मंगलवार, 29 नवंबर 2011

अंक-4 भगवान परशुराम


अंक-4
   भगवान परशुराम

आचार्य परशुराम राय

भगवान परशुराम के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है भगवान राम से भेंट। महर्षि वाल्मीकि कृत आर्षरामायण (वाल्कमीकि कृत रामायण) के अनुसार महाराज दशरथ अपने चारो पुत्रों-राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का विवाह करने के बाद जब बारात लेकर जनकपुर से अयोध्या वापस लौट रहे थे, रास्ते में उनका सामना भगवान परशुराम से हुआ था। उस समय के उनके स्वरूप का वर्णन करते हुए महर्षि वाल्मीकि कहते हैं-
  ददर्श   भीमसंकाशं   जटामण्डलधारिणम्। भार्गवं जामदग्न्येयं राजा राजविमर्दनम्।।
  कैलासमिव  दुर्धर्षं  कालाग्निमिव दुःसहम्। ज्वलन्तमिव तेजोभिर्दुर्निरीक्ष्यं पृथग्जनैः।।
  स्कन्धे चासज्ज्य परशुं धुर्विद्युद्गणोपमम्। प्रगृह्य शरमुग्रं च त्रिपरघ्नं यथा शिवम्।।
     अर्थात् (उस समय राजा दशरथ ने) जटामण्डलवाले और क्षत्रिय राजाओं का मान-मर्दन करनेवाले भयंकर भृगुकुलनन्दन जमदग्निकुमार को देखा। वे कैलास के समान दुर्जय और कालाग्नि की तरह दुःसह प्रतीत हो रहे थे। अपने तेजोमण्डल से इतने प्रदीप्त हो रहे थे कि सामान्य लोगों के लिए उनकी ओर देखना भी कठिन था। उनके कंधे पर परशु से सुसज्जित, हाथ में विद्युद्गण के तुल्य धनुष धारण किए हुए और भयंकर बाण लिए हुए त्रिपुर-विनाशक साक्षात् शिव के समान लग रहे थे।  

     महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं कि भगवान परशुराम को देखकर जपहोम-परायण महर्षि वशिष्ठ आदि प्रमुख विप्र एकत्र होकर परस्पर विचार करने लगे कि ये पितृ-वध के क्रोध के वशीभूत होकर कहीं फिर क्षत्रिय संहार न कर डालें, वैसे अब प्रतिकार की भावना से ये मुक्त चुके हैं, क्षत्रियों का संहार अब इनका अभीष्ट नहीं होना चाहिए, फिर भी कुछ कहना कठिन है आदि-आदि। फिर उनलोगों ने उन्हें उचित अर्घ्यदान देकर उनसे प्रेम पूर्वक बातचीत की।

ऋषियों द्वारा प्रदत्त अर्घ्य को भगवान परशुराम स्वीकरकर राम से बोले कि हे दशरथनन्दन राम, मैंने आपके अद्भुत पराक्रम को सुन रखा है, आपके द्वारा भगवान शिव की धनुष तोड़ने का समाचार भी सुन चुका हूँ। मेरी इस वैष्णव धनुष पर बाण चढ़ाइए, ताकि आपके बल का अनुमानकर आपसे आवश्यक द्वन्द्व युद्ध कर सकूँ। उनकी इस तरह की बातें सुनकर महाराज दशरथ ने दोनों हाथ जोड़कर अनुनय-विनय करते हुए उनसे अनुरोध किया कि आप भृगुकुल में उत्पन्न महान तपस्वी और ज्ञानी हैं, क्षत्रियों पर आपका रोष अब शान्त हो चुका है, आपने इन्द्र के सामने प्रतिज्ञा करके शस्त्रों का परित्याग कर दिया है। अतएव मेरे बालक पुत्रों को अभयदान देने की कृपा करें। यदि आपका क्रोध केवल राम पर है, तो उनके मारे जाने पर भी हम सभी अपने प्राण त्याग देंगे।

