राष्ट्रीय आन्दोलन
144.
बिपिनचंद्र पाल
बिपिनचंद्र पाल स्वदेशी आन्दोलन के एक महान नेता थे। वह भारत
में क्रान्तिकारी विचारों के जनक थे। वह ‘लाल-बाल-पाल’ के रूप में प्रसिद्ध तीन महान स्वतंत्रता
सेनानियों में से एक थे। शिक्षक, पत्रकार, लेखक, वक्ता, पुस्तकालाध्यक्ष और सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप
में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण था। वह बंगाल में पुनर्जागरण के पुरोधा थे। उन्होंने
समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता का पुरजोर विरोध किया। शुरू में वह केशवचंद्र सेन के
विचारों से प्रभावित होकर ब्रह्मसमाज के सदस्य बने, उसके बाद वेदान्त दर्शन की ओर मुड़े और फिर श्री
चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव दर्शन के समर्थक हुए।
उनका जन्म 7 नवंबर, 1858 में ग्राम पोइल,
ज़िला सिलहट (असम) में हुआ था। उनके पिता रामचंद्र पाल, एक फारसी विद्वान और छोटे ज़मींदार थे। बाद में उनके पिता एक वकील के रूप में सिलहट बार में शामिल हो गए।
उनकी माता का नाम श्रीमती नारायणी था। 1866 में उन्हें सिलहट के एक अंग्रेजी
माध्यम स्कूल में दाखिला कराया गया। 1874 में उन्होंने सिलहट राजकीय उच्च विद्यालय
से कलकत्ता विश्वविद्यालय की परीक्षा पास की। उच्च शिक्षा के लिए वह कलकत्ता आ गए
और 1875 में उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन वह अपनी शिक्षा
पूरी नहीं कर सके। उन्हें बंगला साहित्य काफी पसंद था।
बिपिन चन्द्र ने 1879 में कटक के हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक के रूप
में अपनी जीविका प्रारम्भ की। उन्होंने साथ ही पत्रकारिता का भी काम शुरू
किया। 1880 में उन्होंने सिलहट में एक बंगला साप्ताहिक ‘परिदर्शक’ शुरू किया। 1882 में उन्होंने ‘बंगाल पब्लिक
ओपिनियन’ में
सह-संपादक के रूप में काम करना शुरू किया। 1887 में वह लाहौर से निकलने वाली ‘द
ट्रिब्यून’ से सह-संपादक के रूप में जुड़े। 1890 में वह ‘कलकत्ता पब्लिक
लाइब्रेरी’ के पुस्तकालाध्यक्ष बने।
राष्ट्रीय राजनीति में बिपिनचंद्र पाल सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
से काफी प्रभावित हुए और उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। लेकिन बाद में वह तिलक, लाजपतराय और अरविन्द घोष के विचारों से
प्रभावित होकर उनकी तरह वह भी उग्र राष्ट्रवादी हुए। अपने भाषणों और लेखों से
उन्होंने देश के तरुण वर्ग में एक नई उत्तेजना भर दी। उन्होंने कहा कि भारत के लोग
खुद स्वतंत्रता पाने के लिए संघर्ष करें। दृढ़ता के साथ कोशिश करें कि विदेशी शासन
के अंतर्गत उन्हें जिस स्थिति में रहने को विवश किया गया है उससे वे ऊपर उठ सकें।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई त्याग बहुत बड़ा नहीं है। इसके लिए कोई तकलीफ
बहुत बड़ी नहीं है। उन्होंने साहस, आत्मविश्वास और त्याग की भावना की पैरवी की। उन्होंने इस सुझाव को बिलकुल
नकार दिया कि भारत को किसी विदेशी सहायता की आवश्यकता है। उन्होंने दृढ़ता के साथ
दावा किया कि मात्र स्वराज्य या पूर्ण स्वतंत्रता ही उनका लक्ष्य है। वह उसके लिए
संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें जन-शक्ति में अटूट विश्वास था। उन्होंने जन-कार्यों के
ज़रिए ही स्वतंत्रता पाने की तैयारी की। वह कहते थे, “हमारे युवाओं को यह समझना होगा कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और नैतिक स्वतंत्रता भी है।”
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बिपिनचंद्र पाल का जुडाव 1886
के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन से हुआ, जहां वह सिलहट के प्रतिनिधि के रूप में इसमें शामिल हुए थे।
1887
में आयोजित भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में बिपिन चंद्र पाल ने भेदभावपूर्ण प्रकृति
के शस्त्र अधिनियम को निरस्त करने की जोरदार वकालत की। 1888 में कांग्रेस के चौथे
सत्र में उन्होंने औद्योगिक स्थिति और तकनीकी शिक्षा के लिए एक आयोग गठित करने का
संकल्प पारित करवाया।
उन्होंने असम चाय बगान के श्रमिकों के संघर्ष का नेतृत्व
किया। अपनी पुस्तक ‘दि न्यू इकोनोमिक मिनेस ऑफ इंडिया’ में उन्होंने भारतीय श्रमिकों की मज़दूरी में
वृद्धि और काम के घंटों में कमी करने की मांग की थी। उन्होंने श्रमिक क्षेत्र की
बंगला पत्रिका ‘संहति’ का नामकरण किया। उसमें वह बराबर लेख लिखा करते थे।
