। किन्तु कुछ रुककर हमने इस विषय को उठाना बेहतर समझा। कुछ दिनों पूर्व मैंने एक कविता की समीक्षा इस ब्लॉग पर की थी तो हमारे एक ब्लॉगर मित्र ने कहा कि समीक्षा में गुण दोष की चर्चा ज़रूरी है, सिर्फ़ बड़ाई कर देने से समीक्षा पूरी नहीं होती। फिर एक वाकया हुआ, एक समीक्षा पढ़ी। दोष, ही दोष गिनाए गए थे। मुझे वह कुछ एक पक्षीय लगा। इसी सप्ताह हमारे मित्र हरीश जी ने अपनी एक समीक्षा का समापन इन शब्दों के साथ किया “.. कवि की कलम से एक सुघढ़ नवगीत का रसास्वादन करने को मिला है जिसमें दोष-दर्शन अति दुष्कर कार्य है”।

कई बार देखता हूं कि समीक्षक प्रशंसा-निंदा के आगे कम ही बढते हैं। इसलिए विश्वसनीयता कम होती जा रही है। कुछ हद तक सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता के समान! दलबंदी और गुटबंदी आम बात है। ये एक पक्ष है। एक और पक्ष है जिसे मैं देखता हूं। वह यह कि आज कविताओं, पुस्तकों, संग्रहों आदि को पढ़ने वाले पाठकों की कमी होती जा रही है। इसलिए आलोचक या समीक्षक का, मुझे लगता है, यह प्रयास हो कि वे पाठकों को पुस्तक या कृति पढ़ने के लिए आकर्षित करे, न कि उसे बिदका ही दे।

एक उदाहरण देकर मूल विषय पर आऊँगा। आपने सैकड़ों तस्वीरें देखी होंगी, किस्से सुने होंगे कलकत्ते के, हावड़ा स्टेशन के। हो सकता है उन्होंने आपको ज़्यादा प्रोत्साहित न किया हो इस शहर, इस स्टेशन को देखने के लिए। आइए, इस कैमरे की आँख से देखिए इस स्टेशन को। जी, हावड़ा स्टेशन को … मन करेगा अभी पहुँच जाएं इसे देखने .. सजीव, अपनी आँखों से। मैं समीक्षा में इसी कैमरे की आँख से देखता हूँ, देखना चाहता हूँ (शायद मैं ग़लत हो‍ऊँ, शायद न भी)।

image009image008

image010 (1)हावड़ा पुल कैमरे की आँख से देखना अच्छा लग सकता है। प्रत्यक्ष आँखों से देखने में लोहे के भारी-भारी स्तम्भ, धूल, भीड़, यातायात का शोर-शराबा उबाऊ हो और रूक्ष हो सकता है। एक इंजीनियर के लिए यह चमत्कार पूर्ण है। सभी अपनी दृष्टि से सही हैं। पर, सबसे आश्चर्यजनक यह है कि यह पुल मात्र दो स्तम्भों पर सैकड़ों वर्षों से टिका है।

काव्‍य शास्‍त्र की परम्परा काफी पहले से चली आ रही है। पर, आलोचना का एक शास्‍त्र के रूप में उद्भव और विकास काफी बाद में हुआ। बल्कि यूँ कहें कि आलोचना साहित्‍य का शास्‍त्र न होकर साहित्‍य सृजन का वह जीवन है जो बार बार सृजित किया जाता है - ज्‍यादा उपयुक्‍त होगा।

काव्‍यशास्‍त्र में तो सिद्धांतों और प्रतिमानों का निरूपण होता है। आलोचना में उन्‍हीं सिद्धांतों के प्रकाश में रचना की परख की जाती है और उसका मूल्‍यांकन किया जाता है। कुछ सृजन, जिसे “नया” भी कह सकते हैं, आलोचना के स्‍थापित या स्‍वीकृत प्रतिमानों को चुनौती देते हैं। तब आलोचना करने वाले इस नए सृजन के मूल्‍यांकन के लिए नए प्रतिमानों की तलाश करते हैं। यह एक व्‍यावहारिक प्रक्रिया है, जो चलती रहती है - सिद्धांतों और सृजन के बीच। यही प्रक्रिया सिद्धांतों और सृजन के संबंधों में बदलाव के चक्र को गतिमान भी रखती है।

संस्‍कृत काव्‍यशास्‍त्र, रीतिशास्‍त्र और पश्चिमी काव्‍यशास्‍त्र का विवेचन प्रधानतः सिद्धांत परक है। आलोचना की टकराहट शास्‍त्र से कम, नवीन सृजन, नवीन विचारधाराओं से और वैचारिक सरोकारों से अधिक रही है। हिंदी आलोचना को वैचारिक स्‍वरूप आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल ने दिया। वे हिंदी के प्रथम व्यवस्थित आलोचक थे। वे आलोचना को सिद्धांत, इतिहास, दर्शन, व्यवहार सब में आचरित करते हैं।

