गुरुवार, 30 सितंबर 2010

आँच-37चक्रव्यूह से आगे

अविरल अश्रुलड़ियों को शब्द श्रृंखला सा रचा है ! मेरे भीतर छंदों का सुन्दर संसार बसा है ! इस एहसास के साथ हर शब्द बुनती हूँ - मिटा न पाए क्रूरता भले निर्मम जगत हर रचना पर हँसा है ! नया लिख लेंगे क्या हम बड़ी विचित्र सी दशा है ! जीवन कमल कीचड़ के बीच खिला और सदा से वहीँ फँसा है ! इस वयुह्चक्र से आगे ही सुन्दरता परिभाषित होती है धरती पर हैं जीनेवाले ,पर आसमानी ख्वाब ही क्यूँ नैनों को जँचा है ! अपनी मिट्टी की खुशबू से भाव भाषा का अन्तस रचा है ! ऊपर की ओर बढती लता पर जड़ों में ही तो.... प्राण बसा है ! इस भावसुधा को अपनाकर चलते रहिये राहों पर , मिल जाएगी मंजिल भी - आखिर जीवन स्वयं में प्रेरक एक नशा है !

आँच-37


चक्रव्यूह से आगे


आचार्य परशुराम राय
मेरा फोटोआँच के अंक लगता है अब पाठकों को भाने लगे हैं। इसकी यात्रा अब रुकने वाली नहीं है। इस यात्रा का यह पड़ाव नवगीत परम्परा में अनुपमा पाठक जी का लिखा “जड़ों में ही तो ............ प्राण बसा है” गीत है।
गीत की भावभूमि विषम परिस्थितियों में सृजन की आस्था है। वैसे भी सृजन पीड़ा के गर्भ से ही सम्भव होता है। पीड़ा सृजन की आवश्यकता है। आवश्यकता होती है - पीड़ा में अपने उत्साह और धैर्य के प्रति सजग रहने, दृढ़ होने की। धैर्य और उत्साह दोनों के संयोग से सृजन की समझ या विवेक उत्पन्न होता और यही सृजन में गुणात्मकता ले आता है। जहाँ हम सौन्दर्य का, आनन्द का साक्षात करते हैं। इस जीवन दर्शन को बड़ी ही सुन्दर शब्द-योजना के साथ दो पंक्तियों में कहा गया है:-
सृजन पीड़ा के गर्भ से ही सम्भव होता है। पीड़ा सृजन की आवश्यकता है। आवश्यकता होती है - पीड़ा में अपने उत्साह और धैर्य के प्रति सजग रहने, दृढ़ होने की। धैर्य और उत्साह दोनों के संयोग से सृजन की समझ या विवेक उत्पन्न होता और यही सृजन में गुणात्मकता ले आता है। जहाँ हम सौन्दर्य का, आनन्द का साक्षात करते हैं।
'इस व्यूहचक्र से आगे ही
सुन्दरता परिभाषित होती है'
वियोग की वेदना हमारे अन्दर की अभिव्यक्ति के नए-नए आयामों की अर्गलाएं खोलती जाती है। यहाँ वियोग शृंगार के एक भेद तक सीमित नहीं है। यह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों और परिवेशों में अभावजन्य व्यक्तिगत और समष्टिगत अनुभूति है। निम्नांकित काव्यांश का प्रयोग निबंध लेखन में हमें वियोग को एक सीमित अर्थ में ही बताया गया था-
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान।
निकलकर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान।
कवि की पीड़ा अपने विशुद्ध रूप में व्याप्त समष्टि की पीड़ा है। यही कारण है कि व्याध द्वारा क्रौञ्च जोड़े में एक के मारे जाने पर आदि कवि महर्षि बाल्मीकि के मुँह से उनका शोक श्लोक के रूप में प्रस्फुटित हुआ था -
या निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती:समा:।
यत् क्रौंञ्चमिथुनादेकामवधी: काममोहितम्॥
Tulips प्रस्तुत कविता में पीड़ाजनित अश्रुलड़ियाँ शब्द-शृंखला सी रची हैं। ये अन्तस्थ छन्द शब्द-शृंखला के सहारे भाव-प्रवण होकर काव्य का रूप लेते हैं। यहाँ 'छंद' शब्द बहुत ही अभिव्यंजक रूप में आया है। छन्द शब्द का सामान्य अर्थ कामना, इच्छा, अभिलाषा षडयंत्र आदि है। वैसे शास्त्रों में छंद को आवरण की संज्ञा भी दी गई है। इसके अतिरिक्त छंद में दो चीजें प्रमुख लगती हैं - एक तो गति दूसरा यति। 'गति' प्रवाह है, तो 'यति' अल्पकालिक विराम है। दो इच्छाओं, कामनाओं, अभिलाषाओं आदि में भी प्रवणता के बाद अल्पकालिक ठहराव अनिवार्य है। अन्तस् में कामनाओं, अभिलाषाओं आदि के बसे सुन्दर संसार का एहसास इसे शब्दायमान करता है, रचनाधर्मी बनाता है - यह आकांक्षा लिए कि निर्मम समय उसे काल-कवलित न कर सके। भले ही उसकी उपेक्षा हो जाये, अमरत्व में काल का विलय होना एक अद्भुत कल्पना है। लेकिन यह सत्य है कि सृजन की सत्ता अनन्त है केवल परिवर्तन इसकी नियति है। वैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों ही इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। शिव स्वरोदय में इसे बड़े ही सुन्दर और सरल शब्दों में व्यक्त किया गया है।
'तेभ्यो ब्रह्माण्डमुत्पन्नं तैरेव परिवर्तते।
विलीयते च तत्रैव तत्रैव रमते पुन:॥
अर्थात् पंच महाभूतों से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है। उन्हीं के द्वारा यह परिवर्तनशील रहता है। उन्हीं में लय होता है और यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है।
तो इस प्रकार अमरत्व कोरी कल्पना नहीं, बल्कि समग्रता में यथार्थ की ठोस भूमि हैं।
मैंने अविरल अश्रुलड़ियों को
शब्द शृंखला सा रचा है।
.............................................
............................................
मिटा न पाए उसकी क्रूरता
भले निर्मम समय हर रचना पर हँसा है।
अगले अर्थात् दूसरे बन्द में पुरातन की कठोर सोच पर नवीनता की खोज के कोमल भाव की सुगबुगाती कुण्ठा को मुक्त करने के लिए बहुत ही स्वाभाविक और सुन्दर आयाम दिया गया है-
क्या लिख लेंगे नया हम
जीवन कमल कीचड़ के बीच
खिला और सदा से वहीं फंसा है
इस व्यूहचक्र से आगे ही
सुन्दरता परिभाषित होती है।
Desert नवीनता हमारे जीवन की माँग, आवश्यकता और अभिलाषा जरूर है, पर पुरातन के अभाव में उसका बोधगम्य होना असम्भव है। जीवन रूपी कमल द्वैत के कीचड़ में ही जन्म लेता है। यही इसकी नियति है। कमल को कीचड़ से निकाल दिया जाये, तो वह अस्तित्वहीन हो जाता है। जीवन भी जन्म और मृत्यु के बीच की रेखा है। जन्म के अभाव में मृत्यु और मृत्यु के अभाव में जन्म अकल्पनीय है। और इन दोनों के अभाव में जीवन की सत्ता असम्भव है। 'जीवन कमल कीचड़ के बीच/खिला और सदा से वहीं फँसा है' पंक्तियों में 'सदा से वहीं फँसा है' पदबन्ध चमत्कृत कर देता है। यही चमत्कार कुण्ठा को द्वैत के व्यूहचक्र से बाहर लाकर उसे सौन्दर्य बोध के लिए प्रेरित करता है।
इस बन्द की अंतिम दो पंक्तियाँ एक आश्चर्य को जन्म देती हैं कि भुगतते तो हम यथार्थ हैं, लेकिन जीते हैं कल्पनालोक में। यही आश्चर्य हमारे कल्पनालोक की परिकल्पना को यथार्थ में परिवर्तित करता है। बिजली, रेडियो, टी.वी. या अन्य सामान्य से लगने वाले साधन इसी के परिणाम हैं।
यथार्थजनित कल्पना अन्तस के भाव को भाषा प्रदान करती है। जिस प्रकार वृक्ष के प्राण का मूल जड़ में ही है और जड़ के लिए मिट्टी आवश्यक है। इसी प्रकार भाव के लिए यथार्थ की भूमि का होना आवश्यक है। रहीम कवि भी यही कहते हैं:-
एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
रहिमन सींचे मूल को, फूलहिं फलहिं अघाय।
यही भाव-सुधा मानव को द्वैत से परे अपनी मंजिल अमरत्व की ओर ले जाती है, क्योंकि जीवन अपने आप में एक प्रेरक नशा है, सनक है जो हमारी अन्तर्निहित समस्त सम्भावनाओं को यथोचित विकास प्रदान करता है।
प्रस्तुत कविता के उपर्युक्त आयामों की यात्रा में जो कठिनाइयाँ दिखीं, उनकी ओर संकेत करना आवश्यक है। इन्हें निम्नलिखित ढंग से समझा जा सकता है:-
शब्द संयम:- पहले बन्द की पहली पंक्ति में 'मैंने', तीसरी में 'कई', पाँचवी में 'मैं', छठवीं में 'कि' सातवीं में 'उसकी' शब्दों को हटा देने से कविता इन शब्दों के बोझ से हल्की हो सकती है। छठवीं पंक्ति से 'कि' के स्थान पर केवल एक हाइफन (-) 'कि' का अर्थबोध करा सकता है। दूसरे बन्द की अन्तिम पंक्ति में 'यूँ' शब्द अपनी शब्द योजना पर बोझ है। इसी प्रकार अन्तिम बन्द की तीसरी पंक्ति में 'है' और सातवीं में 'सुनहरी' शब्द अनावश्यक रूप से बन्द को बोझिल बनाए हुए हैं। क्योंकि 'मंजिल' हमेशा आदर्श, सुन्दर और आकर्षक होती हैं उसके लिए किसी विशेषण की आवश्यकता मुझे नहीं लगती। प्रथम बंद की अंतिम पंक्ति में ‘निर्मम समय’ के स्थान पर ‘निर्मम जगत’ अधिक उपय़ुक्त होता।
प्राञ्जलता:- कई पंक्तियों में प्रांजलता का अभाव है। ऊपर सुझाए गए शब्दों को हटा देने पर प्रांजलता में सुधार हो सकता है और कहीं-कहीं शब्दों को आगे-पीछे कर देने से भी। उदाहरण के तौर पर दूसरे बन्द की पहली पंक्ति में यदि 'क्या' को 'नया' शब्द के पहले रखा जाता हो प्रांजलता थोड़ी बढ़ जाती। इसी प्रकार तीसरे बन्द में 'अंतस्तChrysanthemum ल' के स्थान पर 'अन्तस' कर देने से भी प्रवाह अच्छा हो जाता। पुन: कविता की अन्तिम पंक्ति में 'अपने आप' के स्थान पर 'स्वयं' अधिक प्रांजल होता।
ऊपर दी गई विटामिन की गोलियाँ सुझाव मात्र हैं, वह भी मेरे विचार से। कवयित्री और पाठकों का उससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

