राष्ट्रीय आन्दोलन
143.
अरविंद घोष
अरविन्द घोष एक महान दार्शनिक और राजनीतिक चिन्तक थे। इन्होंने
युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लिया, किन्तु बाद में यह एक योगी बन गये और पांडिचेरी में आश्रम स्थापित किया। उन्होंने वेद, उपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीका लिखी। योग साधना पर मौलिक
ग्रन्थ लिखे। उनकी
साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाये जाते हैं।
उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 को कृष्ण-जन्माष्टमी की पावन तिथि
को कलकत्ता में हुआ था। इनके पिता कृष्णधन घोष एक डाक्टर थे। उनकी माता का नाम स्वर्णलता देवी और पत्नी का
नाम मृणालिनी था। 5 वर्ष की उम्र में उन्हें दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में दाखिला कराया गया। लेकिन दो साल बाद
ही शिक्षा प्राप्ति के लिए मात्र 7 वर्ष की उम्र में 1879 में ही इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया गया। 18 साल की उम्र में सेंट पॉल से उन्होंने
स्कूली शिक्षा पूरी की। उच्च शिक्षा के लिए 1890 में उन्होंने कैम्ब्रिज
विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। अरविंद घोष ने कैम्ब्रिज में रहते हुए न सिर्फ
आईसीएस के लिए आवेदन किया, बल्कि 1890 में
भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। लेकिन घुड़सवारी के जरूरी
इम्तिहान को पास न कर पाने के कारण उन्हें सिविल सेवा में प्रवेश नहीं मिला। लन्दन
में उन्होंने कमल और कटार नामक संस्था की सदस्यता ग्रहण की और देशसेवा का व्रत
लिया।
उन्होंने विश्व की अनेक भाषाओं (अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक एवं इटैलियन) का गहन अध्ययन किया था। भारत आकर
उन्होंने राजनीति में दिलचस्पी लेना शुरू किया। उनकी प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे अतः उन्होंने इन्हें
अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। इसी बीच मृणालिनी नाम की कन्या से विवाह भी हो
गया। बडौदा में उन्होंने हजारों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया। 1896 से 1905 तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में विभिन्न पदों पर
कार्यरत रहते हुए रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था।
हजारों युवकों को उन्होंने क्रान्ति की दीक्षा दी थी।
1902 में अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में तिलक से मिले।
बालगंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित होकर वह राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े। 1905
में जब बंगाल में बंग-भंग
आन्दोलन शुरू हुआ और विभाजन के विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द घोष
ने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। 1906 में जब बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना हुई
तो अरविन्द उसके प्राचार्य हुए। मात्र 75 रुपये मासिक पर इन्होंने वहाँ
अध्यापन-कार्य किया।
उन्हें उदारवादी कांग्रेसी नीति में विश्वास नहीं था। वह
उसकी आलोचना किया करते थे। 1893 में सबसे पहले अरविन्द घोष ने बंबई से प्रकाशित होने वाली ‘इंदुप्रकाश’ में कांग्रेस की नीतियों की आलोचना की।
उन्होंने लिखा, “मैं तब कांग्रेस के बारे में यह कहता हूँ कि उसके लक्ष्य गलत हैं और उनकी
प्राप्ति के लिए वह जिस भावना से चलती है, वह ईमानदारी और तहेदिल की भावना नहीं है। उसने
जिन तरीकों को चुना है, वे सही तरीके नहीं हैं और जिन नेताओं में वह विश्वास करती है, वे नेता बनने के योग्य व्यक्ति नहीं हैं।
संक्षेप में, हम इस वक़्त उन अंधों की तरह हैं, जिनका नेतृत्व अगर अंधे नहीं, तो काने ज़रूर करते हैं।” घोष साम्राज्यवाद से समझौता करने की नीति छोड़कर संघर्ष का रास्ता अपनाना चाहते
थे।
नरम दलीय राजनीति की समीक्षा करते हुए 1893-94 में अरविन्द
ने ‘न्यू लैम्प्स फॉर ओल्ड’ शीर्षक के अंतर्गत लेखों की एक शृंखला प्रकाशित
