-- सत्येन्द्र झा
समाज सुधार के ठेकेदारों द्वारा आयोजित रैली में हुड़्दंग हो गया। नेतृत्वकर्त्ता सबसे पहले भागकर अपनी गाड़ी में जा बैठे। दो-चार लोग इस रेलम-पेल में कुचल कर यमलोक पहुँच गये और दर्जनों घायल हो गये। अगली सुबह अखबार में नेताजी का वक्तव्य छपा था, “हमें इस बात का अपार क्लेश है कि हमारे कुछ कार्यकर्त्ता इस पुनीत कार्य में शहीद हो गये। इससे तो अच्छा था कि भगवान मेरे प्राण ही ले लेते। अब मेरे लिये जीवन का कोई अर्थ नहीं है।”
नेताजी अखबार पढ़ रहे थे। सामने पत्नी मेवा की थाल और ग्लास भर फ़्रूट-जूस लिये खड़ी थीं।
(मूलकथा मैथिली में “अहींकेँ कहै छी” में संकलित “जीबाक अर्थ” से हिन्दी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)
इसे कहते हैं घडियाली आँसू बहाना ...अच्छी लघु कथा
जवाब देंहटाएंअच्छा व्यंग्य.
जवाब देंहटाएंदेखें दुनाली पर
लादेन की मौत और सियासत पर तीखा-तड़का
:-) अच्छा है !!
जवाब देंहटाएंऐसा ही हो रहा है आजकल.सटीक लघुकथा.
जवाब देंहटाएंयही होता है, आम जनता की जान को किसे परवाह है ... फिर भी अपनी जान देने गरीब जनता इनके पास जाती है ...
जवाब देंहटाएंसटीक लघुकथा.
जवाब देंहटाएंयही संवेदना है।
जवाब देंहटाएंये सफेदपोश ही संमाज का असली नासूर हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बड़ी बात कहती हुई लघुकथा ..!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी है .
राजनीति का क्या कहा जाए!
जवाब देंहटाएंइसीलिये तो नेता हैं ।
जवाब देंहटाएंवर्तमान युग मे नेताओं के जीवन का न कोई अर्थ होता है न उद्देश्य-वस लोगों को एक सहज भुलावा देकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते रहते हैं। लघु कथा अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंबढ़िया किस्सा है।
जवाब देंहटाएंराजनेताओं की तो सच्ची तस्वीर यही है।
जवाब देंहटाएंऐसा ही हो रहा है।
बहुत सुन्दर।
एक सत्य कथा आज कल के जमाने की, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआज का यथार्थ! कड़वा सच!
जवाब देंहटाएंकल 06/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बिल्कुल सच ।
जवाब देंहटाएंसशक्त व्यंग्य...
जवाब देंहटाएंसादर...