देसिल बयना - 49 : नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे...

देसिल बयना - 49 :

नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे...

कवि कोकिल विद्यापति के लेखिनी की बानगी, "देसिल बयना सब जन मिट्ठा !"
दोस्तों हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं                           

---करण समस्तीपुरी

चंपापुर वाली मिसराइन को ससुराल बसते पांच साल हो गया था मगर छम्मक छल्लो में कौनो कमी नहीं। सुरुज के किरिन फूटे चाहे नहीं मगरमिसराइन का टहकार जरूर फूट जाता था, "पनिया के जहाज से पलटनिया बनि आइहो... पिया.... ! लेने आइहो हो....  पिया झुमका पंजाब से।

पिया पंजाब नहीं गए तो का... ? हर महीना पनिया के जहाज से पहलेजा घाट जरूर उतरते थे.... अब झुमका लाये कि नथिया उ तो मिसराइनेजाने। लोटू मिसिर पटना में रहते थे। सुने रहे कि कौनो छपरिया वकीलनी साथे हाई कोट में अलाली-दलाली करते हैं।

मिसिर जी के गाँव आते ही घर में रौनक लौट जाता था। मगर इहो मत बूझिये कि उनके नहीं रहने पर सून-सपाटा रहता था। उधर बुढोऊ झटकनमिसिर पतरा लेके गए यजमानी में और इधर छैल-छबीले जतरा कर के रजधानी में। समझिये कि मिसराइन के रसगर व्यवहार और पियरगर बात से पूरा टोला जुडाता था। मगर लोटू मिसिर के आते दिरिस बदल जाता था।

महीना दिन तक पनिया के जहाज से पिया के आने का इंतिजार करे वाली मिसराइन को ई थोड़ा भी नहीं सोहता था कि इहाँ आकर भी उ जमींदार-साहूकार का मामला-मुकदमा का गप सुने। लेकिन मिसिर जी कहते कि ई में बुराई का है ? अरे गाँव-घर में धाख है तब न लोगसलाह-मशविरा करने आते हैं। ऊपर से घर बैठे कुछ दच्छिना भी आ जाता है। अब हम ठहरे, ब्राह्मन कैसे छोड़ दें ? और मिसराइन कहे कि महीना भर तो उहाँ कोट का चूल्हा फूंकते ही है, घरो आकर वही.... ? इहाँ और कौनो आदमी और उ आदमी का कौनो शौख है कि नहीं.... ?

सच्चे, मिसिर जी जब तक गाँव में रहते थे बूझ लीजिये कि घर में तिरकाल संध्या निश्चिते था।  भोर में ऐसन परेम कि दुन्नु एक्कहि चुक्का में चाह पीते थे। दुपहर में एक तरफ से 'मुँहझौंसा.... दाढ़जरबा... तोहे बज्जर पड़े....!' और दूसरे तरफ से 'लुच्ची... फतुरिया.... तेरे बाप के घर में डाका पड़े... !' लेकिन एक बात था दिन में मामला केतनो संगीन हो दीया जलते समझौता। रात में दुन्नु सुर में सुर मिला के राग यमन गायेंगे। तो हुआ न तिरकाल संध्या.... ! हा...हा... हा.... !

हाँ ! कभी-कभी मिसराइन के मंतर पर मिसिर जी दू-चार सोंटा हवन भी कर देते थे। फिर तो मिसराइन के अंचरा दिनकर-दीनानाथ, काली माई, बजरंगवली से लेके पीर बाबा तक सब के सामने पसर जाता था। मिसिर जी हफ्ता भर से गाँव में थे मगर पछिला दू दिन से तिरकाल संध्या का रूटीन भी गड़बड़ा गया था। अब ब्रह्मण के घर में तिरकाल संध्या नहीं हो तो समझ लीजिये कि मामला गड़बड़ है।

भगजोगनी पीरपैती वाली भौजी को मिसिर जी के घर का रूद्र-पुराण सुना रही थी। अब आप से का छुपायें... समझ लीजिये कि जैसे किशन भगवान के बांसुरी सुन के गोपियन सब का पैर अपने आप वृन्दावन के तरफ बढ़ने लगता था वैसे ही ऐसन 'रमण-चमन' का बात सुन कर हमरा पैर भी....... ! इधर-उधर देखे और बाबूजी से नजर बचा के सरपट मिसिरजी के दूरे पर जा कर दम लिए।

अब पता नहीं आग कब लगी थी मगर धाह तभी तक था। एकाध दर्शक और थे। भाकोलिया माय मिसराइन को बहला रही थी। रसगुल्ला झा मिसिरजी को सुलह की सीख दे रहे थे। हम कहे... ले ! इतना जतन उठा के आये... इहा तो ई लोग डरामे बंद कराने पर लगा है। मगर कहते हैं न सच्चा मन का बात भगवान जरूर पुराते हैं।

मिसिर जी जैसे ही कहे चोर-दरिद्रा के खानदान.... कि मिसराइन सातो पुरुखा के उद्धार कर दी। अकेले होते तो पचाइयो लेते मगर ई तो सकल सभा के सामने...... ना... ! आखिर उ भी मरद हैं कि खेल.... ? जब तक रसगुल्ला झा, धोराई महतो, तपेसरा हजाम पकड़े....  मिसिर जी हथिया नछत्तर जैसे गरगरा के बरस गए।

सब पकर-धकर के मिसिर जी को दरबाजा पर बैठाया... मगर मिसराइन तो सीधा सड़के पर जाकर कबड्डी खेले लगी। एंह... जो हाथ चमका-चमका कर मुँह से अमृत बरसा रही थी कि मन तिरपित हो गया। गला के सुर से हाथ के चुरी का ताल मिलता था तो बूझिये कि रानीबिहुला के नाच से भी जादा मजा आये।

मगर तभीये पता नहीं कौन देवी परकोप से सुमित्रा बुआ स्पोट पर पहुँच गयी। बुआ का रोआब ऐसा था कि मरद हो कि औरत..... बूढा कि जुआन... उ का बात गाँव मे कौनो टाल नहीं सकता था। साच्छात ब्रह्म लकीर। पहिले तो मिसराइन तनिक इरिंग-भिरिंग बतियाई। मगर मनियारी हौले से बुआ का महात्तम सुनाई तो उ उन्ही को पकड़ के लगी पीठ का डंडा-छाप दिखाए। आह.... च..च...च.... ! सच में ई मिसरबा कैसा निर्दयी है....... रेशम जैसन चमरी पर लोहा जैसन ददोरा उखार दिया था।

