-- करण समस्तीपुरी
तोतरी सिंघ और चतुरी सिंघ का चर्चा होते ही उ आल्हा का गीत याद आ जाता था, “अकरा लागा या देहिया में, बीजा चाट गया तलवार। रण का तेगा कबहुँ बाजी रे दुई हाथ खेलो तलवार...॥ सब का शादी गवना हुआ, भैय्या रह गए बारि कुमार। कनिया उपजी नैनागढ़ में वा को सोना पड़ गए नाम...॥”
चौंतीस साल के चतुरी सिंघ का शरीर हट्ठा-कट्ठा था। भुल्ली भैंस के सबा सेर दूध सांझ और सबा सेर सबेरे बिना उबाले छांक लगाकर सबा सौ दंड पेलते थे। उ सस्ती का जमाना भी था। पाव भर देसी घी तो चतुरिया की रोटिये पर चुपड़ा जाता था। आज का आदमी विश्वास नहीं करेगा मगर हमलोग तो देखे हुए हैं। हे... कटही गाड़ी में शीशम के सिल्ली लाद के बैल छोड़ अपने खींच लेते थे दुन्नु भाई।
चतुरी सिंघ कुश्ती के भी नामी खिलाड़ी। जब हुंकार भर के अखाड़ा में कूदते थे तो पूरा जवार गनगना जाता था। जौन अटैक पर रहे तब दे धोबिया-पछाड़। चाकर-चौरस पहलवान चार मिनिट में चारो-खाने चित। वैसे खेल खेलाने में भी बेजोर थे। देस-परदेस के सब पहलवान के दांव-पेंच का जवाब था उनके पास...। जवाब अगर नहीं था तो बस ई बात का, “बौआ....! ब्याह कब करोगे?” बेचारे बड़े शरमा कर कहते थे, “पहिले भैय्या का करि लें फिर...। पहिले भौजाई तब लुगाई...।” यही एक मिसरा में एक युग खेप गए सिंघजी।
गंगा किनारे का गाँव भगीरथपुर। उहां का लोहना पहलवान स्वयंबर का घोषणा कर दिया। जौन कुश्ती में उको पछाड़ देगा उकी बहिनिया बागमती वही से बियाहेगी। बंगाल से लेकर बनारस तक के पहलवान का जुटान।
लोहना पहलवान का देह-दशा तो जबदगर नहीं था मगर जो भी था सच्चे में लोहे जैसा और फ़ुर्ती तो बाप रे बाप...! बिजलियो से तेज। केतना पहलवान तो जब तक हाथ मिलाए तभिये में चित।
गंगा मैय्या के घाट पर तीन दिन तक भोर से लेकर सांझ तक दंगल चलता रहा मगर लोहना को चित करे वाला कौनो माई का लाल नहीं हुआ। ससुर ऐसन-ऐसन पेंच देखाए कि पहलवान गिरें दांत निपोर के और दर्शक मारे पिहकारी ताली फोर के। दुई दिन से चतुरिया भी तमाशा देख रहा था मगर गया नहीं अखाड़ा में। शायद दांव परीख रहा होगा।
चौथा दिन एक पहर बीत गया। लोहना वैसहि अखाड़ा में लहलहा रहा था। आज लोहना का टक्कर है मगहिया पहलवान से। ऊं... हूँ...! मगहिया पहलवान भी बराबर का टक्कर दे रहा है। ओ देखो... दोनो के बांहों में मछलियां कैसे पड़ रही हैं...! लगता है जैसे भीम-जरासंध का मल्ल-जुद्ध हो। हई देखो...! मगहिया ने मारा छिटकी...! ओह तोरी के...! लोहना तो हवे में चक्करघिरनी घूम गया। आइ हो दद्दा...! हई ई को कहते हैं लोहना पहलवान। ससुर हवे में घूम के मगहिया के गर्दन में टंगरी फ़ंसाया और दे धराम पटका... कलेजा पर सवार...! जौन लोहना एक बार कलेजा पर चढ़ जाए तो फिर हल्दी-चूना बोला के ही दम लेगा।
लोहना पहलवान जिंदावाद...! दे ताली, पिहकारी और लोहना के जयजयकार। लोहना भी आँख ललाकर बोला, “अरे है कोई माइ का लाल तो आ बढ़ के... सब हिजरा है तो बजा ताली और भरुआ है तो देख जा कोठे पे....! लोहना अखाड़ा में चारो दिश घुम-घुम के हुंकार भर रहा था।
