शनिवार, 26 अप्रैल 2014

गोखले की दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा

गांधी और गांधीवाद-157

1912

गोखले की दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा

दक्षिण अफ़्रीका के आंदोलन की गूंज भारत तक पहुंची। भारत में ‘वायसरीगल काउंसिल के ऑफ इंडिया’ के गोपालकृष्ण गोखले ने रंगभेद के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की थी। भारत और इंग्लैंड दोनों ही देशों में गोखले जी को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर और भारत सेवक समिति के अध्यक्ष गोखले जी केन्द्रीय विधानसभा के सदस्य थे। कलकत्ते की बड़ी काउंसिल के भीतर और बाहर से भी वे दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई का हर तरह से समर्थन करते रहे थे। मुम्बई में प्रसिद्ध बैरिस्टर फिरोजशाह मेहता भी दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों की समस्या के निदान में रुचि रखते थे। गांधी जी की गोखले में परम श्रद्धा थी। पिछले पंद्रह वर्षों से उनका गांधी जी से पत्र-व्यवहार चला आ रहा था। वे उनके राजनीतिक गुरु थे। उनके आग्रह पर गोखले ने दक्षिण अफ़्रीका का दौरा किया। उनकी दक्षिण अफ़्रीका की योजना ब्रिटिश सरकार की मंजूरी से बनी थी। उनके आने के पहले तक अफ़्रीका के गोरों को भारत या भारतवासियों के बारे में कोई खास जनकारी नहीं थी। गोरों का मानना था कि भारतीय जनता अनपढ़, निकम्मी, रूढ़िग्रस्त और संस्कारहीन थी। कुल मिलाकर भारतीयों का स्थान गोरों के नौकर-चाकर से अधिक का नहीं था। इसीलिए तो वे भारतीयों को कुली कहते थे।

गांधी जी काफ़ी दिनों से गोखले जी और अन्य कई भारतीय नेताओं से निवेदन कर रहे थे कि वे दक्षिण अफ़्रीका जाकर भारतीयों की स्थिति से अवगत हों। गोखले जी 1911 में इंग्लैंड में थे। उनके साथ गांधी जी का पत्र-व्यवहार चलता रहता था। भारतमंत्री के साथ उन्होंने सलाह-मसविरा किया कि दक्षिण अफ़्रीका जाकर उन्हें पूरे मसले को समझना चाहिए। भारत मंत्री को उनकी यह योजना पसंद आई। गोखले जी ने अपने छह सप्ताह के दक्षिण अफ़्रीकी दौरे की सूचना गांधी जी को दी। गांधी जी के हर्ष का ठिकाना न रहा। उन्होंने निश्चय किया कि गोखले जी का ऐसा स्वागत सम्मान किया जाए जैसा कभी किसी बादशाह का भी न हुआ हो। इस स्वागत में शामिल होने के लिए गोरों को भी निमंत्रण दिया गया। यह तय किया गया कि जहां-जहां सार्वजनिक सभा होगी वहां के मेयर को सभा का सभापति बनाया जाएगा। रेलवे स्टेशनों को सजाया जाएगा। जोहान्सबर्ग स्टेशन को सजाने में पंद्रह दिन लगे। कालेनबैक के निर्देशन में वहां एक सुंदर चित्रित तोरण बनाया गया था।

गोखले जी लंदन में थे। वहीं से उनका दक्षिण अफ़्रीका का कार्यक्रम था। भारत मंत्री ने दक्षिण अफ़्रीका की सरकार को सूचना दे दी। ब्रिटिश सरकार ने उनकी दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा का प्रबंध किया था। स्टीमर में उनके लिए प्रथम श्रेणी की व्यवस्था की गई थी। ब्रिटिश सरकार का एक वरिष्ठ अफ़सर उनकी हिफ़ाज़त के लिए साथ भेजा गया था। दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने उन्हें अपना राजकीय मेहमान माना। उनके प्रवास की सुख-सुविधा के लिए जनरल स्मट्स ने ट्रेन का अपना निजी सैलून उनके उपयोग के लिए दिया था। 22 अक्तूबर 1912 को वे केपटाउन पहुंचे। उन दिनों गांधी जी टॉल्सटॉय फार्म पर रहते थे। कालेनबाख और ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष कछालिया के साथ गांधी जी गोखले जी का स्वागत करने केपटाउन बंदरगाह गए। वहां सैंकड़ो भारतीय एकत्रित हुए। गांधी जी और गोखले जी एक दूसरे के गले मिले। गोखले जी ने गांधी जी से कहा, “देखो गांधी, बहुत दिनों से तुम बुलाते थे, तो मैं आ गया। मैं यहां से विदा होऊं तब तक जो चाहो सो मेरा उपयोग कर लो, मैं कुछ नहीं जानता। तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। बाद में मुझे दोष न देना।”54

