गांधी और गांधीवाद
1904
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के नाम और काम के साथ दो चीज़ें
हमेशा जुडी रहेंगी। एक है 1903 में इंडियन ओपिनियन नामक साप्ताहिक पत्रिका और
दूसरा फीनिक्स में स्थित
टॉल्स्टॉय कॉलोनी। इन दोनों ने ही भारतीय समुदाय पर बहुत प्रभाव डाला है। गांधीजी
चाहते थे कि दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय समान हितों और समान आदर्शों से
जुड़ा हुआ हो।
उसका शिक्षित और नैतिक स्तर उस प्राचीन सभ्यता के योग्य हो जिसका वह उत्तराधिकारी है। लेकिन हर परिस्थिति में मूलतः भारतीय बना रहे। वह समुदाय इस तरह कार्य करे कि दक्षिण अफ्रीका अंततः अपने इस
पूर्व के नागरिकों पर गर्व करे, और उन्हें
अधिकार के रूप में वे विशेषाधिकार प्रदान करे जो प्रत्येक ब्रिटिश नागरिक को
प्राप्त होने चाहिए। यही वह उद्देश्य है जो उनके लोगों की स्थिति को ऊपर उठाने, तथा उनके भाइयों को अपमानित करने वाली या उन्हें दासतापूर्ण
स्थिति में रखने वाली हर चीज को हराने के उनके सभी प्रयासों का आधार बनता है।
इंडियन ओपिनियन को फार्म पर ले जाने का प्रस्ताव
गांधीजी के तूफानी करियर में कई बार ऐसा हुआ कि एक विशुद्ध
रूप से संयोगवश परिस्थिति ने, जो उनके मन में लंबे समय से चल रही थी,
उन्हें एक महत्वपूर्ण निर्णय
लेने के लिए प्रेरित किया जिसने उनके जीवन को एक बिल्कुल नया और अप्रत्याशित मोड़
दिया। वर्तमान मामले में भी ऐसा ही हुआ। उनके प्रस्थान की रात पोलाक ने उन्हें जोहान्सबर्ग
रेलवे स्टेशन पर विदा किया। ट्रेन चलने से पहले उन्होंने उन्हें पढ़ने के लिए एक
छोटी सी किताब दी। यह जॉन रस्किन की अनटू दिस लास्ट थी। गांधीजी के आदर्शवाद और
व्यावहारिकता के विचित्र से मिश्रण को इस पुस्तक से वो मिला जिसकी उन्हें तलाश थी, जो उनकी अंतरात्मा के अनुरूप था। वह विचार था मिल-जुल कर
मेहनत करने के सहकारी श्रम का विचार। गांधीजी ने अपने प्रयोगों को अमली जामा पहनाने के लिए
खेतों के बीच एक आश्रम की स्थापना की योजना बनाई।
गांधीजी लिखते हैं, मैं नीचे जाते समय रस्किन की अनटू दिस लास्ट पढ़ रहा था और
इस किताब का प्रभाव मुझ पर बना रहा। गांधीजी की इच्छा थी कि इस प्रयोग में उनके क़रीबी
लोग उनका साथ दें। वे शहर छोड़कर आश्रम में बस जाएं। एक नए जीवन की शुरुआत करें।
एक ऐसा जीवन जो सम्पूर्ण सांसारिकता से मुक्त कर उन्हें अध्यात्म की नई दुनिया में
ले जाता हो। छगनलाल
गांधी, उनके चचेरे भाई भी वहां उपस्थित थे और उनके बीच इस विचार पर चर्चा हुई।
कुछ दिनों बाद गांधी डरबन से तीस मील दूर टोंगाट नामक छोटे
से गांव में गए, जहां उनके कुछ रिश्तेदारों ने एक दुकान खोली थी। उनके पास फलों के पेड़ों से
भरा एक भूखंड था, और उन्हें यह देखकर गुस्सा आया कि उनके चचेरे भाई अपना समय दुकान खोलने में
बर्बाद कर रहे थे, जबकि वे फलों के बगीचे में काम करके ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकते थे। उन्होंने तय
