सोमवार, 31 मार्च 2014

बिगड़े लड़के

गांधी और गांधीवाद-156

1909

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टॉल्सटॉय फार्म में गांधी जी ने सह-शिक्षा का प्रयोग किया। लड़के-लड़कियां वहां आज़ादी से साथ उठते-बैठते। इस कारण आश्रम जीवन में कुछ परेशानियां भी आईं। आश्रम में लड़के और लड़कियां मुक्त रूप से मिलते थे। लड़के और लड़कियों को साथ नहाने के लिए भेजा जाता। इसके पहले गांधी जी ने उन्हें मर्यादा धर्म के बारे में विस्तार से समझाया था। स्नान का समय नियत था। लड़के-लड़कियां साथ जाते। गांधी जी भी उसी वक़्त वहां पहुंचते। गांधी जी उन बच्चों पर एक मां की तरह नज़र रखते थे। रात में सभी खुले बारामदे में सोते। दो बिस्तरों के बीच मुश्किल से तीन फुट का अंतर होता। स्कूल के युवकों को इस इस बात के लिए प्रेरित किया जाता कि बीमारी में वे एक-दूसरे की सेवा करें।

यहां कुछ बिगड़े लड़के भी थे। इनके कारण वहां का वातावरण दूषित हो रहा था। गांधी जी के अपने बच्चे भी उनकी संगति में थे। कालेनबाख ने गांधी जी को बताया कि लफ़ंगे लड़के के साथ रहकर उनके खुद के तीनों लड़के बिगड़ रहे हैं। उन्हें मना करें कि वे उनके साथ न घूमें-फिरें। लेकिन गांधी जी ने ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि वे अपने पराए में भेद नहीं कर सकते। आगे चलकर उनके अपने बच्चों में गहरे विकार आ गए थे। कस्तूर को यह सब देख-सुनकर डर लगा रहता था। उनके बेटे बड़े हो रहे थे। ये उम्र ऐसी थी जब लड़के-लड़कियों को एकसाथ रखना खतरे से खाली नहीं था। उन्होंने गांधी जी को ऐसा प्रयोग करने के बारे में चेतावनी भी दी थी।

एक दिन किसी विद्यार्थी ने गांधी जी को ख़बर दी कि एक लड़के ने दो लड़कियों के साथ मज़ाक़ किया है। गांधी जी ने जांच की तो उन्हें पता लगा कि बात सच है। उन्होंने युवकों को समझाया। लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं था। वे चाहते थे कि दोनों लड़कियों के शरीर पर कोई चिह्न हो, जिससे हर युवक यह समझ सके कि लड़कियों पर बुरी नज़र नहीं डाली जा सकती। लड़कियां भी यह समझ सकें कि उनकी पवित्रता पर कोई हाथ नहीं डाल सकता। ऐसा कौन सा चिह्न दिया जाए इस पेशोपेश में वे रात भर सो नहीं सके। सुबह में उन्होंने लड़कियों को बुलाया। उन्हें समझाया और सलाह दी कि वे उन्हें उनके केश कतर देने की इजाज़त दें। बड़ी महिलाओं को भी उन्होंने बात समझाई। सभी ने गांधी जी के मकसद को समझा और इसकी इजाज़त उन्हें दे दी। गांधी जी ने उन लड़कियों के केश काट दिए। इसका परिणाम अच्छा रहा। इसके बाद लड़कों ने इस तरह का दुस्साहस नहीं किया।

