रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।
जितेन्द्र त्रिवेदी
भारत के निर्माण की प्रक्रिया को जानना इसलिये भी मुझे अत्यन्त आवश्यक लगा है कि आज महाराष्ट्र ही नहीं भारत के कई प्रांतो में या खुलकर कहूँ तो सभी प्रांतो में अपने-अपने क्षेत्र के अतीत को अपने-अपने जाति के अतीत को अपने-अपने सम्प्रदाय के अतीत को अपनी-अपनी भाषा के अतीत को, यहाँ तक कि अपने-अपने शहरों के पुराने नामों के अतीत को याद कर अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ मानने की होड़ लग गयी है। ये सब लोग अपनी-अपनी प्राचीन संस्कृति और पुराने तत्वों को फिर से जगाने के लिये आवाज उठा रहे हैं, पर समग्रता के जागरण की बात, भारतीयता के जागरण की बात, सहिष्णुता की बात कोई भी नहीं कर रहा है। चाहे आप किसी भी चेहरे को देख लीजिये जो अपने-अपने स्तर पर अपनी-अपनी बपौती -(जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र, शहर, देहात आदि) की अधिक प्रखरता के लिये तो प्रयासरत हैं। इनमें उनका उतना बड़ा मकसद नहीं है कि वे वास्तव में उनके लिये प्राणपण देना चाहते हैं बल्कि उन्हें तो उसके माध्यम से सिर्फ वोट या अगाध प्रसिद्धि की ही चाह अधिक है। भले ही वे कभी अपने अस्तित्व पर खतरा जानकर ही इनका सहारा ले रहे हों, पर निराशा नहीं तो दुख की बात जरूर है कि ऐसा करने वालों को कोई रोकने की कोशिश और हिम्मत भी नहीं कर रहा।
वास्तव में वे जो बतलाना चाहते हैं वह है समाज, जाति, धर्म, क्षेत्र, संस्कृति का पुराना प्रतिमान कि हम वैसे ही रहें और वैसा रहने में उनको सबसे अधिक फायदा है। ऐसी स्थिति में भारत के निर्माण को समझना निहायत जरूरी है कि यह देश आखिर बना कैसे? किन तत्वों से इसकी रचना हुई है? कितने स्नेह-जल से इसकी धारा की सिंचाई हुई है? हम आज जो भी हैं उसमें हमारी पिछली बातों एवं कार्यो का भरसक योगदान है, पर अब हम उसी कीर्ति के बल पर उन्ही मान्यताओं के बल पर भारत को नही चला सकते। अगर हम इस बात को नहीं समझेगें तो हिन्द मिट जायेगा। उसकी ग्रहणशीलता ही तो उसका ऊर्जा केन्द्र है। संकीर्णता से उसका उत्स (श्रोत) सूख जायेगा। उदारता ने ही हिन्द को पाला पोसा है और उसके ना रहने पर हिन्दुस्तानियत कहाँ रह जायेगी?
अगर आज इस सोच में, जो तेरे-मेरे की बात करती है में, परिवर्तन न लाया गया तो स्वभवतः वे सारी की सारी विषमताएं भी पुनः सिर उठाएंगी ही, जिसमें अतीत में हमने अपने ही भाईयों पर सामाजिक अन्याय किया था। निम्न वर्णों पर विशेषतः शूद्रों और चण्डालों पर जिस तरह से अपात्रताएं थोपी गईं थीं, उन्हें आज के विचार में पुलर्व्याख्यायित करने की आवश्यकता है कि इन शक्तियों को पहचानने में हमें कोई भूल नहीं करनी चाहिये कि ''तेरे-मेरे’’ की अवधारणा व्यक्ति को कहां से कहां ले जा सकती है। तमिल कवि सुब्रहमण्यम भारती ने अपनी सुन्दर कविता में लिखा है- ''मैं और तू कहने से ओठ नहीं जुड़ते, पर हम कहने से तो जुड़ जाते हैं।''