भगवान परशुराम ने जिस धनुष को चढ़ाने की बात की है, उसका विवरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है कि विश्वकर्मा ने दो श्रेष्ठ और दिव्य धनुषों का निर्माण किया था, जिनमें से एक को देवताओं ने भगवान शिव को त्रिपुरासुर से युद्ध करने के लिए दिया था और दूसरा धनुष भगवान विष्णु को दिया था। एक बार देवताओं ने ब्रह्मा जी से पूछा कि भगवान विष्णु और शिव दोनों में कौन अधिक शक्तिशाली है। अतएव ब्रह्मा जी को इन दोनों देवताओं में विरोध उत्पन्न करना पड़ा। परिणाम स्वरूप दोनों में भयंकर युद्ध हुआ और भगवान  विष्णु के हुंकार से भगवान शिव स्तंभित हो गए और धनुष शिथिल पड़ गया। अंत में ऋषियों और देवताओं के द्वारा शान्ति याचना के बाद दोनों शान्त हुए। क्रोधाभिभूत भगवान शिव ने अपनी धनुष विदेह देश के राजर्षि देवरात को दे दिया और भगवान विष्णु ने अपनी धनुष भृगुवंशी महर्षि ऋचीक को दे दिया। जो धनुष भगवान राम ने तोड़ी थी, वही शिव की थी और दूसरी भगवान परशुराम के पास, जिसे वे चढ़ाने के लिए राम को ललकारे।

भगवान परशुराम की ललकार को सुनने के बाद भगवान राम ने उनसे कहा कि हे भृगुनन्दन, मैंने भी आपके विषय में बहुत कुछ सुन रखा है- कैसे आपने अपने पिता के वध का बदला लेने के लिए क्षत्रियों का संहार किया और हमलोग भी उसका अनुमोदन करते हैं। मैं क्षत्रिय हूँ और आप ब्राह्मण हैं। इसलिए नम्रतावश मैं कुछ नहीं बोल रहा हूँ। फिर भी आप पराक्रमहीन और असमर्थ मानकर मेरा बार-बार तिरस्कार कर रहे हैं। यह कहकर उन्होंने परशुराम जी के हाथ से धनुष और बाण लेकर उसपर बाण चढ़ा दिया, और कुपित होकर वे बोले कि हे भृगुन्दन राम, ब्राह्मण होने के नाते आप मेरे पूज्य हैं और महर्षि विश्वामित्र के सम्बन्धी भी हैं, अतएव इस प्राण घातक बाण से मैं आपके ऊपर प्रहार तो नहीं कर सकता। तो अब क्यों न शीघ्रता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जानेवाली आपकी शक्ति अथवा तपोबल से प्राप्त आपके पुण्यलोकों इस बाण से नष्ट कर दूँ। क्योंकि शत्रुनगरी को ध्वस्त करनेवाला भगवान विष्णु का बाण कभी भी निष्फल नहीं हो सकता। महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं कि धनुष-बाण भगवान राम के हाथ में जाते ही भगवान परशुराम का वैष्णव तेज उनके शरीर से निकलकर राम के पास चला गया और परशुराम जी निस्तेज और बलहीन हो गए।

इसके बाद भगवान परशुराम ने उनसे कहा- हे रघुन्दन, सारी पृथ्वी दान करने के बाद मेरे गुरु कश्यप जी ने कहा था कि मुझे उनके राज्य से निकल जाना चाहिए। मैंनें रात में पृथ्वी पर न रहने की उनके सामने प्रतिज्ञा की थी और तभी से मैं रात में पृथ्वी पर निवास नहीं करता। इसलिए आप मेरी मन की गति से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की शक्ति को छोड़कर मेरे तपोबल से प्राप्त सभी पुण्यलोकों अविलम्ब नष्ट कर दें। हे रघुकुलनन्दन, मैं पूरी तरह अब आश्वस्त हो चुका हूँ कि आप मधु नामक राक्षस का बध करनेवाले साक्षात् भगवान विष्णु हैं।

अन्त में भगवान राम ने भगवान परशुराम के अर्जित सभी पुण्यलोकों को नष्ट कर  दिया और उनकी पूजा की। इसके बाद परशुराम जी भगवान राम की परिक्रमा करके तुरन्त महेन्द्र पर्वत पर चले गए।

इस घटना ने भगवान परशुराम की उपार्जित सभी आध्यात्मिक उपलब्धियों को छीन लिया। परन्तु उन्हें इसका जरा भी दुख नहीं हुआ। अत्यन्त शान्तचित्त होकर पुनः अपने तपोबल से वे उन्हें अर्जित किए और आज उनकी गणना सात अमर लोगों में होती है-
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमान्श्च विभीषणः।
कृपः  परशुरामश्च  सप्तैते    चिरजीविनः।।
अर्थात् अश्वत्थामा, महाराज बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये सात चिरंजीवी (अमर) हैं।