केपटाउन में एक बड़ी सभा हुई। उस शहर के मुखिया सिनेटर डब्ल्यू. पी. श्राइनर ने सभा का सभापतित्व किया। उसने गोखले जी का स्वागत करते हुए कहा कि भारतीयों के साथ उसकी काफ़ी हमदर्दी है। गोखले जी का भाषण छोटा, परिपक्व विचारों से भरा, दृढ़ पर विनययुक्त था। उन्हें सुनकर न सिर्फ़ भारतीय बल्कि गोरे भी प्रसन्न हुए। केपटाउन से वे जोहान्सबर्ग रवाना हुए। असली लड़ाई तो वहीं के ट्रांसवाल में लड़ी जा रही थी। वे दक्षिण अफ़्रीका में पांच सप्ताह रहे। जगह-जगह पर उनका भव्य स्वागत हुआ।

टॉल्सटॉय फार्म में गोखले जी का आगमन

फार्म जब चल रहा था उसी समय गोखले जी दक्षिण अफ़्रीका गए थे। गोखले जी नाजुक तबियत वाले व्यक्ति थे। फार्म का जीवन बड़ा कठिन था। गांधी जी ने निश्चय किया कि गोखले जी को फार्म पर बुलाया जाए। फार्म में खाट जैसी कोई चीज़ नहीं थी। सभी ज़मीन पर सोते थे। गोखले जी के लिए एक खाट मंगवाई गई। दूसरी समस्या यह थी कि वहां कोई ऐसा कमरा नहीं था जहां गोखले जी को पूरा एकांत मिल सके। तय यह हुआ कि कालेनबेक के कमरे में उन्हें रखा जाएगा। स्टेशन से फार्म तक का डेढ़ मील का सफर पैदल तय किया गया। उसी दिन वर्षा भी हो गई। मौसम का ठंडा हो गया। गोखले जी को ठंड लग गई। उन्हें कालेनबेक के कमरे में ठहराया गया। वहां से रसोई दूर थी। उन्हें रसोई घर में ले जाया नहीं जा सकता था, और वहां तक खाना लाने में वह ठंडा हो जाता। पर गोखले जी ने सारे कष्ट सहते हुए एक शब्द भी नहीं कहा। यहां तक कि जब उन्हें मालूम हुआ कि फार्म में सभी लोग ज़मीन पर ही सोते हैं, तब उनके लिए जो खाट लाई गई थी उसे हटा दिया और अपना बिस्तर उन्होंने फ़र्श पर ही लगा लिया। गोखले जी देह-आदि की मालिश के लिए नौकर की सेवा ही स्वीकार करते थे। उस रात गांधी जी और कालेनबेक ने उनसे बहुत विनती की कि उन्हें पांव दबाने दें, पर गोखले जी टस से मस न हुए। उल्टे नाराज होते हुए बोले, “जान पड़ता है कि आप सब लोगों ने यह समझ लिया है कि कष्ट भोगने के लिए अकेले आप ही लोग जन्मे हो और हम जैसे लोग इसलिए पैदा हुए हैं कि तुम्हें कष्ट दें। अपनी अति की सज़ा तुम पूरी-पूरी भोग लो। मैं तुम्हें अपना शरीर छूने तक नहीं दूंगा। तुम सब लोग निबटने के लिए दूर जाओगे और मेरे लिए कमोड रखोगे। ऐसा क्यों? चाहे जितनी तकलीफ़ उठानी पड़े, मैं भोग लूंगा; पर तुम्हारा गर्व चूर करूंगा।”

गोखले जी की पूरी यात्रा के दौरान साथ रहकर गांधी जी ने उनके दुभाषिए और अनुचर का काम किया। गोखले जी जहां भी गए उनका शाही ढंग से स्वागत किया गया। वे जिस स्टेशन पर उतरते उसे ख़ूब सजाया जाता। रोशनियां की जातीं। गलीचे बिछाए जाते। मानपत्र भेंट किए जाते। जगह-जगह पर गोखले जी का भाषण हुआ। गांधी जी के विशेष आग्रह पर गोखले जी ने मराठी में भाषण दिया। गांधी जी उसका हिंदी अनुवाद करते। लोग भावविभोर होकर उनकी बातें सुनते। गांधी जी और कालेनबाख गोखले की सेवा करते। गांधी जी उनके कपड़े ख़ुद धोते, और उसपर इस्तरी भी करते। उनका भोजन भी ख़ुद ही बनाते। गोखले जी मधुमेह के मरीज़ थे, इसलिए उनके आहार का पूरा ध्यान रखा जाता। गांधी जी उनके भोजन की तैयारी पर खुद नज़र रखते। जोहान्सबर्ग में गोखले जी पन्द्रह दिनों तक रहे। गोखले जी टॉल्सटॉय फार्म और फीनिक्स आश्रम भी गए।