चतुरिया सारा तमाशा देख रहा था। चुपचाप उठा और पहिले गंगाजी मे डूबकी। और दौड़ते हुए आया और “बोल गंगिया माई की जै...” करते हुए अखाड़ा में कूद के बालू में लोट गया। पूरा देह बालुए-बालू। उठा लोहना से हाथ मिलाया और फिर शुरु मल्ल-जुद्ध।
हाँ...! ई है जोर का पहलवान। दर्शकों को खूब मजा आ रहा था। लोहना का काट चतुरी के पास और चतुरी का काट लोहना के पास। घंटा भर तक गुत्थम-गुत्थी। एक बार इधर का दर्शक उछले, “हई देखो... लोहना का दाव...!” तो अगली वार उ तरफ़ के दर्शक कहे, “वाह खिलाड़ी... किला हिला दो भगीरथपुर के।” खूब उठा-पटकी हुआ मगर... चित कौनो नहीं हो रहा था।
अचानके चतुरी का दाव उपर हुआ कि पहलवान खट से लोहना का डांर पकड़ के लगा गोल-गोल करिया-झुम्मर खेलाय। अब लगा कि खेल खतम हुआ कि धायं से लोहना चतुरी के गर्दन में दोनों हाथ फ़ंसाकर पैरों को ऐसन झटका दिया कि चतुरिया फ़ेंकाया पूरब और लोहना अपने पच्छिम। फिर बीच में दुन्नु में गलबहियां। लेकिन चतुरी सिंघ के ताकत को भी मानना पड़ेगा। एक हाथ लोहना के गर्दन में दूसरा हाथ पीठ पर ऐसे दबाए कि बेचारा लोहना टें बोल गया। खटाक दे पटकनिया चित और दस तक के गिनती और फिर... चतुरी सिंघ की जय-जयकार।
लोहना की आँखों में आँसू छलक आए। हार के नहीं खुशी के। बहन के हाथ पीले होने की खुशी के। उसे बगमतिया के लिये योग्य वर मिल गया था। दोनों गले मिले। गंगाजी में स्नान किये। फिर लोहना के देहरी पर चूरा-दही के भोजन। लोहना आदर के साथ चतुरी को बागमति का हाथ सौंप रहा था मगर चतुरी ने मना कर दिया, “नहीं भाईजी...! हमरे बड़े भैय्या अबहि कुमारे हैं। पहिले भैय्या का घर बसा दें...! बागमति आपके पास हमरी अमानत रही।”
“लेकिन उ कब तक तुम्हरा इंतिजार करेगी चतुरी?... वैसे तुम तो वीर भलमानस हो मगर आज-कल किसका भरोसा है....?” चतुरी लोहना को फिर से खींच लाया था गंगा किनार। घुटना भर पानी में खड़े हो चुल्लू में गंगाजल भर के बोला, “भरोसा करिए भाई जी...! हम जल्दिये भैय्या क घर बसा के बागमति के साथ ब्याह कर दोनो पराणी गंगा मैय्या को पूजेंगे। ई हमरा परतिगिया रहा कि अब गंगा नहाएंगे तो गेठी जोरिये कर।”
दुनु जने लोहना के घर आए। पान-सुपारी हुआ। फिर चतुरी अपना मिरजई पहन और लाठी उठाकर चलने लगा तो लोहना ने उसे गले लगा लिया। चतुरी चल दिया। जाते हुए चतुरी को बागमती अपने फ़ुसही घर के फ़ाटक वाले खिड़की से एकटक निहार रही थी। चतुरी भी एकाध बार पलट कर देखा था। शायद बागमति की लोराई आँखों में अधीर निमंत्रण था और चतुरी की आँखो में मूक आश्वासन।
रेवाखंड पहुँचते ही चतुरी रिश्ता-नाता, यार-दोस्त, पाहुन-कुटुम, गांव-जवार सब में बात छिटवा दिया...! तोतरी सिंघ का ब्याह करना है छः महीना के भीतर। दान-दहेज का कौनो लफ़रा नहीं...। दोनों खर्च एहि तरफ़ से।
चतुरी की आँखों से बागमति का चेहरा ओझल होने का नाम नहीं ले रहा था। महीना लगते-लगते कौनो बहाना से एक बार फिर से घूम आया था भगीरथपुर। इधर महीना पर महीना बीता जा रहा था तोतरी के लिये कहीं से रिश्ता का कौनो उम्मीदे नहीं।