किया कि उनके नए समुदाय के पास एक बगीचा होना चाहिए।
वापसी में डरबन स्टेशन पर गांधीजी
को लेने वेस्ट आया था। उसने जब गांधीजी को देखा तो उसे लगा कि कोई मसीहा उसके
सामने खड़ा है, जिसे अचानक कोई दिव्य
दृष्टि प्राप्त हो गई हो। गांधीजी की आंखों में उसने एक अजीब सी चमक देखी। “सर्वोदय” का गांधीजी पर जो प्रभाव पड़ा था, उसके बारे में सबसे पहले गांधीजी ने वेस्ट को सुनाया।
उन्होंने यह भी कहा कि वे “इंडियन ओपिनियन” को – सभी कर्मचारियों, छपाई मशीनों और सभी चीज़ों को, एक फार्म पर ले जाना चाहते हैं। वहां पर जो भी खर्च
आएगा सब समान रूप से उसे बांटें। प्रत्येक के जिम्मे एक निश्चित काम होगा। सब खेती
करें, और बाक़ी के समय में “इंडियन ओपिनियन” का काम करें। सबकी एक निश्चित मासिक आय होगी। इस
मामले पर नस्ल और राष्ट्रीयता के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं होगा। गांधीजी का मानना था कि इस तरह वे शहरी जीवन के प्रलोभन
से खुद को मुक्त कर सकेंगे और ऐसी बस्ती विकसित कर सकेंगे जो सादगी का एक आदर्श
पाठ साबित हो और दूसरों के लिए एक प्रेरणा हो। गांधीजी जिस उत्साह से
सारी बातें कह रहे थे, यह देख वेस्ट दंग रह गया। और कोई होता तो उनके विचारों को सुनकर उन्हें
सिरफिरा घोषित कर देता, पर वेस्ट को ये सुझाव
अच्छे लगे। वेस्ट ने
याद करते हुए कहा, "यह योजना आदर्शवादी थी, यद्यपि बहुत व्यावहारिक नहीं थी। यह विचार मुझे इसलिए पसंद आया क्योंकि मैं
ग्रामीण जीवन का आदी था।" फिर हिसाब-किताब किया गया। हर एक के भोजन आदि का खर्च
कम से कम तीन पौंड होगा ऐसा अनुमान लगाया गया। यह भी निश्चित किया गया कि इस आश्रम
में गोरे काले का कोई भेद नहीं होगा।
कार्यकर्ताओं से बात-चीत
प्रेस में लगभग दस
कार्यकर्ता थे। यह प्रश्न गांधीजी के मन में था कि क्या सारे के सारे जंगल में लिए
गए ज़मीन पर बसना चाहेंगे या नहीं? बराबरी की हिस्सेदारी उन्हें पसंद आएगी या नहीं? इसका समाधान यह निकाला गया कि जो इस योजना में शामिल
न होना चाहें वे अपना वेतन लें और यदि उनका मन करे तो बाद में इस संस्था में शामिल
हो जाएं। गांधीजी ने कार्यकर्ताओं से बात करनी शुरू की। मदनजीत को तो यह योजना बिल्कुल भी हजम नहीं हुई। उसे इस बात का डर
था कि जिस चीज़ में उसने अपना जीवन लगा दिया है, वह गांधीजी के एक प्रयोग के चक्कर में पल भर में मिट्टी में
मिल जाएगी। समाचार पत्र तो चलने से रहा, लोग भी वहां से भाग जाएंगे। लेकिन वे कुछ ज़्यादा प्रतिवाद कर न सके। उन्होंने गांधीजी
से एक हज़ार रुपए उधार ले रखे थे। साथ ही उनका 16 अक्तूबर 1904 को भारत वापस लौट जाने का कार्यक्रम तय था। इसलिए उन्होंने एक हज़ार रुपए के बदले अपना प्रेस गांधीजी
को दे दिया।
गांधीजी का भतीजा छगनलाल गांधी भी इसी प्रेस में काम करते थे। उनसे भी बात की गई। हालाकि उन पर अपने परिवार के सदस्यों के निर्वाह का दायित्व था, फिर भी बिना किसी तर्क-वितर्क के उन्होंने इस योजना में शामिल होने की हामी भर दी।