गोखले जी के दक्षिण अफ़्रीका आने का उद्देश्य था भारतीय समुदाय की अवस्था का अनुमान करना और उसके सुधारने में गांधी जी की सहायता करना। जब वे दक्षिण अफ़्रीका गए, तो उनकी विद्वता, गरिमा, गंभीरता, संस्कारिता और विलक्षण राजनैतिक निपुणता देखकर गोरी सरकार चकित रह गई। प्रवासी भारतीयों ने उनकी अभूतपूर्व आवभगत की। चूंकि गोखले जी लंबे समय से असहयोग आंदोलन के साथ जुड़े हुए थे, इसलिए आंदोलन में उनकी उपस्थित से नई स्फूर्ति आई। जहां जहां वे गए वहां भारतीयों में ही नहीं, गोरी प्रजा में भी उत्साह का संचार हुआ।

जोहान्सबर्ग से गोखले जी प्रिटोरिया गए। वहां उन्हें यूनियन सरकार से मिलना था। अफ़्रीकी संघ की अधिकांश यात्रा पर गांधी जी उनके साथ रहे। लेकिन प्रिटोरिया में जब वे जनरल स्मट्स और जनरल बोथा से भी मिलने गए तो गांधी जी उनके साथ नहीं गए। गांधी जी ने गोखले जी को मुख्य मुद्दों के बारे में पहले ही बता दिया था। उन्होंने गोखले जी को 20 पेज का एक मैमोरेण्डम बनाकर दे दिया था। दो घंटे तक चली मीटिंग में बेकार झंझटों के बिना संघ की स्थापना के लिए उत्सुक, दोनों जनरलों ने वास्तव में गोखले जी से भारतीयों के ख़िलाफ़ अत्यधिक भेदभाव वाली व्यवस्थाओं को समाप्त करने का वादा किया था। गोखले जी जब मीटिंग से वापस लौटे तो बहुत आशान्वित और संतुष्ट थे। वे सरकार द्वारा किए गए सत्कार और जनरल बोथा और जनरल स्मट्स के आश्वासनों के बहलावे में आ गए। जब बैठक से लौटे तो गोखले जी ने गांधी जी से कहा, “तुम्हें एक वर्ष के भीतर भारत लौट आना है। सब बातों का फैसला हो गया। काला क़ानून रद्द हो जाएगा। इमिग्रेशन क़ानून से वर्ण-भेद वाली दफ़ा निकाल दी जाएगी। तीन पौंड का कर हटा दिया जाएगा।”

गांधी जी इस पर बिल्कुल विश्वास करने को तैयार नहीं थे, राजनीतिक विषयों में वे पेशेवर राजनीतिज्ञों से कहीं अधिक चतुर थे। उन्होंने कहा, “मुझे इसमें पूरी शंका है। इस मंत्रीमंडल को जितना मैं जानता हूं उतना आप नहीं जानते। आपका आशावाद मुझे प्रिय है, क्योंकि मैं ख़ुद भी आशावादी हूं; पर अनेक बार धोखा खा चुका हूं। इसलिए इस विषय में आपकी जितनी आशा मैं नहीं रख सकता।” गांधी जी सही थे। यह वादा पूरा न हुआ।

17 नवंबर 1912 को गोखले जी जब भारत वापस जाने लगे तो गांधी जी और कालेनबैक जंजीबार तक उन्हें छोड़ने स्टीमर में साथ गए। बोट पर गांधी जी और गोखले जी शतरंज खेलते थे। दोनों ही अच्छे खिलाड़ी थे। विदा होते समय गोखले ने गांधी जी से कहा, देश की ख़ातिर जल्द ही भारत लौट आओ। वहां तुम्हारी बहुत ज़रूरत है।

