रविवार, 10 नवंबर 2024

132. गांधीजी के विदेशी सहयोगी-7. हेनरी पोलाक

 गांधी और गांधीवाद

132. गांधीजी के विदेशी सहयोगी-7हेनरी पोलाक

 

 

ट्रान्सवाल क्रिटिक’ के सहायक संपादक हेनरी सोलोमन लिओन पोलाक

1904

 

महामारी के दौरान जिस भाव से गांधीजी ने बीमारों की सेवा की थी, लोगों में उनका विश्वास और बढ़ गया था। भारतीयों के बीच तो वे मशहूर थे ही, यूरोपियन के बीच भी उनकी साख बढ़ी। उन लोगों से न सिर्फ़ जान-पहचान बढ़ी बल्कि निकटता भी। गांधीजी ने उन दिनों अख़बारों में रोज़ बिगड़ती हुई हालात के बारे में समाचार और चिट्ठियां छापीं और लोगों का ध्यान इस तरफ़ आकर्षित किया था। इन लोगों में से एक थे हेनरी सॉलोमन लियोन पोलाक (1882 - 31 जनवरी 1959)

पोलाक मिलने से खुद को रोक न पाया

 

मार्च 1904 में, एक दिन एडा बिस्सिक्स (Ada Bissicks) द्वारा चलाए जा रहे दि एलेक्ज़ेण्ड्रा (The Alexandra) निरामिष भोजनालय में जिस मेज पर गांधीजी बैठे हुए थे, उससे दूर की दूसरी मेज पर एक बाईस वर्षीय हट्टा-कट्टा नौजवान भोजन कर रहा था। उसने गांधीजी से मिलने के उद्देश्य से एक कार्ड उनके पास भिजवाया। वे गांधी जी के अखबारों में लिखे गए लेखों से प्रभावित थे। खासकर नगरपालिका अधिकारियों के बारे में गांधीजी की गंभीर और खुली आलोचना से पोलाक इतने प्रभावित हुए कि उनसे मिलने के लिए बेचैन हो उठे। गांधीजी ने उसे अपनी मेज पर आने का निमंत्रण दिया। वह आया। उसने अपना परिचय दिया, “मैं ‘ट्रांसवाल क्रिटिक’ का उप-संपादक हूं। मेरा नाम हेनरी एस. एल. पोलाक (Henry S.L. Polak) है। महामारी विषय पर आपके पत्र पढ़ने के बाद मुझे आपसे मिलने की बड़ी इच्छा हुई। नगरपालिका अधिकारियों के बारे में आपकी गंभीर और खुली आलोचना से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं। तब से  आपसे मिलने का अवसर ढूंढ़ रहा था और आज मुझे यह अवसर मिला। मैं खुश हूं।


गांधीजी जोहान्सबर्ग स्थित अपने कार्यालय के सामने अपनी सचिव सोंजा श्लेसिन, हेनरी सोलोमन पोलाक के साथ

पोलाक का जन्म केंट के डोवर में जोसेफ और एडेल सोलोमन पूल के यहूदी परिवार में हुआ था। गांधीजी 1882 में इंगलैंड के डोवर में जन्मे उस यहूदी की तरफ़ आकर्षित हुए। दोनों में शाम तक बातचीत होती रही। दोनों को ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो जैसे वर्षों की पहचान हो। दोनों को एक-दूसरे के विचारों में साम्य नज़र आया। पोलाक को भी सादा जीवन पसंद था। दोनों की प्रगाढ़ और स्थाई मित्रता होने वाली थी। पोलाक में दुनिया की अस्त-व्यस्त स्थिति के बारे में कुछ करने की इच्छा थी। गांधीजी ने उनके बारे में लिखा, "उनमें अपनी बुद्धि को आकर्षित करने वाली किसी भी चीज़ को व्यवहार में लाने की अद्भुत क्षमता थी।" उन्हें जीवन की सरल चीज़ें पसंद थीं, लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा पसंद था किसी अच्छे उद्देश्य के लिए काम करना। पोलाक के स्वभाव में एक प्रकार की ऐसी सरलता थी कि जिस आदमी पर उन्हें विश्वास हो जाता उससे बहस न करके वे उसके मत के अनुकूल बनने का प्रयत्न करते थे। वे मानवतावाद में विश्वास करते थे।