औरत का दरद आखिर औरते बुझती है। सुमित्रा बुआ के आँख से भी लोर बहरा गया। फिर बिजली के जैसे कड़क कर बोली, "ऐ मिसराइन! तुम जाओ आँगन.... ई मिसरबा को हम क़ानून सिखाते हैं। ई मरदुआ... औरत पर डंडा बरसा के वीर कहाता है न... ! रुको जरा दफेदार भैय्या और नारियल सिंघ सरपंच को बुलाने दो।

अगले घंटा में मिसिर जी के द्वार पर भीर जमा हो गयी। पिरतम काकी कह रही थी, "रे दैय्या.... ! कैसन जमाना आ गया.... ? अब मियां-बीवी का फैसला भी पंच करेंगे.... ! दूर छी.... !" "हाँ ए काकी", लहरनी भौजी हाथ में अंचरा पकर के आधा मुँह ढक कर बोली थी।

सच में पंच में परमेसर का बास होता है। लगे ऐसन-ऐसन गिरह तोड़ के सवाल करे कि उ कहचरिया लोटू मिसिर को भी दिने में तरेगन सूझे लगा। इधर मिसराइन हर सवाल पर एगो देवता को अराध कर दोबर हो रही थी। पूरा छान-बीन के बाद पंच सब सामने चौबटिया पर जा कर अपना में विचार करने लगे कि आखिर सजा का दिया जाए। तब तक इधर मिसराइन जनानी महाल में पीठ का ददोरा ऐसे परोस रही थी जैसे  हकार पुरने के लिए आई गीत-गाइन को तेल-सिंदूर परोसते हैं।

आधा घंटा के गहन विचार-विमर्श के बाद नारियल बाबू का फैसला आया, "लोटू मिसिर का ई अपराध अच्छम है। एक तो नारी पर हाथ उठाए...उ भी ब्राह्मणी.... राम-राम !" मिसराइन का सीना गर्व से चौरा हो गया था। सरपंच बाबू आगे बोल रहे थे, "ऐसन दुहात्थी चलाया है... ऐसे तो धोबी भी गदहा को नहीं पीटता है.... ! ई अपराध नहीं... घोर अत्याचार है।   ई को तो जो सजा मिले उ कम्मे है। मगर झटकन मिसिरजी के परतिष्ठा को देख कर पंच लोग बहुत मामूली सजा दे रहे हैं।" अब तक मिसराइन भीड़ को चीर कर आगे आ सुमित्रा बुआ के बांह पकड़ कर खड़ी हो गयी थी।

सरपंच बाबू अब फैसला का अंतिम लाइन बोले, "ई को महावीर थान के कमिटी में एगारह सौ रुपैय्या जमा करना पड़ेगा और चुकी ई ब्राह्मणी पर हाथ उठाया है तो प्रायश्चित में एक दिन बारहों-बरन का भोज करना पड़ेगा। जब तक लोटू मिसिर ई दोनों सजा पूरा नहीं कर लेते, उ आँगन में कदम नहीं रखेंगे।  मिसराइन से एक लफ्ज भी नहीं बतियाएंगे।" इधर भीड़ पंच-परमेसर के नीर-क्षीर न्यार पर ताली बजाती कि ले बलैय्या के........ ई तो बादिये पाटी बदल लिया।

मिसराइन धामिन सांप जैसे फुंफकार पड़ीं, "बंद करिए ई लबराई ! आँगन हमारा...... मरदा हमारा..... और पाबंदी लगाने वाला पंच कौन ? जौन दिन झोटियल सिंघ मुसमात जिवछी को दिन-दहारे पकड़ लिए थे उ दिन पंचायती कहाँ गया था ? आज आये हैं हमरे मरद पर जुरमाना कसने...? महावीर थान में एगारह सौ जमा करें और ई को खिलाएं भोज... मुँह जो बड़ा चिक्कन है पंच का... !"

बाप रे बाप... मिसराइन के आँख, मुँह, हाथ सब से बिजली निकल रहा था। दू कदम और आगे बड़ी और दहार के बोली, "देखते हैं हम भी कौन हमरे मरद से जुरमाना तहसीलता है और कौन उ को आँगन जाने से रोकता है... ! ए मिसिरजी.... ! चलिए तो भीतरी.... !" कहते हुए मिसराइन लोटू मिसिर का दाहिना बांह पकरी और बीच बैठके से खींच ले गयी।

मिसिर जी का हाथ पकड़े मिसराइन अंगने दिश घूम गयी मगर बेकग्रौंड में डायलोग अभियो चल रहा था, "पंचैती करने आये हैं लबरे पंच....अपना घर मे का नहीं होता है... देखे हैं कभी... ? हमरे मरद का का परतर करते हैं.... जो पैर धो के फ़ेंक देगा..... उ बराबरी नहीं करेंगे। क्रोध में हाथ उठ गया... मगर उ में भी सिनेह है कि नहीं... दूसरे पर थोड़े उठता... ? ईके क्रोध भी तो गंगाजी के बाढ़ जैसा निर्मल है... और.... !"

और न जाने का सब.... ! मिसराइन का रील चलिए रहा था कि सुमित्रा बुआ का सीन आ गया, "चुप हरजाई ! अभी चोंच मिलाई करती है। घंटा भर पहिले सांप-नेवला बनी हुई थी..... ! भाषण करती है, गंगा जी जैसा निर्मल.... ! इका पति गंगा जैसा निर्मल है और बांकी सब डबरा जैसा गंधियाला.... !" सुमित्रा बुआ का डायलोग ख़त्म होता कि झट से पिरतम काकी लाइन पकड़ ली, "हाँ ए दीदी !  देखे... कैसी रंग बदल ली.... ! तुरत में कलमुंहा-बेलज्जा और तुरत "नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे.... !"

ROFL_C~16 हा... हा... हा.... ! खी...खी......खी....... ! हे....हे....हे..... ! हो....हो........हो.... ! ही....ही....ही....ही..... ! बाप रे बाप पिरतम काकी का बात सुनके केतना रंग के हंसी गूंज गया था वातावरण में ! सच्चे में, का लहरदार कहावत बोलती है, "नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे.... !" हें...हें...हें.... हें....! इधर लोग सब को हंसी के मारे दम नहीं धरा जा रहा था मगर हम ढूढे लगे ई का अरथ।

हमरा तो माथापच्ची हो गया था।

उ तो लहरनी भौजी समझाई,

"अरे देखा नहीं... कैसे सब को लबरा बना के चली गयी। माने अपना सामान,आदमी या सम्बन्ध.... उ भला-बुरा कैसा भी हो उ सबसे अच्छा... और दूसरा कैसा भी हो वो बुरा ही लगेगा।"

तब हमरी खोपरिया में पिरतम काकी की कहावत का अरथ समाया। हूँ.... "नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे.... !"

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

शौक


शौक



सत्येन्द्र झा

tension[7] वो नियमित समय से कार्यालय पहुँचते थे। सभी कार्य नियमानुकूल करते थे। हाकिम को उन्होंने कभी भी शिकायत का मौका नहीं दिया। लेकिन वही रमण बाबू जब घर पहुँचते थे तो पता नहीं उन्हें क्या हो जाता था...? पत्नी पर कड़क के बोलना... बच्चों से ऐसा व्यवहार मानो वे इनके आदेशपाल हों। उस पर से पचासों प्रश्न.... ! हमेशा तमतमाए हुए।
उस दिन रमण बाबू संयमित थे। अवसर जान पत्नी ने मधुर स्वर में पूछा, "आपको घर आते ही क्या हो जाता है? ऐसे खिसियाये हुए और खिन्न क्यूँ रहते हैं?”
रमण बाबू उस दिन सच में प्रसन्न थे। बोले, "असल में साहेब के साथ रहते-रहते मुझे भी कभी-कभी साहेब बनने का शौख चढ़ जाता है।" बोलते हुए रमण बाबू की मुख-मुद्रा फिर से तनावग्रस्त हो गयी थी।
(मूल कथा मैथिली में 'अहीं के कहै छी' में संकलित 'शौख' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)

सोमवार, 27 सितंबर 2010

खामोश यूँ लेटे हुए….

खामोश यूँ लेटे  हुए….

मनोज कुमार

तेरे अक्‍स 

ख़्वाबों में समेटे हुए

खामोश यूँ लेटे  हुए 

यादों में सोचता हूँ

उस गुलशन में

तेरे साथ

गुज़रे पल

और

झर रहे फूलों के बीच

दबे पांव तेरा आना।

कभी

देखा  था ख़ाब

कि तमाम उम्र

इसी बगिया में हम

साथ चलते रहेंगे.....

