गांधी और गांधीवाद
1904
प्लेग ने भारतीय स्थान का भाग्य तय कर दिया। गांधीजी को महामारी के काम से मुक्ति
तो मिल चुकी थी पर दूसरे काम तो सिर पर थे ही। म्युनिसिपैलिटी के अधिकारी भले ही
लोकेशन के प्रति अपनी जिम्मेदारी में लापरवाह थे, पर गोरे नागरिकों के आरोग्य के विषय में काफ़ी सचेत थे। हिन्दुस्तानियों
के प्रति म्युनिसपैलिटी का व्यवहार
बहुत पक्षपातपूर्ण था। उन्होंने गोरे लोगों की
रक्षा के लिए पानी की तरह पैसा बहाया और महामारी को और फैलने से रोकने के लिए कोई
कोर-कसर न छोड़ी। इस कारण से गांधीजी का गोरों के प्रति आदर भाव बढ़ा। गांधीजी ने
गोरों के इस शुभ कार्य में जो भी बन पड़ा सहयोग दिया।
म्युनिसपैलिटी के काम में गांधीजी की मदद
महामारी के दौरान जिस भाव से गांधीजी ने बीमारों की सेवा की
थी, लोगों में उनका विश्वास और
बढ़ गया था। भारतीयों के बीच तो वे मशहूर थे ही, यूरोपियन के बीच भी उनकी साख बढ़ी। अगर गांधीजी ने वैसी मदद न
की होती तो म्युनिसपैलिटी के लिए काम बहुत
मुश्किल हो जाता, शायद वे बल-प्रयोग का सहारा लेते। दरअसल 23 मार्च 1904 को लियोनेल कर्टिस, सहायक औपनिवेशिक सचिव, ने निर्णय लिया था कि
समूचे शहर की रक्षा के लिए “कुली बस्तियों” को जला कर राख कर दिया जाए जिससे प्लेग फैलाने का खतरा न
रहे। इस काम में भारतीयों को ओर से गांधीजी और उनके सहयोगियों ने म्युनिसपैलिटी के
अधिकारियों की पूरी-पूरी मदद की थी। चूंकि भारतीयों को न चाहते हुए भी गांधीजी की
सलाह मानने की आदत पड़ गयी थी, इसलिए यह काम बिना किसी विघ्न के संपन्न हो गया। इस
तरह के भारतीयों द्वारा किए गए व्यवहार से म्युनिसिपैलिटी के अधिकारी भी काफ़ी खुश
हुए। बाद में भारतीयों के प्रति उनका रवैया काफ़ी सहयोगपूर्ण हो गया।
लोकेशन के बाहर पहरा
लोकेशन के बाहर पहरा बैठा
दिया गया था। उसके भीतर और उसके बाहर बिना इज़ाज़त के प्रवेश और निकास बंद कर दिया
गया। गांधीजी और उनके सहयोगियों को आने-जाने के लिए परमिट दिया गया था।
म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों ने यह निर्णय लिया था कि समूचे शहर की रक्षा के लिए “कुली बस्तियों” (लोकेशन) में रहने वाले सभी लोगों को तीन हफ़्ते के
लिए जोहान्सबर्ग शहर के
दक्षिण-पश्चिम में, तेरह मील दूर एक विशाल खुले मैदान में तम्बू गाड़कर
बसाया जाए और लोकेशन को जला कर राख कर दिया जाए जिससे प्लेग फैलने का खतरा न रहे।
इसकी आवश्यक तैयारी के लिए कुछ समय चाहिए था। इस कारण कुछ समय के लिए ऐसा पहरा
लगाया गया था। लोग बहुत घबरा गए थे। फिर
भी तसल्ली उन्हें इस बात की थी कि गांधीजी तो साथ में हैं ही। इस काम में गांधीजी
ने म्युनिसिपैलिटी की पूरी-पूरी मदद की। भारतीयों को न चाहते हुए भी गांधीजी की
सलाह माननी पड़ी। यह काम बिना किसी बाधा के पूरा हो गया।
गांधीजी भारतीयों के बैंक बने
इन मज़दूरों ने बरसों की
अपनी मेहनत की कमाई अपने घरों में ज़मीन में गाड़ रखा था। उन्हें इसे निकालना ज़रूरी हो गया था। निरक्षर
भारतीयों ने बैंक आदि का नाम भी शायद ही सुना हो। इसलिए वे आतंकित थे। वे अपनी सभी
जमा-पूंजी गांधीजी को सौंपना चाहते थे। गांधीजी ही उनके बैंक बने। भारतीयों ने
अधिकतर पैनियां और चांदी के सिक्के बचाए थे। गांधीजी के यहां सभी के पैसों का ढेर
लग गया। इन पैसों का पक्का हिसाब तैयार किया गया और प्रत्येक राशि के लिए उन्होंने
रसीद ज़ारी किया। गांधीजी ने सलाह दी कि यह सारा पैसा बैंक में जमा होना चाहिए।
मज़दूर राज़ी हो गए। गांधीजी ने अपनी जान-पहचान के एक बैंक मैनेजर से कहा कि वे
उनके बैंक में एक बड़ी रकम रखना चाहते हैं। उस मैनेजर ने सुविधा प्रदान की। किंतु
महामारी के क्षेत्र के पैसे को कौन छूए? तय हुआ कि जंतुनाशक पानी से धोकर चांदी-सोने के सिक्कों को
रोगाणुमुक्त कर बैंक में भेजा जाए। इस प्रकार लाख जद्दो-जहद के बाद लगभग साठ हज़ार
पौंड बैक में जमा किए गए। बाद में गांधीजी की सलाह पर कई भारतीय इस बात पर राज़ी
हुए कि इन आपातिक जमाओं को स्थाई जमाओं में बदल लें, ताकि बैंक का उपयोग धीरे-धीरे बढ़ सके। इस तरह कुछ लोगों ने
