भारतीय काव्यशास्त्र-68
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु ध्वनि, वस्तु से अलंकार, अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार ध्वनि पर चर्चा हुई थी। इस अंक में संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ कविप्रौढोक्तिसिद्ध पदद्योत्य ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु ध्वनि, वस्तु से अलंकार, अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार ध्वनि पर चर्चा की जाएगी।
सर्वप्रथम वस्तु से वस्तु ध्वनि का उदाहरण लेते हैं। प्रस्तुत उदाहरण एक प्राकृत भाषा का श्लोक है। उसके नीचे श्लोक की संस्कृत छाया भी दी गयी है।
राईसु चंदधवलासु ललिअमप्फालिऊण जो चावम्।
एकच्छत्तं विअ कुणइ भुवणरज्जं विजंभंतो।।
(रात्रीषु चन्द्रधवलासु ललितमास्फाल्य यश्चापम्।
एकच्छत्रमिव करोति भुवनराज्यं विजृम्भमाणः।। संस्कृत छाया)
अर्थात् चाँदनीयुक्त धवल वर्णवाली रातों में प्रकट होकर (कामदेव) अपनी धनुष की टंकारमात्र से पूरे विश्व पर एकछत्र सा राज्य करता है।
यहाँ उपर्युक्त वस्तु से यह वस्त्वर्थ ध्वनित होता है कि जिन कामी जन (स्त्री-पुरुष) का कामदेव राजा है, उनमें से कोई भी उसकी अवज्ञा नहीं करता और रातभर जागकर उपभोग में लगे रहते हैं।
अब वस्तु से अलंकार ध्वनि का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है-
निशितशरधियाSर्पयत्यनङ्गो दृशि सुदृशः स्वबलं वयस्यराले।
दिशि निपतति यत्र सा च तत्र व्यतिकरमेत्य समुन्मिषन्त्यवस्थाः।।
अर्थात् कामदेव युवती कामिनियों के कटाक्ष के तीक्ष्ण बाण को अपनी पूरी शक्ति अर्पित कर देता है, यही कारण है कि वह जिधर जाता है (पड़ता है) वहाँ एक साथ सभी अवस्थाएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
यहाँ उपर्युक्त वस्तु अर्थ से परस्पर विपरीत अवस्थाएँ- रोना, हँसना आदि काम की दस दशाएँ- एक साथ उत्पन्न हो जाती हैं यह व्यंग्यार्थ आता है, जिसमें विरोधालंकार है। उक्त व्यंग्यार्थ व्यतिकर पद से प्रकाशित होता है।
इसके बाद अलंकार से वस्तु ध्वनि का उदाहरण लेते हैं। यह भी प्राकृत भाषा का श्लोक है। साथ में इसकी संस्कृत छाया भी दी जा रही है-
वारिज्जन्तो वि पुणो सन्दावकदत्थिएण हिअएण।
थणहरवअस्सएण विसुद्धजाई ण चलइ से हारो।।
(वार्यमाणोSपि पुनः सन्तापकदर्थितेन हृदयेन।
स्तनभरवयस्येन विशुद्धजातिर्न चलत्यस्या हारः।।संस्कृत छाया)
अर्थात् संताप से व्यथित हृदय नायक के द्वारा बार-बार हटाए जाने पर भी हार (माला) विशुद्ध जाति का होने के कारण अपने मित्र स्तनों से नहीं हटता है।
इस श्लोक में काव्यलिंग अलंकार (जहाँ युक्ति (हेतु/कारण) देकर वाक्य या पद के अर्थ का कथन किया जाय, वहाँ काव्यलिंग अलंकार होता है) है, जिससे (काव्यलिंग अलंकार से) हार हटाने पर भी लगातार स्तनों पर लटक रहा है यह वस्तु अर्थ न चलति पद से व्यंजित हो रहा है।
अब अंक के अंत में अलंकार से अलंकार ध्वनि का उदाहरण लेते हैं। यह श्लोक भी प्राकृत भाषा का है। साथ में इसकी संस्कृत छाया भी है। इस श्लोक में संभोग शृंगार का वर्णन किया गया है-
सो मुद्धसामलंगो धम्मिल्लो कलिअललिअणिअदेहो।
तीए खंधाहि वलं गहिअ सरो सुरअसंगरे जअइ।।
(स मुग्धश्यामलाङ्गो धम्मिल्लः कलितललितनिजदेहः।
तस्याः स्कन्धाद्वलं गृहीत्वा स्मरः सुरतसङ्गरे जयति।। संस्कृत छाया)
अर्थात् नायिका के श्यामल केशपाश रूपी कामदेव एकबार संभोग के बाद नायिका के कंधों से बल प्राप्तकर पुनः सुरत-समर के लिए उत्कर्ष को प्राप्त कर लेता है।
इस श्लोक में श्यामल केशपाश को ही कामदेव कहा गया है, अर्थात् श्यामल केशपाश उपमेय कामदेव उपमान का रूप ले लिया है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है। यहाँ द्रष्टव्य है कि एकबार सुरत-व्यापर होने के बाद कारण समाप्त हो गया। पुनः सुरत व्यापार के लिए उद्यत होने का कथन, अर्थात् कारण के अभाव मे कार्य का होना (विभावना अलंकार) व्यंग्य है। और यह व्यंग्य स्कन्ध (कंधा) से व्युत्पन्न हो रहा है।
अगले अंक में कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध पदद्योत्य ध्वनि के भेदों पर चर्चा की जाएगी।
*****
बहुत उत्तम जानकारी.
जवाब देंहटाएंकाव्यशास्त्र की गूढ जानकारी को सरल ढंग से हम तक पहुंचाने का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएं---------
गुडिया रानी हुई सयानी..
सीधे सच्चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।
sarthak gyanvardhak post .
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक पोस्ट...
जवाब देंहटाएंबहुत उत्तम और ज्ञानवर्धक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर व ज्ञानवर्धक पोस्ट,
जवाब देंहटाएं- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com