पर हाथ छुड़ा कर

जो गुम हुए तुम

तबसे

थम से गए हैं कदम।

बिस्तर पर

तन्‍हां से हम

लेटे ज़रूर

पर

तुम्हारी यादों की सरसराहट

बन्द पलकों को खोल देती है

या मानों तेरी यादें

आंखों में अंटक-सी गईं हैं!!

रविवार, 26 सितंबर 2010

काव्यशास्त्र (भाग-3) - काव्य-लक्षण (काव्य की परिभाषा)

काव्यशास्त्र (भाग-3)

काव्य-लक्षण (काव्य की परिभाषा)

मेरा फोटोआचार्य परशुराम राय

भारतीय काव्य शास्त्र में परिभाषा को लक्षण शब्द से अभिहित किया गया है। अतएव यहाँ परिभाषा के स्थान पर लक्षण शब्द का ही प्रयोग किया जा रहा है। किसी लक्षण की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें कोई दोष न हो। परिभाषा (लक्षण) के तीन दोष कहे जाते हैं- अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव। इसे स्पष्ट करने के लिए यदि हम एक उदाहरण लें- ‘मनुष्य एक साँस लेने वाला प्राणी है।’ इस परिभाषा में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति-दोनों दोष मौजूद हैं। अव्याप्ति इसलिए कि मनुष्य में साँस लेने के अतिरिक्त चिन्तन करने की क्षमता, विवेक आदि भी है, जो उसे अन्य प्राणीयों से अलग करता है और उक्त परिभाषा पूर्णरूपेण मनुष्य को परिभाषित नहीं करती। अतएव यह परिभाषा अव्याप्ति दोष से दूषित है। अतिव्याप्ति इसलिए कि मनुष्य के अलावा अन्य प्राणी भी साँस लेते हैं और इस प्रकार यह परिभाषा मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों पर भी लागू होती है। इसलिए इसमें अतिव्याप्ति दोष भी वर्तमान है। इसी प्रकार असम्भव दोष से ग्रस्त वह लक्षण माना जायगा जो परिभाषित की जाने वाली वस्तु या विषय को स्पर्श ही न करे, यथा ‘मनुष्य अमर हैं।’

काव्य एवं काव्यांगों की परिभाषा करते समय सभी आचार्यों ने बड़े सजग होकर यह प्रयास किया है कि उनके द्वारा प्रतिपादित लक्षण अथवा सिद्धान्त निर्दोष हों।

विभिन्न आचार्यों द्वारा दिए गए काव्य के लक्षण इस प्रकार हैं:

शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्

-आचार्य भामह

(शब्द और अर्थ का समन्वय काव्य है या शब्द और अर्थ का समन्वित भाव काव्य है।)

शरीरं तावदिष्टार्थ-व्यवच्छिन्ना पदावली।

-आचार्य दण्डी

(इष्ट अर्थ से युक्त पदावली (शब्द समूह) ) काव्य का शरीर है अर्थात् मनोरम हृदय को आह्लादित करने वाले अर्थ से युक्त शब्द समूह काव्य का शरीर है।)

रीतिरात्मा काव्यस्य

-आचार्य वामन

(रीति (शैली) काव्य की आत्मा है।)

काव्यस्यात्मा ध्वनिः

-आचार्य आनन्दवर्धन

(काव्य की आत्मा ध्वनि है।)

शब्दार्थौ ते शरीरं संस्कृतं मुखं प्राकृतं बाहुः जघनम्पभंशः पैशाचं पादौ उरो मिभ्रम्। समः प्रसन्नो मधुर उदार ओजस्वि चासि। उक्तिगणं च ते वचः रस आत्मा रोमाणि छन्दांसि प्रश्नोत्तर-प्रवाहलकादिकं च वाक्केलिः अनुप्रासोपमादयश्च त्वामलङ्कुर्वन्ति।

-आचार्य राजशेखर

यहाँ आचार्य राजशेखर ने शब्द और अर्थ को काव्यपुरुष का शरीर, संस्कृत (भाषा) को मुख, प्राकृत भाषा को बाहु, अपभ्रंश को जंघा, पैशाचिकी भाषा से पैर और गद्य-पद्य को वक्षस्थल कहा है। उक्तिवैशिष्ट्य काव्यपुरुष की वाणी, रस आत्मा, छन्द रोम, प्रश्नोत्तर और पहेली आदि आमोद-प्रमोद और अनुप्रास-उपमा आदि आभूषण हैं।

शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविव्यापारशालिर्नि

बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाहलादकारिणी।।

-आचार्य कुन्तक

आचार्य कुन्तक ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य के सभी लक्षणों का समावेश कर काव्य का लक्षण नियत किया है। इसमें भामह का ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’, दण्डी की ‘इष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली’ और वामन की ‘रीति’ दोनों को ‘तद्विवदाह्लाद कारिणि’ के अन्तर्गत, आचार्य आनन्दवर्धन के ‘व्यंञ्जनव्यापार-प्रधान ध्वनि’ और आचार्य राजशेखर के ‘रस’ को ‘वक्रकविध्यापारशालिनि’ के अन्तर्गत समावेश किया है।

औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्।

-आचार्य क्षेमेन्द्र

आचार्य क्षेमेन्द्र रसयुक्त काव्य में औचित्य को काव्य का जीवन अर्थात् आत्मा मानते हैं।

तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती क्वापि (इति काव्यम्)

-आचार्य मम्मट

अर्थात् दोषरहित, गुणसहित, कहीं अलंकार का अभाव होने पर, शब्द और अर्थ (दोनो का समष्टि रूप) काव्य है।

वाक्यं रसात्मकं काव्यम्

-आचार्य विश्वनाथ

अर्थात् रसात्मक वाक्य काव्य है।

रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्

-आचार्य (पण्डितराज) जगन्नाथ

अर्थात् रमणीय अर्थ प्रतिपादित करने वाला शब्द काव्य है।

उक्त सभी लक्षणों को देखने पर यह विचार करना आवश्यक है कि अन्ततोगत्वा काव्य की सर्वोत्तम परिभाषा किसकी है। यदि आचार्यों द्वारा विरचित ग्रंथों को देखा जाए तो प्रायः सभी परवर्ती आचार्यों ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षणों का खण्डन करते हुए अपने मत को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। उनके द्वारा किए गए खण्डन और मण्डन से भरे शास्त्रार्थों की चर्चा न करते हुए इसका निर्णय इक्कीसवीं शताब्दी के पाठकों पर छोड़ता हूँ। अगर पाठकों ने इसकी आवश्यकता समझी तो अलग से इस पर चर्चा की जाएगी। वैसे इतना अवश्य है कि अधिकांश विद्वानों की सहमति है कि आचार्य मम्मट ने अपने काव्य-लक्षण में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षणों में वर्तमान अस्पष्टता का निवारण करके काव्य के स्वरूप को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है।

आचार्य मम्मट के काव्य-लक्षण की विशेषताओं का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है।

शनिवार, 25 सितंबर 2010

फ़ुरसत में …. बड़ा छछलोल बाड़ऽ नऽ

फ़ुरसत में ….


बड़ा छछलोल बाड़ऽ नऽ

  

आचार्य परशुराम राय

दरवाजे पर मेरा और उक्त वाक्य का मेरी श्रवणेन्द्रिय में एक साथ ही प्रवेश हुआ करीब चार-पाँच साल पहले जब मैं वाराणसी से अपने गाँव गया था। सन्-संवत तो सटीक याद नहीं। खैर, जन्मकुण्डली तो बनानी नहीं हैं। अतएव चार साल पहले की बात हो या पाँच साल पहले की, कोई अर्थ नहीं रखती।

वाक्य माँ के ही थे। वह भी शायद छोटे भाई के प्रति। यह स्मरणीय वाक्य उपेक्षा में ही कहा गया जान पड़ता था। जो भी हो, मुझे आकर्षित किया 'छदलोल' शब्द ने। दो साल के बाद घर पहुँचा था। अतएव जल्दी-जल्दी में जो कुछ बन पड़ा, माँ ने जलपान कराया और साथ ही मेरे स्वास्थ्य का मीन-मेख (मेष) निकालती रही। थोड़ी देर में समाचार पर्व समाप्त हुआ, पर 'छछलोल' शब्द मेरे कण्ठ से लगा रहा।

