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छपाक ...!!!
चर्र-चर्र ...!!! चों...चों!!!! ... की आवाज़ के साथ आगे पुलिस की गाड़ी रूकती है। एक पुलिसवाला कूद कर बाहर आता है। वह चीखता है –“एई! ... की कोरछिस रे?” जहां मैं खड़ा हूँ वहां बाई ओर जेल है दांई ओर बस स्टॉप और सामने पुलिस के सबसे बड़े साहब की कोठी। बड़े साहब का बंगला हो और पुलिसवाला रौब न दिखाए, ....ऐसा हो सकता है क्या? सैर से आते-जाते समय कई बार हमें फुटपाथ छोड़ नीचे तेज जाती वाहनों के बीच सड़क से होकर जाना पड़ता है। गेट उनका फ़ुटपाथ पर खुलता है और गेट पर ड्यूटी दे रहा दरवान भी सामने की फुटपाथ की हिफाजत के प्रति चौकस, सजग और कर्तव्य निष्ठा से ओत-प्रोत रहता है। हर ... पल!!! खैर, इस पुलिसवाले की उस फटकार “एई! ... की कोरछिस रे?” से जेल की दीवार और फुटपाथ के बीच की झाडि़यों में हलचल हुई और देखता हूँ कि एक व्यक्ति निकल कर भय से थर थर कांपता हुआ भागने की चेष्टा करता है। सटाक....!!! “साला। पालाच्छिस?” पुलिसवाले का सोटा उसके घुटनों के पीछे वाले हिस्से पर पड़ता है। उसके मुंह से आर्तनाद और ये शब्द ... “मोरे गेलाम गो !” ... निकलता है। वह औंधे मूंह फुटपाथ पर गिर पड़ता है। पुलिसिया अपने कर्तव्य के प्रति अत्यधिक सचेष्ट है, वहां झट से पहुंचता है। अभी उसका सोंटा हवा में लहरा ही रहा होता है कि वह व्यक्ति बाएं हाथ में पड़े झोले को उलटाता है और दाएं हाथ को खोलता है।
....“खेताम!!!”
पुलिसवाला मुंह से भद्दी गाली निकालते हुए कहता है – “साला देखछिस ना, साहेबेर बाड़ी आछे!!!” .... और मुड़कर गाड़ी में सवार हो आगे बढ़ जाता है।
सामने बस स्टॉप है। वहां कुछ बस पकड़ने और कुछ वर्षा से बचने के लिए आश्रय लिए हुए सौ जोड़ी आंखे पुलिसिए प्रकोप से डरी-सहमी है। आज कोई भी आंखे घूरती नहीं दिखी मेरे छाते को। |
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
मेरे छाता की यात्रा कथा, और ... सौ जोड़ी घूरती आंखें!!! (भाग-5 : साहब की कोठी)
सोमवार, 30 अगस्त 2010
साँझ भयी फिर जल गयी बाती !
साँझ भई फिर जल गयी बाती !
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बहुराष्ट्रीय कंपनी के वातानुकूलित कार्यालयों में ऋतुओं की आर्द्र-उष्णता की अनुभूति कहाँ ? महानगरीय चकाचौंध में बिजली की रंगोलियाँ सजती हैं.... लेकिन पल भर को बिजली के जाते ही मुँह से निकलता है, "उफ़....सस्सा...... !" अच्छा हुआ उस सांझ बिजली नहीं थी. निकट के बस-स्टॉप से घर तक का छोटा सा रास्ता बिना स्ट्रीट-लाईट के... ! ओह.... शाम ढले कहीं ये गली मेरे गाँव तो नहीं जा रही.... ! आह्हा.... ! नुक्कड़ के बेकरीवाले ने इमरजेंसी लाईट नहीं.... मोमबत्ती जला रक्खी थी ! लुक-झुक-लुक-झुक.... ! मेरे मन में भी जल उठती अतीत की ज्योति.... !!! |
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रविवार, 29 अगस्त 2010
भारतीय काव्यशास्त्र में सम्प्रदायों का विकास
भारतीय काव्यशास्त्र में सम्प्रदायों का विकास
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अब तक हमने भारतीय काव्यशास्त्र की लगभग दो हजार वर्षों की परम्परा का स्केच पढ़ा, देखा। इस परम्परा के कुछ आचार्यों ने काव्य के प्रति चली आ रही धारणा का युक्तिपूर्वक खण्डन करते हुए अपनी धारणा प्रकाशित किया। इस वैमत्य ने ही इस परम्परा में सम्प्रदायों को जन्म दिया या यों कहना चाहिए कि भारतीय काव्यशास्त्र के वन में ये सम्प्रदाय आश्रम (यहाँ स्कूल) की तरह शोभायमान हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में मुख्य पाँच सम्प्रदाय हैं - रस सम्प्रदाय, अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय और ध्वनि सम्प्रदाय। 1. रस सम्प्रदाय:- काव्यशास्त्र का यह सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है और इसका प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि को माना जाता है। आचार्य लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक आदि रस सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। वैसे आचार्य राजशेखर ने अपने ग्रंथ काव्यमीमांसा में आचार्य नन्दिकेश्वर को रस सिद्धान्त का प्रवर्तक कहा है। किन्तु आचार्य नन्दिकेश्वर का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है और न ही किसी अन्य आचार्य ने कहीं इनके मत का उल्लेख किया है।