एक सह-शैक्षिक प्रयोग में मठों जैसे ब्रह्मचर्य को बनाए रखना हमेशा आसान नहीं होता। यौन संबंधी दुस्साहस को गांधी जी सबसे अधिक पापपूर्ण भटकाव मानते थे। एक बार एक लड़की बीमार पड़ी। एक लड़का, गांधी जी की हिदायतों के मुताबिक, प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से उसका इलाज कर रहा था। लड़की को फ़ायदा भी हो रहा था। इसी बीच कानाफ़ुसी भी शुरू हो गई। गांधी जी ने किसी भी अफ़वाह को मानने से इंकार कर दिया। वे टॉल्सटॉय फार्म पर थे और ये युवक फिनिक्स में। एक दिन गांधी जी ने सुना कि उनके बेटे और कुछ अन्य युवकों ने यौन भावनाओं के वशीभूत होकर उनके विश्वास के प्रतिकूल काम किया है। अभी तक तो वे मानते थे कि शादी और यौनाचार के बारे में उनके विचारों को उनके बेटों ने आत्मसात कर लिया होगा। लेकिन जब फीनिक्स बस्ती में हुए इस “नैतिक भूल” (संभवतः विषयासक्ति संबंधी) का पता चला, और यह सुना कि उनके बेटे ने भी पशुवत व्यवहार किया है, तो उन्हें बेहद गहरा सदमा लगा। वे बिल्कुल चुप हो गए। एकांतवास में चले गए। उन्होंने अपना सभी समाज कार्य बंद कर दिया। वे ट्रांसवाल से नेटाल चले गए। कई दिनों के बाद उन्होंने मुज़रिमों से बात की।

लड़कों को तो उन्होंने माफ़ कर दिया लेकिन युवाओं के पाप का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने सात दिनों का उपवास रखा। यह उनके जीवन के 18 प्रसिद्ध व्रतों में पहला था। दूसरों में दोष देखने के बजाए अपने को दोषी समझना उनका जीवन भर का धर्म रहा। अपने संरक्षितों के दुराचरण के लिए उन्होंने ख़ुद को दोषी माना। इसके प्रायश्चित के लिए उन्होंने सात दिनों के व्रत का और साढ़े चार मास तक दिन में केवल एक बार भोजन करने का दंड खुद को दिया। प्रायश्चित, प्रार्थना, आत्मानुशासन या शुद्धिकरण के रूप में उपवास उन सभी के लिए भीषण रूप ले चुकी थी जो उन्हें प्यार करते थे। उपवास की समाप्ति तक वे डर के साये में जीते और इनमें से कई तो भय व प्रायश्चित के मारे उनके साथ उपवास भी रख लेते। हालांकि वे जो यह सब कुछ करते वे तर्कहीन होते, लेकिन उसका प्रभाव अवश्य पड़ा और यह सब उन्होंने अपनी अंतरात्मा के निर्देश पर किया।

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शुक्रवार, 28 मार्च 2014

भुजंगा : एक चौकीदार पक्षी

भुजंगा : एक चौकीदार पक्षी

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अंग्रेज़ी में नाम : Black Drongo

वैज्ञानिक नाम : डिक्रुरस मैक्रोसरकस (Dicrurus macrocercus) {Dikros gr. Forked, orous – tailed = long tailed)

स्थानीय नाम : हिंदी में इसे कोतवाल, कालकलछी, कोलसा कहा जाता है। पंजाबी में जपल कालकलिची और बांग्ला में फिंगा के नाम से जाना जाता है जबकि कच्छ में इसे कांछ और कालकांछ कहते हैं। गुजराती में कोसीता, कालो कोषी तथा मराठी में कोतवाल कहा जाता है। असमिया में यह फैंचु और घेन्घ्यू सोराई तथा उड़िया में काजलपाती के नाम से जाना जाता है। कन्नड़ में कारी भुजंगा, मणिपुरी में चरोई, तेलुगु में पसाला पोलि गुड्डु, तमिल में कारी करूमन, करूवटु वलि और मलयालम में तम्पुरट्टि अनारंछि कहलाता है।

विवरण व पहचान : बुलबुल के आकार के 31 से.मी. की लंबाई वाले इस दुबले-पतले पक्षी का रंग कौए की तरह चमकदार काला, बेहद कुरूप और अनाकर्षक होता है। नर और मादा एक ही तरह के होते हैं। इसकी पूंछ 6 इंच लंबी और दुपंखी होती है। ऊपरी भाग अधिक काला होता है। गरदन का भाग चमकीला नीला-काला होता है। टांगें छोटी होती हैं। आंख के आगे एक काला धब्बा होता है। आंख की पुतली लाल और चोंच और पैर काला होता है।

व्याप्ति : सम्पूर्ण भारत में, बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका अफ़गानिस्तान, इंडोनेशिया, और म्यानमार में।

अन्य प्रजातियां : पंख, पूंछ और चोंच के आधार पर अन्य प्रजातियां पाई जाती हैं।

1. भीमराज या भांगराज Greater Racket-tailed Drongo (डिक्रूरस पैराडिसेएसस) – पूंछ के पंख दो तार के समान लंबे होते हैं। ये पंख अंत में चम्मच या रैकेट के समान संरचना बनाते हैं।

2. लेसर रैकेट टेल्ड ड्रोंगो (डिक्रूरस रेमिफर) – हिमालय क्षेत्र में पाया जाता है।

3. ब्रोंज्ड ड्रोंगो (डिक्रूरस एनेयस) – चौड़ी पत्तियों वाले जंगलों में पाया जाता है।

4. Ashy Drongo – D. leucophaeus

5. White-bellied Drongo – D. caerulescens

6. Crow-billed drongo – D. annectans

7. Hair-crested Drongo or Spangled Drongo – D. hottentottus

8. Andaman Drongo – D. andamanensis

9. Ceylon Crested Drongo – D. lophorinus

आदत और वास : खुले देहातों, खेतों, प्रायः घास चरते जानवरों के झुंड का पीछा करते हुए या टेलीफोन के तारों पर बैठा हुआ इसे देखा जा सकता है। यह एक कीटभक्षी पक्षी है। इसका मुख्य आहार छोटे-छोटे कीड़े और पतंगे हैं। किसानों के लिए यह बहुत उपयोगी पक्षी है। फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों को यह बहुत बड़ी संख्या में खा जाता है। कीड़ों की कोई भी गतिविधि इससे छुपी नहीं रह सकती। खुली जगह से यह कीटों पर नज़र जमाए रहता है। दिखते यह उन पर झपट पड़ता है और पैरों में जकड़ कर ले उड़ता है। फिर उनके टुकड़े कर डालता और निगल जाता है। चरते हुए जानवरों की पीठ पर बैठ कर यह उनके द्वारा घासों में उत्पन्न हलचल से इधर-उधर भागते कीटों को पकड़ कर उनका शिकार करता है। जंगल में आग लगने पर या किसानों द्वारा फसल की बोआई के लिए खेतों में आग लगाए जाने पर बड़ी संख्या में कीटों को पकड़ने में लग जाता है। कीटों के अलावा यह फूलों के मकरंद को भी खाता है। यह बहुत बहादुर, निर्भीक और लड़ाकू पक्षी होता है। यह चील जैसे बड़े-बड़े पक्षियों पर हमला कर देता है। यह चौकीदार पक्षी की श्रेणी में आता है। जब भी दुश्मन को आसपास फटकते देखता है यह ज़ोर-ज़ोर से शोर मचाने लगता है ताकि अन्य पक्षी भी सावधान हो जाएं। इसके इस गुण के कारण इसे ‘कोतवाल’ नाम से भी जाना जाता है। यह किसी भी पक्षी को अपने घोंसले के पास फटकने नहीं देता। कौओं और चीलों से अपने घोंसले की रक्षा काफ़ी उग्रता से करता है। कभी-कभी तो यह बन्दर की भी खबर ले लेता है यदि वे इनके घोंसले की तरफ़ जाने की चेष्टा करता है तो! चोंच से यह उन पर प्रहार करता है और मार-मार कर उन्हें भागने पर विवश कर देता है। उसके इस गुण का फ़ायदा अन्य पक्षी भी उठाते हैं। फ़ाख्ता जैसे कुछ डरपोक पक्षी अपने नवजात बच्चों की सुरक्षा के लिए ऐसे पेड़ पर अपना घोंसला बनाते हैं, जहां कोतवाल जैसा साहसी पक्षी रहता है। कोतवाल अपने साहस के लिए जाना जाता है। भुजंगा अन्य दुशमन पक्षी को उस पेड़ के आस-पास आने नहीं देता बल्कि उन बड़े पक्षियों पर हमला बोल देता है। इसलिए जिस पेड़ पर कोतवाल रहता है उस पेड़ पर अन्य पक्षियों के पल रहे बच्चे सुरक्षित रहते हैं। ‘टि-टिउ’ और ‘चिक्‌-चिक्‌’ की इसकी आवाज़ बहुत ही कर्कश होती है।

