मंगलवार, 5 नवंबर 2024

127. एक भी बीमार की मौत नहीं हुई!

 गांधी और गांधीवाद

 

127. एक भी बीमार की मौत नहीं हुई!

 18 मार्च 1904

वकालत के साथ-साथ गांधीजी का समाज सेवा का काम भी चल ही रहा था। उनका सबसे प्रमुख काम ग़रीब भारतीयों को संरक्षण प्रदान करने का था। ऐसे लोगों में अधिकांश अनुबंधित मज़दूर थे। उन प्रवासी भारतीयों को कुली कहकर पुकारा जाता था। उन्होंने अपनी ज़मीन की बेदखली की मीयाद भी पूरी कर ली थी। ट्रांसवालर्स के बीच ‘कुली लोकेशन’ शब्द पहले से ही आम इस्तेमाल में था। यह कॉलोनी में रहने और बसने वाले भारतीय वालों के प्रति गोरे लोगों की घृणा को दर्शाता था। जोहान्सबर्ग में रहने वाले लोगों ने अपने प्लॉट लंबे समय के लिए पट्टे पर लिए हुए थे। वहां रहने वाले ज़्यादातर भारतीय अज्ञानी और गरीब थे। जोहान्सबर्ग के बाहर की तरफ़ इनकी बस्ती थी, (जहां भारतीयों को ज़बरदस्ती रखा गया था) जिन्हें कुली लोकेशन कहा जाता था। इनके अधिकांश बाशिंदे निर्धन और मासूम लोग थे। लोकेशन का मालिकी पट्टा तो म्युनिसिपैलिटी ने लिया था, लेकिन अभी वहां रहने वाले भारतीयों को उन्होंने हटाया नहीं था, क्योंकि अभी वे उनके लिए दूसरी अनुकूल जगह दे नहीं पाए थे क्योंकि ऐसी जगह निश्चित नहीं हो पाई थी।

कुली बस्तियां गन्दी थीं। ‘बस्ती कहलाने के बावजूद यह वास्तव में एक ‘घेटो थी जहां ‘कुली लोग नगरपालिका के किराएदार के रूप में गंदे वातावरण में एक साथ ठूंस दिए गए थे। उनका भूमि स्वामित्व पहले ही छीन लिया गया था। भारतीय उसी ठसाठस भरे गन्दी’ बस्ती में रह रहे थे। नगरपालिका इन बस्तियों की ओर से आंखें मूंदे रखती थी। इसके कारण स्थिति बद से बदतर हो गई थी। अब तो भारतीय मकान मालिक भी नहीं थे, म्युनिसिपल विभाग के किराएदार थे। पहले तो वे कुछ-न-कुछ सफ़ाई रखते थे, लेकिन अब म्युनिसिपल विभाग साफ़-सफ़ाई का कोई ख्याल रखता नहीं था, इसलिए उस लोकेशन की गन्दगी काफ़ी बढ़ गई थी। मकानों में किराएदारों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ गन्दगी भी बढ़ती गई। सिटी काउंसिल इसका फ़ायदा उठाकर कुली-लोकेशन को ही वहां से हटाने का बहाना बना रही थी। वहां के कई निवासियों के गांधीजी क़ानूनी सलाहकार थे, इसलिए उस लोकेशन के प्रति उनकी रुचि बनी रहती थी। गांधीजी को भारत का अनुभव था।  दो प्लेग समितियों में कार्य कर चुके थे, तथा दो वर्षों तक प्लेग रोगियों के लिए स्वैच्छिक नर्स के रूप में भी कार्य कर चुके थे। गांधीजी ने तुरंत समझ लिया कि मृत्यु के ये बिखरे हुए मामले वास्तव में प्लेग के मामले थे। उन्होंने आने वाले दुर्दिन को भांप लिया था।  11 फरवरी 1904 को उन्होंने जोहान्सबर्ग के हेल्थ ऑफिसर को पत्र लिखकर वहां की अस्वस्थकर स्थितियों की जानकारी दी और कहा कि अगर तुरत उचित प्रबंध नहीं किए तो काली महामारी तक फैल सकती है। किन्तु पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट ने उसका कोई नोटिस नहीं लिया।

