गांधी और गांधीवाद
125. नए-नए
लोगों से संपर्क
1903
हरबर्ट किचन से भेंट
जोहान्सबर्ग
के ऑफिस में गांधीजी के पास चार भारतीय कारकुन (इन्तज़ाम करने वाला, कारिन्दा) हो गए थे। हालाकि वे उन्हें बेटे की तरह
मानते थे, लेकिन उनके रहने से भी गांधीजी
का काम नहीं चल रहा था। उन्हें टाइपिंग नहीं आती थी। उन चार नवयुवकों में से दो को
तो गांधीजी ने खुद ही टाइपिंग सिखाई, लेकिन उनका अंग्रेज़ी का ज्ञान बहुत ही कम था, इसलिए उनकी टाइपिंग कभी भी अच्छी हो ही न सकी। गांधीजी
को ऐसे आदमी की भी ज़रूरत थी, जो हिसाब-किताब तो बराबर
रख ही सके पत्र-व्यवहार भी कर सके। उन दिनों गांधीजी का काम भी काफ़ी बढ़ गया था।
उनके लिए यह संभव नहीं हो पा रहा था कि वे वकालत और सार्वजनिक सेवा, दोनों का काम ठीक से कर सकें। नेटाल से भी किसी को
बुला नहीं पा रहे थे क्योंकि परमिट की अड़चन थी। पत्रों का अम्बार लगता जा रह था।
यदि कोई अंग्रेज़ भी मिल जाता तो उन्हें काफ़ी सुविधा होती, पर किसी काले के यहां कोई गोरा काम करने को तैयार
होता क्या?
समय के साथ मित्रों ने उनकी
इस आदत को उदारतापूर्वक सहन भी किया। नए लोगों के साथ जब भी कोई दुखद स्थिति आई गांधीजी
ने उनका दोष बताने में कभी संकोच भी नहीं किया। गांधीजी का मानना था कि जो अपने
में विद्यमान ईश्वर को सब में देखना चाहते हैं, उसे सबके साथ अलिप्त होकर रहने की शक्ति भी आनी चाहिए। इसी सिद्धांत
को मानते हुए वे नए-नए लोगों से संपर्क स्थापित करते रहते और उनके साथ रहते हुए
राग-द्वेष से दूर भी रहते। इसी सिद्धांत के तहत जब बोअर-ब्रिटिश युद्ध हुआ, तो अपना घर भरा होने के बावज़ूद
उन्होंने जोहान्सबर्ग से आए हुए दो अंग्रेज़ों को अपने यहां टिका लिया। दोनों
थियोसॉफिस्ट थे। उनमें से एक का नाम हरबर्ट किचन था। जो बाद के दिनों में
भी उनके लिए काफ़ी मददगार साबित हुआ। इलेक्ट्रिकल
इंजीनियर और थियोसोफिस्ट हर्बर्ट किचिन इन्डियन ओपिनियन के अंग्रेजी संपादक बनाए
गए। अंग्रेजी स्तंभों के संपादन में पोलक उनका सहायक
हुआ करता था। जब 20 जनवरी 1906 को गांधीजी के प्रति समर्पित
मनसुखलाल नज़र की अचानक मृत्यु हो गई, तो उनके बाद कुछ समय के लिए इंडियन ओपिनियन के मुख्य संपादक के रूप
में हरबर्ट किचिन को नियुक्त किया गया, जो उस समय इस बस्ती में शामिल हो गए थे। युद्ध के दौरान डरबन में वह शरणार्थी
के रूप में गांधीजी के घर में रहते थे। जब उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध अपनाने पर
गांधीजी से असहमति के कारण इस्तीफा दे दिया, तो एच.एस.एल. पोलाक ने
उनका स्थान लिया (1906-1916)। जब गांधीजी लंदन गए और 1906 में दक्षिण अफ्रीकी
ब्रिटिश भारतीय समिति की स्थापना की, तो रिच इसके
सचिव बने और उन्होंने बहुमूल्य कार्य किया। हर्बर्ट किचिन भी इसके एक अन्य
संस्थापक थे। जीवन के कई पहलुओं में भारतीय शैली को अपनाते हुए, वे व्यावहारिक रूप से गांधीजी के परिवार के सदस्य बन गए। बाद में वे फीनिक्स