2. अलंकार सम्प्रदाय:- आचार्य भरतमुनि के बाद आचार्य भामह ने अलंकार सम्प्रदाय को अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'काव्यालंकार' में प्रतिष्ठित किया। रसों को इन्होंने रसवत् अलंकारों में ही अन्तर्भुक्त किया है। इसके बाद इनके परवर्ती आचार्य उद्भट, दण्डी, रूद्रट, प्रतिहारेन्दुराज, जयदेव आदि ने इस सम्प्रदाय की नींव को और सुदृढ़ किया। आचार्य जयदेव ने तो आचार्य मम्मट के काव्य में प्रयुक्त 'अनलृकंत पुन: क्वापि' (अर्थात् कहीं अलंकार के अभाव में भी निर्दोष शब्द और अर्थ काव्य काव्य हैं) पर व्यंग्य करते हुए अपने प्रसिद्ध काव्यशास्त्र के ग्रंथ 'चन्द्रलोक' में लिखा है:- अङ्गीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलङ्कृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती॥
अर्थात् जो अलंकारविहीन शब्द और अर्थ को काव्य मानते हैं, वे ऐसा क्यों नहीं मानते कि अग्नि शीतल होती है। अलंकारवादी आचार्य काव्य में अलंकारों की ही प्रधानता को स्वीकार करते हैं। 3. रीति सम्प्रदाय:- आचार्य वामन रीति (शैली) सम्प्रदाय के प्रवर्तक हैं काव्यशास्त्र पर अपने एक मात्र ग्रंथ 'काव्यालंकारसूत्र' में उन्होंने 'रीतिराला काव्यस्य' (काव्य की आत्मा रीति है) मत की प्रतिष्ठा की। भारतीय काव्यशास्त्र में रीतियों के भेदोपभेद आदि की चर्चा प्रसंगानुसार की जाएगी। वैसे रीति का लक्षण करते हुए आचार्य वामन लिखते हैं - विशिष्टपदरचना रीति:, अर्थात् विशिष्ट पदरचना रीति है। पुन: 'विशिष्ट' (विशेष) शब्द की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं - 'विशेषोगुणात्मा' अर्थात् माधुर्य, ओज आदि गुणों से सम्पन्न पद रचना (रीति है)। आचार्य वामन ने काव्य में गुण को अलंकार से ऊँचा स्थान दिया है। इसीलिए 'रीतिसम्प्रदाय' को 'गुण सम्प्रदाय' के नाम से भी जाना जाता है। रीति सम्प्रदाय के अन्य अनुयायी आचार्य नहीं मिलते हैं। इस सम्प्रदाय के एक मात्र प्रवर्तक और अनुयायी स्वयं आचार्य वामन ही हैं। |
शेष सम्प्रदायों के विषय में अगले अंक में चर्चा की जाएगी। |
शनिवार, 28 अगस्त 2010
फ़ुरसत में… साहब आप भी न........!
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
अंक-6 :: स्वरोदय विज्ञान :: आचार्य परशुराम राय
अंक-6
स्वरोदय विज्ञान
आचार्य परशुराम राय
तत्वों के स्वरों में उदय के समय इन्हें पहचानने की एक और बड़ी रोचक युक्ति बताई गई है। इसके अनुसार यदि दर्पण पर अपनी श्वास प्रवाहित की जाये तो उसके वाष्प से आकृति बनती है उससे हम स्वर में प्रवाहित होने वाले तत्व को पहचान सकते हैं। पृथ्वी तत्व के प्रवाह काल में आयत की सी आकृति बनती हैं, जल तत्व में अर्ध्द चन्द्राकार, अग्नि तत्व में त्रिकोणात्मक आकृति, वायु के प्रवाह के समय कोई निश्चित आकृति नहीं बनती। केवल वाष्प के कण बिखरे से दिखते हैं।
स्वरों के प्रवाह की लम्बाई के विषय में थोड़ी और बातें बता देना यहाँ आवश्यक है और वह यह कि हमारे कार्यों की विभिन्नता के अनुसार इनकी लम्बाई या गति प्रभावित होती है। जैसे गाते समय 12 अंगुल, खाना खाते समय 16 अंगुल, भूख लगने पर 20 अंगुल, सामान्य गति से चलते समय 18 अंगुल, सोते समय 27 अंगुल से 30 अंगुल तक, मैथुन करते समय 27 से 36 अंगुल और तेज चलते समय या शारीरिक व्यायाम करते समय इससे भी अधिक हो सकती है। यदि बाहर निकलने वाली साँस की लम्बाई नौ इंच से कम की जाए तो जीवन दीर्घ होता है और यदि इसकी लम्बाई बढ़ती है तो आन्तरिक प्राण दुर्बल होता है जिससे आयु घटती है। शास्त्र यहाँ तक कहते हैं कि बाह्य श्वास की लम्बाई यदि साधक पर्याप्त मात्रा में कम कर दे तो उसे भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती है और यदि कुछ और कम कर ले तो वह हवा में उड़ सकता है।
अब थोड़ी सी चर्चा तत्वों और नक्षत्रों के सम्बन्ध पर आवश्यक है। यद्यपि इस सम्बन्ध में स्वामी राम मौन हैं। इसका कारण हो सकता है स्थान का अभाव क्योंकि अपनी पुस्तक में उन्होंने केवल एक अध्याय इसके लिए दिया है। फिर भी पाठकों की जानकारी के लिए शिव स्वरोदय के आधार पर यहाँ तत्वों और नक्षत्रों के सम्बन्ध नीचे दिये जा रहे हैं। पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध रोहिणी, अनुराधा, ज्येष्ठा, उत्तराषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा और अभिजित से, जल तत्व का आर्द्रा, श्लेषा, मूल, पूर्वाषाढ़, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद और रेवती से, अग्नि तत्व का भरणी, कृत्तिका, पुष्य, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, स्वाती और पूर्वा भाद्रपद तथा वायु तत्व का अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा और विशाखा से है।