संयोग से बीच में कातिक महीना पड़ गया था। गंगा-स्नान के बहाने भगीरथपुर जाने का मौका लग गया। ई बार तो पूरा गुरूप गया था। लेकिन चतुरी सिंघ गंगा नहिये नहाए। झिगुनिया बहुत जिद किया तो बोले, “नहीं रे दोस्त! हम कीरिया खाए हैं कि जब तक दोनो भाई का बिआह नहीं हो जाता गंगा नहीं नहाएंगे। गंगा माई का कीरिया... झिगुनी, पचुआ, बकटु सब मान गए।
लौटती में लोहना के घर भी गए थे। बागमती और लोहना ने सबका बड़ा मान आदर किया था। लोहना ने चतुरी को याद दिलाया कि अब तो छः महीना बीतने वाले हैं। वो बागमती का हाथ पकड़ कर उसे अपना वचन निभाने का मौका दे। चतुरी तोतरी सिंघ के ब्याह का हील-हवाला दिया मगर लोहना के अनुनय-विनय और इस डर कि बागमति का ब्याह कहीं किसी और से न हो जाए... उसने उसी रात ब्याह की अनुमति दे दी।
ब्याह हो गया। झिगुनी, पांचू, बकटु, फटाकी, लोहना और भगीरथपुर के लोग चतुरी और बागमति के ब्याह के साक्षी बने। लोहना के आग्रह पर चतुरी सिंघ ससुराल में ही रह गए। फटाकी भी रुक गया था। बांकी दोस्त के साथ भगीरथपुर के पंडीजी टपकू मिसिर न्योत लेकर चले आए रेवाखंड।
चतुरी के ब्याह का खबर सुनकर रेवाखंड में उल्लास हो गया। वर-दुल्हिन को विदाकर लाने की तैय्यारी शुरु हो गयी। किसी को तोतरी के ब्याह की सुध भी न रही... खुद तोतरी को भी नहीं।
उ गांव के टपकू मिसिर और रेवाखंड के लपकू झा दोनों मिलकर लगन उचार दिये। गीत-नाद के साथ पांचो जन चले वर-दुल्हिन को विदा कराने गंगा पार। लोहना ने अपने औकात के अनुरूप बड़ा सत्कार किया। अगली सांझ में विदाई का मुहुरत था।
गंगा तट आते ही चतुरी को गंगा माई से अपना वादा याद आ गया। दुई मिनिट लोहना और पंडीजी से बतियाया और फिर फ़टाफ़ट टपकू मिसिर इरिंग-भिरिंग मंतर पढ़ाते रहे और चतुरी-बागमती नमो-नमो कर के गंगाजी में फूल-अच्छत फ़ेंकते रहे। पूजा हुई फिर पंडीजी की आग्या से जय-जय गंगा करते हुए डूबकी लगाए। गंगा में डुबकी लगाते हुए चतुरी झिगुनिया को देख रहा था और झिगुनिया चतुरी को...! आँखों ही आँखों में कुछ बात हुई और झिगुनिया मुँह घुमाकर हँसने लगा।
गंगा मैय्या को पूजकर वर दुल्हिन को ले कुटुम्ब नाव पर गंगा पार करने लगे। लोहना खुदे नैय्या खेव रहा था। मौका लगते ही झिगुनिया ने पूछ ही लिया चतुरी से, “का रे भइबा...! कातिक पुरनिमा में तो बड़ा किरिया खाए रहे गंगा नहाए से...!” झिगुनिया की बात अभी जारी ही थी कि चतुरी बड़ी चतुराई से बोला, “अरे छोड़ न यार...! कीरिया तो खाए ही रहे.. मगर अब का करें... लगता है कि भैय्या के हाथ में बिआह का रेखे नहीं बना है... नहीं पूरा तो आधा सही...! भैय्या का नहीं मगर अपना ब्याह तो हुआ... अब पुरान बात छोड़ो और बोलो गंगा माई की जय!
झिगुनिया भी चोटा के बोला था, “हाँ रे कलजुगी लछमन भाई...! किरिया खाया था कि पहिले भैय्या का बिआह करेगा... और इधर अपना ब्याह हुआ कि जय गंगा...! मतलब कि अपना मतलब निकल गया तो बात खतम...! अरे कछु दिन और इंतिजार करि लेते... भैय्या का भी जोड़ा लग जाता तब गंगा पुजाते...! मगर चतुरी सिंघ तो निकले बड़े चतुर, “अपना बिआह हुआ जय-गंगा।” चुप कराने की गरज से चतुरी सिंघ आँख दबाते हुए झिगुनिया के कमर चिकोंटी काट लिये थे।