मार्च 1904 के इस मिलन के बाद दोनों कई बार मिले। अभी तक गांधीजी ने बड़ा या अलग घर नहीं लिया था। वे रिसिक स्ट्रीट (Rissik Street) के अपने दफ़्तर के पीछे ही एक छोटे कमरे में रहते थे। जब हेनरी पोलाक उनके कमरे में गया तो उसे काफ़ी आश्चर्य हुआ। गांधीजी के डेस्क के सामने क्राइस्ट की एक बड़ी तस्वीर थी। इसके अलावा जस्टिस रानाडे, दादा भाई नौरोजी और गोपालकृष्ण गोखले की पोर्ट्रेट थी। गांधीजी की कुर्सी के बगल में एक छोटा सा बुक-केस था। उसमें बाइबल, सर एडविन आर्नॉल्ड (Sir Edwin Arnold) की पुस्तक दि सौन्ग सेलेस्टियल’ (The Song Celestial) टॉल्सटॉय की कई रचनाएं और मैक्स मुलर (Max Muller) की इंडिया व्हाट कैन इट टीच अस?” (India : What Can It Teach Us?) आदि पुस्तकें थीं। उनके रिश्ते जल्द ही बहुत ही सौहार्दपूर्ण और घनिष्ठ हो गए, और शायद ही कोई ऐसी बात हो जिस पर वे चर्चा न करते हों। गांधीजी की आदत थी कि जब वे कोई शब्द या अभिव्यक्ति खोजते थे तो वे तेजी से सांस लेते थे। इससे उनका ध्यान भटक जाता था, और पोलाक ने उन्हें धीरे से इस दोष को सुधारने के लिए राजी किया। कुछ ही दिनों में यह फुफकारने वाली आवाज पूरी तरह से गायब हो गई। शाकाहारी गांधीजी को उन दिनों प्याज़ खाने की लत थी, जिसके कारण पोलाक ने मज़ाकिया अंदाज़ में अमाल्गमेटेड सोसाइटी ऑफ़ अनियन ईटर्स का उद्घाटन किया, जिसके अध्यक्ष गांधीजी थे और कोषाध्यक्ष के तौर पर वे खुद एक ऐसे खजाने की अध्यक्षता कर रहे थे जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। जहाँ तक ज्ञात है, वे सोसाइटी के एकमात्र सदस्य थे।

इन्डियन ओपिनियन के बारे में वेस्ट के रिपोर्ट देने पर सितम्बर, 1904 में गांधीजी डरबन की यात्रा पर निकल पड़े। पोलाक ने उन्हें जोहान्सबर्ग स्टेशन पर विदा किया। उन्होंने उन्हें डरबन की चौबीस घंटे की यात्रा के लिए एक किताब उधार दी, और कहा कि गांधीजी को यह ज़रूर पसंद आएगी। यह किताब जॉन रस्किन की "अनटू दिस लास्ट" थी। गांधीजी इसे छोड़ नहीं पाए; बल्कि इसने उन्हें अपनी गिरफ़्त में ले लिया। डरबन पहुँचने से पहले ही उन्होंने किताब के सिद्धांतों को अमल में लाने का संकल्प ले लिया था। इसके बारे में विस्तार से अगले अध्याय में बताया जाएगा। तुरंत कार्रवाई करते हुए गांधीजी ने वेस्ट को प्रस्ताव दिया कि इंडियन ओपिनियन को एक ऐसे खेत में ले जाया जाए जहाँ सभी को काम करना चाहिए, एक समान जीविका मजदूरी मिलनी चाहिए और छपाई में भी मदद करनी चाहिए। फीनिक्स में एक फार्म स्थापित किया गया। पोलाक ने फीनिक्स में रहने की पेशकश की। गांधीजी खुश हुए।