इस विज्ञान पर आगे चर्चा के पहले शरीर में प्राणिक ऊर्जा के प्रवाह की दिशा की जानकारी आवश्यक है। यौगिक विज्ञान के अनुसार मध्य रात्रि से मध्याह्न तक प्राण नसों में प्रवाहित होता है, अर्थात् इस अवधि में प्राणिक ऊर्जा, सर्वाधिक सक्रिय होती है और मध्याह्न से मध्य रात्रि तक प्राण का प्रवाह शिराओं में होता है। मध्याह्न और मध्य रात्रि में प्राण का प्रवाह दोनों नाड़ी तंत्रों में समान होता है। इसी प्रकार सूर्यास्त के समय प्राण ऊर्जा का प्रवाह शिराओं में और सूर्योदय के समय मेरूदण्ड में सबसे अधिक होता है। इसीलिए शास्त्रों में ये चार संध्याएँ कहीं गयी हैं जो आध्यात्मिक उपासना के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गयी हैं। यदि व्यक्ति पूर्णतया स्वस्थ है तो उक्त क्रम से नाड़ी तंत्रों में प्राण का प्रवाह संतुलित रहता है अन्यथा हमारा शरीर बीमारियों को आमंत्रित करने के लिये तैयार रहता है। यदि इडा नाड़ी अपने नियमानुसार प्रवाहित होती है तो चयापचय जनित विष शरीर से उत्सर्जित होता रहता है, जबकि पिंगला अपने क्रम से प्रवाहित होकर शरीर को शक्ति प्रदान करती है। योगियों ने देखा है और पाया है कि यदि साँस किसी एक नासिका से 24 घंटें तक चलती रहे तो यह शरीर में किसी बीमारी के होने का संकेत है। यदि साँस उससे भी लम्बे समय तक एक ही नासिका में प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि शरीर में किसी गम्भीर बीमारी ने आसन जमा लिया है और यदि यह क्रिया दो से तीन दिन तक चलती रहे तो निस्संदेह शीघ्र ही शरीर किसी गंभीरतम बीमारी से ग्रस्त होने वाला है। ऐसी अवस्था में उस नासिका से साँस बदल कर दूसरी नासिका से तब तक प्रवाहित किया जाना चाहिए जब तक प्रात:काल के समय स्वर अपने उचित क्रम में प्रवाहित न होने लगे। इससे होने वाली बीमारी की गंभीरता कम हो जाती है और व्यक्ति शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करता है।
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
ऑंच – 32 : संगीता स्वरूप जी की कविता 'चक्रव्यूह'
ऑंच – 32 : परसंगीता स्वरूप जी की कविता 'चक्रव्यूह'![]() हरीश प्रकाश गुप्त |
कविता में चक्रव्यूह जीवन की उक्त नियति अर्थात् जटिलताओं समस्याओं कठिनाइयों और असफलताओं का समुच्चय है जो लहरों का उद्वेग और ज्वार भाटे के रूप में अभिव्यक्त है। ये जटिलताएं कभी-कभी इतनी दुष्कर और क्रूर बन जाती है कि उन पर विजय पाना आसान नहीं होता और कभी-कभी यह विजय पथ अनेकानेक
देखें - ‘चक्रव्यूह बनाती हैं ये तूफानी लहरें न जाने कितने ख्वाबों की आहुति ले जाती हैं।’ यहाँ इन पंक्तियों का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। क्योंकि ये पूर्व पंक्तियों की पुनर्प्रस्तुति मात्र हैं। ध्यान दें- 'चक्रव्यूह बनाती है ये तूफानी लहरें' पूर्व पंक्तियों की पुनर्प्रस्तुति पर ध्यान देकर बचा जा सकता था और कविता को और संश्लिष्ट बनाया जा सकता था। ‘कभी-कभी उन्माद में तन मन भिगो जाती हैं’ इन पंक्तियों में 'उन्माद में' स्वाभाविक-सा प्रयोग है। तन-मन का भीगना आनन्द और उल्लास का प्रतीक है जो कभी-कभी उन्मत्त होकर भी उल्लास भर जाता है। अत: इन सुन्दर पंक्तियों में यह ‘सागर किनारे गीली रेत पर बैठ अक्सर मैंने सोचा है’ कविता की इन प्रारम्भिक पंक्तियों में 'सोचा है' भी कुछ इसी तरह का प्रयोग है। इसके स्थान पर ‘देखा है’ अधिक उपयुक्त अर्थ देता है। क्योंकि सोचने का कार्य हम बुद्धि से करते हैं और देखने का कार्य हम ऑंखों से भी करते हैं और मन से (मन की ऑंखों से) भी करते हैं। दोनों में अंतर भौतिक और पराभौतिक अनुभूति का है और इस कविता में प्रधानता बुद्धि तत्व की कम हृदय तत्व की अधिक है। प्रसंगवश यहाँ यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि कविता स्वानुभूति की अभिव्यक्ति होती है। इस अभिव्यक्ति के प्रभाव को व्यापक बनाने के लिए आवश्यक है कि स्वानुभूति को लोक समाज की अनुभूति के साथ प्रस्तुत किया जाए। अत: इसे निजी सम्बन्धों और प्रसंगों से मुक्त करना जरूरी है। पंक्तियाँ 'गीली रेत पर बैठ/अक्सर मैंने सोचा है' और 'मेरा तन-मन भिगो जाती हैं' में यदि 'मैंने' और 'मेरा' जैसे व्यक्तिनिष्ठ सर्वनाम निकाल दिए जाएं तो ये पंक्तियां लोक अभिव्यक्ति की प्रतीति कराएंगी। कविता आत्माभिव्यक्ति के बजाय जन-मन की अभिव्यक्ति बने इसके लिए इसे व्यक्तिनिष्ठ परिधि से बाहर निकालना बहुत आवश्यक है। **** |
बुधवार, 25 अगस्त 2010
देसिल बयना - 44 : नयन गए कैलाश..