भोजपुरी से आठ-दस वर्षों से सम्पर्क टूट जाने से मैं इस शब्द के गर्भ में निहित अर्थ को खोजने में तत्काल तो असमर्थ रहा। पर इसने भी स्मृति-पट पर अंगद की तरह पाँव जमा दिया। पर ग्राम्य पहेली की भाँति ‘चार चिरइया चार रंग पिजड़े में एक रंग’ - पहेली बन गया। हारकर मैंने भी इसे भाषा-विज्ञान की लेबोरेटरी में खड़ा किया। पर इसके मूल का संकेत न प्राप्त कर सका। इसमें बाधक पड़ती थी मेरे अज्ञान की रस्सी। जिसे भाषा विज्ञान का 'अक: स्वर्णेदीर्घ:' भी ज्ञात न हो, वह लैबोरेटरी का उपयोग ही क्या जाने। अचानक तुलसी की पंक्ति - घुँघरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर सुन्दर लोल कपोलन की - ने लोल शब्द को भटक कर अलग कर दिया। 'छछलोल' शब्द के उत्तरार्ध ने अपने को सम्मुख उपस्थित किया। वह तो अपने 'चंचलता' के साँचे में समा गया पर पूर्वार्द्ध 'छछ' की हड़ताल जारी रही। मित्र के साथ छोड़ देने से भी उसके रहस्य का उद्घाटन न हो सका। उद्धाटित हुआ एक संस्मरण से - किसी पत्रिका में पढ़ा था क किसी वैयाकरण ने बंगला के प्रसिद्ध मसीहा साहित्यकार शरत बाबू को लिखे अपने पत्र के ऊपर उनका नाम - श्रीमच्छरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय लिखा था। जिससे डाकिये को काफी डाकना पड़ा था। अर्थात् श-छ भी बन जाता है। निरक्षर ग्रामीण के स्वर-तन्त्री का गर्भ व्याकरण के विधाता का विधान नहीं मानता। वहाँ प्राय: शब्दों का पुनर्जन्म हो जाता है। व्यञ्जन जुड़वे हो जाते हैं। कहीं स्वर की 'वृद्धि' हो जाती है तो कहीं 'गुण' संज्ञा और कहीं इत् संज्ञा भी। हम साक्षरों को उन्हें अपने दिव्य चक्षु से पहचानना पड़ता है। कहीं-कहीं कठिनाई भी उत्पन्न हो जाती है। लेकिन ग्रामीण इन सबसे अपरिचित बने इनका प्रयोग सदियों/सहस्त्राब्दियों से कर रहे हैं।

इससे 'छछ' 'शष' में परिवर्तित तो हुआ, किन्तु सूक्ष्म शरीरी की भाँति आत्मा से माया का पूरा पर्दा उठा नहीं। चिन्तन-चर्वण चलता रहा। तब तक पश्चिम में सूर्य विसर्जन का शंख फूंक चुके थे। नीली चादर ओढ़े चन्द्रदेव का गगनांगन में स्वागत हुआ। सूर्य ग्रह के योग में चन्द्र ग्रह के आ जाने से मेरे नवोदित 'शश' की दशा सुधर गयी। चाहे वह ज्योतिर्विदों के विचार से इन ग्रहों का योग भले ही शुभ न हो। वह शशक बनने के बजाय शशिमुख हो गया।

बेचारा गाँव की माटी से सना नंगा विशेषण 'छछलोल' पूनम की स्निग्ध चाँदनी में स्नान करके पावन हुआ और 'शशिलोल' का रेशमी परिधान धारण किया।

गाँव में मैं अधिक दिन ठहरता नहीं। दो दिन रुका। वह भी अपने परम मित्र सुरेन्द्र जी के साथ ही गपशप में बीता। तीसरे दिन प्रात: सात बजे ही बक्सर-वाराणसी शटल पकड़ने के लिए घर से निकल पड़ा। मेरे गाँव का काम गंगा नदी के किनारे ही गड़ा है। मेरे घर से नदी की दूरी करीबन एक फर्लांग होगी। रास्ते में एक महिला एक बच्चे का कान उमेठे डाँट रहीं थी। बात क्या थी, समझने का प्रयास नहीं किया या यों कहिए कि मेरे शहरी बेदर्द कानों ने बच्चे की दर्द जानने में निष्क्रियता बरती। आप चाहें तो उन्हें ‘प्रसाद’ जी के शब्दों में उलाहना दे सकते हैं:-

मुख कमल समीप सजे थे

दो किसलय दल पुरइन के

जल बिन्दु सदृश कब ठहरे

इन कानों में दु:ख तिनके।

किन्तु वे 'तुम सुमन नोचते रहते, करते जानी अनजानी।' की भाँति भी न रह सके। वह महिला एक शबद पर काफी जोर दे-दे कर डाँट रही थी। शब्द था ' 'बकलोलऊ'। इसका विकास 'बकलोल' शब्द से हुआ है। कर्णेन्द्रिय ने इस शब्द को मानस-सागर में बेहिचक झोंक दिया। बेचारा छपाक से गिरा और मानस-सागर में विक्षोभ उत्पन्न हो गया। पर बुद्धि ने उसे अव-चेतन की तली में डूबने न दिया। चेतन के उथले जल से ही चील-झपट्टा मार कर बचा लिया। आश्रय देने के लिए नाम, पता पूछा। किन्तु ठोस उत्तर न पाकर जाँच पड़ताल करने के लिए उसे भी भाषा विज्ञान की प्रयोगशाला में पकड़ ले गयी। भाषा वैज्ञानिक रसायन डालते ही 'बकलोल' तिलमिलाता हुआ 'बक' और 'लोल' बन गया। 'बक' के पूर्वजन्म का निवास खोजने में कठिनाई होने लगी क्योंकि 'बक' कभी 'वक' = बगुला की ओर उंगली उठाता तो कभी उसका क किर्र से वक्र की ओर संकेत करता। अस्तु 'वक' और 'वक्र' का सूक्ष्म निरीक्षण प्रारम्भ हुआ। पहले बुद्धि ने लोल शब्द का शोध कर लेना उचित समझा। इतने में देखा कि मल्लाह डोंगी खोल चुका है। चेतना ने विलासिनी बुद्धि को झटका दिया। बुद्धि ने 'बकलोल' को 'बक' और 'लोल' बनाकर तथा 'बक' के मस्तिष्क परिवर्तन के लिए 'वक' और 'वक्र' के इन्जेक्शन की शीशी भाषा विज्ञान के ऑपरेशन थियेटर में स्मृतिपट की ऑपरेशन टेबुल पर छोड़ चेतना के साथ हो लीं। नाव का छूटने का मतलब था शटल का छूटना और शटल के छूटने का अर्थ था कुवारी धूप का कोप भाजन होना। एक आपतित समस्या की किरण परावर्तन का नियम भूलकर अनेक समस्याओं की दिशा में परावर्तित होती दिखाई देने लगी। मैंने दौड़ते हुए आवाज लगायी। किन्तु नाव में बैठे कर्णधारों ने मेरी ध्वनि का ऐसा विरोध किया जैसे ध्वनि सम्प्रदाय के विरोधियों ने 'ध्वनि' का। पर आचार्य मम्मट जैसे सहृदयों ने स्वागत किया और उस नाव में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पुन: बुद्धि ने अपना कार्यभार संभालना चाहा पर लोगों के वार्तालाप से 'कमस्चटका' प्रायद्वीप के चट-चट की ध्यान चटक जाया करता था। धीरे-धीरे ध्यान ने बुद्धि को सहयोग देना प्रारम्भ किया।

और फिर 'लोल' से 'वक' और 'वक्र' की संगति बैठाने में 'लोल' शब्द की शोध शुरू हुई। 'लोल' का सामान्यतया में हिन्दी 'चंचल' अर्थ लिया जाता है। किन्तु भोजपुरी में लोला बैठना गाल बैठना, लोला घूरना = मुँह पर मारना आदि प्रयोग प्रचलित हैं। यहाँ लोला का अर्थ गाल और मुँह से है। अब 'बकलोल' का अर्थ चाहे 'वगुले जैसा चंचल' लें या बगुले जैसा मुखवाला लें अथवा टेढ़े गाल वाला लें या टेढ़े मुख वाला। भोजपुरी भाइयों को इससे कोई शिकवा-शिकायत नहीं। उनकी भाषा और और उनके शब्दों पर किसी व्याकरण का आधिपत्य नहीं। वे मुक्त पवन में तिरते हैं बिना किसी शब्दकोष में विश्राम लिए। वे उन्हीं के मानस तट पर विश्राम करते हैं और उनकी जिह्वा की किक् से उछलते हैं। उन्हें आपकी 'शशिमुख' अथवा वकचंचल या वक्रमुख से कुछ लेना देना नहीं। उनके लिए 'छछलोल' और 'बकलोल' ही सुन्दर है। उन्हें कबीर की खिचड़ी ही प्रिय है।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