साहित्‍य की अनेक विधाएं है। विधाएं तो नाड़ियों की तरह हैं। इनके भीतर विचारों का रक्‍त प्रवाहित होता है। साहित्य की विधाओं पर विचार करने का विशेष काम आलोचना करती है। जहां पद्य में भाव की प्रधानता होती है वहीं गद्य की विधाओं में विचार की प्रधानता होती है।

परिवेश और युग की प्रेरणा से सृजनात्‍मक मानसिकता में परिवर्तन आते हैं। इसका प्रभाव साहित्य की विधाओं पर भी पड़ता है। हर युग की मानसिकता विभिन्‍न विधाओं में प्रकट होती है। सभी विधाएं लोकमानस के विचारों को प्रतिबिम्‍बित करती हैं।

भारतेन्दु युग में हिंदी आलोचना का सूत्रपात पत्र-पत्रिकाओं में छपी व्यावहारिक समीक्षाओं से हुआ। सर्जक-चिंतक के रूप में भारतेन्दु जी ने आलोचना को दिशा प्रदान की। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग में आलोचना के सरोकार सामाजिक होते गए। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है, कविता का उद्देश्य हृदय को लोक-सामान्य की भावभूमि पर पहुंचा देना है। यानी व्यक्ति धर्म के स्थान के पर लोक-धर्म श्रेयस्कर है। अर्थात्, साहित्य में जीवन और जीवन में साहित्य प्रतिष्ठित हो। इस तरह से जो समीक्षा होती है वह व्यावहारिक समीक्षा है। भाव मन की वेगयुक्त अवस्था-विशेष है। भाव में बोध, अनुभूति और प्रवृत्ति तीनों मौज़ूद हैं। यही वह आधार है जिस पर आचार्य शुक्ल काव्य में लोक-मंगल के आदर्श की प्रतिष्ठा करते हैं। इस प्रकार सृजन सामाजिक चेतना के उत्तरदायित्व से युक्त होना चाहिए।

शुक्लजी ने समीक्षा-सिद्धांत रचनाओं के आधार पर स्थापित किए हैं। अतः उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक समीक्षा में संगति है। वे व्यवहार से सिद्धांत पर पहुंचते हैं। वे आधुनिक और वैज्ञानिक समीक्षक हैं।

समीक्षक के लिए सहृदय होना बहुत ज़रूरी है। समीक्षक को आलोच्य रचना या कृति के उत्कृष्ट स्थल की पहचान कर उसको प्रमुखता देना चाहिए। साथ ही वह रचना की युगानुकूल भी व्याख्या करे।

आचार्य शुक्ल ने हिंदी आलोचना को जो प्रौढता प्रदान की थी, उसे आगे ले जाने और दिशा परिवर्तन का चुनौती पूर्ण कार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. नगेन्द्र ने किया। शुक्ल जी की नैतिक और बौद्धिक दृष्टि की अपेक्षा नये समीक्षकों ने सौंदर्य-अनुभूति और कला-प्रधान दृष्टि को अपनाया। उन्होंने काव्य सौष्ठव को सर्वोपरि महत्त्व दिया। वे साहित्य से अलग किसी मूल्य को मूल्यांकन के लिए निर्णायक स्थिति में रखने के पक्षधर नहीं थे।

द्विवेदी जी का मानना था कि मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। वे सांस्कृतिक निरंतरता और अखंडता के समर्थक थे। उनका दृष्टिकोण मानवतावादी था। उन्होंने सामयिक आधुनिक प्रश्नों पर पूरा ध्यान दिया।

डॉ. नगेन्द्र का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी था। डॉ. नगेन्द्र ने शुरु में व्यवाहारिक आलोचना की। बाद में वे भी सिद्धांत-विवेचन करने लगे। उनकी आलोचनाओं में खंडन-मंडन नहीं बल्कि व्याख्या-विश्लेषण और अनुशंसा ही अधिक है।

1936 से हिंदी साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत हो गई थी। कुछ समय बाद रचनात्मक प्रयोगशीलता के उदाहरण भी दिखाई देने लगे। शुरु में आलोचना की शब्दावलि मूल्य केन्द्रित रही। मार्क्सवाद के आयात करने पर साम्यवादी दृष्टिकोण की बात प्रमुख हो गई।