प्राचीन मध्य और उसके बाद के काल की बहुत सी रूढ़ियां समकालीन भारत में भी हमारा पीछा करती हुई आ गई हैं। पुराने लोकाचार, मान्यताएं, सामाजिक रूढ़ियां और दकियानूसीपन और सैकड़ों कर्मकांडों की विधियां हमारे मन में इतनी गहराई तक पैठ गई है कि आज भी हम आसानी से इनसे छुटकारा नहीं पा रहे और बेवश होकर संकीर्णता के दावानल में गिर पड़े हैं। दुर्भाग्यवश ये पुराने दुराग्रह ही हमें आज भी उकसा रहे हैं और व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के विकास में आड़े आ-आकर हमारी समग्र भारतीय की सोच को बनने में अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं। इस तरह की बातों को पहले तो खासकर ब्रिटिश राज में और उसके बाद वोट बैंक की राजनीति में हमारे ही कर्णधारों ने, जिनको हमने देश की बागडोर थमा दी थी, हमारे भोलेपन का खूब फायदा उठाया और तत्कालीन परिस्थितियों में कभी गरीबी के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी दलित के नाम पर जान-बूझ कर बढ़ावा दिया गया। सिर्फ अपने क्षुद्र स्वार्थो की पूर्ति हेतु क्षणिक पदों को हथियाने की जोड़-तोड़ में घृणा को एक सिरे से दूसरे सिरे तक बढ़ा दिया और जब हम आज भ्रमित खडे़ है तो वे लोग मना कर रहे है कि हमने राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के लिये लड़ने को कभी नही कहा था। वे यह भी कह सकते हैं कि गरीबी भगाओ और दलित बढ़ाओं का नारा हमने तो दिया ही नही था और ''तुष्टीकरण’’ की राजनीति क्या होती है यह तो हमें आज तक पता ही नहीं है। वे चाहे जो कह सकते हैं और चाहे जो भी कहें, हमारे इस विश्लेषण का लुब्बो-लुबाव यहीं रहने वाला है कि जो उन्होंने कहा या हमने गलत समझ लिया था, अथवा जो भी है, हो चुका है, दंगे हो चुके है, खून बह चुका है, दूरियां वे बढ़ाना चाहते थे और अब दूरियां बेपनाह आ चुकी हैं। वे हममें घृणा भरना चाहते थे और अब हम सब एक दूसरे को इस कदर भी बर्दाश्त नहीं कर रहे कि अपने ही देश के आदमी के पास बैठना नहीं चाहते और एक राज्य का आदमी हमें दूसरे राज्य में नागवार मालूम गुजरने लगा है। तो अब हम क्या जीना छोड़ दे और मर जायें? या ऐसे ही जिएं और रोज लड़ें?
जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद हमारे देश के जनतांत्रिक रास्ते से एकता कायम रखते हुये आगे बढ़ने में बाधा डाल रहे है। जातीय व्यवधान और क्षेत्रीय अवरोध पढे़-लिखे लोगों, राजनेताओं और सरकारी पदों में ऊपर बैठे लोगों के मन में भी असहिष्णुता पैदा कर रही है। साथ-साथ रहने और समेकित संस्कृति के लक्षण को और सबसे अधिक शारीरिक श्रम और व्यक्तिगत प्रयासों की प्रतिष्ठा को स्थापित होने देने में व्यवधान पैदा कर रही हैं। आज के 21वीं सदी के दौर में भी हमें अपने सामान्य हित में, लोकहित में एक नहीं होने दे रही हैं। दलितों को, महिलाओं को, बच्चों को नागरिक अधिकार भले ही मिल गये हों लेकिन वे अपने कर्तव्यों को समझने में अभी भी लापरवाही कर रहे हैं। भारत के निर्माण के अध्ययन की विवेचना में हम तह में बैठकर पता लगा सकेंगे कि इन दुराग्रहों की जडे़ कहां हैं। हम साथ-साथ मिलकर उन कारणों को ढूंढ निकालने की कोशिश कर रहे हैं जिन पर सब प्रकार की असहिष्णुता टिकी हुई है और संकीर्णता को दिनानुदिन बढ़ावा मिल रहा है। अतः भारत के निर्माण की प्रक्रिया का विश्लेषण केवल मेरे लिये ही प्रासंगिक नहीं है, जो यह जानना चाहता है कि इस असहिष्णुता की वजहें क्या हैं और सहिष्णुता का सही स्वरूप क्या है बल्कि उन लोगों के लिये भी प्रासंगिक है जो देश की प्रगति में बाधा डालने वाले तत्वों को पहचानना चाहते है।
बहुत सुन्दर पोस्ट !
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
एक सशक्त रचना। आगे के अंकों की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंबड़ी चिन्तनपूर्ण व प्रभावशाली श्रंखला।
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली लेखन
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com