देसिल बयना – 44नयन गए कैलाश..करण समस्तीपुरी |
हा... हा... हा.... ! राम-राम !! हा... हा....हा... हा.... !!!! अरे बाप रे बाप ... हा... हा... हा... हा... !!! आप भी सोच रहे होंगे कि ई मरदे समस्तीपुरिया आज नर्वसा गया है का.... ? मगर बाते ऐसन है कि हंसी रुकिए नहीं रही है.... !!! आप भी सुन के हिहिया दीजियेगा.... ! हरियर-पियर रंग-बिरंग के मेढक सब टर्र-टायं-टर्र-टायं कर के सो तान छोड़ता है कि आदमी तो आदमी गाछ-बिरिछ के फुतंगी (तरु-शिखा) तक नाचने लगता है। उ में भी कही पुरबा डोल गया तो, लहरिया लूटो हो राजा... !
उ दिन अधरतिये से आसमान फार के मुसलाधार बरस रहा था। हमरे टोल के सभी लोग बर्कुरबा और खिलहा चौरी में भोरे से हल-बैल छोड़ दिए थे। दोपहर तक धानरोपनी कर के आ गए। फिर घुघनी लाल के लुगाई और चम्पई बुआ पुरबारी गाछी में झूला का पिलान बनाई। झिगुनिया और नौरंगी लाल तुरत रस्सी-गद्दा लेके बढ़ गए। एगो बात तो पते है ना.... मौसम-बयार कैसनो हो जनानी जात को श्रृंगार से मन नहीं भरता है। उ गीत में भी कहते हैं न.... "बरसे सावन के रस-झिसी पिया संग खेलब पचीसी ना... ! मुख में पान, नयन में काजल, दांत में मिसी ना... !!" बरसातो में काजल-मेहँदी के बिना बात नहीं बनता। बिना श्रृंगार के झूला कैसे झूलेगी। ऊपर से उहाँ तो टोल भर के जनानी के फैशन का कम्पेटीशन होगा। किसकी मेहँदी सज रही थी, किसका पौडर चमक रहा था। किसकी चुरी खनक रही थी और किसका लपेस्टिक लहक रहा था.... । बड़का कक्का के दालान पर टपकू भाई हरमुनिया टेर रहे थे। सुखाई ढोलकी पर ताल दे रहा था और हम भी वहीं मजीरा टुनटुना रहे थे। महिला लोग का झुण्ड वहीं बन रहा था। पूरा टोला इकट्ठा हो जाए तो झुलुआ झूले जायेंगे। महिला मंडली के सरदार बड़कीये काकी तो थी। हे तोरी के.... कोई पनिहारिन बन के... कोई मनिहारिन बन के.... कोई गुज़री बन के कोई सिपाहिन बन के.... सज-धज के आने लगी। कौनो के सजावट में एक चुटकी कम्मी नहीं रहना चाहिए। बड़की काकी अपने से सब को परीख रही थी और जौन कमी बुझाता उको अपने श्रृंगारदानी से भर देती थी। काकी के तीनो पतोहिया भी सज-धज में लगी हुई थी। बूझिये कि काकी का दुआरी नहीं हुआ कि उ शहर में का कहते हैं.... हाँ ! बूटी-परलर हो गया। सब सज-धज के तैयार हो गयी तो काकी जोर से सबको पुकार के बोली, "सब तैयार हो गयी न.... अब चलो!" "हे बड़की भौजी ! अरे एतना जल्दी का है हो.... ठहरिये-ठहरिये... ! हम भी आ रहे हैं।", उतरबारी कोन से छबीली मामी बोलती हुई धरफराई चली आ रही थी। "मार हरजाई..... तो मार..... छि..... !" काकी और छबीली मामी का हंसी-मजाक इलाका-फेमस है। दुटप्पी रसभरी ठिठोली वहाँ भी हो गया फिर काकी बोली, "ऐ छैल-छबीली ! अब चलो भी... ! नहीं तो अंधरिया में झूलते रहना.... !" "अरे का हरबरी मचाई हो.... कौनो इन्तिज़ार कर रहा है का....? जरा तैय्यारो तो होने दो !" मामी के बात पर जनानी लोग मुँह में आँचल दबा के हंस पड़ीं थी। फिर मामी के केश में गजरा लगा के काकी बोली, "अब बाग़ में चलें हेमा मालिनजी....?" मामी अपने आँखों से मोटा चश्मा हटा के बोली, "आहि रे भौजी ! हमरे अधबयस रूप में नजर-गुजर नहीं लग जाएगा का.... ?" फिर एक आँख दबा के बोली थी, “जरा काजल तो लगाने दो !"
हौ महाराज ! उ के बाद तो ई कहावते बन गया, 'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!' मतलब आधारविहीन उपयोगिता। जब आँख है ही नहीं तो काजल का क्या काम ? काजल लगाने से आँख की शोभा बढती है नाकि चश्मे की। सो जब आधार ही नहीं रहा तो उपयोगी साधन का उपयोग भी हम कहाँ करेंगे ? इसीलिए पहले आधार जरूरी है फिर अन्य संसाधन। समझे...? तो यही था आज का देसिल बयना। खाली हिहिआइये मत। अरथ भी बुझते जाइए। नहीं तो बस, "नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!" |
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
लघुकथा -- दोष किसका..... ?