शुक्‍लोत्तर आलोचना के प्रमुख और महत्‍वपूर्ण स्‍तम्‍भ हैं डॉ. रामविलास शर्मा। रामविलास शर्मा तक आते-आते प्रगतिशील आलोचना का जातीय चरित्र निर्मित हो गया। उनका मानना था, साहित्य भी शुद्ध विचारधारा का रूप नहीं है, उसका भावों और इन्द्रिय-बोध से घनिष्ठ संबंध है। उन्होंने शुक्ल जी की विरासत और जनवादी परंपरा को आगे बढाया।

पचास के बाद की आलोचना से पश्चिमोन्मुखता की शिकायत अक्सर की जाती रही है। आलोचना में पश्चिमी सरोकारों और अवधारणा के आयात का एक कारण यह भी था कि स्वयं रचनाओं में भी यह प्रभाव कम नहीं रहा। दरअसल यह आयातित विचार से ज़्यादा आयातित बौद्धिक मुद्रा थी। आलोचकों में नामवर सिंह और रचनाकारों में अज्ञेय ने यह प्रभाव बख़ूबी अपना लिया।

समकालीन आलोचना में एक नयी पीढी नए तेवर के साथ आई। इनके मुहावरे नए थे। इनमें यथार्थ दृष्टि का आग्रह भी प्रबल था। समकालीन आलोचक वास्तविक मूल्यांकन की कुंजी आलोच्य कृति के भीतर तलाशते हैं। उनके अनुसार रचना से रचनाकर तक पहुंचना समीक्षक का लक्ष्य होना चाहिए। इस दौर में एक तरफ़ मलयज की निर्मम तटस्थता है तो दूसरी ओर रमेशचंद्र शाह की सर्जनात्मक समीक्षा है। मलयज न फ़तवे देते हैं, न नारे उछालते हैं। पूरी संवेदनशीलता और अलोचनात्मक विवेक से सही जगह उंगली रख देते हैं। शाह रचनाकार की सृजन प्रक्रिया का आत्मीय विश्लेषण ज़रूरी समझते थे।

वर्तमान हिंदी आलोचना अनेक प्रकार की विसंगतियों से घिर गई है। यह जागरूकता तो निभाती रही है, पर समसामयिकता का आग्रह अधिक प्रबल हो गया है। आज की आलोचना में व्यापक परिदृश्य बोध का स्पष्ट अभाव दिखता है। पम्परा से संबंध विच्छेद हो गया सा लगता है। अधिकांश आलोचना कर्म व्यवहारिक समीक्षा के रूप में है। जमाओ-उखाड़ो की नीयत से अतिरंजित शब्दावलि लिए यह प्रशंसा-निंदा के आगे कम ही बढता है। इसीलिए विश्वसनीयता कम होती जा रही हैआज की आलोचना सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता के समान हो गई है। लगता है न आलोचकों को रचनात्मक साहित्य की चिंता है और न रचनाकारों को उनकी परवाह। आलोचना की भाषा का कोई निश्चित चरित्र नहीं बन पाया है। मूल्यांकन में पाद्धतियों की दृष्टि से भी पर्याप्त आराजकता है। मूल्यांकन के मानदंडों में विविधता है।

आज देश में जैसा परिदृश्य है साहित्य में भी उसी के अनुरूप परिवर्तन आया है। यथा सत्ता की उठापटक, भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट, भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद आदि से संस्कृति, कला और साहित्य भी प्रभावित हुए हैं।

पाठक का विकल्प आलोचक नहीं है। जागरूक पाठक अपना विमर्श खुद तैयार करता है। सृजन और आलोचना दोनों में समीक्षा का अर्थ बदल गया है। विरोध आम बात हो गई है। जहां एक ओर सृजन के नाम पर सतही रचनाएं आ रहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ़ आलोचना के नाम पर या तो दलबंदी हो रही है या पत्थरबाज़ी। लगता है वैचारिक संवेदना दिशाहीन हो गई है। साहित्य को परखने की कसौटी मत, वादों के हिचकोले खा रही है।

अतएव, समीक्षा, समालोचना या आलोचना साहित्य को समग्र रूप से परखने की विधि है, जिसमें काव्य के सभी तत्वों को रचना के परिप्रेक्ष्य में देश और काल का आकलन, रचनाकार की परिस्थितियाँ, रचना में उसकी व्यक्तिनिष्ठता आदि सभी का समावेश होना चाहिए। उक्त परिप्रेक्ष्य में आलोचना समीक्षक से उक्त तटस्थता की सर्वाधिक अपेक्षा रखती है।

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पुनश्च : एक टिप्पणी से यह अंश याद आया। इस आलेख को तैयार करते वक़्त इसे लिख कर एक जगह रख दिया था। पोस्ट बनाते वक़्त इसका ध्यान नहीं आया था। देर से ही सही … बिना इस अंश के शायद यह आलेख अधूरा लगे ….