सेटलमेंट के निवासी भी हुए। वह एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। पेशे से इलेक्ट्रिकल
इंजीनियर, उन्हें एक्स-रे और रेडियो के साथ अपने प्रयोगों के लिए एक बड़े कमरे
की आवश्यकता थी, और उनके पास एक बड़ी लाइब्रेरी भी थी। उन्होंने पूरी बस्ती में बिजली
की रोशनी स्थापित की और यहां तक कि एक टेलीफोन भी लगाया। फीनिक्स छोड़ने के बाद, उनके घर का
उपयोग गांधीजी और उनके परिवार द्वारा किया गया।
इन्डियन ओपिनियन पत्रिका के संभावित ग्राहकों को भेजे गए पत्र
में,
गांधीजी
ने घोषणा की कि "चार स्वतंत्र अंग्रेज...और उतनी ही संख्या में भारतीय" फीनिक्स
बस्ती के आठ संस्थापक थे। इस समूह को बसने वाले या "योजना बनाने वाले"
के रूप में जाना जाता था क्योंकि उन्होंने योजना को निर्धारित करने वाले एक समझौते
पर हस्ताक्षर किए थे, उन्हें जमीन, 3 पाउंड प्रति माह और मुनाफे में हिस्सा मिलना था। चार
अंग्रेजों में से एक थे हरबर्ट किचन।
फिर भी उनका चिड़चिड़ा स्वभाव, जो शराब के प्रति उनकी
कमजोरी से और भी बदतर हो गया था, उनके साथ काम करना अक्सर मुश्किल बना देता था। शाम को वह खेत
में टिन के डिब्बे लगाते और शूटिंग का अभ्यास करते। उन्हें कुछ विशेष सुविधाएँ दी
गईं,
जिसमें
अन्य योजनाकारों की तुलना में बड़ा घर भी शामिल था। बाद में उन्होंने
"योजना" छोड़ दी और वेतन पर चले गए, जो दूसरों को मिलने वाले
वेतन से अधिक था। अंततः उन्होंने गांधीजी के निष्क्रिय प्रतिरोध को अपनाने पर
असहमति जताते हुए संपादक पद से इस्तीफा दे दिया और व्यावसायिक पराजय के बाद 1915
में खुद को गोली मार ली।
लियोनेल कर्टिस (Lionel Curtis)
गांधीजी का काम दोनों स्तरों
पर चल रहा था। एक तरफ़ एशियाटिक डिपार्टमेंट की ज़्यादतियों के विरोध में संघर्ष तो
दूसरी तरफ़ वकालत का पेशा। एशियाटिक डिपार्टमेंट का प्रमुख नीतिकार, ट्रांसवाल का सहायक उपनिवेश सचिव लियोनेल
जॉर्ज कर्टिस (Lionel George Curtis, 1872-1955) था। उसने दक्षिण अफ़्रीकी युद्ध (1899-1902) में लड़ाई लड़ी और बाद में
दक्षिण अफ़्रीका में ब्रिटिश उच्चायुक्त सर अल्फ्रेड मिलनर के सचिव बने। कर्टिस ने
ट्रांसवाल सरकार में कई पदों पर भी काम किया। कुछ समय के लिए वह जोहान्सबर्ग के
टाउन क्लर्क थे; उन्होंने ट्रांसवाल में
नगरपालिका सरकार के पुनर्गठन की भी देखरेख की। 1906 में उन्होंने दक्षिणी अफ़्रीका
में चार ब्रिटिश उपनिवेशों के संघीय संघ के लिए काम करने के लिए इस्तीफा दे दिया, और उन्होंने एक संघीय विश्व व्यवस्था की अवधारणा विकसित करना शुरू कर
दिया, जिसने उन्हें अपने जीवन
के बाकी हिस्सों में व्यस्त रखा। वह एक उदार
प्रकृति का इंसान था। दक्षिण अफ़्रीका पहुँचने के कुछ समय बाद ही गांधीजी की
मुलाक़ात ट्रांसवाल के इस ब्रिटिश अधिकारी से हुई,
जो