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वक़्त-बेवक्त सास-ससुर से भी तल्खी। "प्रेम-विवाह का मतलब यह तो नहीं कि दामाद के हर अरमान में आग ही लगा दें।" तिलक-दहेज़ नहीं देना पड़ा... कम से कम 'अन्य आवश्यक सामग्री' के साथ ससम्मान विदाई तो करते।
इच्छा के प्रतिकूल सामाजिक क्रांतिकारी पुत्र ने एक युवती का हाथ थाम लिया। न पंडित न बारात, ना ही दहेज़। कोर्ट-मैरिज। अब पुत्र से भी अनबन। पहले से भी अधिक निराशा। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि दोष किसका था और गलती कहाँ हो गयी ? (मूल कथा मैथिली में "अहीं के कहैं छी" में संकलित "तीन चित्र" से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)चित्र : आभार गूगल सर्च |
सोमवार, 23 अगस्त 2010
आओ बात करें बस हिन्दुस्तान की
आओ बात करें बस हिन्दुस्तान कीज्ञानचन्द ’मर्मज्ञ’ |
बनारस की रसमयी धरती के सपूत श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ समकालीन कविता में एक अमूल्य हस्ताक्षर के रूप में उभरे हैं। जन्म से भारतीय, शिक्षा से अभियंता, रोजगार से उद्यमी और स्वभाव से कवि, श्री मर्मज्ञ अपेक्षाकृत कम हिन्दीभाषी क्षेत्र बेंगलूर में हिंदी के प्रचार-प्रासार और विकास के साथ स्थानीय भाषा के साथ समन्वय के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। लगभग एक दशक से हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की शोभा बढ़ा रहे ज्ञानचंद जी की अभी तक एक मात्र प्रकाशित पुस्तक "मिट्टी की पलकें" ने तो श्रीमान को सम्मान और पुरस्कार का पर्याय ही बना दिया। श्री मर्मज्ञ के मुकुट-मणी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी शलाका सम्मानजैसे नगीने भी शामिल हैं। मित्रों ! मर्मज्ञ जी जितने संवेदनशील कवि हैं उतने ही सहृदय सज्जन ! आप चाहें तो +91 98453 20295 पर कविवर से वार्तालाप भी कर सकते हैं !!! ना हिन्दू ना सिख ना मुसलमान की,आओ बात करें बस हिन्दुस्तान की। अपनी मिट्टी से अपनी पहचान की, आओ बात करें बस हिन्दुस्तान की।। देख मुखौटों वाले चेहरे, मानवता गड़ गई शर्म से, धर्म किसी का कभी भी नहीं, बड़ा हुआ है राष्ट्रधर्म से, मातृभूमि की पूजा है भगवान की। आओ बात करें बस हिन्दुस्तान की।। वो जो प्यार के फूल मसल कर, नफ़रत के कांटे बोते हैं, इक दिन ऐसा भी आता है, बैठ अकेले वो रोते हैं, चलो बचा लें कुछ ख़ुश्बू इंसान की। आओ बात करें बस हिन्दुस्तान की।। गंगा की लहरें गाती हैं, भाईचारे के गीतों को, दूर कहीं से कोई पुकारे, सद्भावों के मनमीतों को, रंग ले आओ किरणें नए विहान की। आओ बात करें बस हिन्दुस्तान की।। सूनी आंखें, लाल है मंज़र, मन मैला हाथों में खंज़र, द्वेष-राग फल फूल रहे हैं, विश्वासों के खेत हैं बंजर, कितनी कम है क़ीमत दुर्लभ जान की। आओ बात करें बस हिन्दुस्तान की।। काली रातों को समझाना, शान्ति-प्रेम के दीप जलाना, ताक़त एक, एकता ऐसी, नामुमकिन है हमें हिलाना, इतनी भी औकात नहीं तूफान की। आओ बात करें बस हिन्दुस्तान की।। |
रविवार, 22 अगस्त 2010
काव्यशास्त्र-28 :: आचार्य आशाधरभट्ट, आचार्य नरसिंह और आचार्य विश्वेश्वर पण्डित
काव्यशास्त्र-28आचार्य आशाधरभट्ट, आचार्य नरसिंह और आचार्य विश्वेश्वर पण्डितआचार्य परशुराम राय |
आचार्य आशाधरभट्टआचार्य पण्डितराज जगन्नाथ के बाद काव्यशास्त्र के इतिहास आचार्य आशाधरभट्ट का नाम उल्लेखनीय है। ये अठारहवीं शताब्दी के आचार्य हैं। इन्होंने अपने पिता का नाम रामजीभट्ट तथा गुरु का नाम धरणीधर बताए हैं:- शिवयोस्तनयं नत्वा गुरुं च धरणीधरम्। आशाधरेण कविना रामजीभट्टसूनुना॥ (अलंकारदीपिका)
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि चौदहवीं शताब्दी में आशाधर नाम के एक जैन आचार्य हुए हैं। आचार्य आशाधरभट्ट उनसे भिन्न हैं। आचार्य आशाधरभट्ट ने काव्यशास्त्र पर तीन ग्रंथ लिखे हैं - कोविकानन्द, त्रिवेणिका और अलंकारदीपिका। सन् 1960 तक इन ग्रंथों का प्रकाशन नहीं हुआ था। वर्तमान में इनका प्रकाशन हुआ है अथवा नहीं, कहना कठिन है। इन ग्रंथों के विषय में जो विवरण देखने को मिलता है, उससे लगता है कि 'कोविकानन्द' और 'त्रिवेणिका ' के विवेच्य विषय शब्द शक्तियाँ हैं। 'अलंकारदीपिका' का प्रणयन आचार्य अप्पय्यदीक्षित कृत 'कुवलयानन्द' की शैली में किया गया है। इसमें कुल तीन प्रकरण हैं। पहले प्रकरण में 'कुवलयानन्द' की कारिकाओं की सरलतम व्याख्या मात्र है। दूसरे में आचार्य अप्पय्यदीक्षित की शैली में अलंकारों का निरूपण व उनकी व्याख्या है। तीसरे का नाम 'परिशेषप्रकरण' रखा है। इसमें 'संसृष्टि' और 'संकर' अलंकारों के भेदों का वर्णन है। उक्त ग्रंथों के अतिरिक्त आचार्य आशाधरभट्ट ने 'अद्वैतविवेक' और 'प्रभापटल' ग्रंथों की भी रचना की थी।