रामचरितमानस में संत तुलसीदास जी ने इस घटना का वर्णन धनुष के टूटने के तुरन्त बाद किया है और इसमें लम्बा संवाद लक्ष्मण के साथ दिखाया गया है। हनुमन्नाटकम् में परशुराम-राम संवाद का पैनापन रामचरितमानस में देखने को मिलता है। परशुराम-लक्ष्मण संवाद पीयूषवर्षी जयदेव की परिकल्पना है, जो उनके प्रसन्नराघवम् नाटक में देखने को मिलती है। लेकिन इस नाटक में इस संवाद का उतना विशद रूप देखने को नहीं मिलता, जितना रामचरितमानस में। तुलसीदास जी ने प्रसन्नराघवम् के कुछ श्लोकों का बहुत सुन्दर अनुवाद किया है। इसका उल्लेख इसी ब्लॉग पर प्रकाशित एक पोस्ट पर आ चुका है। इसलिए उनकी पुनरावृत्ति न करते हुए इस अंक को यहीं विराम दिया जा रहा है।

अगले अंक में भगवान परशुराम के जीवन के कुछ और घटनाओं के साथ उनकी आध्यात्मिक देन पर चर्चा की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।
******

11 टिप्‍पणियां:

  1. बाल्मिकी रामायण की जानकारी कम ही लोगों को है |आपने अच्छी जानकारी दे कर ज्ञानवर्धन लिया है आभार |
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  2. यह वह कथा -पुराण बिंदु है जहां से परशुराम का पराभव होता है ......वैष्णव प्रभाव का प्राबल्य भी !

    जवाब देंहटाएं
  3. हर विभूति का अपना काल होता है। राम के समय में परषुराम की प्रासंगिकता समाप्त हो चली थी शायद।

    आजकल ब्राह्मण उदय का प्रतीक परषुराम को लेकर कुछ संस्थायें खड़ी होती हैं। पर ब्राह्मण उदय स्वयं में अप्रासंगिक हो गया है! :-)

    जवाब देंहटाएं
  4. श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने इस पोस्ट पर निम्नलिखित टिप्पणी छोड़ी है-

    हर विभूति का अपना काल होता है। राम के समय में परषुराम की प्रासंगिकता समाप्त हो चली थी शायद। आजकल ब्राह्मण उदय का प्रतीक परषुराम को लेकर कुछ संस्थायखड़ी होती हैं। पर ब्राह्मण उदय स्वयं में अप्रासंगिक हो गया है! :-)

    जवाब देंहटाएं
  5. आचार्य जी!
    परशुराम भगवान के जीवन की घटनाएँ और प्रकरण सुनकर बहुत ही अच्छा लग रहा है.. कई बातें जानने को मिल रही हैं और कई बातों की जानकारी परिमार्जित होती जा रही है!! आभार!

    जवाब देंहटाएं
  6. हम तो परशुराम लक्षंमण संवाद जानते थे। आज और भी बहुत कुछ जानने को मिला।

    साथ ही याद आया मेदका में आपके साथ बिताए दिन और वहां खेली गई रामलीला जिसमें मैं दशरथ बना था और आप बने थे परशुराम। किस तरह आप परशुराम की तरह हुंकार भरते थे और ....

    जवाब देंहटाएं
  7. आदरणीय मनोज जी !
    आपका ब्लॉग ज्ञान अर्जित करने का बहुत ही अच्छा माध्यम है !
    सुबह सुबह पढ़ कर मन भी पवन हो जाता है !

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत ही अच्छी पोस्ट..मैं अगले भाग का इंतज़ार कर रहा हूँ अब!!

    जवाब देंहटाएं
  9. 2011/11/30 abhi :
    abhi ने आपकी पोस्ट " अंक-4 भगवान परशुराम " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
    बहुत ही अच्छी पोस्ट..मैं अगले भाग का इंतज़ार कर रहा हूँ अब!!
    abhi द्वारा मनोज के लिए Wednesday, 30 November, 2011 को पोस्ट किया गया

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।