प्रेस स्टाफ गोविन्दस्वामी मशीन चलाता था। वह इस योजना में सम्मिलित हो गया। उसे इस नए
ट्रस्ट का ट्रस्टी बना दिया गया। उस समय डरबन में बहुत ज़्यादा मैकेनिक नहीं थे, इसलिए गोविन्दस्वामी की मांग बहुत ज़्यादा थी। फिर भी
सब कुछ छोड़कर वह गांधीजी के साथ फीनिक्स आश्रम तीन पौंड महीने के वेतन और दो एकड़
ज़मीन पर खेती करने के लिए आ गया। उसे खुद भी नहीं मालूम था कि उसने ऐसा क्यों
किया है, पर बहुत दिनों के बाद उसने
किसी से गांधीजी के बारे में कहा था, “वो आदमी तो पागल था। वो
गधे की तरह अड़ियल था, लेकिन उसमें कोई शक्ति थी
जिसने मुझे आकर्षित किया।” उन्होंने कहा कि गांधीजी
जहां भी प्रेस ले जाएंगे, वे वहां जाएंगे। गांधी के एक थियोसोफिस्ट मित्र हर्बर्ट किचन भी इस जगह की ओर आकर्षित हुए।
उन्होंने इलेक्ट्रिकल कॉन्ट्रैक्टर के रूप में अपना आकर्षक पेशा छोड़ दिया,
यहाँ आकर इंडियन ओपिनियन टीम
में शामिल हो गए और इसके अंग्रेजी अनुभाग का संपादन किया,
जिसके लिए उन्हें 3 पाउंड का
मासिक भत्ता मिलता था।
ज़मीन ख़रीद ली गई
गांधीजी को 'अनटू दिस लास्ट' के विचारों को व्यवहार में लाने में अधिक समय नहीं लगा। समाचार पत्रों में
विज्ञापन दिया गया कि डरबन के पास किसी स्टेशन से लगे ज़मीन के एक प्लॉट की
आवश्यकता है। फ़ौरन ही जवाब मिला और वेस्ट के साथ गांधीजी विक्टोरिया काउंटी में फीनिक्स स्टेशन के पास बिक्री के लिए
उस ज़मीन को देखने गए। ज़मीन गांधीजी के मन के मुताबिक थी। यह स्थान उनके उस महान प्रयोग के लिए उपयुक्त प्रतीत हुआ। यह
भूमि उमहलांगा या ओटोवा नदी की घाटी में एक छोटी पहाड़ी पर स्थित थी। यह जगह
समुद्र से छह मील दूर और रेलवे स्टेशन से ढाई मील दूर एक गन्ना केंद्र था। इस जगह की प्राकृतिक सुंदरता ने उन्हें आकर्षित किया। सात
दिनों के अंदर 20 एकड़ ज़मीन ख़रीद ली गई।
उसमें एक छोटा-सा नाला था। वहाँ संतरे, आम, अमरूद और शहतूत के पेड़ों वाला एक छोटा सा बाग़ था;
सिर्फ़ दो या तीन एकड़ ज़मीन पर
हल चलाया गया था; काली मिट्टी थी, जो दक्षिण अफ़्रीका में पाई जाने वाली किसी भी ज़मीन से ज़्यादा उपजाऊ थी। पास ही 80 एकड़ का एक दूसरा प्लॉट
था। उसमें फलों के पेड़ थे, और एक झोंपड़ा था। थोड़े
दिनों के बाद उसे भी ख़रीद लिया गया। कुल मिलाकर इस खरीद पर एक हज़ार पौंड की राशि
ख़र्च हुई। ज़मीन पथरीली और
उबड़-खाबड़ थी। उसके कई हिस्सों में उपजाऊ
काली मिट्टी भी थी। आम, पपीते और कुछ मलबेरी के पेडों को छोड़कर पूरा मैदान
सूखी घास से भरा था। उसमें पानी का एक झरना भी था। वहां सांपों का उपद्रव भी था। पूरे क्षेत्र में एक स्निग्ध शांति थी। यह जगह अफ़्रीकान नेश्नल कांग्रेस के संस्थापक प्रसिद्ध ज़ुलु नेता जॉन एल. ड्यूब (John L. Dube) द्वारा स्थापित केन्द्र से अधिक दूर नहीं थी।
कारखाना बनाने का काम शुरू हुआ
सेठ पारसी रुस्तमजी को यह योजना पसंद आई। उन्होंने अपने एक गोदाम की