आचार्य नरसिंहआचार्य नरसिंह का काल अठारहवीं शताब्दी है। ये दक्षिण भारत के रहने वाले थे। इनका आश्रय स्थल मैसूर राज्य था। इनके जीवनवृत्त के विषय में अधिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। इन्होंने काव्यशास्त्र पर 'नञ्जराजयशोभूषण' नामक ग्रंथ की रचना की। उस काल में नञ्जराज मैसूर राज्य के अमात्य थे। राज्य का पूरा कार्यभार और अधिकार उन्हीं के पास थे। शायद यही कारण है कि आचार्य नरसिंह ने आचार्य विद्यानाथ कृत 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' के आधार पर अपने ग्रंथ का नाम 'नञ्जराजयशोभूषण' रखा हो। 'नञ्जराजयशोभूषण' में कुल सात विलास हैं। जिनमें क्रमश: नायक, काव्य, ध्वनि, रस, दोष, नाटक और अलंकारों का निरूपण किया गया हैं। इसके छठे विलास में अमात्य 'नञ्जराज' की स्तुति में एक नाटक का भी समावेश किया है। कवि के रूप में आचार्य नरसिंह की रचना-शैली बड़ी ही रोचक हैं। आचार्य विश्वेश्वर पण्डितआचार्य विश्वेश्वर पण्डित काव्यशास्त्र प्रणेताओं में शायद अन्तिम आचार्य हैं। इनका जन्म उत्तराखण्ड के अलमोड़ा जनपद में स्थित पटिया गाँव में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता श्री लक्ष्मीधर पाण्डेय स्वयं एक सर्वतन्त्रस्वतंत्र मूर्धन्य विद्वान थे। आचार्य विश्वेश्वर एक बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न आचार्य हैं। इन्होंने काव्यशास्त्र, व्याकरण और न्याय में बड़े ही उच्चकोटि के ग्रंथों का प्रणयन किया है। काव्यशास्त्र पर इन्होंने पाँच ग्रंथों की रचना की है - अलंकारमुक्तावली, अलंकारप्रदीप, रसचन्द्रिका, कविकण्ठाभरण और अलंकारकौस्तुभ। इनमें 'अलंकारकौस्तुभ' सर्वाधिक प्रसिद्ध और विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ है। इसमें इन्होंने आचार्य अप्पय्यदीक्षित और आचार्य जगन्नाथ के मतों का बड़ी ही कुशलता एवं विद्वत्तापूर्ण ढंग से खण्डन किया है। इसके अतिरिक्त आचार्य विश्वेश्वर के अन्य उत्कृष्ट ग्रन्थ हैं - व्याकरण पर 'वैयाकरण - सिद्धान्तसुधानिधि' और न्यायशास्त्र पर 'तर्ककुतूहल' तथा 'दीधितिप्रवेश' ! भारतीय काव्यशास्त्र के अगले अंक में इसके विभिन्न सम्प्रदायों का उल्लेख किया जाएगा। अब तक के अंकों में आए लेखों का मुख्य आधार सिद्धान्तशिरोमणि आचार्य विश्वेश्वर कृत काव्यप्रकाश की हिन्दी व्याख्या (टीका) की भूमिका में दी गई ऐतिहासिक पीठिका है। अतएव मैं अपनी पूरी श्रद्धा और आभार के साथ उनका नमन करते हुए भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास को यहीं विराम देता हूँ। ***** |
शनिवार, 21 अगस्त 2010
फ़ुरसत में … ज़िन्दगी और क्षणिकाएँ
फ़ुरसत में … ज़िन्दगी और क्षणिकाएँमनोज कुमार |
आज फ़ुरसत में … थोड़ी बात करें ज़िन्दगी की! एक बार मैंने उन्हें कह दिया तुम मेरी ज़िन्दगी हो! बहुत ख़ुश हुईं!! खनकती आवाज़ में बोलीं, “शुक्रिया!” ज़िन्दगी में भी जैसे-जैसे महत्व एवं उपयोगिता बढ़ती जाती है, व्यक्ति उत्तेजनारहित और शांत होता जाता है। खनक! सिक्कों की खनक तो सुनी ही होगी आपने। सिक्के, मूल्य वाले तो होते हैं एक, दो, पांच के, पर आवाज़ ज़्यादा निकालते हैं। वहीं दस, बीस, पचास, सौ, पांच सौ और हज़ार के नोट शांत होते हैं, ख़ामोश रहते हैं। क्यूंकि उनका मूल्य अधिक होता है। इसी तरह ज़िन्दगी में भी जैसे-जैसे महत्व एवं उपयोगिता बढ़ती जाती है, व्यक्ति उत्तेजनारहित और शांत होता जाता है। यह स्थिति तो ज्ञान के संचय से ही आती है। इस अवस्था में ज़िन्दगी सुंदर होती है। सुंदर ज़िन्दगी बस यूं ही नहीं हो जाती। इसे रोज़ बनाना पड़ता है अपनी प्रार्थनाओं से, नम्रता से, त्याग से एवं प्रेम से! ज़िन्दगी में हर कोई सफलता की ऊँचाई प्राप्त करना चाहता है। पर हम कितनी ऊँचाई प्राप्त कर सकते हैं, तब तक नहीं जान पाते जब तक हम उड़ान भरने के लिए अपने पंख नहीं फैलाते। जिन्होंने पंख फैलाया, उनके लिए तो अनंत ही सीमा है। ज़िन्दगी का हर हिस्सा एक समान नहीं होता। कुछ करड़-मरड़ की आवाज़ वाला, तो कुछ कड़वे-कसैले स्वाद वाला, वहीं कुछ मुलायम तो कुछ कठोर पल वाला। तो क्यूं ना हम जीवन के हर पल को एन्ज्वाय करें, मज़े लें, आनंद उठाएं। जब वे हमारे पास नहीं होते, ईर्द-गीर्द नहीं होते तो हम बड़ा ख़ाली-ख़ाली महसूस करते हैं, अकेलापन का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों से ज़िन्दगी के मतलब बदल जाते हैं। ऐसे लोग हमारे हृदय तंतुओं को छूते हैं। उनके आस-पास रहने से हममें मधुर भावनाओं का संचार होता है। ज़िन्दगी में हम विभिन्न प्रकार के लोग से मिलते हैं। कुछ लोग अन्य की तुलना में हमारे ज़्यादा प्रिय हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? इसका कारण यह नहीं है कि जब हम ऐसे लोग से मिलते हैं तो हमको अधिक ख़ुशी, प्रसन्नता का अनुभव होता बल्कि जब वे हमारे पास नहीं होते, ईर्द-गीर्द नहीं होते तो हम बड़ा ख़ाली-ख़ाली महसूस करते हैं, अकेलापन का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों से ज़िन्दगी के मतलब बदल जाते हैं। ऐसे लोग हमारे हृदय तंतुओं को छूते हैं। उनके आस-पास रहने से हममें मधुर भावनाओं का संचार होता है। |
और अब क्षणिकाएँ |
(एक)
तुम्हारा पदार्पण जैसे वर्षा से भींगे पल्लवों पर चमक उठी सूरज की पहली किरण। |
(दो)
अगरबत्ती की सुगंध-सा! उड़ जाता है अवसाद मन का प्रकाश में अंधेरे सा जब तुम आ जाती हो! |
(तीन)
हम, तुम, नदी का किनारा और मधुमास! नाविक बिन नाव लहरों का उच्छल विलास!! |
तुम्हारे अभाव में बिखंडित, विघटित, बिखरा जीवन, या रिसते घाव-सा, बाहर से तो कम भीतर से अधिक! |
(चित्र आभार गूगल सर्च) |
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
अंक-5 :: स्वरोदय विज्ञान :: आचार्य परशुराम राय
अंक-5
स्वरोदय विज्ञान
आचार्य परशुराम राय
जैसे सूर्य और चन्द्र इस जगत को प्रभावित करते हैं, वैसे ही सूर्य स्वर और चन्द्र स्वर हमारे शरीर को प्रभावित करते हैं। कहा जाता है कि चन्द्र स्वर शरीर को अमृत से सींचता हैं और सूर्य स्वर उसकी नमी को सुखा देता है। जब दोनों स्वर मूलाधार चक्र, जहाँ कुण्डलिनी शक्ति सोती है, पर मिलते हैं तो उसे अमावस्या की संज्ञा दी गई है।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त शरीर में स्वर पद्धति के अनुसार चौबीस घंटें में इनका बारह राशियों से सम्बन्ध का ज्ञान भी बड़ा रोचक है। चन्द्र स्वर का उदय वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशियों में होता है तथा सूर्य स्वर का मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुंभ राशियों में। स्वरोदय विज्ञान के साधक स्वरों की प्राकृतिक पद्धति को बदल देते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक चन्द्र स्वर तथा सूर्यास्त से सूर्योदय तक सूर्य स्वर प्रवाहित करते हैं। शास्त्र कहते हैं कि जो ऐसा करने में सक्षम होता है वह योगी है।
एक दिन में साँस की छ: ऋतुएं होती हैं। प्रात:काल बसन्त है, मध्याह्न ग्रीष्म, अपराह्न वर्षा, सांयकाल शरद, मध्यरात्रि शीत और रात्रि का आखिरी हिस्सा हेमन्त ऋतु कहलाती है।
ये स्वर पाँच महाभूतों को अपने में धारण किए रहते हैं या यों कहा जाए कि पंच महाभूत एक निश्चित क्रम में नियत अवधि तक चन्द्र और सूर्य स्वर में प्रवाहित होते हैं। इसके पहले कि इस विषय पर चर्चा की जाये, यौगिक दृष्टि से शरीर विज्ञान पर थोड़ी चर्चा आवश्यक है। हमारे शरीर में स्थित शक्ति-केन्द्र, जिन्हें योग में चक्र, आधार या कुण्ड के नाम से जाना जाता है, के विषय में प्रसंगवश यहाँ परिचय दिया जा रहा है। वैसे तो शरीर में अनेक चक्र हैं, किन्तु इनमें सात-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्र मुख्य हैं। पंच महाभूतों की स्थिति क्रम से प्रथम पाँच चक्रों में मानी जाती है, जिसका विवरण नीचे देखा जा सकता है:-
चक्र | मूलाधार | स्वाधिष्ठान | मणिपुर | अनाहत | विशुद्ध |
पंच महाभूत | पृथ्वी | जल | अग्नि | वायु | आकाश |
स्वरोदय विज्ञान के अनुसार पंच महाभूतों की स्थिति उपर्युक्त स्थिति से थोड़ी भिन्न है। शिव स्वरोदय के अनुसार पृथ्वी जंघों में, जल तत्व पैरों में, अग्नि दोनों कंधों में, वायु नाभि में और आकाश मस्तक में स्थित हैं। स्वामी राम के अनुसार पृथ्वी पैरों (Feet) में, जल घुटनों में, अग्नि दोनों कंधों के बीच में स्थित हैं। शेष दो तत्वों की स्थिति के विषय में कोई अन्तर नहीं है। उक्त विवरण एक दृष्टि में नीचे की सारिणी में दर्शाया जा रहा है:-
