सोमवार, 4 नवंबर 2024

126. “भाई” के नाम से संबोधन

 गांधी और गांधीवाद

 

126. भाई के नाम से संबोधन

 

उन दिनों दक्षिण अफ़्रीका में डेढ़ लाख भारतीय बसते थे। ज़्यादातर लोग खदानों में काम करते थे। कई गन्ने के खेतों में मज़दूरी करते थे। इन्हें गिरमिट कहा जाता था। इन भारतीयों की स्थिति ग़ुलामों के समान थी। वह एक ऐसा ज़माना था जब भारत में कुछ लोगों को अस्पृश्य माना जाता था। अपनी आत्मकथा में गांधीजी बताते हैं कि ऐसे लोगों को गांव से बाहर अलग रखा जाता था। गुजरात में उनकी बस्ती को ढेड़वाड़ा कहा जाता था। इसी प्रकार यूरोप के ईसाई समाज में एक ज़माना ऐसा था, जब यहूदी लोग को अस्पृश्य माना जाता था और उनके रहने की बस्ती को घेटो कहा जाता था। दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों की वही स्थिति थी। वहां भारतीयों को कुली कहा जाता था। उनके गोरे मालिक उनको असंस्कारित गंदे जानवर समझते थे। उनके रहने के लिए जो बस्ती थी, उसे कुली लोकेशन कहा जाता था। ट्रांसवालर्स के बीच ‘कुली लोकेशन’ शब्द पहले से ही आम इस्तेमाल में था। यह कॉलोनी में रहने वाले भारतीय बसने वालों के प्रति गोरे लोगों की घृणा को दर्शाता था। जोहान्सबर्ग में ऐसा एक 'लोकेशन' था। इस लोकेशन में जमीन 99 वर्ष के लिए पट्टे पर दी गयी थी। इसमें हिन्दुस्तानियों की आबादी अत्यन्त घनी थी। दूसरी अन्य  जगहों में भी 'लोकेशन' बसाये गये थे। वहां रहने वाले ज़्यादातर भारतीय अज्ञानी और गरीब थे। एक छोटे से इलाके में आबादी इतनी बढ़ गई थी कि वह संतृप्ति के बिंदु पर पहुंच गई थी।

कुली लोकेशन में रहनेवालों भारतीयों के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं था। दक्षिण अफ़्रीका के गोरे भारतीयों को जड़मूल से निकाल देने के लिए अनेक चालें चलते रहते थे। उनकी एक चाल यह थी कि जोहान्सबर्ग की म्युनिसिपैलिटी ने भारतीय मज़दूरों के, जिन्हें ज़मीन 99 वर्ष के पट्टे पर व रहने की झोपड़ियां दी गई थीं, पट्टों को रद्द कर दिया। यह भूमि अब "अस्वच्छ क्षेत्र आयुक्त की रिपोर्ट" के तहत उनसे छीनी जा रही थी और इसकी कोई गारंटी नहीं थी कि उन्हें जोहान्सबर्ग में किसी अन्य उपयुक्त स्थान पर भूमि का समान अधिकार प्राप्त होगा।इस लोकेशन में भारतीयों की आबादी बहुत घनी थी। म्यूनिसिपैलिटी की ओर से सफ़ाई की कोई खास व्यवस्था नहीं होती थी। सड़क और रोशनी की व्यवस्था की कल्पना भी व्यर्थ थी। इन बस्तियों में धन और धन्धे के लिए बड़ी संख्या में आए लोग रहते थे, जो अपढ़, ग़रीब और दीन-दुखी होते थे। चीजों को ठीक करने के लिए कदम उठाने के बजाय, मौजूदा स्थिति को बसने वालों को उनके पट्टे के अधिकार से वंचित करने का बहाना बनाया गया। इस भारतीय आबादी को किसी दूसरे इलाके में बसाने का विचार था, लेकिन अधिकारियों ने ऐसा करने में विफल रहने के बाद, निवासियों को अनिश्चित काल के लिए वहीं रहने दिया। जब इलाके को नगर परिषद ने अपने अधीन कर लिया, तो और भी भीड़भाड़ और स्वच्छता की निरंतर उपेक्षा के कारण स्थितियाँ और भी बदतर हो गईं। फरवरी 1904 के दूसरे सप्ताह में उन्होंने जोहान्सबर्ग के स्वास्थ्य अधिकारी को पत्र लिखकर बताया कि उस स्थान पर स्वच्छता की स्थिति कितनी खराब है और यह भी स्पष्ट किया कि यदि तत्काल सुधारात्मक उपाय नहीं किए गए तो किसी न किसी तरह की महामारी फैल ही जाएगी। इस चेतावनी के बावजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग ने कोई सुधारात्मक कार्रवाई नहीं की।