प्रजनन :

इसका प्रजनन काल अप्रैल से अगस्त तक होता है। इसका घोंसला प्याले के आकार का होता है जो किसी वृक्ष की द्विशाखित शाखा पर टंगा होता है। घोंसलों का निर्माण टहनियों और रेशों से होता है जिसमें मकड़ी के जालों से इसके सतह को ढंक दिया जाता है। कभी-कभी यह पत्ते रहित पेड़ पर भी पाया जाता है। यह किसी को भी दिख सकता है। मादा 3-5 अंडे देती है। अंडे का रंग सफेद होता है जिसपर भूरा-लाल धब्बे होते हैं। नर और मादा दोनों मिलकर बच्चे का लालन-पालन करते हैं।

मनोज कुमार

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सोमवार, 24 मार्च 2014

मैं तुम्हारे स्वप्न का संसार बन कर क्या करूँ....

मैं तुम्हारे स्वप्न का संसार बन कर क्या करूँ?


-         करण समस्तीपुरी

मैं तुम्हारे स्वप्न का संसार बन कर क्या करूँ?
मैं तुम्हारे विश्व का आधार बन कर क्या करूँ??
मुख के ऊपर हैं मुखौटे अनगिनत,
मैं तुम्हारे रूप का श्रृंगार बन कर क्या करूँ??

शब्द लज्जित, सर उठाती वेदना।
भाव कुंठित, मूक सी संवेदना॥
बिम्ब है बौना बड़ा प्रतिबिम्ब है।
किस नये युग का कहो आरंभ है॥
धूल-धुसरित मान्यताएँ रो रहीं,
मैं तुम्हारी नीति के अनुसार बन कर क्या करूँ?

खा रही हैं सीपियों को मोतियाँ।
शव के ऊपर सेंकते हैं रोटियाँ॥
फूल से सहमी हुई फुलवारियाँ।
इस फ़सल पे रो रही है क्यारियाँ॥
मृत्यु की अभ्यर्थना के अर्थ में,
मैं तुम्हारे मंत्र का उच्चार बन कर क्या करूँ??

हर सिंहासन पर जमा धृतराष्ट्र है।
मूक, बधीरों, कायरों का राष्ट्र है॥
सत्य पर प्रतिबंध, झूठे हैं भले।
छोड़ दामन सर्प छाती में पले॥
छल से छलनी आत्मा अपनी लिए,
मैं तुम्हारे प्रेम का व्यवहार बन कर क्या करूँ??



मंगलवार, 18 मार्च 2014

सफेद और काली धारियों वाला - हुदहुद

सफेद और काली धारियों वाला

हुदहुद (Common Hoopoe – Upupa epops - उपुपा एपोप्स)

स्थानीय नाम : इसे हिंदी, उर्दू, मराठी, गुजराती में हुदहुद कहते हैं। पंजाबी में चक्कीराहा बेबेदुख और गुजराती में घंटी हांकनो कहते हैं। तेलुगु में इसे कोंडा पिट्टा, किरीटम पिट्टा और कूकूडु गुवा नामों से जाना जाता है। तमिल में इसे चावल कुरूवि तथा मलयालम में उप्पुप्पन कहा जाता है। बंगाल में इसे मोहनचूड़ा कहा जाता है।