भारत लौटने पर मुम्बई के एक सार्वजनिक सभा में कहा था, “निःसंदेह गांधी ऐसी मिट्टी के बने हैं जिनसे नायक और शहीद बने होते हैं। उनके अंदर अपने आसपास के साधारण व्यक्तियों को भी नायकों और शहीदों में रूपांतरित करने की प्रशंसनीय आध्यात्मिक शक्ति मौजूद है।”

गोखले जी को विदा करके जब गांधी जी और कालेनबेक वापस लौट रहे थे, तो उन्हें रोक दिया गया, क्योंकि उनके पास ज़रूरी काग़ज़ात नहीं थे। कालेनबेक के पास भी काग़ज़ात नहीं थे, लेकिन उन्हें उसी समय परमिट दे दी गई। कालेनबेक को इस घटना से बेहद दुख हुआ। जब गांधी जी परमिट की प्रतिक्षा कर रहे थे, तो अधिकारी ताने कस रहे थे, “तुम एशियाई हो। तुम्हारी चमड़ी काली है। मैं यूरोपियन हूं, और देखो मेरी चमड़ी गोरी है।” सौभाग्य से भारतीय समुदाय बीच में कूद पड़ा और उनके लिए डट कर खड़ा हो गया। अधिकारियों को झुकना पड़ा। गांधी जी को कुछ घंटों में ही जाने की परमिट मिल गई।

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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

महालट - पारिवारिक वार्तालाप करने वाला पक्षी

महालट - पारिवारिक वार्तालाप करने वाला पक्षी

Indian Treepie (4)

अंग्रेज़ी में नाम : Indian Treepie or Rufous Treepie

वैज्ञानिक नाम : डेंड्रोसिट्टा वेगाबंडा (Dendrocitta vagabunda)

Dendron : a tree, kitta : the magpie

Vagabunda : vagabond, wandering

स्थानीय नाम : इस खूबसूरत और आकर्षक पक्षी को हिंदी में महालट और उर्दू में महताब कहा जाता है। पंजाब में लोग इसे लगोजा और बंगाल में टका चोर या हांडी चाचा कहते हैं। आसाम में इसे कोला खोआ (केला खाने वाला) कहते हैं। तेलुगु में इसे कांडा कटि गाडु, तमिल में वाल काकई, गुजराती में खारवडो या खेरकाट्टो, मराठी में टाक्काचोर, उड़िया में हरदा फलिया, कन्नड़ में माता पक्षी कहा जाता है।

Indian Treepie (1)विवरण व पहचान : हालाकि महालट सामान्य मैना के आकार का पक्षी है लेकिन इसकी 30 से.मी. लंबी पूंछ होती है। इस पक्षी की संपूर्ण लंबाई लगभग 50 से.मी. होती है। केसरी आभा लिए भूरे (अखरोट-chestnut) रंग के इस पक्षी का सिर, गर्दन और छाती धूएं-सा काला (Sooty) होता है। बाक़ी के पूरे शरीर का वस्त्र लाल-सा भूरा होता है, जो पीठ पर अधिक गहरा होता है। शीर्ष पर काली पट्टियों वाली लंबी भूरी पूंछ होती है। किशोर पक्षियों का सिर काले रंग के बजाय भूरा होता है। पंख हल्की भूरी और और उसका किनारा सफेद धब्बेदार होता है जो उड़ान के समय स्पष्ट दिखता है।

Indian Treepieइसकी उड़ान लहरदार होती है, फड़फड़ाने की ज़ोरदार आवाज़ के साथ यह पंख और पूंछ फैलाकर थोड़े-थोड़े अंतराल पर विसर्पण/ग्लाइडिंग भी करता है। नर और मादा एक समान होते हैं। आंख की पुतली लाल-भूरी होती है। चोंच और का रंग सिंग की तरह काला होता है जो जिसका रंग आधार पर हलका हो जाता है। पंजे का रंग भी सिंग की तरह काला होता है

व्याप्ति : यह पूरे देश में पाया जाता है। इसके अलावा बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यानमार में पाया जाता है। यह श्रीलंका में नहीं पाया जाता।

अन्य प्रजातियां : आकार और रंग के आधार पर इसकी पांच प्रजातियां पाई जाती हैं।

1. श्वेत-उदर महालट – डेंड्रोसिट्टा ल्यूकोगेस्ट्रा – पश्चिमी घाटों में पाया जाता है। इसका सिर और उदर सफेद होता है। लंबी और सलेटी पूंछ तो होती है लेकिन इसका सिरा काला होता है।