क्रिटिक को एक महीने का नोटिस देकर पोलाक फीनिक्स चले गए। तीन एकड़ के प्लॉट पर नालीदार लोहे के घर में रहने लगे। इस तरह वह गांधीजी के साथ जुड़ गए। लेकिन गांधीजी को जल्द ही जोहान्सबर्ग के अपने कानूनी कार्यालयों में उनकी जरूरत पड़ने लगी। कानून की पढाई पूरी करने के लिए रीच लन्दन चले गए थे पोलाक ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए फीनिक्स छोड़ दिया और जोहान्सबर्ग लौट आए, जहाँ गांधीजी के दफ़्तर में एक प्रशिक्षार्थी क्लर्क बनकर उनके सहायक हो गए। जनवरी 1906 में जब मनसुखलाल नज़र की मृत्यु हो गई, तो पोलाक इंडियन ओपिनियन के संपादक बन गये, और यह काम उन्होंने जोहान्सबर्ग से संचालित किया। तब से इंडियन ओपिनियन ने भारतीय समुदाय की बहुत अच्छी सेवा की। इसमें कोई संदेह नहीं कि इसके बिना निष्क्रिय प्रतिरोध असंभव होता। यह एक अद्भुत शैक्षिक शक्ति रही थी और पोलाक के कुशल और सुसंस्कृत संपादकत्व में इसका प्रभाव और भी अधिक था। पोलाक इस पत्र के तीसरे संपादक बने। पोलाक के लेख आम तौर पर आक्रामक और भड़कीले होते थे, लेकिन उन्होंने गांधीजी से लेखन में संयम और वस्तुनिष्ठता के सिद्धांत सीखे और पाया कि एक संपादक के लिए इनका पालन करना महत्वपूर्ण है।

हेनरी की मिली से दोस्ती

जब गांधीजी ट्रौविले हाउस में रहने लगे, तो गांधीजी के निमंत्रण को स्वीकार कर पोलाक उसी घर में रहने आ गए। पोलाक अविवाहित थे, लेकिन ज़्यादा समय तक नहीं।  हेनरी की मिली ग्राहम नाम की लड़की से दोस्ती थी। उन्हें लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में दाखिला मिला लेकिन वे वहां पढ़ाई का खर्च वहन करने में असमर्थ थे और स्विट्जरलैंड में कुछ समय तक वाणिज्य का अध्ययन करने के बाद उन्होंने लंदन में क्वीन्स रोड इवनिंग इंस्टीट्यूट में शाम की कक्षाओं में भाग लिया। यहाँ उनकी मुलाकात मिली ग्राहम डाउंस से हुई, जो एक ईसाई सामाजिक कार्यकर्ता थीं। दोनों इथिकल सोसाइटी के सदस्य थे। वहीं दोनों की दोस्ती हुई। दोस्ती प्यार में बदल गई। वे शादी करना चाहते थे। शादी से पहले पोलाक थोड़ा धन संग्रह कर लेने की बाट जोह रहे थे। गांधीजी ने उनसे कहा, 'जिसके साथ हृदय की गाँठ बंध गयी है, केवल धन की कमी के कारण उसका वियोग सहना अनुचित कहा जायेगा। आपके हिसाब से तो कोई गरीब विवाह कर ही नहीं सकता। फिर अब तो आप मेरे साथ रहते हैं। इसलिए घर खर्च का सवाल ही नहीं उठता। मैं यही ठीक समझता हूँ कि आप जल्दी अपना विवाह कर लें।'