विवरण व पहचान :

लंबाई में 12 ईंच (30 से.मी) का यह एक बहुत सुंदर पक्षी है। इसका आकार लगभग मैना जैसा होता है। इस पक्षी में नर और मादा देखने में एक से ही होते हैं। इसका सारा शरीर पीला-भूरा या हलके बादामी रंग का होता है, जिस पर सफेद और काली धारियां होती हैं। सिर पर एक पंखे के आकार की चोटी होती है जिसे कलगी (Crest) कहते हैं। कलगी इनके सौन्दर्य को बढ़ाती है। कलगी का सिरा काला-सफेद होता है। इस चोटी को यह पंखी की तरह फैला लेता है। शरीर की पोशाक काफ़ी भड़कीली होती है। पंख लाल-सा भूरा-हलके पीले रंग का होता है। पीठ, पंख और पूँछ पर काली-सफेद जेब्रा जैसी धारियाँ होती हैं। गर्दन का अगला हिस्सा बादामी रंग का होता है। जबकि दुम का भीतरी हिस्सा सफेद और बाहरी काले रंग का होता है। इसके पंखों की कलम (Quill) और चोंच काली होती है। इसका पेट सफेद होता है। इसकी फोरसेप यानी चिमटी जैसी जरा सी खुली लम्बी पतली चोंच हलकी सी मुडी हुई होती है, जिससे कि इसे कीडे पकडने में आसानी रहती है। कई लोग इसे वुडपैकर यानि कठफोडवा समझने की गलती करते हैं।

व्याप्ति :

हुदहुद विश्व में सबसे अधिक स्थानों पर पाए जाने वाले दस पक्षियों में से एक है। दक्षिणी यूरोप, अफ़्रीका और पूरे एशिया में पाया जाता है। यह पूरे भारत में पाया जाता है।

अन्य प्रजातियां :

a) U. orientalis – उत्तरी भारत में बहुतायत में पाया जाता है।

b) U. ceylonensis – सिलोन तक पाया जाता है।

c) U. epops – हिमालय के क्षेत्र में प्रजनन करता है और जाड़े के ऋतु में समतल इलाकों में चला आता है। जाड़ों में बंगाल और बिहार के कई हिस्सों में यह देखा गया है।

hudhud116 मार्च 2014 को गांगासागर (प. बंगाल) की यात्रा के दौरान सड़क के किनारे हरी घास के समतल क्षेत्र पर इसे फुदकते देखा। जब यह छोटी-छोटी उड़ान भर रहा था तो इसकी कलगी खुली और फैली थी। जब यह मिट्टी के अन्दर कीड़े आदि का शिकार कर रहा था तो इसकी कलगी सिमटी थी। जब इसके काफी नज़दीक पहुंचा तो उड़ कर भाग गया।

आदत और वास

घने जंगलों में रहना पसंद नहीं करता। इसे गार्डन, बैकयार्ड और हरी घास के मैदान पसंद आते हैं, इसे शहरों, गाँवों में और हमारे आस-पास ही रहना अच्छा लगता है। ज़मीन पर यह आसानी से चहलकदमी करता है और दौड़ता भी है। इसकी उडानें छोटी होती हैं, और कई बार यह फुदक-फुदक कर दौड क़र भी काम चला लेता है। छेड़े जाने पर यह यह पेड़ की शाखाओं या भवनों के ऊपर जा बैठता है लेकिन यह यह ज़मीन पर हरे-भरे मैदानों में ही खाना पसंद करता है। इसका भोजन कीडे और उनके अण्डे और लार्वा-प्यूपा होते हैं। यह अपनी तीखी चोंच से जमीन पर से कीडे चुन कर खाता है। जब यह मिट्टी खोद कर कीडे चुनता है तब इसकी पंखेनुमा क्रेस्ट बंद रहती है, बाक़ी वक्त वह इसे खोलता-समेटता रहता है। हुदहुद किसानों के लिए बहुत ही उपयोगी पक्षी है क्योंकि यह काफ़ी हानिकारक कीड़ों और ज़मीन के भीतर दबी लार्वी को चट कर जाता है, जिन तक दूसरे पक्षी पहुंच ही नहीं सकते। इसकी आवाज बडी अच्छी और सुरीली होती है जो कि इसके नाम से मिलती है, दरअसल इस आवाज से ही इसका नाम हूप्पो पडा होगा। यह हू-पो या हू-पो-पो की लगातार आवाज निकालता है और अकसर कुछ पलों के अन्तर से पाँच मिनट तक यह आवाज क़रता रहता है। हुदहुद धूल से नहाने वाले पक्षियों में से एक है।