2. कॉलर्ड ट्रीपाई – डेंड्रोसिट्टा फ्रंटेलिस - हिमालय में पाया जाता है।

3. अंडमान ट्रीपाई – डेंड्रोसिट्टा बेलेई – अंडमान के जंगलों में पाया जाता है।

4. Green Treepie : D. formosae – हिमालय की तराई और पूर्वी भारत में पाया जाता है।

5. D. v. pallida – उत्तर-पूर्वी भारत में।

आदत और वास : वृक्षवासी। कहा जाता है कि यह ज़मीन पर कभी नहीं आता पर हमने इसे अपने वारांडे में देखा और वारांडे की छत बैठे इस पक्षी की तस्वीर उतारी। ऐसा यह पीले हड्डे को पकड़ने के लिए करता है, जो प्रायः छतों पर अपना छत्ता बनाते हैं। वृक्षों से भरे बागों, फल बागानों, झाड़ियों और हल्के जंगलों में रहता है। पेड़ की छाल में घुसे कीटों को खाने के लिए उसके तने और शाखाओं पर चढ़ कर उसे अपने बड़े पंजों से जकड़ लेता है तथा संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी पूंछ से भी आंशिक मदद लेता है।

Nest Indian Treepie (43)हालाकि यह अवासीय परिसर या बगीचे में घूमता-फिरता रहता है, लेकिन यह काफ़ी शर्मीला पक्षी है और अधिकतर समय वृक्षों पर भी पत्तों के बीच छुपा रहना पसंद करता है। इसकी झलक हम तभी पाते हैं जब यह एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर उड़कर जाता होता है।

इसकी आवाज़ इसकी सुन्दरता की तरह काफ़ी मीठी होती है। कुछ-कुछ ‘कोकिला’ या ‘बौब-ओ-लिंक’ की तरह इसकी आवाज़ होती है। लेकिन इस मीठी आवाज़ के साथ-साथ यह कौवों की तरह कर्कश और तेज़ आवाज़ भी निकालता है। अलग-अलग समय पर यह धातु की तरह वाली अलग-अलग आवाज़ निकालता है। कभी ‘के-के-के-के’, तो कभी ‘को-कि-ला’ या ‘कू-लो-ही’। जोड़े में या 4-5 पक्षियों के समूह में पाया जाता है।

महालट की एक मनमोहक आदत है – इसका पारिवारिक वार्तालाप। गर्मी की दोपहरी में इस पक्षी का जोड़ा किसी छायादार शाखा पर बैठ जाता है और फिर कई मिनटों तक एक-दूसरे से बतियाता रहता है। इस वार्तालाप के दौरान ये बड़े ही मज़ेदार ढंग से सिर हिलाते हैं और एक शाखा से दूसरी शाखा पर फुदकते रहते हैं। कभी-कभी ये एक-दूसरे से सट कर बैठ जाते हैं, फिर एक-दूसरे का प्यार से स्पर्श करते हैं और इस तरह से एक दूसरे की नज़दीकी का भरपूर आनंद उठाते हैं।

हमने इसकी तस्वीरें कोलकाता के अलीपुर स्थित आवासीय परिसर के वृक्षों से उतारी है।

भोजन : यह सर्वभक्षी जीव है। पेड़ों की शाखाओं पत्तियों के बीच कीड़ों, बेखबर छोटी चिड़ियों, छिपकिलियों, मेढकों, छोटे सांप, फलों, पिपली, और दूसरी प्रजातियों के पक्षियों के अंडों का आहार ग्रहण करता है। ज़मीन पर यह ज़ायकेदार टिड्डों, चूहों, और कनखजूरों की तलाश में उतरता है।

Nest Indian Treepie (51)प्रजनन : फरवरी से जुलाई तक इनका प्रजनन काल होता है। जब ये जोड़ा बना लेते हैं तो कंटीली टहनियों की मदद से पेड़ के शीर्ष की तरफ़ दो टहनियों के बीच, बड़ा-सा घोंसला बनाते हैं, जिनपर जड़ों की तह लगा देते हैं। कभी-कभी ऊन या पुआल का मुलायम परत भी लगाते हैं। इनका घोंसला तो कौओं की तरह ही होता है लेकिन कौओं के घोंसले से अधिक गहरा होता है। यह घोंसला पत्तियों के बीच अच्छी तरह से छिपा रहता है। मादा एक बार में 4-5 अंडे देती है। अंडे लम्बे अंडाकार होते हैं, छोटे वाले सिरे पर नुकीले होते हैं। कभी-कभी इस पर हलकी चमक भी होती है। पीले हरे रंग के अंडे पर हलके भूरे रंग की चित्तियां होती हैं। अंडे का आकार 1.17 इंच तक होता है। अंडे सेने और चूजे का पालन-पोषण का काम नर और मादा दोनों मिलकर करते हैं।