स्वरोदय विज्ञान - 10

स्वरोदय विज्ञान – 10


आचार्य परशुराम राय

स्वरोदय विज्ञान के कतिपय अंकों में पाठकों ने स्वरोदय विज्ञान की साधना के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की थी। उसी के परिणामस्वरूप यह अंक लिखने का विचार आया, अन्यथा नौवे अंक के बाद इस विषय पर अत्यन्त प्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रंथ 'शिवस्वरोदय' का हिन्दी भाष्य सहित ब्लॉग पर प्रकाशित करने का विचार था। अब यह कार्य इस अंक के बाद किया जाएगा।

स्वरोदय विज्ञान में जो दावे किए गए हैं, वे कहाँ तक सत्य हैं, इसका निर्णय इस विज्ञान के सक्षम साधकों के सान्निध्य में उनके निर्देशों के अनुरूप साधना करने के बाद ही किया जा सकता है। यही वैज्ञानिक तरीका भी है। जब कुछ पाठकों की प्रतिक्रियाएँ स्वरोदय विज्ञान की साधना के सम्बन्ध में आयीं, तो मैंने भी इस दिशा में अपनी खोज बढ़ा दी। इंटरनेट पर कुछ सम्पर्क-सूत्र मिले हैं, जिन्हें यहाँ दिया जा रहा है।

इंटरनेट पर वेबसाइट http://swarayoga.org/ पर अंग्रेजी भाषा में इस सम्बन्ध में बहुत सी जानकारियाँ दी गयीं हैं, यथा - स्वरचक्र (Swara Cycle), स्वर लयबद्धता से लाभ (Benefits of Swar Rhythms), भौतिक शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के स्वर चक्र (Physical Subtle and causal body Swar Cycles), स्वर बदलने के तरीके (Methods to change Swara), जन्म नाड़ी और तत्व गणक (Birth Nadi and Element Calculator), पंचांग गणक (Panchang Calculator), स्वर पंचाग गणक (Swar Panchang Calculator), जन्म काल में कारण शरीर का स्वर गणक (Causal Body Swar Calculator during birth), आदि को बड़े ही सुन्दर और सरल ढंग से समझाया गया है। भाषा में अशुद्धियाँ होने के बावजूद भी विषय सुगम्य है। यह संगठन सन्यासिन चरणाश्रित जी महाराज द्वारा संचालित होता है। बंगलोर स्थित रामाचन्द्रपुरम में एक स्वर योग केन्द्र भी ये संचालित करते हैं जहाँ जिज्ञासुओं को स्वर योग की साधना सिखायी जाती है। वेबसाइट पर उपलब्ध सूचना के अनुसार प्रारम्भिक साधना प्रक्रिया 06 घंटें - प्रात: 10.00 बजे से अपराह्न 4 बजे तक सिखायी जाती है। पर्याप्त जिज्ञासुओं के आने की पुष्टि के बाद ही प्रशिक्षण के लिए दिन निश्चित किया जाता है। इस पर दिए गए सम्पर्क सूत्र (आत्मवन्दना जी, दूरभाष सं0 080 - 23422575) पर बात करने के बाद पता चला कि स्वर योग की उच्च साधना हेतु साधकों के अभाव में उच्च स्वर साधना का प्रशिक्षण फिलहाल आयोजित नहीं किया गया है।

दूसरी वेबसाइट श्री प्रेम निर्मल जी द्वारा दी गयी है। इनका पता नीचे दिया जा रहा है:-

http://www.premnirmal.com/

TAO, Krishna Building,

Laxmi Industrial Complex,

Vartak Nagar,

Pokhran Road, - I,

THANE

फोन सं0 25363118, 9892572804 भारती जी 9224127682 श्री प्रेम निर्मल जी

इस वेबसाइट पर स्वर योग कार्यशाला के भाग हैं। भाग-1 में प्रारम्भिक प्रशिक्षण 6 सत्रों का है जिसमें निम्नलिखित विषय अभ्यास के लिए रखे गए हैं -

(1) परिचय (2) सूर्य और चन्द्र नाड़ियाँ एवं ग्रहों से इनका सम्बन्ध (3) दाहिने और बाएँ मस्तिष्क के सम्बन्ध और कार्य (4) पाँच प्राण और उप प्राण (5) स्वर के तीन भेद (6) नासाछिद्र (Nostril) और चन्द्र (7) स्वरों को बदलने का तरीका (8) स्वर को कब बदलें (9) स्वर के अनुसार विशेष कार्य (10) सुषुम्ना क्रियाशीलन और इसकी विशेषता (11) स्वर योग और पंच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) (12) पंच महाभूतों का निरीक्षण, पहिचान और अनुभव करना (13) स्वर योग का शरीर और मस्तिष्क से सम्बन्ध (14) स्वर योग के विभिन्न व्यावहारिक प्रयोग (15) स्वरयोग द्वारा बीमारियों को दूर करना (16) स्वर योग द्वारा शरीर और मन को स्वस्थ रखना।

उक्त प्रशिक्षण के बाद सक्षम साधकों के लिए उच्च कार्यशाला में स्थान दिया जाता है। यह आठ सत्रों का होता है और इसमें निम्नलिखित विषयों और साधनाओं का अभ्यास कराया जाता है-

(1) तत्वदर्शी से तत्वविद् (2) स्वर योग और शिशु का जन्म (3) स्वर योग और मन को पढ़ना (Mind reading) (4) स्वरयोग और छायोपासना, (5) स्वर योग और नाड़ियों और चक्रों से सम्बन्धित उच्च मानसिक (Super psychic) ज्योतिष विज्ञान तथा वास्तु (6) स्वर योग और आन्तरिक गुरु तत्व का जागरण (7) स्वर योग और जीवन, आयुष्य एवं मृत्यु और (8) स्वर योग, अभिज्ञा और ज्ञानोदय (enlightenment½

उक्त दोनों पाठयक्रमों का प्रशिक्षण 14 सत्रों में दिया जाता है। एक सत्र तीन घंटें का होता है। उक्त दूरभाषों पर आगामी कार्यशाला की जानकारी ली जा सकती है।

इसके अतिरिक्त परमहंस सत्यानन्द जी के उत्तराधिकारी परमहंस निरंजनानन्द जी द्वारा बिहार में संस्थापित योग भारती (विश्वविद्यालय) में भी इसकी साधना सिखायी जाती है। पत्राचार द्वारा सम्पर्क किया जा सकता हैं या वेबसाइट से दूरभाष संख्या प्राप्त की जा सकती हैं।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

आभार! (आंच ३६)

आभार!

आचार्य परशुराम राय

आज 23 सितम्बर है। पृथ्वी की दैनिक गति के परिणामस्वरूप दिन-रात का जन्म और उसमें वर्ष के चार महत्वपूर्ण दिन 22 मार्च, 21 जून, 23 सितम्बर और 22 दिसम्बर हैं। 22 मार्च और 23 सितम्बर को दिन-रात बराबर होते हैं, जबकि 21 जून को सबसे बड़ा दिन और 22 दिसम्बर को सबसे छोटा दिन होता है। एक वर्ष पूर्व आज ही के दिन जब दिन और रात बराबर होते हैं, अर्थात 23 सितम्बर को मनोज (manojiofs.blogspot.com) ने ब्लाग जगत में श्री मनोज कुमार जी की एक लघुकथा 'हर हाल में' के साथ अपना पहला कदम रखा था। ऑंच का यह अंक वर्ष भर में इस ब्लॉग के विकास की यात्रा को समर्पित है।

मनोज कुमार जी के साथ आर्डनैन्स फैक्टरी, मेदक (आंध्र प्रदेश) में तीन-चार वर्ष काम करने का सुअवसर मिला था। इनके स्वभाव की सरलता, रचनात्मक प्रवृत्ति, आध्यात्मिक रुझान, प्रबन्धन कौशल, संगत सूझबूझ, अद्भुत धैर्य और हिन्दी के प्रति प्रेम के कारण मैं, स्व. श्री श्याम नरायण मिश्र, श्री राम भरत पासी, श्री नरेन्द्र कुमार शर्मा आदि एक साथ जुड़े और उक्त फैक्टरी की वार्षिक गृह पत्रिका 'सारथ' (वार्षिक) का पहला अंक श्री मनोज कुमार जी के नेतृत्व में प्रकाशित किया गया। इसके बाद 'सारथ' मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। और इस वार्षिक पत्रिका ‘सारथ’ को दूसरे ही वर्ष रक्षा मंत्रालय का पुरस्कार मिला।