प्रजनन :

इसका प्रजनन काल फरवरी से जुलाई तक होता है, लेकिन अधिकांश हुदहुद अप्रैल से मई के बीच अपना घोंसला बनाते हैं। इसके घोंसले बस यूं ही कभी पेड क़े खोखले कोटर में या किसी पुरानी इमारत की दीवारों, छतों की दराद में बने होते हैं। यह घोंसला बनाने में कोई खास मेहनत नहीं करता बस घास-तिनकों, बाल, पत्ते या पंखों, कूडे-क़रकट से अपना घोंसला बनाता है। इसका घोंसला बहुत ही अस्त-व्यस्त, बेढ़ंग और गंदा होता है। जब अंडे देने का वक़्त होता है, तो मादा हुदहुद बहुत ही खराब बदबू विकसित कर लेती है और शायद ही कभी घोंसला छोड़ती है। यह अंडों पर से तब तक नहीं हटती जब तक कि उन्हें फोड़कर बच्चे बाहर नहीं निकल आते। इस दौरान उसके भोजन की व्यवस्था नर ही करता है। जब अंडों के सेती है तो घोंसला कभी साफ़ नहीं करती। सारी गन्दे पदार्थ ज्यों-के-त्यों छोड़े रहती है। इसलिए इसका घोंसला गन्दगी और बदबू से भरा होता है। इसके अण्डे सफेद होते हैं और मादा हूप्पो एक बार में 3 से 10 तक अण्डे देती है। अंडा लंबा अंडाकार और सफेद रंग का होता है। सिरे पर नुकीला भी होता है। इनके बढ़ते चूजे हमेशा भूखे होते हैं और नर और मादा दोनों मिलकर बच्चों को पालते हैं, उन्हें भोजन लाकर खिलाते हैं और शत्रुओं से रक्षा करते हैं। मादा साल में दो बार अण्डे देती है।

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संदर्भ

1. भारतीय वन्य प्राणियों के संरक्षित क्षेत्रों का विश्वकोश – शिवकुमार तिवारी

2. The Book Of Indian Birds – Salim Ali

3. Birds of the Indian Subcontinent – Richard Grimmett, Carol Inskipp and Tim Inskipp

4. Latin Names of Indian Birds – Explained – Satish Pande

5. The Migration of Animals – R. Alviin Cahn*

6. हमारे पक्षी – असद आर. रहमानी

7. The Birds – R. L. Kotpal

8. प्रवासी पक्षी – डॉ. अशोक कुमार मल्होत्रा, श्याम सुंदर शर्मा

9. भारत का राष्ट्रीय पक्षी और राज्यों के राज्य पक्षी – परशुराम शुक्ल

10. A Birds Eye View – Salim Ali , (vol-one) Ed – Tara Gandhi

11. A Birds Eye View – Salim Ali , (Vol-Two) Ed – Tara Gandhi

12. Pashchimbanglar Pakhi – Pranabesh Sanyal & Biswajit Roychowdhury

13. The migration of Birds - Jean *

14. A Poular Handbook of Indian Birds, Hugh Whistler

15. एन्साइक्लोपीडिया – पक्षी जगत – राजेन्द्र कुमार राजीव