1903 में पोलाक पारिवारिक व्यवसाय में सेवा करने के लिए दक्षिण अफ्रीका चले गए और मिली वहीँ लन्दन में रह गईं थीं। गांधीजी ने चिट्ठी लिखकर विलायत में रह रही मिली को जोहानिसबर्ग बुला लिए। 30 दिसंबर, 1905 की सुबह छह बजे, मिली जेप्पे स्टेशन, जोहान्सबर्ग पहुंची, और उसने देखा कि गांधीजी और मिस्टर पोलाक उसके लिए प्लेटफॉर्म पर इंतज़ार कर रहे हैं। गांधीजी तब तक शहर से दूर एक सभ्य इलाके में एक विशाल दो मंजिला घर में चले गए थे, जिसके सामने एक छोटा बगीचा और लॉन था। हेनरी पोलाक सहित तीन अन्य व्यक्ति भी उसी छत के नीचे रहते थे। घर शहर के बाहरी इलाके में था और उसके पड़ोस में अच्छे मध्यम वर्ग के लोग रहते थे। यह आधुनिक विला प्रकार की एक दो मंजिला, अलग, आठ कमरों वाली इमारत थी, जो एक बगीचे से घिरी हुई थी, और सामने खुला स्थान था। ऊपर का बरामदा काफी बड़ा था। गांधीजी और पोलाक के अलावा परिवार में उनकी पत्नी कस्तूरबा और तीन बेटे, मणिलाल, ग्यारह वर्ष, रामदास, नौ वर्ष, और देवदास, छह वर्ष, टेलीग्राफ सेवा में लगे एक युवा अंग्रेज, गांधीजी के एक युवा भारतीय वार्ड शामिल थे। परिवार में मिली भी जुड़ने वाली थीं। मिली एक गहरी नज़र रखने वाली प्रेक्षिका थीं और अपने ख़ुद के विचार रखती थीं।

दोनों की शादी कराई

31 दिसम्बर को गांधीजी ने यहूदी हेनरी और ईसाई मिली की शादी कराई। विवाह में खर्च बिलकुल नहीं किया गया। विवाह की कोई खास पोषाक भी नहीं बनवायी गयी थी। उन्हें धार्मिक विधि की आवश्यकता न थी। मिसेज पोलाक जन्म से ईसाई और पोलाक यहूदी थे। दोनों के बीच सामान्य धर्म तो नीति धर्म ही थी। गांधीजी उनके विवाह के अवसर पर सहबाला (बेस्ट मैन) बने। श्रीमती पोलाक ब्याह के बाद तुरन्त ही बापू जी के एक परिजन के नाते उनके घर में ही रहने लगीं। उस दिन मिली को ट्रांसवाल में नस्लीय संबंधों की तनावपूर्ण स्थिति का पहला अनुभव हुआ। जब मिली और हेनरी विवाह रजिस्ट्रार के सामने पेश हुए तो आवश्यक विवरण लेने के बाद, विवाह रजिस्ट्रार कुछ समय के लिए गायब हो गए। शनिवार की सुबह होने के कारण, और दोपहर को कार्यालय बंद होने के कारण, वे कुछ चिंतित हो गए। गांधीजी देरी का कारण जानने के लिए मुख्य मजिस्ट्रेट के कार्यालय गए। गांधीजी को पता चला कि रजिस्ट्रार ने उनकी शादी की वैधता पर सवाल उठाया था, क्योंकि ट्रांसवाल कानून के तहत, एक गोरे और एक रंग के व्यक्ति के बीच विवाह निषिद्ध था। पोलाक के गांधीजी और भारतीय समुदाय के साथ घनिष्ठ संबंध के कारण रजिस्ट्रार ने मान लिया था कि वह एक "रंगीन व्यक्ति" होना चाहिए! सौभाग्य से गांधीजी ने मुख्य मजिस्ट्रेट की दुविधा दूर की।

शेठ अब्दुल गनी 1903 से 20 अप्रैल 1907 तक ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे, जब इस्सोप मियां ने कार्यवाहक अध्यक्ष का पदभार संभाला। वे 10 सितंबर 1908 तक इस पद पर रहे। उसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया और शेठ कचालिया अध्यक्ष बन गए। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में अपने पूरे प्रवास के दौरान इसके सचिव बने रहे और उनकी अनुपस्थिति के दौरान सहायक सचिव के रूप में उनकी मदद करने और उनके काम को आगे बढ़ाने के लिए एच.एस.एल. पोलाक को नियुक्त किया गया। जून 1909 में, टी.बी.आई.ए. ने हेनरी पोलाक सहित एक प्रतिनिधिमंडल को भारत में जनमत जुटाने के लिए भेजने का निर्णय लिया। भारत में पोलाक ने ट्रांसवाल में हो रही घटनाओं के बारे में कई श्रोताओं को बताया था। जब 1909 के अंत में हेनरी पोलाक भारत से दक्षिण अफ्रीका लौटे, तो गांधीजी उनका स्वागत करने के लिए पोर्ट डरबन में थे।