गांधीजी की कल्पना से पहले उनकी आशंका सच हो गई। 1904 में जोहान्सबर्ग में असामान्य रूप से वर्षा हुई थी। पिछले सत्तरह दिनों से मूसलाधार बारिश हो रही थी। जोहान्सबर्ग की सड़कों और गलियों में पानी का जमाव हो गया था और अस्पताल एक अजीब, अज्ञात बीमारी से पीड़ित लोगों से भरे हुए थे। गन्दगी बढ़ने के साथ उस कुली लोकेशन (गिरमिटिया भारतीय बस्ती)  में प्राणघातक काली प्लेग की महामारी फैल गई। सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग को इनके बारे में पहले ही पता चल गया था। विभाग ने कुछ जांच की, लेकिन इस नतीजे पर पहुंचा कि यह प्लेग नहीं था। नगर निगम के अधिकारी बीमारी का निदान करने में असमर्थ थे और कोई उचित सावधानी नहीं बरती गई। शुरू में कुछ समय तक तो म्युनिसिपैलिटी के अधिकारी इसकी पहचान ही न कर पाए। इस लापरवाही से आवश्यक सतर्कता नहीं बरती जा सकी। यह फेफड़ों की महामारी थी। निमोनिया वाली यह प्लेग ब्यूबोनिक प्लेग से भी अधिक भयंकर था। न्यूमोनिक प्लेग बहुत तेजी से हमला करता था और कुछ ही दिनों में मौत का कारण बन जाता था। चेहरा अजीब तरह से रंगहीन हो जाता था, थूक में छोटे-छोटे सफेद धब्बे होते थे और सांस लेने में बहुत तेज आवाज आती थी। यह बहुत संक्रामक था और इसका कोई ज्ञात इलाज नहीं था। प्लेग के मरीजों के अस्पताल में जाने वाला व्यक्ति बहुत खतरे में होता था, और डॉक्टर और नर्स भी बहुत खतरे में होते थे। यह महामारी प्राणघातक थी।

हालाकि महामारी का कारण वह लोकेशन नहीं था। जोहान्सबर्ग के आस-पास अनेक सोने की खाने थीं। महामारी का कारण उन खानों में से एक खान थी। उस खान में मुख्य रूप से हब्शी काम करते थे। उनकी साफ़-सफ़ाई का ख्याल गोरे मालिकों को रखना था। उस खान में कुछ भारतीय मज़दूर भी काम करते थे। उन भारतीयों में से 23 को इस संक्रामक बीमारी की छूत लग गई और एक दिन शाम को वे इस महामारी से ग्रसित होकर अपने लोकेशन वाले घर में आ गए थे। इस तरह उस लोकेशन में यह महामारी पहुंच गई।

‘इंडियन ओपिनियन’ के मालिक मदनजीत व्यावहारिक समाचार पत्र के ग्राहक बनाने और चन्दा वसूलने के लिए 18 मार्च 1904 को उस लोकेशन में गए थे। जब वे लोकेशन में घर-घर घूम रहे थे, तो उन्होंने देखा कि वहां के लोग काफ़ी बीमार हैं। उन्होंने देखा कि कई मृत या मरते हुए लोगों को रिक्शा द्वारा उस स्थान पर फेंका जा रहा था। उनका हृदय व्यथित हुआ। मदनजीत व्यावहारिक निडर आदमी थे। उन्होंने एक ख़ाली पड़े मकान का ताला तोड़कर उस पर क़ब्ज़ा जमाया। उसके बाद तेईस रोगियों को उस मकान में लाकर उसमें रखा। उन्होंने गांधीजी के पास पेंसिल से लिखी एक पर्ची भेजी, जिसमें लिखा था, “यहां अचानक महामारी फूट पड़ी है। आपको तुरन्त जाकर कुछ करना चाहिए, नहीं तो परिणाम भयंकर होगा। तुरंत आइए।

शाम के 4.30 बज रहे थे। संयोग से गांधीजी दफ़्तर में ही थे। संदेश पढ़ते ही अपनी साइकिल से वे उस लोकेशन पर पहुंचे। 18 मार्च 1904 को  सबसे पहले उन्होंने डॉ. पेक्स (Dr. Pakes) जिसके पास मेडिकल ऑफिसर, हेल्थ का कार्य प्रभार था और टाउन क्लर्क को पूरी जानकारी और किन हालातों में मकान पर क़ब्ज़ा जमाया गया है, तफ़सील से लिख भेजी। इंगलैंड से कुछ दिन पहले ही डॉक्टर विलियम गॉडफ्रे, एक भारतीय, लौटकर आए थे और जोहान्सबर्ग में डॉक्टरी कर रहे थे। महामारी का समाचार मिलते ही वे भी लोकेशन की ओर रवाना हुए। गांधीजी और उनके साथियों ने कमरे में तेईस प्लेग के मरीज़ों को पाया। तब तक शाम के 6.30 बज चुके थे। डॉ. विलियम गॉडफ्रे ने तुरंत इस अस्थायी अस्पताल को अपने नियंत्रण में ले लिया और व्यवस्था की कि रात भर एक मेडिकल अटेंडेंट मौजूद रहे। आते ही वे बीमारों का उपचार करने लगे। उपचार में गांधीजी और मदनजीत उनकी मदद कर रहे थे। पर तीन लोगों द्वारा भयंकर रोग से ग्रस्त तेईस बीमारों को संभालना टेढ़ी खीर थी। यह बगलगांठ का प्लेग नहीं था, फेफड़ों का प्लेग था।