जब उपन्यास छ्पकर आया तो श्रीलाल शुक्ल की कृति ‘राग दरबारी’ पर एक सुविज्ञात समीक्षक ने अपनी समीक्षा इस बात पर समाप्त की, “अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।” 1968 में इसका पकाशन हुआ, 1969 में इसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला और तब से आज तक इसके चौदह संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। इसे याद करते श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं, “एक ही कृति पर अनेक परस्पर-विपरीत विचार एक साथ फल-फूल सकते हैं। आलोचना या समीक्षा से किसी कृति पर कोई गहरा असर पड़ता हो, कम-से-कम ‘राग दरबारी’ के उदाहरण में तो ऐसा नहीं दिखता। श्रीलाल शुक्ल की ही मानें तो,

  “सर्वथा दोष रहित होकर भी कोई कृति उबाऊ और स्तरहीन हो सकती है, जबकि कोई कृति दोषयुक्त होने के बावज़ूद धीरे-धीरे क्लासिक का दर्ज़ा ले सकती है।”

शुक्रवार, 20 मई 2011

शिवस्वरोदय-43

शिवस्वरोदय-43

आचार्य परशुराम राय

अयनतिथिदिनेशैःस्वीयतत्त्वे च युक्ते यदि वहति कदाचिद्दैवयोगेन पुंसाम्।

स जयति रिपुसैन्यं स्तम्भमात्रस्वरेण प्रभवति नहि विघ्नं केशवस्यापि लोके।।232।।

भावार्थ – सूर्य अथवा चन्द्रमा के अयन के समय यदि अनुकूल तत्त्व प्रवाहित हो रहा हो, कुम्भक करने मात्र से अर्थात् साँस को रोक लेने मात्र से बिना युद्ध किए विजय मिलती है, चाहे शत्रु कितना भी बलशाली क्यों न हो।

English Translation – During the flow of breath through the left or right nostril suitable Tattva is present, just holding the breath is sufficient to defeat the enemy without any war, whoever and how mighty the enemy is.

जीवं रक्ष जीवं रक्षजीवाङ्गे परिधाय च।

जीवो जपति यो युद्धे जीवं जयति मेदिनीम्।।233।।

भावार्थ – जो व्यक्ति अपनी छाती को कपड़े से ढककर ‘जीवं रक्ष’ मंत्र का जप करता है, वह विश्व-विजय करता है।

English Translation – A person who recites the Mantra ‘Jeevam Raksh’ by covering his chest with cloth, he becomes competent to conquer the whole world.

भूमौ जले च कर्त्तव्यं गमनं शान्तकर्मसु।

वह्नौ वायौ प्रदीप्तेषु खे पुनर्न भयेष्वपि।।234।।

भावार्थ – जब स्वर में पृथ्वी या जल तत्त्व का उदय हो तो वह समय चलने-फिरने और शांत प्रकृति के कार्यों के उत्तम होता है। वायु और अग्नि तत्त्व का प्रवाह काल गतिशील और कठिन कार्यों के उपयुक्त होता है। लेकिन आकाश तत्त्व के प्रवाहकाल में कोई भी कार्य न करना ही उचित है।

English translation – The breath whether flows through right or left nostril and Prithvi or Jala Tattva is flowing we should walk or undertake work of peaceful nature. When Agni or Vayu Tattva rises in it, we should undertake hard or speed related work. But there is flow of Akash Tattva in the breath, better to avoid any work to undertake.

जीवेन शस्त्रं बध्नीयाज्जीवेनैव विकाशयेत्।

जीवेन प्रक्षिपेच्छस्त्रं युद्धे जयति सर्वदा।।235।।

भावार्थ – युद्ध में शत्रु का सामना करते समय जो स्वर प्रवाहित हो रहा हो, उसी हाथ में शस्त्र पकड़कर उसी हाथ से शत्रु पर प्रहार करता है, तो शत्रु पराजित हो जाता है।

English Translation – While fighting in war field with enemies, one should hold the weapon in the hand of the side through which nostril the breath is running and attack on the enemy. Thus he gets victory.

आकृष्य प्राणपवनं समारोहेत वाहनम्।

समुत्तरे पदं दद्यात् सर्वकार्याणि साधयेत्।।236।।

भावार्थ – यदि किसी सवारी पर चढ़ना हो साँस अन्दर लेते हुए चढ़ना चाहिए और उतरते समय जो स्वर चल रहा हो वही पैर बढ़ाते हुए उतरना चाहिए। ऐसा करने पर यात्रा निरापद और सफल होती है।

English Translation – At the time boarding in any vehicle we should do so while breathing in and we should take step with the foot of the side through which nostril breath is running. In this way our journey becomes safe and successful.