चद्दरें आदि कई सामान दे दिया। उनकी मदद से इमारत बनाने का काम शुरू हुआ। बोअर
युद्ध के समय से गांधीजी के साथ कुछ बढ़ई और राज मिस्त्री रह रहे थे। वे भी अपना
सहयोग देने को तैयार हो गए। कारखाना बनाने का काम भी शुरू हो गया। एक महीने के
भीतर निर्माण का काम सम्पन्न हुआ। कारखाने का शेड 75 फुट लंबा और 50 फुट चौड़ा था। इस प्रकार फीनिक्स बस्ती वर्ष 1904 के मध्य में अस्तित्व
में आई।
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फिनिक्स में घास बहुत थी।
बस्ती तो बिल्कुल ही नहीं थी। सांपों का प्रकोप भी बहुत था। बारहमासी झरने के पास फलों के पेड़ों की शाखाओं से लटकते
हुए कई हरे साँप थे। कुल मिलाकर
पाँच या छह किस्म के साँप थे, जिनमें से कुछ जानलेवा भी थे। लेकिन वहाँ कोई बाघ, भेड़िया या सियार नहीं थे। गांधीजी साँपों को गंभीरता से नहीं लेते थे। उनके अनुसार
साँप दयालु प्राणी हैं और अगर आप जंगली घास को साफ कर दें और उचित सावधानी बरतें
तो आपको साँपों के काटने की संभावना नहीं होती। जब वहां निर्माण कार्य
शुरू हुआ तो लोग तंबू गाड़ कर उसी में रहते थे। जंगलों की साफ़-सफ़ाई की गई। लोगों
के मन में यह बात बिठाई गई कि भय की कोई बात नहीं है। सांप को जब तक न छेड़ा जाए
वे हमला नहीं करते।
पहला फीनिक्स संस्करण
डरबन से फीनिक्स तक भारी मुद्रण उपकरण ले जाने का कार्य कोई
आसान काम नहीं था। एक इंजीनियर, श्री बूथ को
डरबन में मशीनों को हटाकर फीनिक्स में पुनः स्थापित करने के लिए नियुक्त किया गया।
वह दिन आया जब चार गाड़ियाँ, जिनमें से
प्रत्येक में सोलह बैल थे,
ग्रे स्ट्रीट में सुबह-सुबह
खड़ी कर दी गईं और हटाने का काम शुरू हो गया। दोपहर तक काफिला चल पड़ा और रात होने
से पहले ही अपने गंतव्य पर पहुँच गया, तीन नदियों को पार करते हुए जहाँ पुल नहीं थे, वहाँ पहुँच गया जहाँ सड़क भी नहीं थी। चौसठ बैल और उनके चालक, नदी घाटी और आसपास की पहाड़ियों के मूल निवासियों और
भारतीयों के लिए चर्चा का विषय थे। इस तरह पूरा प्रेस डरबन से अपने नए क्वार्टर
में बिना किसी रुकावट के स्थानांतरित हो गया। शेड बन जाने के बाद, घर बनाए गए, ज़मीन पर खेती शुरू की गयी, एक स्कूल
खोला गया,
सड़कें बनाई गईं, सिंचाई के लिए नालियाँ खोदी गईं।
बस्ती के बाहर कोई इमारत नहीं थी,
सिवाय दो मील दूर कुछ छोटी-छोटी
ज़ुलू फार्म झोपड़ियों के। बस्ती और रेलवे स्टेशन के बीच हज़ारों एकड़ में फैली एक
बड़ी चीनी मिल थी। रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूरी पर एक छोटी सी दयनीय सामान्य बस्ती
के अलावा, खरीदारी की कोई सुविधा नहीं थी और सभी सामान डरबन से मंगवाना पड़ता था। बस्ती
के बाहर कोई इमारत नहीं थी,
सिवाय दो मील दूर कुछ छोटी-छोटी
ज़ुलू फार्म झोपड़ियों के। फीनिक्स डरबन से तेरह मील की दूरी पर था। यहाँ आने में डरबन से लगभग दो घंटे का समय लगता था। आपूर्ति