की। तब वह बडौदा में रहते थे। वह इंग्लैण्ड से अत्यधिक अंग्रेजी वातावरण में
पल-बढ़कर भारत लौटे थे। वह अंग्रेजी तौर-तरीकों के खिलाफ प्रतिक्रिया दर्शाने लगे।
अरविन्द ने प्रगति के धीमे और संवैधानिक ब्रिटिश आदर्श का निषेध किया। नरमदल इस
ब्रिटिश आदर्श का समर्थक था। उन्होंने कांग्रेस की ‘भिखमंगी’ नीति पर प्रहार किया। उन्होंने कहा था, “ब्रिटिश राज के वरदानों की बात आवश्यकता से कुछ
अधिक ही की जाती है”। उनका मानना था कि सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या थी
‘मध्य वर्ग’, जिसका
प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती थी, और ‘सर्वहारा’
के बीच कड़ी स्थापित करने की। वे राष्ट्रीय आन्दोलन को सर्वहारा के कुशल प्रबंध पर
आधारित करना चाहते थे। सर्वहारा से उनका तात्पर्य था शहर और देहातों में रहने वाले
आम लोगों से था। इसका ह्रदय जीतने की कुंजी वे बंकिमचंद्र के निबन्धों में
प्रतिबिंबित हिन्दू पुनरुत्थान में ढूँढते थे।
वह बंकिमचंद्र और विश्व के महान क्रांतिकारियों से अत्यंत
प्रभावित थे। आनंदमठ से प्रेरणा लेकर उन्होंने भारतमाता की पूजा और ‘वंदे
मातरम्’ को
अपना आदर्श बनाया। वह क्रान्तिकारी भावना के प्रचारक थे और गुप्त समितियों से
संबद्ध थे। उन्होंने अपने समाचारपत्र ‘वंदे मातरम्’ द्वारा घर-घर क्रांति का संदेश पहुँचाया। वंदे
मातरम् में ब्रिटिश के खिलाफ लिखने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन वह
जल्द ही छूट गए।
स्वदेशी व बहिष्कार आन्दोलन को वह स्वराज्य प्राप्ति का
मार्ग बनाना चाहते थे। वह इस आन्दोलन को पूरे देश में फैलाना चाहते थे। 1902 के
आसपास अरविन्द घोष की सलाह पर उनके भाई बारीन्द्रनाथ घोष ने जतीन्द्रनाथ बनर्जी के
साथ कलकत्ता में अनुशीलन समिति की स्थापना की। इसे समूह ने 1906 में ‘युगांतर’
नामक साप्ताहिक निकलना शुरू किया।
अरविन्द घोष एक उग्र राष्ट्रवादी थे। कांग्रेस के विभाजन
में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने रूस के आतंकवादी ढंग से आक्रामक
प्रतिरोध का निश्चय किया। उन्होंने सन् 1907 में राष्ट्रीयता के साथ भारत को "भारत माता" के रूप में वर्णित और
प्रतिष्ठित किया। उन्होंने बंगाल में "क्रांतिकारी दल" का संगठन किया और
उसका प्रचार और प्रसार करने को अनेक शाखाएं खोली और वे स्वयं उसके प्रधान संचालक
बने रहे। खुदीराम
बोस और कनाईलाल दत्त, यह क्रांतिकारी उनके संगठन के ही क्रांतिकारी
थे। इन
गतिविधियों के कारण अरबिंदो घोष अधिक दिनों तक सरकार की नज़रों से छिपे नहीं रह
पाये और उन्हें फिर से जेल जाना पड़ा। 2 मई 1908 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक क्रान्तिकारी
षड्यंत्र अलीपुर बम कांड में वह और उनके भाई बारीन भी अभियुक्त बनाए गए, लेकिन
चित्तरंजन दास की जिरह से मुक्त हो गए। मानिकतल्ला के इन क्रांतिकारियों अरविन्द
घोष, उनके भाई बारीन्द्र
घोष और अन्य लोगों को गिरफ्तार कर अलीपुर में उन पर षड्यंत्र के आरोप में मुक़दमा
चलाया गया, जिसे अलीपुर
षड्यंत्र केस के नाम से जाना जाता है। मुक़दमे के दौरान एक क्रांतिकारी नरेन्द्रनाथ
गोसाईं सरकारी गवाह बन गया। अलीपुर जेल के अहाते में ही क्रांतिकारी कन्हाईलाल
दत्त और सत्येन्द्र बोस ने गोली मारकर उस मुखबिर की हत्या कर दी। मुक़दमे की पैरवी
कर रहे वकील, पुलिस दारोगा और
डिप्टी पुलिस सुपरिंटेंडेंट की भी हत्या कर दी गयी। इससे बहुत सनसनी फैली। 6 मई 1909 को अरविन्द घोष तो रिहा हो गए लेकिन अनेक
अभियुक्तों को फांसी की सज़ा दी गई। मुखबिर की हत्या करने वाले कन्हाईलाल दत्त और
सत्येन्द्र बोस को फांसी की सज़ा दी गई। बारींद्र घोष को कालापानी की सज़ा दी गयी।
अनुशीलन समिति अवैध घोषित कर दी गई। घोष एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद थे। अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक
अनुभूति हुई। वह जेल की कोठरी में अपना समय साधना और तप में बिताते थे। गीता पढ़ते
और श्रीकृष्ण की आराधना करते। कहा जाता है कि अलीपुर जेल में उन्हें भगवान
श्रीकृष्ण के साक्षात दर्शन हुए।