अपूर्णे शत्रुसामग्रीं पूर्णे वा स्वबलं तथा।

कुरुते पूर्णतत्त्वस्थो जयत्येको वसुन्धराम्।।237।।

भावार्थ – यदि शत्रु का स्वर पूर्णरूप से प्रवाहित न हो और वह हथियार उठा ले, किन्तु अपना स्वर पूर्णरूपेण प्रवाहमान हो और हम हथियार उठा लें, तो शत्रु पर ही नहीं पूरी दुनिया पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

English Translation – In case, an enemy holds the weapon to fight when his breath is not flowing in full swing and your breath is flowing fully and you hold the weapon, you will conquer not only the enemy, but even the world if desirable.

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गुरुवार, 19 मई 2011

आँच-69- हम आँधी में उड़ते पत्ते

समीक्षा

आँच-69

हम आँधी में उड़ते पत्ते

हरीश प्रकाश गुप्त

पिछले दिनों मनोज कुमार जी ने जयकृष्ण तुषार जी के ब्लाग “छान्दसिक अनुगायन” का लिंक दिया। यह ब्लाग अभी तक मेरी पहुँच से दूर था। इस ब्लाग पर मैंने जयकृष्ण तुषार जी के नवगीत पढ़े तो ये मुझे बहुत आकर्षक लगे। काव्यत्व से सराबोर। नितांत संश्लिष्ट और हृदयस्पर्शी। भाव इतने गहन कि पाठक को भाव विभोर कर दें। जयकृष्ण तुषार जी इलाहाबाद से हैं, जहाँ साहित्य की जड़ें बहुत गहरी हैं। इस नगरी से साहित्यकारों का विशेष लगाव रहा है या फिर इस नगरी का अपना आकर्षण, जो भी हो, यहाँ साहित्य समागम होते रहे हैं और यहाँ के साहित्य प्रेमियों को स्वनामधन्य साहित्यकारों का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। तुषार जी भी उनसे पृथक नहीं हैं। इसका प्रमाण उनकी रचनाएं हैं जो उनकी प्रतिभा को प्रतिबिम्बित करती हैं। आज की आँच के लिए उनके एक नवगीत “हम आँधी में उड़ते पत्ते” को चर्चा के लिए लिया जा रहा है जो अभी हाल ही में उनके ब्लाग “छान्दसिक अनुगायन” पर प्रकाशित हुआ था।

“हम आँधी में उड़ते पत्ते” देश के सामान्य जन की पीड़ा को अभिव्यक्त करने वाला नवगीत है जो अन्तर्मन को केवल स्पर्श ही नहीं करता बल्कि झकझोरता भी है। इस देश का आम आदमी आज भी गरीबी, लाचारी और बेबसी का जीवन जीता है। दो जून की रोटी के लिए दिन रात एक करना पड़ता है। समस्याओं से उबरने के प्रयासों में ही तन, मन और जो थोड़ा बहुत धन जुटा पाता है, वह खप जाता है। अगले दिन का सूरज फिर उसी तरह समस्याओं के साथ उदय होता है। यह स्थिति केवल ग्रामीण जीवन की ही नहीं बल्कि शहरों में भी बहुतायत लोग ऐसा ही जीवन जी रहे हैं। साधन, सुख और सुविधाएं आज भी उनके लिए कल्पना और आशा से परे वस्तुएं हैं।

विकास हुआ है, लेकिन उसका लाभ केवल कुछ मुट्ठी भर लोगों तक ही पहुँचा है। जिनको लाभ मिला है, वे क्रमशः समृद्ध हुए और जिनको नहीं मिला उनका जीवन यथावत रहा। कहीं समृद्धि है तो इतनी अधिक कि समेटते नहीं बनती, तो कहीं इतना अधिक आपदा ग्रस्त जीवन कि जिन्दगी स्वयं ही मुँह मोड़ लेती है, या फिर इतनी गरीबी और लाचारी कि पेट भरने के लिए मुश्किल से ही जुगत हो पाती है। गीत में कालाहांडी – आपदा, बस्तर – गरीबी और भिलाई – समृद्धि के ही बिम्बात्मक प्रयोग हैं, जो नया सा अर्थ देते हैं। इस असमानता ने सामाजिक विषमता को पैदा किया है। जिसकी पीड़ा कवि के हृदय में है और वह साम्यवाद की झण्डाबरदारी करते हुए इस विषमता को दूर करना चाहता है। तभी वह कहता है कि