लाने में कोई कठिनाई नहीं थी। दूध डरबन से आता था, हालाँकि आपूर्ति समाप्त होने पर कुछ मील दूर रहने वाले एक भारतीय किसान पर आम
तौर पर कुछ पिंट दूध देने के लिए भरोसा किया जा सकता था। जहां पर ज़मीन ली गई थी
वहां से स्टेशन ढाई मील की दूरी पर था। तेल से चलने वाली मशीन और उसका तेल रेल से
लाया गया। जब सामान आदि ढोए जा रहे
थे, उस समय “इंडियन ओपिनियन” का एक अंक मर्क्यूरी प्रेस में छपवाना पड़ा। 24 अक्तूबर 1904 को फीनिक्स से “इंडियन ओपिनियन” का पहला फीनिक्स संस्करण निकला। अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती और तमिल के सभी टाइप के केस वहाँ आते थे। कुल
मिलाकर बारह कंपोजिटर थे, जो अच्छी तरह हवादार और अच्छी तरह से रोशनी वाले प्रेस में अपने स्टूल पर बैठते
थे। प्रेस ने व्यवस्थित तरीके से काम करना शुरू कर दिया। कुछ ज़ुलु नौकर थे, दो या तीन तमिल, दो या तीन हिंदी भाषी भारतीय और लगभग आधा दर्जन गुजराती, जिनमें से कई गांधी के दूर के रिश्तेदार थे। वे सभी अल्बर्ट
वेस्ट के मार्गदर्शन में प्रेस में काम करते थे। गांधीजी जोहान्सबर्ग में ही रहे, लेकिन समय-समय पर वे फीनिक्स में भी आते रहते थे।
गांधीजी की
कुटिया
गांधीजी के रहने के लिए भी मकान बनकर तैयार हो गए। गांधी के
क्वार्टर दूसरों से अलग नहीं थे, सिवाय इसके कि वे बड़े थे। उनमें एक बड़ा कमरा था,
जो बैठक और भोजन कक्ष के रूप
में काम आता था, दो छोटे बेडरूम, एक छोटी रसोई और एक आदिम बाथरूम। बाथरूम की फिटिंग बहुत बढ़िया थी। लोहे की छत
में एक अच्छा-खासा छेद बनाया गया था, एक बगीचे में पानी भरने वाला डिब्बा लकड़ी के एक टुकड़े पर
संतुलित किया गया था और पानी भरने वाले डिब्बे से एक रस्सी का टुकड़ा जुड़ा हुआ
था। छेद के नीचे खड़े होकर और रस्सी खींचकर कोई भी व्यक्ति स्नान कर सकता था।
गांधी के बंगले की छत, जो समतल थी, पर एक साधारण तरह की समायोज्य विंडस्क्रीन लगाई गई थी,
और यह छत पर सोने वालों को हवा
से बचाने का काम करती थी। छत का इस्तेमाल गांधीजी हमेशा शुष्क मौसम के दौरान सोने
के लिए करते थे।
सगे-संबंधी भी शामिल हुए
पत्र की छपाई और ग्राहकों
को भेजे जानेवाले दिन उस
बस्ती में काम की धूम मची रहती थी। गांधीजी और पोलाक प्रूफ जांचने का काम करते थे, प्रिंटर मशीन पर काम करते और बच्चे छपे पन्नों की भंजाई और
एक-एक अखबार को लपेटने के काम
में जुट जाते थे। गांधीजी के साथ कई सगे-संबंधी भी दक्षिण अफ़्रीका आए थे, उन्हें समझाने-बुझाने से कुछ गांधीजी की इस योजना में
सम्मिलित हो गए। अधिकांश तो वहां धन कमाने गए थे। जो शामिल हुए उनमें से एक थे मगनलाल गांधी। उन्होंने अपना धंधा समेट
दिया और आ गए गांधीजी के साथ रहने लगे। वे निःस्वार्थ भाव से गांधीजी का साथ उनके
प्रयोगों में देते रहे। मगनलाल के भाई छगनलाल गांधी कुछ ही दिनों पहले भारत से दक्षिण अफ़्रीका आए थे। उन्होंने “इंडियन ओपिनियन” की व्यवस्था में अलबर्ट वेस्ट के दाहिने हाथ की तरह
काम किया।