गांधीजी की सलाह पर एक निश्चित अवधि के लिए रकम ब्याज पर रखा। इस सब का एक फ़ायदा
यह भी हुआ कि लोगों को बैंक के बारे में जानकारी बढ़ी और उनमें से कई बैंक में पैसे रखने के आदी हो गए।
भारतीयों को जोहान्सबर्ग से क्लिपस्प्रुट शिविर लाया गया
20 मार्च की सुबह भारतीय स्थान की कुल जनसंख्या 3160 थी। लोकेशन में रहने वाले
लोगों को एक स्पेशल ट्रेन से जोहान्सबर्ग से क्लिपस्प्रुट फार्म पर लाया गया। जोहान्सबर्ग के एशियाटिक्स के पर्यवेक्षक श्री बर्गेस शिविर के प्रभारी थे। डॉ. गॉडफ्रे, जिन्होंने लोगों के बीच अपनी खास पहचान बना ली थी, को सहायक चिकित्सा अधीक्षक नियुक्त किया गया। वहां उनके लिए खाने-पीने
की व्यवस्था म्युनिसिपैलिटी वालों ने किया था। खड़े तंबुओं के कारण वहां का दृश्य
मिलिट्री छावनी-सा लग रहा था। लोग तो इस तरह के वातावरण में रहने के आदी थे नहीं।
शुरू-शुरू में उन्हें काफ़ी दुख और परेशानी हो रही थी। गांधीजी लगभग रोज़ ही
साइकिल से उस जगह जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर आते थे। उनके प्रतिदिन के दौरे से उनका हौसला बढ़ता था और वे जल्द
ही अपना दुख भूल जाते थे। बाद में गांधीजी ने लिखा, "जब भी मैं वहां जाता था, तो वे गीत गाते और आनंद मनाते हुए आनंद लेते थे।" उन्होंने लोगों से कहा कि
साफ़-सफ़ाई को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं, भीड़-भाड़ से बचें और धूप-हवा-पानी को अपने आवास स्थल में
आने दें। तीन हफ़्ते खुली हवा में रहने के कारण लोगों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ।
स्वास्थ्य में सुधार के साथ-मानसिक संताप भी दूर होता गया और लोग आनंद और ख़ुशी से
रहने लगे। भजन-कीर्तन आदि से अपना समय बिताने लगे।
खाली स्थान को जला दिया गया
जब लोकेशन खाली कर दिया
गया, तो रविवार,
3 अप्रैल 1904 को, खाली स्थान
को पुलिस
द्वारा जला कर भस्म कर दिया गया। एक-एक चीज़ जलकर स्वाहा हो गई। यहां तक की मार्केट
की सारी इमारती लकड़ी भी जला दी गईं, क्योंकि मार्केट में कई हुए चूहे मिले थे। इसके कारण
म्युनिसिपैलिटी को दस हज़ार पौंड का नुकसान सहना पड़ा। इस सबसे यह फ़ायदा हुआ कि
महामारी आगे नहीं बढ़ी। लोग निर्भय के वातावरण में रहने लगे। बाद में इस स्थान का सर्वेक्षण किया गया,
पुनः योजना बनाई गई और इसका नाम
न्यूटाउन रखा गया।
कई ने विपदा
से कोई सबक नहीं सीखा
प्लेग ने भारतीय समुदाय को दुख और संकट की आग में झोंक दिया
था। गांधीजी यह देखकर परेशान थे कि इस तथ्य के बावजूद कि वे पर्याप्त रूप से विपदा
झेल चुके थे; उनमें से कई ने इससे कोई सबक नहीं सीखा। उदाहरण के लिए,
कुछ लोगों को शहर से शिविर में
शराब की बोतलें तस्करी करते हुए पाया गया था। परिणामस्वरूप हर रात प्रत्येक
व्यक्ति को शिविर स्टेशन के सामने एक कैदी की तरह लाइन में खड़ा किया जाता था और
शिविर अधीक्षक द्वारा उसकी अनुचित तलाशी ली जाती थी। एक की गलती के कारण कई लोगों
को पीड़ा झेलनी पड़ी। गांधीजी ने उनसे कहा कि वे इस कृत्य को अपने भीतर झाँक कर
देखें और अपनी कमियों को दूर करें। उन्हें उपेक्षित स्वच्छता और भीड़भाड़ के खिलाफ
विरोध करना चाहिए।
उपसंहार
चूंकि स्थानांतरण के बाद क्लिप्सप्रूट में केवल एक ही मामला
हुआ था और इस मामले की मृत्यु के बारह दिन बाद कोई और मामला नहीं हुआ था, इसलिए शिविर संदिग्ध शिविर नहीं रहा और एक आवास शिविर बन
गया। परिणामस्वरूप,
इसके बाद सामान्य प्लेग
प्रक्रिया को लागू किया गया और जब अलगाव (Isolation) की अवधि समाप्त हो गई, तो भारतीयों को शहर में जाने की अनुमति दी गई। गांधीजी की सलाह पर कार्य करते
हुए,
क्रुगर्सडॉर्प स्थान से हटाए गए
अधिकांश भारतीय वापस चले गए और अपने पुराने परिसर में फिर से रहने लगे। कठिनाइयों
और कष्टों को झेल चुके,
पूर्व "अस्वच्छ
क्षेत्र" के निवासी धीरे-धीरे स्वयं को पुनः स्थापित करने में सफल रहे।
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मनोज कुमार
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संदर्भ : यहाँ पर
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