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संदर्भ

1. The Book of Indian Birds – Salim Ali

2. Popular Handbook of Indian Birds – Hugh Whistler

3. Birds of the Indian Subcontinent – Richard Grimmett, Carlos Inskipp, Tim Inskipp

4. Latin Names of Indian Birds – Explained – Satish Pande

5. Pashchimbanglar Pakhi – Pranabesh Sanyal, Biswajit Roychowdhury

6. हमारे पक्षी – असद आर. रहमानी

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

सरकार और भारतीयों के बीच समझौता

गांधी और गांधीवाद-157

1911

सरकार और भारतीयों के बीच समझौता

सत्याग्रहियों की साख

टॉल्स्टॉय फार्म में रह रहे सत्याग्रहियों के जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते थे। कोई सत्याग्रही जेल जाने वाला होता था तो कोई छूटकर आया होता था। ऐसे ही छूटकर आने वाले सत्याग्रहियों में से दो ऐसे थे जिन्हें मजिस्ट्रेट ने जाती मुचलके पर छोड़ा था। उन्हें सज़ा सुनाने के लिए अगले दिन अदालत में हाज़िर होना था। वे बेठे आपस में बातें कर रहे थे। इतने में उनके लिए जो आख़िरी ट्रेन थी उसके जाने का वक़्त हो गया। ट्रेन वे पा सकेंगे या नहीं यह संदिग्ध हो गया था। वे दोनों और फार्म के कुछ लोग जो उन्हे विदा करने वाले थे लॉली स्टेशन की तरफ़ दौड़े। रास्ते में ही ट्रेन के आने की सीटी सुनाई दी। जब वे स्टेशन के बाहरी हद तक पहुंचे तो स्टेशन के छूटने की सीटी सुनाई दी। दोनों काफ़ी तेजी से दौड़ रहे थे। गांधी जी तो पीछे ही छूट गए थे। ट्रेन चल चुकी थी। दोनों युवकों को दौड़ते देखकर स्टेशन मास्टर ने चलती ट्रेन रोक दी और उनको बिठा लिया। स्टेशन पहुंचने पर गांधी जी ने स्टेशन मास्टर के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। इस घटना से यह स्पष्ट है कि सत्याग्रहियों को जेल जाने और प्रतिज्ञा पालन करने की कितनी उत्सुकता होती थी। दूसरी यह कि स्थानीय कर्माचारियों के साथ उन्होंने काफ़ी मधुर संबंध स्थापित कर लिया था। ये युवक अगर उस ट्रेन को न पकड़ पाते तो अगले दिन अदालत में हाजिर न हो पाते। उन्हें महज भलमानसी के आधार पर ज़मानत मिली थी। सत्याग्रहियों की साख इतनी हो गई थी कि उनके ख़ुद जेल जाने से आतुर होने के कारण मजिस्ट्रेट उनसे जमानत लेने की ज़रूरत नहीं समझते थे। सत्याग्रह के आरंभ में अधिकारियों की ओर से सत्याग्रहियों को कुछ कष्ट आवश्य दिए गए थे, पर ज्यों-ज्यों लड़ाई बढती गई, अधिकारी पहले से कम कड़वे होते गए। कई तो स्टेशन मास्टर की तरह मदद भी करने लगे। इसका कारण था सत्याग्रहियों का सौजन्य, उनका धैर्य और कष्ट सहन करने की उनकी शक्ति।

दुख कभी अकेले नहीं आता। गांधी जी के साथ भी यही हुआ। पारिवारिक समस्याओं के साथ-साथ राजनैतिक समस्याएं भी आ गईं। आंदोलन बहुत लंबा खिंच गया था। सत्याग्रह की लड़ाई चार साल तक चली। इसकी वजह से लोगों का जोश ठंडा पड़ने लगा था। सत्याग्रही जेल जाते और जेल से छूट कर आते रहे। हालांकि भारतीय समाज के धनी वर्ग के लोगों में उतना जोश नहीं रह गया था, फिर भी गांधी जी के नेतृत्व में जो थोड़े चुने और पक्के लोग काम कर रहे थे उनके उत्साह और मनोबल में कोई कमी नहीं होने पाई। केवल फिनिक्स और टॉल्सटॉय फार्म के निवासी आन्दोलनकारियों के प्रतीक के रूप में बने रहे और संघर्ष चलता रहा।

‘साउथ अफ़्रीकन इमीग्रेशन रजिस्ट्रेशन एक्ट’