बाद में हेनरी पोलाक, जो रस्किन की अनटू दिस लास्ट की अपनी प्रति गांधीजी के हाथों में जाने के कारण जो कुछ हुआ था, उससे रोमांचित थे, उन्होंने अपने मित्र से पूछा कि क्या वे भी इस बस्ती में शामिल हो सकते हैं। उनकी सहमति मिलने पर, उन्होंने द क्रिटिक से इस्तीफा दे दिया, फीनिक्स चले गए और बड़े उत्साह के साथ वहाँ के सामुदायिक जीवन को अपनाया। फार्म पर कुछ समय रहने के बाद, उन्हें गांधीजी के अनुरोध पर जोहान्सबर्ग लौटना पड़ा और एल.डब्ल्यू. रिच के बार की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाने का फैसला करने के बाद एक आर्टिकल्ड क्लर्क के रूप में उनके साथ शामिल हो गए।
लोग परिवार की तरह रहते थे
फीनिक्स के निवासी दो वर्गों में विभाजित थे – योजनाकार (schemers) और वेतनभोगी कर्मचारी। "योजनाकार" वे लोग थे
जिनकी योजना में व्यक्तिगत रुचि थी। उन्हें एक एकड़ जमीन और एक इमारत दी जाती थी,
जिसके लिए उन्हें सक्षम होने पर
भुगतान करने की अनुमति दी जाती थी। इसके अलावा, वे इंडियन
ओपिनियन से प्रति माह 3 पाउंड लेते थे, और उन्हें लाभ में भी हिस्सा मिलता था। बाकी लोगों को बस उनके
काम के लिए वेतन भुगतान किया जाता था। व्यवस्था यह थी कि प्रत्येक श्रमिक के पास
अपनी जमीन होगी और उसे केवल खर्च के लिए मासिक भत्ता मिलेगा, तथा लाभ को वर्ष के अंत में ही बांटा जाएगा। इस योजना के
लाभ से भारतीय और अंग्रेज़ श्रमिकों के बीच घनिष्ठ भाईचारा पैदा होगा, जिनके पास एक-दूसरे को सिखाने के लिए बहुत कुछ होगा। हर्बर्ट
किचिन एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, जिन्होंने पूरी बस्ती में बिजली की रोशनी की व्यवस्था की और यहां तक कि एक
टेलीफोन भी स्थापित किया। आठ बसने वालों के अलावा, शुरुआती दिनों में लगभग तेरह अन्य कर्मचारी थे, जिनमें अंग्रेजी,
गुजराती, हिंदी और तमिल कंपोजिटर, प्रिंटर के सहायक और मूल निवासी शामिल थे, जिन्हें मासिक वेतन दिया जाता था क्योंकि वे इस योजना में शामिल नहीं होना
चाहते थे। जब प्लांट को फीनिक्स में स्थानांतरित किया गया तो केवल दो को ही पूर्ण
वेतन पर रखा गया।
गांधीजी लगभग एक महीने तक फीनिक्स में रहे और जनवरी 1905
में जोहान्सबर्ग लौट आए। आश्रम का जीवन सादगी वाला था। प्रेस कंप्लेक्स के
चारो तरफ़ की ज़मीन को दो एकड़ के छोटे-छोटे प्लॉट में बांटा गया। उसमें छोटी-छोटी झोपड़ियां बनवाई गईं, जिसकी छत टीन की थी। एक स्कूल भी उसमें खोल दिया गया। शौचालय की व्यवस्था अभी भी पुरानी पद्धति की ही थी।
मल के बरतन को आश्रम के लोग उठाकर एक निर्धारित जगह पर ले जाकर खाली किया करते थे। जैसे ही घर बन गए, बगीचों में काम शुरू हो गया। पहाड़ी के एक हिस्से में गहरी काली मिट्टी थी जिस
पर कभी खेती नहीं की गई थी। बारिश की कोई कमी नहीं थी;
आधे साल में शायद ही कोई सूखा
सप्ताह होता था, और सूखा काल केवल तीन महीने का होता था। हर दिन सब्ज़ियों के बगीचों में काम
होता था, और तरह-तरह के फलों के पेड़ लगाए जाते थे। जल्द ही छोटी सी कॉलोनी ने देहात