“सबके हाथ

बराबर रोटी

बांटो मेरे भाई”।

विषमता से दुखी कवि की यह छटपटाहट है जो शब्दों में मुखर हुई है। असमानता इस प्रकार पसरी है कि किसी का जीवन सुख सुविधाओं में बीतता है तो किसी का कठिनाइयों में। कुछ क्षेत्र, जाति और वर्ग विशेष के नाम पर जन्मजात ही प्रतिष्ठा के अधिकारी बन जाते हैं। उन्हें सब कुछ बना बनाया मिलता है, तो ज्यादातर को अपने आधार के लिए खुद ही कमर तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। आधुनिकता और विकास का जिसे लाभ मिला उसे तो ठीक, लेकिन आम जन के लिए तो यह विकास भी भट्टा – पारसोल की तरह कठिन समस्याएं लेकर ही आता है और तब यह विकास सुखद बयार की तरह न लगकर आँधी की तरह साबित होता है। परिवर्तन की अंधी दौड़ में संस्कार विलुप्त हो रहे हैं, बिलकुल कजरौटे की तरह जो पहले कभी बच्चों के बिस्तर पर सिरहाने रखे जाया करते थे। इस भ्रष्ट तंत्र में पूरा लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे, इसके पहले ही कुछ चतुर सुजान लोग चुपके से इसका बड़ा हिस्सा हजम कर जाते हैं और किसी को पता तक नहीं चल पाता। आम आदमी बद से बदतर होता जाता है और आज भी कठिनाइयों और समस्याओं से ग्रस्त है। इसके बावजूद वह आशाओं का दामन नहीं छोड़ता। वे जीवित रहती हैं। इसके साथ ही जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में भी संघर्ष की जिजीविषा अँधेरे में ढिबरी और दियासलाई ढूंढने के रूप में बरकरार रहती है।

प्रस्तुत नवगीत में भाव बहुत ही सघन हैं। शब्द योजना सहज और अनुकूलतम है। बिम्बों में आकर्षण है क्योंकि वे नवीन अर्थों से सम्पन्न हैं। कालाहांडी, बस्तर और भिलाई क्रमशः आपदा, गरीबी और लाचारी तथा समृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं -

इसी देश में

कालाहांडी, बस्तर

और भिलाई।

और संस्कारों के लोप के रूप में -

बच्चों के

सिरहाने से

गायब होते कजरौटे।

कठिनाइयों में भी संघर्ष –

अँधेरे में

ढूंढ रहे हम

ढिबरी, दियासलाई।

आदि बहुत अच्छे प्रयोग हैं। कवि की निष्ठा देशज है और पीड़ा की सह-अनुभूति भी। कवि के पास केवल प्रश्न ही नहीं है वरन समधान भी हैं और ये हृदय की गहराई से उद्भूत हैं। गीत की प्रांजलता उत्तम है। कवि जहां गीत के भावपक्ष के प्रति अत्यंत सजग रहा है, वहीं उसकी पैनी दृष्टि गीत के शिल्प पर भी समान रूप से रही है। इसीलिए सामान्य शब्दों में गीत मुखर हो उठा है। इस प्रकार कवि की कलम से एक सुघढ़ नवगीत का रसास्वादन करने को मिला है जिसमें दोष-दर्शन अति दुष्कर कार्य है।

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बुधवार, 18 मई 2011

देसिल बयना-८१–दहिए न खैतई, मटकूरी नई न ल जेतई

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झिंगूर दास 189मनोज कुमार

हा...हा..हा... ! हा...हा..हा... ! हा...हा..हा... !

ई मत पूछिए हम काहे हंस रहे हैं। हंसने का ऐसन कोनो बात नहीं है। हंसी त हमको उस दिन लगा था जब करण बाबू बोले थे कि हम देसिल बयना का कनटिनूटी बनाए रखेंगे। हम कहे थे उनको कि आप कर रहे हैं बियाह, आपको फ़ुरसत मिलेगा का।

त बबुआ बोलिन्ह कि इसमे का है, दस मिनट का काम है कर दिया करेंगे। और पिछलका बुध को त ऊ भेजिए दिए थे बनाके।

लेकिन आज के बारे में जब हम उनसे बोले कि उस दिन त आप उ का कहते हैं ‘मध और चांद’ (हनी-मून) मना रहे होंगे, त दरजिलिंग से कैसे भेज पाइएगा?

हमसे बोले रहे कि ‘उसमें का है, भेज देंगे। कोनो समय लगता है।’

त हमरी हंसी जो उस दिन निकली सो आज तक निकलिए रही है। अरे ई सब एक्सपीरिएंस का बात है। उ बचबा का जाने कि बियाह के बाद केतना सारा कमिटमेंट ऐसहिं फेल होते रहेगा।

वैसे पछिलका हफ़्ता जब उ आई-माई को ठोप नहीं बिलाई को भरमंगा लगा रहे थे त लिखिए दिए थे कि “चलते हैं अगले हफ़्ते फेर भेंटायेंगे उनका (clip_image002!) औडर होगा तो।”

अब भगवान जाने करण बाबू की ‘उनका’ क्या औडर हुआ है?