पंच महाभूत | पृथ्वी | जल | अग्नि | वायु | आकाश |
स्थिति | जंघा | पैर | कंधें | नाभि | मस्तक |
ये पाँचों तत्व दोनों स्वरों में समान रूप से प्रवाहित होते हैं। यदि हम शारीरिक और मानिसिक रूप से स्वस्थ हैं तो इनकी दिशा, लम्बाई, अवधि और क्रम निश्चित होते है, इन्हीं की सहायता से स्वरों में तत्वों की पहिचान की जाती है। इनकी दिशा, लम्बाई, अवधि एवं इनके प्रवाह का क्रम नीचे की सारिणी में देखा जा सकता है।
तत्व | पृथ्वी | जल | अग्नि | वायु | आकाश |
प्रवाह की दिशा | मध्य | नीचे की ओर | ऊपर की ओर | तिरछी (न्यून कोण) | सभी दिशाओं में |
लम्बाई | 12 अंगुल | 16 अंगुल | 4 अंगुल | 8 अंगुल | -- |
अवधि | 20 मिनट | 16 मिनट | 12 मिनट | 8 मिनट | 4 मिनट |
प्रवाह का क्रम | तृतीय | चतुर्थ | द्वितीय | प्रथम | पंचम |
पिंगला नाड़ी से स्वर प्रवाहित होने पर पृथ्वी तत्व का सूर्य से, जल का शनि से, अग्नि का मंगल से और वायु का राहु से सम्बन्ध माना जाता है तथा इड़ा नाड़ी में पृथ्वी का गुरू से, जल का चन्द्रमा से, अग्नि का शुक्र से और वायु का बुध से।
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
आँच – 31 पर तेरा जूता तेरे सिर
आँच – 31 पर 'तेरा जूता तेरे सिर'।
इस ब्लाग पर सत्येन्द्र झा की एक लघुकथा पढ़ने को मिली 'तेरा जूता तेरे सिर'।(लिंक है) मूलत: मैथिली में लिखी यह कथा केशव कर्ण द्वारा हिन्दी में अनूदित है। कथा अपने स्वरूप में अति लघु है, साथ ही अत्यंत संश्लिष्ठ भी। कथा में धारदार व्यंग्य है जिसने पाठक के हृदय को झकझोरा है। कथा की विशिष्टि ही इसे 'ऑंच' पर लिए जाने का आधार रही। यह सुबोध कथा समाज की आधुनिक बनने की अदम्य आकांक्षा के चलते अन्धानुकरण करने की कथा है। ऐसा अन्धानुकरण जो बुद्धि को पथभ्रष्ट करता है और विवेक को संज्ञाविहीन। एक व्यक्ति जो गांव में बाहर से आता है, अपने पहनावे ओढ़ावे से लोगों को आकर्षित कर लेता है या कहें कि सम्मोहित कर लेता है। धोती कुर्ता पहनने वाले ग्रामीण उसकी वेशभूषा को अपना लेते हैं और धीरे-धीरे अपना पहनावा, रीति-रिवाज और संस्कारों को भूल जाते हैं। फिर वही व्यक्ति अपने आर्थिक हितों (स्वार्थ) को पूरा करने के लिए उन्हीं के संस्कार उन्हें बेचने के लिए दूकान खोल लेता है और उसके प्रभाव में आ चुके लोग अब आधुनिक बनने के फेर में सहर्ष लुटने के लिए उसके पास आते हैं। वास्तव में यह कथा संस्कृति के अधिग्रहण की अभिकथा है और इसके मूल में है आर्थिक हित। संसार में इन्हीं आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए धार्मिक सामाजिक संस्कारों का अधिग्रहण सदा से होता आया है और आज भी हो रहा है। संस्कारों के इस अधिग्रहण के चलते ही बहुत सी प्रजातियाँ अपने अस्तित्व के लिए संकट से जूझती रहीं और समाजों की संप्रभुता पर खतरे तक उत्पन्न हुए। संस्कारों के अधिग्रहण की पद्धति भी वही रही। पहले आकर्षण पैदा करना फिर सम्मोहित करना उसके पश्चात् पेटेण्ट बनाकर नियंत्रण हासिल करना होता है और मूल उद्देश्य है अर्थार्जन। यही इस कथा की अन्तर्वस्तु है। सत्येन्द्र झा ने बहुत सरल शब्दों में इस सनातन सत्य को कथा का विषय बनाते हुए प्रस्तुत किया हैं। कथा में कोई बिम्ब नहीं है। उन्होंने अपनी कल्पना शक्ति से आकर्षक कथानक सर्जित किया है। कथा में व्यंग्य प्रखर है। कथा बुद्धि विवेक के अपकृष्ट होने और संस्कारों के अधिग्रहण पर तीखा व्यंग्य करती है तथा इस विषय पर मंथन के लिए विवश करती है। भाषा बहुत सहज है, बल्कि यो कहें कि सत्येन्द्र झा भाषा में लिखते नहीं बोलते हैं तो अधिक उपयुक्त होगा। यदि कथा में काल दोष को छोड़ दें तो यह कथा लघु कथा के मानकों के सर्वथा उपयुक्त है। इसमें सीमित शब्दों में द्विगुणित अर्थ का समावेश है। यदि कुछ इंगित करने के लिए है तो वह काल बाधा है और यह सत्येन्द्र झा जैसे लघु कथा के परिपक्व शिल्पी की दृष्टि से ओझल हुई त्रुटि है। प्रसंग में, एक व्यक्ति जिससे आकर्षित होकर लोग उसका पहनावा अपना लेते हैं वही लोग कुछ समय बाद अपना पहनावा, जिसे उन्होंने रीति-रिवाज और संस्कारों से सीखा था, इस कदर भूल जाते हैं कि उन्हें किसी व्यक्ति को शुल्क देकर अपना पहनावा - धोती पहनना सीखना पड़ता है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से एक ही पीढ़ी द्वारा इस प्रकार का विस्मरण अविश्वसनीय लगता है। हाँ, एक दो पीढ़ी बाद तो यह सम्भव हो सकता था। ***** |