गांधीजी का ध्यान आकर्षित करने के लिए कालेनबाख और पोलाक के बीच प्रतिस्पर्धा थी, लेकिन दोनों की भूमिकाएँ अलग-अलग थीं। पोलाक कालेनबाख से ग्यारह साल छोटे थे। वे गांधीजी के राजनीतिक प्रतिनिधि और दुभाषिया के रूप में काम कर रहे थे। कालेनबाख वित्तदाता और सहायक थे।

1916 में इंग्लैंड लौटने के बाद भी, पोलाक दंपत्ति भारत के भविष्य में काफी रुचि लेते रहे और 1948 में गांधीजी की मृत्यु तक उनके साथ निकट संबंध बनाए रखा। जुलाई 1914 में गांधीजी लंदन के रास्ते भारत के लिए रवाना हुए। अपनी अंतरात्मा की आवाज पर पोलाक अपने परिवार के साथ समझौते के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए यहीं रुके रहे। 1916 में वे भारत गए और 1917 तक भारत में ही रहे। पोलाक ने गांधीजी के भाषणों और लेखों के संग्रह के लिए एक परिशिष्ट भी लिखा, जो वर्ष 1918 में मद्रास के उद्यमी प्रकाशक नटेसन द्वारा प्रकाशित ऐसी पहली पुस्तक थी। तीन दशक बाद, गांधीजी की मृत्यु के ठीक एक साल बाद, पोलाक ने एचएल ब्रेल्सॉर्ड और लॉर्ड पेथिक-लॉरेंस के साथ मिलकर महात्मा गांधी  नामक एक और पुस्तक लिखी। 1916 में इंग्लैंड लौटने के बाद पोलाक ने न केवल दक्षिण अफ्रीका और अन्य विदेशी देशों में भारतीय मामलों में बल्कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की प्रगति में भी बहुत रुचि लेना जारी रखा। 1918 में वे लंदन में 1889 में स्थापित इंडिया के संपादक बने। गांधी और पोलाक के बीच का संबंध वाकई अनोखा था। गांधी उदारवाद और देशभक्ति, संत और राजनेता, दूरदर्शी और यथार्थवादी और राष्ट्रवादी और सार्वभौमिकता का एक अनोखा मिश्रण थे। न्याय और कोमलता के प्रति भावुक प्रेम और मानवता की कमज़ोरियों के प्रति दया के साथ गांधी में कष्ट सहने की अदम्य इच्छा थी। पोलाक दक्षिण अफ्रीका में लंबे समय तक चले निष्क्रिय प्रतिरोध संघर्ष में गांधी के सबसे करीबी सहयोगी और लेफ्टिनेंट थे। पोलाक केवल गांधीजी के अनुयायी या संत नहीं थे। हेनरी पोलाक ने 1904-1916 के दौरान भारतीय जनमत को बचाए रखने में अग्रणी भूमिका निभाई थी। संपादक और सार्वजनिक कार्यकर्ता के रूप में उनका एक उद्देश्य भारतीयों और यूरोपीय लोगों को नस्लवाद की समस्या के बारे में शिक्षित करना और दोनों जातियों के बीच बेहतर समझ पैदा करना था। उनका श्रम प्रेम का था और इस कारण से उनके लेखन ईमानदार थे, प्रशंसा या दोष से अप्रभावित थे और इस दिशा में उन्होंने जो कुछ भी किया वह अत्यंत मूल्यवान था।  फरवरी 1959 में पोलाक की इंग्लैंड में मृत्यु हो गई। लेकिन गांधी, दक्षिण अफ्रीका और भारत के साथ उनका और उनके परिवार का संबंध गांधीवादी इतिहास में ताजा रहेगा।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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