इस बीच भारतीयों पर होने वाले दमन बहुत बढ़ गए थे। भारतीय निवासियों के अवयस्क बच्चों की पत्नियों को अधिकारी अक्सर परेशान करते थे और कई बार लड़कियों को देश छोड़ने के आदेश मिल जाते। भारतीयों को व्यापार के लाइसेंस मिलने मुश्किल हो गए थे। जो भारतीय बंधुआ बन कर आए थे उन पर भारी टैक्स लगा दिए गए थे। जले पर नमक छिड़कने के लिए सरकार ने ‘साउथ अफ़्रीकन इमीग्रेशन रजिस्ट्रेशन एक्ट’ भी लागू कर दिया। भारतीयों ने एक्ट का विरोध किया। इस का विरोध करने के लिए असहयोग आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई। गांधी जी ने जनरल स्मट्स से बातचीत की। उनका कहना था कि इमीग्रेशन एक्ट में कुछ ऐसे संशोधन कर दिए जाएं जिससे किसी भी प्रकार का जातीय भेदभाव न फैले।

भारत में

भारत का जनमत भी इस प्रश्न पर विक्षुब्ध हो रहा था। कलकत्ते की बड़ी काउंसिल में गोखले जी ने गिरमिटियों का दक्षिण अफ़्रीका भेजना बंद करने का प्रस्ताव पेश किया। यह प्रस्ताव स्वीकार हो गया। भारत में बादशाह जॉर्ज पंचम के दरबार का समय नज़दीक आता जा रहा था। इंग्लैंड की सरकार मामले को सुलझाकर भारतीयों को ख़ुश करना चाह रही थी।

सरकार और भारतीयों के बीच समझौता

इसका नतीज़ा यह हुआ कि 1911 के फरवरी महीने में दक्षिण अफ़्रीका की सरकार ने घोषणा की कि वह रंगभेद वाली रोक को उठा लेगी। एशियावासी होने के कारण ट्रांसवाल में भारतीयों के प्रवेश पर जो प्रतिबंध लगा हुआ है वह नहीं रहेगा। उसके बदले सिर्फ़ उनकी शिक्षा संबंधी योग्यता की कड़ी जांच का प्रतिबंध रहेगा। ट्रांसवाल में प्रवेश एक शैक्षिक परीक्षण के आधार पर दिया जाएगा।

27 मई 1911 को ‘इंडियन ओपिनियन’ ने घोषणा की कि सरकार के साथ एक अस्थायी समझौता हो गया है। इसलिए सभी भारतीयों को अपने काम-धंधे पर लग जाना चाहिए। पहली जून को सभी सत्याग्रही क़ैदी रिहा कर दिए गए। पर यह एक साल तक भी नहीं चल सका।

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शनिवार, 5 अप्रैल 2014

शौबीग या फटिकजल – रंग बदलने वाला पक्षी

शौबीग या फटिकजल – रंग बदलने वाला पक्षी

अंग्रेज़ी में नाम : Common Iora

वैज्ञानिक नाम : Aegithia tiphia

Aigithos – a mythical bird mentioned by Aristotle

Tiphys – the pilot of the Argonauts.

स्थानीय नाम : हिंदी में शौबीग, तेलुगु में पात्सु-जित्ता, तमिल में पाचापोरा, सिन्ना मामपाला-कुरुवी, असमिया में बरसात-सोराइ और बांग्ला में इस पक्षी को फटिकजल कहा जाता है।

विवरण व पहचान : गोरैया की तरह 14 से.मी. के आकार के इस छोटे-से पक्षी का रंग हरा-पीला होता है। यह अत्यंत लजीला पक्षी है। इसके डैनों पर काला-काला दाग होता है। पूरे पंख पर चौड़ी सफेद धारियां होती हैं। नर की पूंछ काली और मादा की हरी होती है। इस पक्षी के परों का रंग ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ बदलता है। गर्मी में नर पक्षी का उपरी वस्त्र काला, सिर और पीठ पीले रंग का होता है। नीचे का वस्त्र गहरा पीला जो कि छाती के पास हलका पीला-हरा होता है। जाड़े में शरीर के पंखों का कालापन लगभग समाप्त हो जाता है। मादा सभी ऋतुओं में हरे-पीले रंग की होती है। मादा के शरीर के ऊपर का हिस्सा जैतूनी रंग का पीलापन लिए हरा तथा निचला पीला होता है। पीला नीचे की तरफ़ और हरा ऊपर की तरफ़ अधिक होता है। पंख गहरा हरा-भूरा, किनारे पर हरा-सफेद, कंधों पर उजली चौड़ी पट्टी होती है। आंख की पुतली का रंग पीलापन लिए सफेद और चोंच और पैर का रंग स्लेटी-नीला होता है।