1898 में वह तुलनात्मक धर्मशास्त्रीय अध्ययन के लिए
इंग्लैण्ड गए। इसके बाद उन्होंने हिन्दू दर्शन पर व्याख्यान देना शुरू कर दिया।
1900 में वह देशभक्ति की भावना के साथ भारत लौटे और राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय
हो गए। अपनी साप्ताहिक पत्रिका "न्यू इंडिया" (1901) के माध्यम से उन्होंने पंथनिरपेक्षता, तर्कवाद और राष्ट्रवाद की वकालत की। उनका मानना
था कि “शिक्षा
ही वह शस्त्र है जिससे हम अपनी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ सकते हैं।” उन्होंने शिक्षा प्रणाली को पूर्णतः राष्ट्रीय
पद्धति पर पुनर्गठित करने की वकालत की। वह राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् से भी जुड़े थे।
बंगाल विभाजन ने महान राष्ट्रीय आन्दोलन, बहिष्कार और स्वदेशी आन्दोलन को जन्म दिया। 7
अगस्त, 1905 को कलकत्ता के
टाउन हॉल में उन्होंने बहिष्कार के समर्थन में ओजपूर्ण भाषण देकर बहिष्कार के
प्रस्ताव को स्वीकृत करवाया। पाल ने अपने भाषणों से स्वदेशी आन्दोलन को और मज़बूत
बनाया। स्वदेशी आन्दोलन के समय न्यू इन्डिया, वन्दे मातरम् इत्यादि पत्रिका द्वारा
स्वदेशी उद्योग और स्वदेशी शिक्षा की आवश्यकता पर उन्होंने बल दिया। उन्होंने
राष्ट्रवाद के एक उग्रवादी रूप का प्रचार किया जिसमें ब्रिटिश वस्तुओं और दुकानों
का बहिष्कार, पश्चिमी कपड़ों को
जलाना और ब्रिटिश कारखानों में हड़ताल और तालाबंदी जैसे क्रांतिकारी तरीके शामिल
थे। ब्रिटिश
सरकार उन्हें अपना शत्रु मानने लगी।
कथित ‘वंदे मातरम्’ राजद्रोह मामले में अरविन्द घोष पर चलाए जा रहे मुक़दमे के
दौरान गवाही देने से इनकार करने पर उन पर अदालत की मानहानि का मुक़दमा चलाकर 6
महीने के कारावास का दंड दिया गया।
बिपिनचंद्र पाल ने अस्थायी रूप से राजनीति से संन्यास ले
लिया। जेल से छूटने के बाद वह 1908 में इंग्लैण्ड चले गए। विदेशों में उन्होंने
तीन वर्षों तक अँग्रेज़ विरोधी प्रचार किया। इस दौरान उन्होंने एक नए राजनीतिक
चिंतन विकास किया जिसे साम्राज्य-दृष्टिकोण (Empire-Idea) का नाम दिया गया।
भारत आकर वह फिर से राजनीति में सक्रिय हो गए। 1913 में
उन्होंने एक मासिक पत्रिका ‘दि हिन्दू रिव्यू’ का प्रकाशन शुरू किया जिसके द्वारा उन्होंने
अपने विचारों को लोकप्रिय बनाने की कोशिश की।
1920 में पाल ने गांधीजी के असहयोग प्रस्ताव का इस
आधार पर विरोध किया था कि उसमें स्वशासन की बात नहीं थी। गांधीजी की शांतिपूर्ण
नीति में आस्था नहीं रखने के कारण वह कांग्रेस से अलग हो गए। वह तिलक और एनी बेसंट
के होम रूल लीग से जुड़ गए। प्रथम विश्व युद्ध के बाद संयुक्त संसदीय समिति के
समक्ष भारत की राजनीतिक मांगों को रखने के लिए तिलक के नेतृत्व में इंग्लैण्ड गए
डेलिगेशन का वह हिस्सा थे। बोल्शेविक क्रान्ति से वह काफी प्रभावित थे। इसे वह
विश्व का नया जन्म मानते थे। 1919 में वह भारत लौटे। 1921 में बरिसाल में हुए
बंगाल प्रांतीय सम्मेलन की उन्होंने अध्यक्षता की।
उन्होंने वैष्णववाद के दर्शन पर काफी कुछ लिखा। आधुनिक भारत
के निर्माताओं के जीवन-वृत्तों पर लेखमाला
लिखी। उन्होंने बंगला भाषा में रानी विक्टोरिया की एक जीवनी और अपनी
आत्मकथा, मैमोरीज
ऑफ माई लाईफ एण्ड टाईम्स (1932) भी प्रकाशित की। उनकी लिखी कुछ पुस्तकें हैं 'भारतीय राष्ट्रवाद', ' स्वराज और वर्तमान स्थिति', 'राष्ट्रीयता और साम्राज्य', 'सामाजिक सुधार का आधार', 'हिंदू धर्म में नई भावना और अध्ययन', और 'भारत की आत्मा'।
20 मई, 1932 को कलकत्ता में उनकी मृत्यु हो गई। बिपिनचंद्र पाल राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक थे।
कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज को अपना लक्ष्य बनाने से काफी पहले ही उन्होंने
पूर्ण स्वराज की विचारधारा को पुरजोर रूप से उठाया था। वह संघीय भारतीय गणराज्य के
पक्षधर थे, जिसमें प्रत्येक प्रांत, प्रत्येक जिला और यहाँ तक की प्रत्येक गाँव स्थानीय
स्वायत्तता का भरपूर उपयोग कर पाता। वह जाति प्रथा के खिलाफ थे। उन्होंने स्वयं
अंतरजातीय विवाह किया। वह वक्तृत्व कला के धनी थे और भारी भीड़ को सम्मोहित करने की
शक्ति रखते थे। बिपिनचंद्र ने सामाजिक और राजनीतिक आज़ादी की लड़ाई में प्रगतिशील
विचारों के साथ जो योगदान दिया उसके लिए उन्होंने हमेशा के लिए लोगों के दिलों में
जगह बना ली है।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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