साधना में वह इतना रमे कि अरविन्द घोष ने सक्रिय राजनीति से
संन्यास ले लिया। उन्होंने राजनीति को त्याग, धर्म को अपना लिया। 1910 में वह
कलकत्ता छोड़कर पौण्डिचेरी चले गए। पांडिचेरी फ्रांसीसी उपनिवेश था। इसके बाद श्री घोष ने अपना सारा समय आध्यात्मिक
चिंतन में लगाया। उन्होंने काशवाहिनी नामक रचना की। उन्होंने अपना पूरा जीवन समग्र
योग को समर्पित कर दिया, जो समग्र विकास की ओर ले जाता है। उन्होंने 1926 में पांडिचेरी में आध्यात्मिक साधकों का एक समुदाय स्थापित किया, जिसका नाम श्री अरबिंदो आश्रम (ऑरोविले) रखा
गया। उन्होंने नव्य वेदांत दर्शन को प्रतिपादित किया। पुद्दुचेरी में उनकी भेंट मीरा अल्फासा से हुई और उनके आध्यात्मिक सहयोग से “योग समन्वय" हुआ। इसके अनुसार आध्यात्मिक विकास के माध्यम से संसार को ईश्वरीय अभिव्यक्ति
के रूप में स्वीकार किया जाता है। अरविन्द घोष का मानना था कि पदार्थ, जीवन और मन के मूल सिद्धांतों को स्थलीय विकास
के माध्यम से सुपरमाइंड के सिद्धांत द्वारा अनंत और परिमित दो क्षेत्रों के बीच एक
मध्यवर्ती शक्ति के रूप में सफल किया जाएगा। उनका पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र पर बहुत
प्रभाव रहा है। वेद और पुराण पर आधारित महर्षि अरविन्द के विकासवादी सिद्धांत की
काफी चर्चा हुई।
5 दिसंबर, 1950 को पोंड़ीचेरी (पुद्दुचेरी) में उनका निधन हो
गया। कहा जाता है कि निधन के बाद चार दिनों तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा
बने रहने के कारण उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया। अंततः 9 दिसंबर को उन्हें
आश्रम में समाधि दी गयी। भारत की स्वतंत्रता के अग्रदूत, क्रांतिकारी, कवि, लेखक, दार्शनिक, ऋषि, मंत्रद्रष्टा एवं महान योगी श्री अरबिंदो घोष को "भारतीय राष्ट्रवाद का पैगंबर" कहा जाता है। उनका प्रथम संदेश था कि मानव
सांसारिक जीवन में भी दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है।
उनकी प्रमुख कृतियां हैं, एस्सेज़ ऑन गीता (1928), द लाइफ़ डिवाइन (1940), कलेक्टेड पोयम्स एण्ड प्लेज़ (1942), द सिंथेसिस ऑफ़ योगा (1948), द ह्यूमन साइकिल (1949), द आईडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी (1949), ए लीजेंड एण्ड ए सिंबल (1950), ऑन द वेदा (1956), द फ़ाउन्डेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर, लेटर्स ऑन
योगा, काव्य कृति सावित्री, फ्यूचर पोयट्री और द मदर हैं। भारतीय संस्कृति के बारे में महर्षि अरविंद ने फाउंडेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर
तथा ए डिफेंस ऑफ़ इंडियन कल्चर नामक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की।
इस महामानव के जीवन से जुड़ी बातें हर प्रबुद्ध
भारतवासी के अंतस में राष्ट्र निर्माण की अनूठी प्रेरणा भर देती हैं। अरविंद घोष
एक व्यक्ति न होकर प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति थे। बीसवीं सदी के पहले दशक में पूर्ण
स्वराज, निष्क्रिय प्रतिरोध
और ग्राम स्वराज जैसे विचार देने वाले श्री अरविंद ही थे। ब्रिटिश राज को उनकी कलम
से इतना खौफ था कि तत्कालीन वायसराय ने सचिव को पत्र में लिखा, “भारत में फिलहाल अरविंद घोष सबसे खतरनाक व्यक्ति है, जिससे हमें निपटना है।” श्री
अरविंद ने राष्ट्र को शक्ति का स्वरूप माना और लोकमानस से राष्ट्र को ‘मां’ की तरह
पूजने का आह्वान किया। राष्ट्र को सबल, संपन्न और महान बनाने के लिए भारतीय युवाओं से सच्चे भारतीय
होने और आंतरिक स्वराज प्राप्त करने का आह्वान किया। उन्होंने भारत को ईश्वर
द्वारा सौंपे गये दायित्व और भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म को देखने की दृष्टि दी
थी। अरविंद का मानना था कि भारत को भारतीय बनकर ही बनाया और बचाया जा सकता है। श्री
अरविंद का दावा था कि इस युग में भारत विश्व में एक रचनात्मक भूमिका निभा रहा है
तथा भविष्य में भी निभायेगा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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