हमको तो उ दिन इयाद आता है जब हमको उनका माता जी का औडर हुआ था। हमरी बरकी भौजी हैं। उनका त अधिकारे बनता है, जो चाहें सो औडर दे दें। अब उनका बेटा का बियाह है, त उ त तर ऊप्पर कर रही थीं। बरियाती निकलने का समय हो रहा था। और ऊ परेसान थी। हमको बोली,

“ऐ बौउआ! सुनते हैं, जुलुम हो रहा है। सुरुज माथा पर चढ़े जा रहा है। बरियाती सब के जाने का समय हो गया है। इहां ई हाल है कि न कढीए हुआ न बड़ीए ... अब आज के महमान को भोग का लगेगा?”

हमहुं तनी चुटकी लेने के ही मूड में थे। बोले,

“अरे.... अरे ! आप तो भौजी खा-म-खा डर गए। आप को बरियाती के लिए भोजने चाहिए न। घबराइए मत। सब इंतिजाम हो जाएगा। लेकिन ज़रा सा वेट करना पड़ेगा। उ का है कि आप तो बुझते ही है। गाँव की बात है। गाँव मे देर सबेर त होते ही रहता है न।”

साहिब ई है हमरा गाँव रेवा-खंड। अब तो भैय्या न उ देवी रही न उ कराह। पहिले ई का बातहि कुछ और था। अरे मोगल आया रहा, अँगरेज़ आया रहा और फिर जमींदारी राज रहा ई गाँव में। ई देखे हो गौरी पोखर के भीर पर बड़का कोठी.... मोगलिया तहसीलदार बनाए रहा। फेर अँगरेज़ कब्ज़ा कर लिहिस। अब खादी भण्डार होय गया। सब कुछ केतना बदल गया है। नहीं बदला है तो कोठी के पिछुअवारे हमरे लोगों का टोला। आज भी लोग वही सादगी में जीते हैं। पहिले का तो बाते मत पूछिये। सब काम अंग्रेज़ के हुकूम की तामिल का माफ़िक जस्ट इन टाइम होता रहा।

आज ….! छोड़िए पुअरनका खिस्सा। आज  त आज का बात करें। आज इस घर से बेटा का बियाह हो रहा है। इ जेनेरेसन का पहिला बरियाती जाने बाला है। से सबके खुसी का ठिकाना नहीं है। आ..हा...हा... ! दाथ बाली भौजी, अरे वही करण की मां, हमरे घर की बरकी बहू हैं और करण बाबू बरका बेटा। भौजी त हंस-हंस के पुरे टोला में हकार दे आई थी। भगजोगनी की माय और लोहागिर वाली उका लम्बा चौरा अंगना को गोबर से लिप कर चम-चम कर दी थी । मुंसी भैया, करण के बाबू, अपनी कलाकारी दीवाल पर दिखा रहे थे। ऊंह ! भखरा चून्ना से रंगे भित्ति पर गेरू से का ऐन्टिंग-पेंटिंग किये हैं ! 'देख परोसन जल मरे !!'

बराती का भोज के लिए झींगुर दास केला का पत्ता काट कर गत्ता लगा रहा है। रूदल और मुनीमा दुन्नु पानी का ड्राम भरे में लगा है। घर के बचबा सब के साथ हमलोग भी बड़का टोकना में पक रहे नयका अरवा चावल के गमके से इधर-उधर चौकरी भर रहे थे।

आज करण बाबू का बरियात निकलेगा इ अंगना से। नेना-भुटका सब त गीत गा-गा के खेला कर रहा है दालान में। ‘कक्का के बराती जाएंगे, हो s s s कक्का के बराती जाएंगे हो s s s ..।’

ऊहे खुसी में दाथ बाली भौजी इधर उधर दौर मचा रही हैं। जो बराती जाएगा सो तो जाएगा, जो है सो नायकी कनिया आएगी घर में उहे ख़ुसी में दाथ बाली भौजी ने पुरे टोला में न्योता दिया था, बराती के साथ सब कोई खाएगा, कोनो लोग बाकी न बचने पाए।

झिंगूर दास 276इधर करण बाबू के मोर चढाई का बिध हो रहा था और उधर बटिया तो पीरा धोती के उप्पर कोठारी गंजी आ हाथ में एच.एम.टी का घड़ी पहिने फुचाई झा के साथे भोज बनाए मे लगा हुआ था।

तबहि हम बिशनपुर वाली भौजी से पूछे, 'अरे भौजी सुने कि आज बेटा के बरियात निकलने का खुसी में दाथ बाली रसोई पकायेगी फिर फुचाई झा काहे लगे हैं ?'