गांधीजी का सदा से मानना रहा है कि यदि भावना शुद्ध हो, तो संकट का सामना करने के लिए सेवक और साधन मिल ही जाते हैं। गांधीजी के ऑफिस में कल्याणदास, माणिकलाल और दूसरे दो भारतीय और थे। कल्याणदास के पिता ने उन्हें गांधीजी सौंप दिया था ताकि वे सामाजिक काम में गांधीजी की मदद करें। वे बड़े परोपकारी और आज्ञा-पालक स्वभाव के व्यक्ति थे। उस समय तक वे ब्रह्मचारी भी थे। गांधीजी ने उन्हें इस जोखिम भरे काम में लगा दिया। माणिकलाल से गांधीजी की भेंट जोहान्सबर्ग में हुई थी। वे भी कुंवारे थे। अपने इन चारों मुंशियों को सेवा के इस काम में गांधीजी ने लगा दिया।

दोपहर में म्युनिसिपल अधिकारियों ने लोकेशन से दूर एक अच्छी जगह गांधीजी को बुलाकर उनसे इस विषय पर चर्चा की और मरीज़ों की देखभाल करने के लिए उनका आभार प्रकट किया।  साथ ही यह भी कहा कि वे मरीज़ों के लिए फिलहाल और कोई सहायता नहीं दे सकते। उन्होंने यह भी कहा कि जो भी आवश्यक खर्च होगा आप वहन कीजिए। कल सुबह तक हम कोई उचित जगह की तलाश करेंगे। इतना कह वे मरीज़ों को गांधीजी के हवाले छोड़ कर चले गए।

भारतीय समुदाय ने एक आम सभा बुलाई और खतरे को भांपते हुए उन लोगों ने चंदा इकट्ठा किया। भारतीय दुकानदारों से सामान मुहैया कराए गए। एक या दो घंटे के भीतर अमीर और गरीब लोगों ने लगभग 1000 पाउंड का चंदा जमा कर दिया। जिस तरह से गरीब लोग चंदा देने के लिए आगे आए, उससे उनकी सबसे बड़ी साख झलकती है। बहुत से ऐसे मामले थे जब बहुत गरीब लोग - फेरीवाले और टोकरी वाले - ने दिल खोलकर अपनी जेबें और पर्स खाली कर दिए और कुछ मामलों में देने के लिए पैसे उधार भी लिए।

सरकार की तरफ़ से रैंड प्लेग कमिटी द्वारा अधिकृत रिपोर्ट ज़ारी की गई वह इस प्रकार थी,

During the evening of the 18th March, Mr. Gandhi, Dr. Godfrey and Mr. Madanjit interested themselves, removed all the sick Indians they could find to Stand 36, Coolie Location, procured some beds, blankets stc., and made the sufferers as comfortable as possible.’’ ("18 मार्च की शाम को, श्री गांधी, डॉ. गॉडफ्रे और श्री मदनजीत ने स्वयं इसमें रुचि दिखाई, जितने भी बीमार भारतीयों को वे ढूंढ पाए, उन्हें स्टैंड 36, कुली स्थान पर ले गए, कुछ बिस्तर, कंबल आदि का प्रबंध किया, तथा पीड़ितों को यथासंभव आरामदायक स्थिति प्रदान की।")

उधर मि. लुइस वाल्टर रिच इस काम में जुटने के लिए तैयार बैठे थे, किंतु गांधीजी ने उनके बड़े परिवार, जो उनके ऊपर आश्रित था, को ध्यान में रखकर उन्हें रोक दिया। फिर भी वे बाहर का काम देखते रहे। उन चार लोगों के लिए भी यह एक भयंकर अनुभव था। प्लेग के बीमारों की सेवा-शुश्रुषा गांधीजी ने इसके पहले कभी नहीं की थी। वह रात काफ़ी भारी थी। किंतु डॉ. गॉडफ्रे की निःस्वार्थ और अनवरत सेवा ने उन सबको निडर बना दिया था। बीमारों को दवा देते, ढाढ़स बंधाते, पानी पिलाते और उनके मल-मूत्र की सफ़ाई करते रात कट गई। चारों नौजवानों ने जी-तोड़ मेहनत की। रात जैसे-तैसे बीती। उस रात एक भी बीमार की मौत  नहीं हुई! संभवतः संक्रमित लोगों को अलग करने में उनकी तत्परता ने जोहान्सबर्ग को एक भयावह आपदा से बचा लिया।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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