आरोग्य की दृष्टि से वहां की स्थिति बेहद ख़राब थी। बीमारी-महामारी को कारण बताकर म्युनिसिपैलिटी ने उस लोकेशन को नष्ट करने का निश्चय किया। बिना मुआवजे के उन्हें हटाना संभव नहीं था। धारा-सभा ने उस ज़मीन पर क़ब्जा करने का अधिकार म्युनिसिपैलिटी को दे दिया। वहां रहने वाले हिन्दुस्तानी अपनी ज़मीन के मालिक थे। इसलिए उनको कुछ-न-कुछ हरजाना देना था। लोकेशन के निवासियों को यह अधिकार था कि वे म्युनिसिपैलिटी की शर्तें मानें या न मानें। उन्हें यह भी अधिकार दिया गया था कि वे म्युनिसिपैलिटी द्वारा तय  किए गए हरजाने के विरुद्ध में अपील कर सकें। हरजाने की रकम निश्चित करने के लिए एक खास अदालत कायम की गई। म्युनिसिपैलिटी जो रकम अदा करने को तैयार होती वह यदि मकान मालिक को स्वीकार न होता तो वह अदालत रकम निर्धारित करती और वही उन मकान मालिकों को लेना होता। किंतु यदि यह रकम म्युनिसिपैलिटी द्वारा निर्धारित रकम से अधिक होता तो म्युनिसिपैलिटी को वकील का खर्च भी देना होता। म्युनिसिपैलिटी इस बात पर आमादा थी कि कुलियों को लोकेशन से निकाला जाए। जो मुआवजा प्रस्तावित था वह नाकाफ़ी था। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि जाएं तो जाएं कहां।

गांधीजी इस स्थान के मामलों में गहराई से शामिल थे, क्योंकि वे कुछ दर्जन निवासियों के कानूनी सलाहकार थे, जो अपने भूखंडों के अधिग्रहण के लिए नगरपालिका द्वारा उन्हें दिए गए मुआवजे से असंतुष्ट थे और अपने मामलों की सुनवाई के लिए नियुक्त विशेष न्यायाधिकरण में अपील कर रहे थे। तय किए गए हरजाने की रकम के विरुद्ध अपील के ऐसे अधिकांश मामलों में मकान मालिकों ने गांधीजी को अपना वकील बनाया था। उन्होंने सत्तर के क़रीब मुकदमे लड़े। इस प्रकार के मामलों में गांधीजी को धन कमाने की इच्छा नहीं थी। गांधीजी ने कह दिया था कि जीतने पर तो म्युनिसिपैलिटी की तरफ़ से पैसा मिलेगा ही, इसलिए उनसे कोई फ़ीस नहीं लेंगे। फिर भी हर पट्टे के पीछे दस पौंड की रकम देना निश्चय हुआ। उसमें से भी आधी रकम ग़रीबों के लिए अस्पताल बनवाने के काम में लगाया जाएगा। यह सुनकर सब ख़ुश हुए। इस तरह के सत्तर मामलों में से सिर्फ़ एक में ही गांधीजी की हार हुई। अधिकांश मुवक्किल बिहार आदि के ग़रीब लोग थे, जो मज़दूरी का काम करते थे। मुक्त होने के बाद वे स्वतंत्र धंधा करने लगे। इन मामलों में न्यायालय का आदेश हुआ था कि बिना मुआवजे के उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता। इसके अलावा यह भी आदेश दिए गए थे कि म्युनिसिपैलिटी ही उनके रहने का वैकल्पिक इंतजाम करेगी। यह उतना आसान काम नहीं था।

इन लोगों ने अपने हितों की रक्षा के लिए एक मंडल का गठन किया। उनके मुखिया का नाम जयराम सिंह था। दूसरे प्रमुख पदाधिकारी का नाम बदरी था। दोनों की तरफ़ से गांधीजी को बहुत सहायता मिली। बदरी ने सत्याग्रह में सबसे आगे रहकर हिस्सा लिया था। इन सब लोगों से गांधीजी की काफ़ी निकटता हो गई। गांधीजी को नाम से बुलाना तो दूर की बात थी, कोई उन्हें साहब भी नहीं कहते। गांधीजी तो उन सबके सलाहकार, अभिभावक और वकील थी। गांधीजी अपने बड़े परिवार में "बापू" के नाम से जाने जाते थे। उनके सहकर्मी उन्हें प्यार से "भाई" के नाम से संबोधित करते थे। दक्षिण अफ़्रीका में जब तक गांधीजी रहे लोग उन्हें भाई से ही संबोधित करते रहे। यह संबोधन सुनकर गांधीजी को असीम प्रसन्नता हुई थी। जब तक वे दक्षिण अफ़्रीका में रहे इसी संबोधन का प्रयोग उनके लिए किया जाता रहा। यह संबोधन उन्हें अपने लिए किए गए अन्य संबोधनों – महात्मा, “बापू – से ज़्यादा प्रिय था। दरअसल महात्मा संबोधन से वे कभी तालमेल बिठा ही नहीं पाए। बापू संबोधन उन्हें अजनबी लगता था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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