मेदक में इनके साथ एक के बाद ऐसी दुखद घटनाएँ हुई, जो अच्छे-अच्छे लोगों को विचलित कर दें। किन्तु श्री मनोज कुमार जी का धैर्य देखकर आश्चर्य हुआ और मन में महाकवि कालिदास की पंक्ति 'विकार हे तौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीरा:' बार-बार कौंध जाती थी। सन् 2001 में श्री मनोज कुमार जी का स्थानान्तरण चंडीगढ़ हो गया। फिर भी इनके साथ सम्पर्क बना रहा। पुन: ये स्थानान्तरित होकर कोलकाता स्थित मुख्यालय चले गए। विभिन्न अवसरों पर बातचीत हो जाया करती थी। अक्टूबर-2009 में इन्होंने बताया कि एक हिन्दी का साहित्यिक ब्लाग शुरू किया है और उसमें प्रकाशित करने के लिए हम लोग अपनी रचनाएँ भेजें। मुझे इसके विषय में अपनी कोई भी जानकारी नहीं थी। ब्लाग जगत से पूर्णतया अनभिज्ञ था। लेखनी भी रख दिया था। आवश्यकता पड़ने पर कभी कभार अपने विभाग की गृह पत्रिका के लिए वर्ष में एक आर्टिकल लिखना पहाड़ मालूम पड़ता था। लेकिन श्री मनोज कुमार जी की जिज्ञासा और अनुरोध को टालना मेरे लिए थोड़ा कठिन हो जाता है और इस प्रकार धीरे-धीरे मैं और मेरे परम आत्मीय श्री हरीश प्रकाश गुप्त अपनी-अपनी लेखनी लिए ब्लाग में प्रवेश किए। करण 'समस्ततीपुरी' पहले ही इससे जुड़ चुके थे। इस प्रकार 'मनोज' ब्लॉग का कारवाँ बनता गया। एक वर्ष में इस ब्लॉग पर 386 रचनाएँ विभिन्न स्तम्भों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। जो इस ब्लाग के लिए और प्रकारान्तर से हिन्दी ब्लॉग जगत के लिए गौरव की बात है।

सितम्बर, 2009 में तो इस ब्लॉग पर कुल चार रचनाएँ ही आयीं। लेकिन अक्टूबर-2009 में धीरे-धीरे इस ब्लॉग ने अपने अंगों को विकसित करना शुरू कर दिया। जिसके परिणामस्वरूप 'फुरसत में', 'देसिल बयना' और 'चौपाल' तीन स्तम्भ बने। 'फुरसत में' की बागडोर मुख्य रूप से श्री मनोज कुमार के हाथ में थी, तो 'देखिल बयना' की कमान श्री करण 'समस्तीपुरी' के हाथों में। धीरे-धीरे अक्टूबर-2009 में लघुकथा, कविता, देसिल बयना, चौपाल, त्यागपत्र (लघु उपन्यास) और 'फुरसत में' ये छ: स्तम्भ काम करने शुरू कर दिए थे, जो क्रमश: सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार को प्रकाशित होने लगे। अंतिम स्तम्भ 'फुरसत में' शीर्ष पर शनिवार और रविवार को पोस्टें लगा करती थीं। इस प्रकार अक्टूबर में 21 रचनाएँ प्रकाशित हुईं। नवम्बर, 2009 में कुल 31 रचनाएँ ब्लॉग पर आईं और इसके बाद इस ब्लॉग ने अपनी रफ्तार पकड़ ली।

तब तक श्री हरीश प्रकाश गुप्त और मैं दोनों ब्लॉग से जुड़ चुके थे। अन्य साहित्यकार मित्रों को भी जुड़ने का आग्रह किया गया, ताकि इस ब्लॉग को हर तरह से समृद्ध किया जा सके। पर वे नियमित रूप से जुड़ नहीं पाये। दिसम्बर के अन्त में अर्थात् नववर्ष की पूर्व संध्या और नववर्ष के अवसर पर कुछ अतिरिक्त पोस्टें लगाने की बात सोची गई और उसे अपने ढंग से अंजाम दिया गया।

कविता और कहानियों पर तब तक कई पाठक आकर अपनी टिप्पणियाँ देने लगे थे। उन टिप्पणियों ने हमें एक नया स्तम्भ प्रारम्भ करने की प्रेरणा दी। इसके परिणामस्वरूप 'ऑंच' सभी स्तम्भकारों की सहमति से प्रारम्भ किया गया, जिसमें अपने ब्लॉग पर प्रकाशित की जाने वाली चुनी हुई कविताओं और कहानियों पर समीक्षा करने की परम्परा का श्रीगणेश हुआ और हर सप्ताह  गुरुवार को इसका प्रकाशन किया जाने लगा। ऑंच का मुख्य उद्देश्य था कविता या लघुकथा के संदेश, रचनाशिल्प आदि को लेकर उनके गुणों और अवगुणों को प्रकाशित कर पाठकों की अनुभूति को रचनाकार तक और रचनाकार की अनुभूति को पाठकों तक पहुँचाना। सभी लोगों ने इस स्तम्भ को सराहा। इसका पहला अंक 28 जनवरी, 2010 को ब्लाग पर आया। जिसमें श्री मनोज कुमार जी द्वारा विरचित 'अमरलता' कविता की समीक्षा दी गई थी। धीरे-धीरे अन्य ब्लाग पर आने वाली अच्छी रचनाओं को भी उनकी अनुमति से इस स्तम्भ में समावेश किया गया। प्रारम्भ में इस स्तम्भ को श्री हरीश प्रकाश गुप्त और मैंने सँभाला। बाद में श्री मनोज कुमार और करण समस्तीपुरी आने लगे। अतिथि रचनाकार डॉ रमेश मोहन झा ने भी इसमें अपना सहयोग दिया। अब तक इसके ३५ अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

इस स्तम्भ ने फिर एक जिज्ञासा को जन्म दिया कि समीक्षा के मानदण्डों पर भी चर्चा के लिए एक स्तम्भ बनाया जाये। श्री मनोज कुमार जी से चर्चा के दौरान मैंने कहा कि इन सब चीजों को कौन पसन्द करेगा या पढ़ना चाहेगा। केवल समय और श्रम गँवाने के अलावा कुछ नहीं होना है। फिर भी श्री मनोज कुमार जी अपने विचार पर अडिग रहे। परिणामस्वरूप 'भारतीय काव्यशास्त्र' की श्रृंखला शुरु की गई और इसके लिए रविवार का दिन नियत हुआ। इसका पहला अंक 7 फरवरी को प्रकाशित हुआ। जिसमें पहले भाग में भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लिया गया। अभी हाल ही में दूसरा भाग काव्यशास्त्र की विवेचना प्रारम्भ किया गया।

जुलाई, 2010 में 'त्यागपत्र' श्रृंखला समाप्त होने के बाद शुक्रवार को एक अत्यन्त प्राचीन विद्या 'स्वरोदय विज्ञान' की नई श्रृंखला 23 जुलाई से प्रारम्भ की गई। इसमें हमारे जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग श्वास प्रक्रिया से सम्बन्धित शास्त्रीय और प्रायोगिक तथ्यों को प्रकाशित किया जाने लगा। अब तक इसके 09 अंक निकल चुके हैं। तय यह किया गया कि परिचयात्मक लेखों के बाद इस विषय पर अत्यन्त प्राचीन और प्रसिद्ध ग्रंथ 'शिव-स्वरोदय' का हिन्दी अनुवाद/व्याख्या के साथ प्रकाशन किया जायेगा।

इस दौरान गणतंत्र दिवस, गुरु पूर्णिमा, प्रेमचन्द जयंती, स्वतंत्रता दिवस और तुलसी जयंती पर अतिरिक्त प्रासंगिक रचनाएँ प्रकाशित हुईं। समय-समय पर हमारे अतिथि साहित्यकारों की रचनाएँ भी यहाँ प्रकाशित होती रहीं जिसमें डाँ. रमेश मोहन झा, श्री ज्ञानचन्द्र 'मर्मज्ञ', श्री होम निधि शर्मा, श्री श्याम सुन्दर चौधरी, श्रीमती बीना अवस्थी, श्रीमती मल्लिका द्विवेदी, श्री सत्येन्द्र झा के नाम उल्लेखनीय हैं। इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचना  बिहारी समझ बैठा है क्या ? को हिन्दुस्तान ने तो बापू का बलिदान को जनसत्ता ने छापा। परिकल्पना ब्लोगोत्सव और बैसाखनंदन सम्मान भी मिला मनोज कुमार जी के आलेखों को।

इस प्रकार मनोज ब्लॉग ने अपना एक वर्ष पूरा किया। इसकी पहली वर्षगाँठ पर मैं अपने साहित्यकारों और पाठकों को उनके सहयोग और मार्गदर्शन के लिए इस ब्लाग की ओर से हृदय से हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। धन्यवाद।

मित्रों आज सच में मेरे पास…….. 

              मनोज

बुधवार, 22 सितंबर 2010

देसिल बयना - 48 : गयी बात बहू के हाथ

देसिल बयना-48

गयी बात बहू के हाथ


करण समस्तीपुरी

 

मार बढ़नी.... ई परव-तिहार के.... ! बाप रे बाप ! दम धरे का भी फुरसत नहीं मिल रहा है। हाह...चलिए कौनो तरह सब व्यवस्था-बात हो गया। अब निकले हैं न्योत-हकार देने। हौ मरदे... ! आप भी भकलोले हैं... ! इधर-उधर पतरा-कलंदर का देखे लगे, अरे कल हमरे ब्लॉग का हैप्पी बर्थ डे है ना.... !

