राष्ट्रीय आन्दोलन
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सर फिरोजशाह मेरवानजी मेहता
फिरोजशाह मेहता
कांग्रेस के एक प्रभावशाली नेता थे। गांधीजी कहते हैं, “बॉम्बे नगर निगम के शेर थे और मैंने भी कभी-कभी इस
शेर की दहाड़ सुनी है।” उन्होंने सर जॉर्ज
क्लार्क, लॉर्ड हैरिस, भारत के कई वायसराय और
कई राज्यपालों के साथ शेर की कई लड़ाइयाँ लड़ीं। वह दादाभाई नौरोजी के अनुयायी थे।
उनका जन्म 4 अगस्त , 1845 को बॉम्बे सिटी, बॉम्बे प्रेसीडेंसी , में एक गुजराती भाषी पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता मेरवानजी
मेहता एक व्यापारी परिवार से थे, जिनका अधिकांश समय कलकत्ता में गुजरा करता था। एल्फिंस्टन
कॉलेज से स्नातक होने के बाद, फिरोजशाह ने बॉम्बे विश्वविद्यालय से कला में स्नातकोत्तर
की डिग्री प्राप्त की। पारसी समाज में एम. ए. पास
करने वाले फिरोज़शाह मेहता पहले युवक थे।
1860 के दशक
में उन्होंने लंदन के लिंकन इन में वकालत की पढाई करने
के लिए भारत से इंग्लैंड गए थे। वहीँ वह दादाभाई नौरोजी के प्रभाव में आए। इंग्लैंड
में रहते हुए, वे दादाभाई नौरोजी के
घर अक्सर जाते थे, और ये दौरे उनके उदार दृष्टिकोण को आकार देने में महत्वपूर्ण प्रभाव बने रहे।
1868 में वे भारत लौट आए, बार में भर्ती हुए, और जल्द ही एक ऐसे पेशे में अपना मुकाम स्थापित किया, जिस पर तब ब्रिटिश
वकीलों का दबदबा था। राष्ट्रवादी उद्देश्यों के लिए समर्पित वह बंबई के एक बहुत ही
साहसी और मौलिक वकील थे। साक्ष्य अधिनियम के नियमों पर उन्हें महारत हासिल थी।
आरंभ से ही
उनकी अभिरुचि जनसेवा में थी। जनसेवा में उनकी इतनी गहरी रुचि थी कि वे अपने
मुवक्किलों के मुकदमे स्थगित करवा देते थे या अपनी फीस छोड़ देते थे, यहां तक कि बंबई नगर निगम की बैठकों में जाने के लिए भी वे हर तरह की
असुविधा झेलते थे। मुम्बई के कमिश्नर आर्थर क्रॉफ़र्ड का एक क़ानूनी मामले में बचाव करते हुए
उन्होंने स्थानीय शासन के सुधार की आवश्यकता महसूस की और उन्होंने 1872 के बॉम्बे म्यूनिसिपल
एक्ट का मसौदा तैयार किया और इस प्रकार उन्हें 'बॉम्बे म्युनिसिपैलिटी का जनक' माना जाता है। वे 1873 में बॉम्बे नगर पालिका के नगर आयुक्त बने और चार बार इसके
अध्यक्ष बने।
वह बंबई
प्रेसीडेंसी एसोसिएशन के संस्थापक सदस्य थे। जब 1885 में बॉम्बे प्रेसीडेंसी
एसोसिएशन की स्थापना हुई, तो मेहता इसके अध्यक्ष
बने और अपने जीवन के बाकी वर्षों तक इस पद पर बने रहे। उनका नगर में इतना प्रभाव
था कि उन्हें ‘मुम्बई का मुकुटहीन राजा’ कहा जाता था। वे बंबई के ही नहीं बल्कि पूरे भारत के बेताज बादशाह थे - एक ऐसा राजा जिसे प्रजा ने स्वयं चुना
था। वे हर सार्वजनिक मुद्दे पर नेतृत्व करते थे और लोगों को उन पर इतना भरोसा था
कि वे जो भी उनसे करवाना चाहते थे, वे करते थे। बंबई शहर के ही नहीं, बल्कि पूरे प्रेसीडेंसी के लोग उनके निर्णय का सम्मान करते थे।
वह बंबई
कॉर्पोरेशन और बंबई विधायिका के सदस्य बने। वे कभी-कभी विधानसभा में नहीं जाते थे; वे नगर निगम के काम को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। वे केवल राजनीतिक गतिविधियों
में ही डूबे रहना पसंद नहीं करते थे। उनका सिद्धांत था कि जो भी काम हाथ में लिया
जाए, उसे सफलता तक पहुंचाना चाहिए और इसलिए उन्होंने
बंबई नगर निगम के काम पर अपना पूरा ध्यान दिया। स्वदेशी बैंक यानी सेंट्रल बैंक ऑफ
इंडिया की स्थापना में उनका हाथ था।
वह भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। एक तेज-तर्रार, दयालु और दृढ़ निश्चयी व्यक्ति, उन्हें पहले से ही सब कुछ अच्छी तरह से तैयार रखना पसंद था और आधे-अधूरे
उपायों से घृणा करते थे। 1890 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। 1890 के दशक से
1915 में अपनी मृत्यु तक वे कांग्रेस पर छाए रहे। उन पर अक्सर आरोप लगाया जाता है
कि वे इस संस्था को अपने ढंग से चलाते थे। वह बहुत ही शक्तिशाली वक्ता थे। उनके
भाषण साहसिक, सरल और तीखे होते थे।
उनके भाषण में हाजिरजवाबी, परिहास, व्यंग्य और साहित्यिकता का पुट होता था। उनके उदारवादी विचारों ने उन्हें भारतीय
राजनीति के उदारवादी स्कूल का हिस्सा बना दिया।
1886 से बंबई विधान परिषद के सदस्य रहते हुए वह 1893 में गवर्नर-जनरल की सर्वोच्च विधान
परिषद के लिए चुने गए। 1895 में जब 1860 के पुलिस अधिनियम में संशोधन विचाराधीन था, मेहता ने इसकी कड़ी आलोचना की थी। विधान