में एक बसे हुए और खेती-किसानी वाले गाँव का रूप ले लिया।
फीनिक्स के सभी लोग एक परिवार की तरह रहते थे। इस परिवार में दो
अंग्रेज़, कुछ तमिल और हिंदी बोलने
वाले उनके अपने परिवार के लोग थे। इसके अलावा दो ज़ुलु भी थे और कुछेक गुजराती थे।
जब गांधीजी के ज्येष्ठ पुत्र हरिलाल 1906 में दक्षिण अफ़्रीका आए तो
फीनिक्स की व्यवस्था देख कर खूब आकर्षित हुए। गांधीजी की विधवा बहन के एकमात्र
पुत्र गोकुलदास भी वहां रहने के लिए आ गए। किंतु चार साल के बाद ही, अपनी शादी के कुछ ही दिनों बाद, गोकुलदास इस दुनिया से विदा हो गए। इस घटना से गांधीजी
काफ़ी मर्माहत हुए और कई दिनों तक शोक में डूबे रहे।
फीनिक्स आश्रम का उद्देश्य
यह जगह धार्मिक बस्ती का स्वरूप ले चुकी थी,
लेकिन गांधीजी नहीं चाहते थे कि
इसे आश्रम या मठ कहा जाए। यहाँ रहने वालों के पास करने के लिए इतना कुछ था कि उनके
संन्यासी बनने का सवाल ही नहीं उठता था। फीनिक्स आश्रम का उद्देश्य सिर्फ़ एक प्रिंटिंग प्रेस
चलाना भर नहीं था, उससे कहीं ज़्यादा था। वे
यहां एक ऐसे समुदाय की कल्पना साकार कर रहे थे, जिसमें जाति या वर्ग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था। इस जगह
ने एक धार्मिक आश्रम का रूप ले लिया था। गांधीजी की कुटिया फीनिक्स बस्ती के सामूहिक
जीवन की धुरी थी। हर रविवार को संस्था के सारे लोग गांधीजी की
कुटिया में जमा होते। फिर प्रार्थना होती। विभिन्न धर्म-ग्रन्थों का पारायण होता।
हर धर्म के भजन गाए जाते। वर्ण और जाति के भेद-भाव को भुलाकर लोग अध्यात्म के ऊंचे
धरातल पर पहुंच जाते। गांधीजी को यहां का एकांत और शांति बहुत भाता था। शारीरिक
परिश्रम के साथ-साथ लोग अपनी आत्मिक उन्नति के उपायों पर चिंतन-मनन करते।
उपसंहार
फीनिक्स आश्रम की स्थापना
के साथ गांधीजी के
सपने साकार तो हुए, लेकिन इन सपनों ने सपने देखने वाले को पूरी तरह से दरिद्र बना दिया। इंडियन
ओपिनियन को जो नहीं चाहिए था, वह फीनिक्स ने किया है। हालाँकि,
इन मांगों को पूरा करना,
कर्तव्य की उनकी अवधारणा का
हिस्सा था, और इस तरह के आत्म-बलिदान में, गरीबी को साथ लेकर, वह अपने आदर्श के प्रति सच्चे थे। फीनिक्स सेटलमेंट और
इंडियन ओपिनियन गांधीजी की निजी संपत्ति थी, जिसे पूरी तरह से उनकी अपनी आय से स्थापित किया गया था। 1911 में गांधीजी ने
उन पर अपने सभी स्वामित्व अधिकारों को त्यागने और उन्हें एक ट्रस्ट के अधीन रखने
का फैसला किया। इसे पाँच ट्रस्टियों की एक समिति के अधीन रखा गया था। 1. उमर हाजी
आमोद जौहरी (व्यापारी),
डरबन, 2. शेठ रुस्तमजी जीवनजी घोरकूडू (पारसी व्यापारी), डरबन, 3. हरमन
कल्लनबाख (वास्तुकार और किसान), जोहान्सबर्ग, 4. लुईस वाल्टर रिच (बैरिस्टर), जोहान्सबर्ग, और 5. प्राणजीवनदास जुगजीवन मेहता (बैरिस्टर), रंगून।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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