उतरवारी टोला में हो गया। मझकोठी भी दे दिए। गाछी टोल में चौबनिया गया। पकौरी लाल दखिनवारी टोल गया है। कुटुमैती का जिम्मा जुगेसरे हजाम को दे दिए हैं। ओह... ! पुरबारी टोल बचले है। दहरू काका, बुधना, चासनी लाल, भाकोलिया माय, चिकनी देवी, छबीली मामी, नकछेदिया, बटेसर को हो गया। अब ई लाइन में चौक पर वाला कड़की सेठ, लहरू भाई और लुखिया ताई बची हैं। चलो जल्दी-जल्दी हकार दे के वर्ष-गाँठ के जोगार में लगेंगे।

का बात है कड़की सेठ का फाटक खुला मगर कौनो आदमी का दरस नहीं है.... ? अरे उधर से किसान आवाज आ रही है ? ओह.... लहरू भाई का भी घर खाली.... ? ओह्हो.... ! लुखिया ताई के ड्योढ़ी से आवाज आ रही है। अच्छा तो अरोसी-परोसी उन्ही का रमैन सुन रहे हैं का... ? अरे हाँ.... हऊ.... देखो.... लहरनी भौजी कैसे अंचरा से आधा मुँह ढंके आनंद लूट रही हैं।

सचे जब से बकरचन भाई की बिलैती लुगाई आयी थी लुखिया ताई कने रमैन तो रोजाना हो गया था। अब बस फ़ाइनल महाभारते बांकी था। वैसे था तो जबर्दस हरबरी मगर ऐसन परसंग छोड़ के आगे भी कैसे बढ़ जाएँ... ? ओह का रस बरस रहा था... भैय्या-खौकी.... मैय्या-खौकी.... रं..........ई.... हरजाई...... ! दुन्नु पाटी के मुँह से एकदम रसगुल्ले टपक रहा था। बकरचन भई दाव-दाव के मुँहदुस्सा बीच में मुखदर्शक बने हुए थे।

अभी तो कीर्तन-भजन और चलता मगर ई लटकन ठाकुर बीचे में कड़क गए, "अई... ! चुप रहेगा तुम लोग कि बोलाएँ दफेदार को ?" सब सकदम। ठाकुर जी फिर कड़के, "ऐ लुखिया भौजी ! अरे का बात है ? जुआनी में तोहरे मुँह का सिसकारी सुने के लिए कान तरसता था और बुढ़ारी में ई कौन राग भीम-पलासी छेड़े रहती हो ?"

फिर शुरू हुआ ताई का अथ सिरि रेवाखंडे, सास-बहू भीषण वाकयुद्ध संवादः। लेकिन ई का कथा शुरू करे से पहिलही काकी का आँख झहरे लगा। अंचरा के कोर से दुन्नु आँख के कोना बारी-बारी से पोछ कर बोली, "लटकन बाबू ! अब हमें भगवान पता नहीं कौन दिन दिखाए खातिर रखे हुए हैं...? धन-सम्पति जाए चूल्हे में... ! सब वही लोग संभाले। हमें क्या करना है... ? माय-बाप, सास-ससुर, पति के राज में धर्म और संस्कार बचा के रखे। अई बेटा-बहू के राज में उहो धर्म-संस्कार का अंतिम संस्कार हो गया।

'माई-बाप सिखाये रहे, 'रहिमन वे नर मर चुके जे कहिं मांगन जाहिं... !' इहाँ ससुराल में ई कपूतनेरहा के दादा हमेशा यही जपते थे, 'साहिब इतना दीजिये जा में कुटुम समाई... !' बाढ़-सुखार सब में आज तक सब का मान रखा ई द्वार। मगर आज इत्ते बड़े राज-पाट में जलाली बाबा के दरगाह के फ़कीर को एक मुट्ठी दाना के बिना लौटना पड़ा। हाय हो राम !" काकी का कलेजा फटने लगा।

छी-छी.... राम-राम.... ! और कोई कुछ बोले उ से पहिले ही बिलैती भौजी बीचे में बात लारने लगी, "एं... कौनो फ़कीर को भगाए का... ? बूढी का कौनो हिसाब किताब नहीं है.... उ कुछ जानती है... ? घर हम संभालते हैं तो भीख देने वाली उ कौन... ? उ फकीरचन को न देखिये, मांगता है भिच्छा और देने चला सिच्छा। महतारिये के हाथ से लेगा... ! हम कहते हैं, सब कुछ करेंगे हम और भीख देने का हक़ किसी और को ?

हम कहे, 'धत तोरी के ! ई कौनो बात हुआ... !" "बात न हुआ तो का.... आप का बुझियेगा अभी ? बाबूजी के होटल चलता है, निट्ठल्ला ई टोला - उ टोला घूमते हैं तो का बुझाएगा..... लुगाई आएगी आके चानी तोड़ेगी और तब जाके सेर भर अनाज कमाइयेगा तब पता चलेगा... ! उ में भी हम कौनो मन किये थे देने से... खाली यही न कहे कि हम खुदे देंगे.... ! यही बूढी न सात गाँव परचार के बात का बतंगर कर रही है।"

लटकन ठाकुर का मुँह भी बसिया जिलेबी जैसे लटक गया था। गला भरिय गया था। किसी तरह बोले, "भौजी अब का करोगी ? समझ लो कि 'गयी बात बहू के हाथ !' अब संन्यास लेलो ई दीन-दुनिया से। मिले तो दू दाना खाओ और राम-राम करो... !" लुखिया ताई खाली 'हूँ' बोल पायी थी। अंचरा से पूरा मुँह ढांप ली। एकाध बार हिचकी का आवाजो आया था। लटकन ठाकुर डपट के भीड़ को भगा चुके थे।

अहि तोरी के...... किरिन डूब रहा है। मार मूरी धर के। आये थे हरिभजन को और ओटन लगे कपास। हकार देने निकले थे और इहाँ न्योता पुरने लगे। का करते दिरिसे इतना मनोरंजक था कि पैरे ठहर गया। खैर अब सोचे कि ताई को हकार देके ही चलें। ताई मुँह पोछ के अंचरा हटाई तो हम बोले, "ताई ! कल्हे हमरे ब्लॉग का बरसगाँठ है। आइयेगा जरूर।" ताई का आँख फिर से लोराने लगा। बोली, "बाबू ! अब हमें का हकार और न्योता देते हो... ? अब हमरे कौन अख्तियार ? सुना नहीं ठाकुर जी का कहे ? 'गयी बात बहू के हाथ।' जाओ कुलमंतो रानी हैं भीतर, उन्हें ही कह आओ वरना कहीं हमरा कहा हकारो नहीं मांगे तो तुम भी कहोगे कि ताई....... !" ई से जादे उनके मुँह से बकारे नहीं निकला।

हमरा भी मोन भरिया गया। लेकिन फिर सोचे, धन ई परसंग। एगो नया कहावत तो सीखे। "गयी बात बहू के हाथ।" और ताई जब ई कहावत दोहरी थी तो उनके आवाज में अधिकारच्युत होने का जो दरद था उ से ई का मतलब भी समझ में आएगा आसानी से। "गयी बात बहुत के हाथ ! मतलब अधिकार का हस्तांतरण। बलात या असामयिक या अपारंपरिक।" आप लोग समझे कि नहीं... ? समझे तो ठीक है और नहीं समझे तो बहुत बढ़िया.... !

और जा.... हे भूलिए गए... ! अरे महराज ! अब आपलोग भी ई मत कहियेगा कि भीतरी जा के हकार दे दो। सब लोग को सप्रेम निमंत्रण है। कल 23 सितम्बर को हमरे प्यारे ब्लॉग के पहले वर्षगाँठ पर जरूर आइयेगा। "हैप्पी बर्थ डे टू माय डियर ब्लॉग। हैप्पी बर्थ डे टू यू।"

जी हां मित्रों! आपके प्यार, स्नेह और प्रोत्साहन के बल पर हम आज एक साल पूरा कर रहे हैं। पिछले साल २३ सितंबर को हमारा यह ब्लॉग अस्तित्व में आया था। इन ३६५ दिनों में ३८६ पोस्ट के साथ हम कल से दूसरे साल में प्रवेश करेंगे। सदा की तरह आपके प्रोत्साहन, मार्ग दर्शन और हौसला आफ़ज़ाई का निवेदन रहेगा। इन ३६५ दिनों को याद करते हुए भावनाएं आपके आभार से सरोबार है ।

मनोज