परिषद् में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, “यह कानून और व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर अदालत में मुक़दमा चलाए बिना लोगों
को अपराधी मानने और सज़ा देने का कानून है।” उनकी प्रतिक्रिया का
लोगों में ज़बरदस्त असर हुआ, यहाँ तक कि तिलक जैसे उनके राजनीतिक विरोधी ने भी इस भाषण की प्रशंसा की थी। फिरोजशाह
मेहता जब भी विधान परिषद् में बोलने के लिए खड़े होते थे, उनके तीक्ष्ण प्रहारों से
नौकरशाही बिलबिलाने लगाती थी। मेहता स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण 1901 में
औपनिवेशिक विधान परिषद् से रिटायर हुए। अपने उत्तराधिकारी के रूप में उन्होंने 35
वर्षीय गोखले को विधान परिषद् के लिए निर्वाचित कराया।
1907 में जब
नरमपंथियों और गरमपंथियों का टकराव चरम पर था, और कांग्रेस के नेता विभाजन के लिए कमर कसे हुए थे, तब नरमपंथियों के नेता फिरोजशाह
मेहता थे। उनका मानना था कि गरमपंथियों के साथ रहना बहुत ही खतरनाक है। 20 साल
की मेहनत से आज कांग्रेस का जो संगठन तैयार किया गया है, उसे गरमपंथी एक ही
झटके में बिखेर देंगे। सरकार
साम्राज्यवाद-विरोधी किसी भी आन्दोलन का दमन करने के लिए कमर कसे बैठी है, ऐसी हालत में दमन को
न्यौता देने का क्या औचित्य है?
वे पारसी से
ज़्यादा भारतीय थे और उनका मानना था कि भारत की एकता तभी हासिल की जा सकती है जब
पूरी आबादी एक समुदाय में बदल जाए। उनके कार्यालय में होने वाली चर्चाएँ मुख्य रूप
से इस बात पर केंद्रित होती थीं कि हम अपने अधिकारों के लिए कैसे निडर होकर लड़
सकते हैं। सार्वजनिक सेवा करते हुए उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा। एक बार एक अंग्रेज
ने गांधीजी का अपमान किया और गांधीजी उसके खिलाफ हर्जाने का मुकदमा दायर करने वाले
थे। सर फिरोजशाह ने तब उनसे कहा था कि, अगर वह अपना या देश का कुछ भला करना चाहते हैं, तो उन्हें अपमान सहना होगा और भविष्य में भी उन्हें ऐसे अपमान सहने होंगे।
वास्तव में, गांधीजी को कई मौकों पर, दक्षिण अफ्रीका
से लेकर भारत तक, अपमान सहना पड़ा। गांधीजी इसे स्वीकार करते हुए कहते हैं, “मेरे पास जो भी कार्य
करने की क्षमता है, वह इस सलाह की
देन है।”
बॉम्बे
क्रॉनिकल (अप्रैल 1913) एक अंग्रेजी भाषा का
समाचार पत्र था जिसे सर फ़िरोज़शाह मेहता द्वारा स्थापित किया गया था। यह अपने समय
का एक प्रमुख राष्ट्रवादी समाचार पत्र था और अशांत पूर्व-स्वतंत्र भारत के
राजनीतिक उथल-पुथल का एक प्रभावी इतिहास था। यह राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रति
भारतीय जनता की राय व्यक्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण एजेंसी बन गई थी।
उन्होंने
भारतीयों को पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने और भारत के उत्थान के लिए इसकी संस्कृति
को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। प्राथमिक और उच्चतर दोनों ही तरह की शिक्षा ने
उनके पूरे जीवन में उनकी रुचि को बनाए रखा। उन्होंने शिक्षा में वह साधन देखा
जिसके द्वारा भारत तेज़ी से खुद को आधुनिक बना सकता था; उन्होंने अंग्रेजी के
महत्व पर बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने शहर और भारत भर में शिक्षा, स्वच्छता और स्वास्थ्य
देखभाल के लिए कई सामाजिक कार्यों में योगदान दिया। उन्हें अंग्रेजों की
न्यायप्रियता में विश्वास था। अंग्रेजी साम्राज्य को वह प्रगति का सूचक और भारत के
लिए ‘ईश्वरीय देन’ मानते थे। वह चाहते थे कि कांग्रेस वैधानिक मार्ग पर चले। वह
अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे। 5 नवंबर, 1915 को उनका निधन हुआ।
कांग्रेस के नरमदल के प्रमुख नेता सर फिरोजशाह मेहता का
जीवन उदारवाद के प्रति प्रतिबद्धता और बंबई से गहरे जुड़ाव का प्रतीक है। दादाभाई
नौरोजी के साथ उनकी प्रभावशाली मित्रता ने उनके प्रगतिशील
विचारों को बढ़ावा दिया। मेहता की विरासत एक परिवर्तनकारी युग के दौरान भारतीय
राजनीति और समाज को आकार देने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका से चिह्नित है। उनका
स्थायी योगदान पीढ़ियों को प्रेरित करता है। उन्होंने न्याय, सुधार और एक जीवंत लोकतांत्रिक लोकाचार के प्रति पूर्ण समर्पण को दर्शाया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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