छूटते ही बिशनपुर वाली भौजी बोली, "भाग दाढ़ीजरबा ! टोला को न्योतना कौनो हंसी मजाक है का...! अरे पंडिज्जी सब बना देते हैं। कनिया के देह थक गया है दौर-भाग करते। उ ई सब का करेगी? उ केवल 'कढ़ी-बड़ी' बनाने में छोटकी दुलहिन का मदद कर देगी।' हम भी मने-मन कढ़ी-बड़ी का स्वाद लिए लगे।

रह रह के नजर खिड़की के पिछु चला जाता था। तभी छन-छन-खान-खान की आवाज हुई। देखे तो ललका साड़ी के अन्दर से अलता से रंग हुआ हाथ पतीला में तेजी से घूम रहा था। ओहो! तो छोटकी चुलहिन और दाथ बाली भौजी लगा रही हैं कढ़ी-बड़ी का जोगार... ! बड़ी मुश्किल से मुंह का पानी रोके। दाथ बाली भौजी ताली बजा कर बिशनपुर वाली भौजी को बुलाई और दोनों में कुछ बाते हुई। फेर पतीला में एक लोटा पानी गिरा। ले बलैय्या के.... अब तक बतीसी दिखा रही बिशनपुर वाली भौजी की त्योरियां चढ़ गयी। उ तो दाथ बाली भौजी मोर्चा संभाल ली और कहा, 'पानी पड़ ही गया तो का हुआ दीदी ? छोटकी दुल्हिन समझदार है। कह रही है, बड़ी न सही कढ़ी तो बन जाएगा न!' तब जा के बिशनपुर वाली भौजी की त्योरी ढीली पड़ीं।

लेकिन पांचे मिनट में फेर बिशुनपुर बाली भौजी की आवाज़ आयी, "जा री दुल्हिन ! ई का कर दी ! ई तो एकदम लट्ठा होय गया... हलुआ... ! अब लो... अब का होगा...?

तब तक बरकी भौजी भी दौड़ी आ गयी। माजरा समझते उन्हें देर न लगी। बोली, "जाओ री दुल्हिन! हो गया सत्यानाश ! ई तो न 'कढ़ीए हुआ न बड़ीए !' जल्दी से इसमें दही फेंटो !!''

अब दही का मटकुरी खोजाने लगा। त उ मिलिए नहीं रहा था। तभिए गनेरुआ बोला

‘‘की खोजते हैं। ….. दही? उ त बरका पाहुन ले कर बैठे हैं। आप लोग भोज भात में देरी कर रहे हैं। उ हैं चिन्नी के पेसेंट। उनको भूख बरदास्त नहीं होता है। सो दही लेकर बैठ गए हैं चूरा के साथ खाने।”

अब त सबका माथा ठनका। बरकी भौजी बोली, ‘अब का होगा।’

बिशुनपुर बाली भौजी बोली, “हई ... होगा की, दहिए न खैतई, मटकूरी नई न ल जेतई’ फिर इधर देखी फिर उधर ! उठाया मटकुरी और उसमें पानी डाल कर जोर से हिला कर उसे कराही में उड़ेल दी!!

अब तक तो अन्दर ही चख-चुख चल रहा था। अब बाहर भी भोज के बदले दूसरा ही तमाशा शुरू हो गया। मुंशी भैया भी खिसिया के बोले,

"कहती थी सब गुण के आगर है। मिनट में खाना बनाती है। हुंह... इन लोग से तो न भोजे बनेगा न भात ! दही आएगा कहां से सब त इ पहुना खा गया। "

उनका बात सुन कर बरकी भौजी बोली, “धीरज धरिए। दहिए न खैलकई, मटकूरी नई न ल गेलई”

हम लोग भी लगे यही बात दोहराने। दहिए न खैतई, मटकूरी नई न ल जेतई"

बाद में ई कहावत प्रचलित ही हो गया। मतलब

कोई तात्कालिक व्यवधान ही तो आया है, कोई हमारी किस्मत थोड़े ही ले जाएगा, हमारा हुनर थोड़े ही ले जाएगा। धीरज रखने से सब काम ठीक से हो जाएगा। लोग बात करें बड़ी-बड़ी और काम हो कुछ नहीं और कुछ हो भी तो गड़बड़ ही गड़बड़, पर समझदारी और धीरज से सब ठीक हो जाता है !!

तब सब के मुंह पर यही कहावत आती है। समझे! आप भी कभी ऐसा ही कहियेगा कि " दहिए न खैतई, मटकूरी नई न ल जेतई

बियाह का खिस्सा फिर कभी। तब तक नव वर-वधू को आशीष!झिंगूर दास 308