व्याप्ति : भारत, बंगलादेश, पाकिस्तान, म्यानमार और श्रीलंका में पाया जाता है। (मैंने इसकी तस्वीरें महाराष्ट्र के भुसावल तहसील स्थित हतनुर जलाशय के पास ली थी।)

अन्य प्रजातियां : रंगों के आधार पर इसकी कई प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से चार भारत में मिलती हैं।

1. A. nigrolutea – Marshall’s Iora

2. A. multicolor – रामेश्वरम द्वीप में पाया जाता है। काले रंग का।

3. A. humei – संपूर्ण भारत

4. A. septentrionalis – पंजाब, ऊपर में काला।

iora Hatnur (1)आदत और वास : वानस्पातिक पक्षी जो शहरों में बगीचों में पाया जाता है। यह अधिकतर बड़े-बड़े पेड़ जैसे वट, आम, इमली, पीपल और नीम आदि पेड़ों की औट में रहना पसंद करता है। गांवों के बाहरी इलाके के खुले जंगलों, खेत के मैदानों और झाड़ियों वाले जंगलों में जोड़े में पाया जाता है। यह छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े को खाने के लिए इस फुनगी से उस फुनगी पर फुदकता रहता है। हालांकि ये साधारणतया जोड़े में रहते हैं लेकिन बीच-बीच में यह देखा जाता है कि ये अन्य पक्षियों के साथ मिलकर शिकार अभियान चलाते हैं। यह सुमधुर स्वर में लंबी सुरीली तान ‘वी-इ-इ-इ-टु’ छेड़ता है या छोटी-छोटी ‘चि-चिट्‌-चिट्‌’ की आवाज़ निकालता है।

भोजन : छोटे-छोटे कीटों और उनके अंडों और लार्वों को खाता है।

iora Hatnur (4)प्रजनन : समागम काल में नर अनेक हाव-भावों से, हवा में सीधी उड़ान भरते हुए ऊपर जाता है फिर सर्पिल उड़ान से नीचे बसेरे पर आता है। अपने सारे परों को जिसमें पूंछ के पर भी शामिल हैं इस तरह फैला लेता है कि यह एक गेंद की दिखने लगता है। परों के रंगों और और सीटी की तरह की आवाज़ निकालकर मादा को रिझाता है। अपने बसेरे पर वापस आने के बाद मादा के पास जाकर बंद-पंख रीति से बैठता है, मानों प्रणय-याचना कर रहा हो। फिर उठकर मधुर स्वरों में गाता है। मादा चुपचाप बैठी हुई उसकी प्रणय-परीक्षा लेती रहती है। और अंत में उसकी इन अदाओं और कोशिशों से रीझकर उसे प्रेम-भीख देती है। इन दिनों नर नए वस्त्र भी धारण कर लेता है। उसके परों के रंग में एक विचित्र परिवर्तन आ जाता है। इनका प्रजनन काल मई से सितम्बर का होता है। घोंसला बनाने में यह पक्षी पूरा दक्ष होता है। गृष्म ऋतु में यह पेड़ों की फुनगी की दो शाखाओं के बीच की पतली, कोमल डालों पर घास का साफ-सुथरा प्याले के आकार का घोंसला बनाता है और जिसका भीतरी भाग मकड़े के जाले की मदद से अच्छी तरह पलास्टर किया हुआ रहता है। ये हल्के पीले-उजले रंग के 2-4 अंडे देते हैं। नर और मादा दोनों मिलकर बच्चे का लालन-पालन करते हैं।

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संदर्भ
1. The Book of Indian Birds – Salim Ali
2. Popular Handbook of Indian Birds – Hugh Whistler
3. Birds of the Indian Subcontinent – Richard Grimmett, Carlos Inskipp, Tim Inskipp
4. Latin Names of Indian Birds – Explained – Satish Pande
5. Pashchimbanglar Pakhi – Pranabesh Sanyal, Biswajit Roychowdhury
6. भारत का राष्ट्रीय पक्षी और राज्यों के राज्य पक्षी – परशुराम शुक्ल
7. हमारे पक्षी – असद आर. रहमानी
8. एन्साइक्लोपीडिया पक्षी जगत – राजेन्द्र कुमार राजीव
9. Watching Birds – Jamal Ara