भारतीयों के अप्रवास की समस्याओं से चिंतित थे। 1903 में जब गांधीजी उससे मिले थे, तो उन्होंने उसे भारतीयों की उद्यमशील,
अल्पव्ययी और धैर्य जैसी अच्छी आदतों से उसपर प्रभाव
डालने का प्रयत्न किया था। गांधीजी को सुनने के बाद उसका जवाब था, “मि. गांधी! यह तो वही बात हुई कि आप
एक धर्म-दीक्षित को उपदेश दे रहे हों। मैं इन सब चीज़ों से वाकिफ़ हूं। आपकी जानकारी
के लिए मैं आपको बताना चाहता हूं कि यूरोपीय भारतीयों से उनकी बुराई से नहीं उनके
सदाचार से डरते हैं।”
सदाचार का सबसे बड़ा उदाहरण तो
गांधीजी स्वयं थे। उनके अच्छे व्यवहार के कारण न सिर्फ़ मुवक्किलों के बीच बल्कि
साथी वकीलों के बीच भी उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती जा रही थी। अब तक वे एक जाने-माने वकील
के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे, जिनका सम्मान कोर्ट भी करती थी। क्रॉस एक्ज़ामिनेशन के वे माहिर वकील
माने जाते थे। ग़लत गवाही को तोड़ने की कला उन्हें खूब आती थी। साथ ही अपने मुवक्किल
से भी वे सख्ती से पेश आते थे। उनके साथ हुए करार की एक शर्त यह भी होती थी कि
अदालती कार्रवाई के दौरान किसी भी बिन्दु पर यदि उन्हें यह अहसास हुआ कि मुवक्किल
ने उनके साथ धोखा किया है, तो वे अपने आपको उस केस से अलग कर लेंगे। गांधीजी का हमेशा से अपने
मुवक्किलों को यह सलाह रहती थी कि मामले को कोर्ट के बाहर ही निपटा लिया करें।
नेटाल में जहां उनकी औसत
मासिक आमदनी 150 पौंड थी, वहीं ट्रांसवाल में यह 300 पौंड तक हो गई थी। धीरे-धीरे उसमें बढोत्तरी ही हो रही थी। यह अब
सालाना पांच से छह हज़ार पौंड तक हो गई थी। ग़रीबों से वे कम या बिल्कुल ही फ़ीस नहीं
लेते थे। गांधीजी का मानना था कि एक वकील का कर्तव्य है कि वह एक दोषी को निर्दोष
साबित करने के बजाए कोर्ट को सच तक पहुंचने में मदद करे। वे मुवक्किल से सच बोलने
के लिए कहते, अपना अपराध कबूल कर दंड स्वीकार करने की सलाह देते। एक वकील के रूप
में भी उनका प्रमुख उद्देश्य होता कि व्यक्ति में परिवर्तन आना चाहिए।
इन सब बढ़े हुए काम के लिए
उन्हें कई सहायकों की ज़रूरत पड़ती थी। दक्षिण अफ़्रीका में गांधीजी ने अपने भारतीय
मुंशियों और अन्य कई मित्रों को अपने घर में परिवार के सदस्य के रूप में रखा था।
उसी तरह वे अंग्रेज़ों को भी रखने लगे थे। हालाकि उनका यह व्यवहार साथ रहने वाले कई
लोगों को अखरता था, फिर भी गांधीजी ने उन्हें अपने घर में जगह दी हुई थी। इस कारण उन्हें
कड़वे-मीठे दोनों तरह के अनुभव हुए, पर उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया। हालाकि ऐसे कड़वे अनुभव
देशी-विदेशी दोनों तरह के मित्रों के संबंध में हुए,
फिर भी गांधीजी को इसके लिए न कभी भी पश्चाताप हुआ और न
ही उन्होंने अपनी आदत में परिवर्तन लाया।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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