भारतीय काव्यशास्त्र-66
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में अविवक्षितवाच्य ध्वनि (लक्षणामूलध्वनि) के दो भेदों- अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि और अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि के पदद्योत्य (पदगत) भेद पर विचार किया गया था। इस अंक में विवक्षितववाच्य ध्वनि (अभिधामूलध्वनि) असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य और संलक्ष्यक्रमव्यंग्य के
यहाँ असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य (रसध्वनि) के पदद्योत्य भेद के दो उदाहरण लेते हैं। पहले श्लोक में विप्रलम्भ श्रृंगार व्यंग्य है-
लावण्यं तदसौ कान्तिस्तद्रूपं स वचःक्रमः।
तदा सुधास्पदमभूदधुना तु ज्वरो महान्।।
अर्थात् वह सौन्दर्य, वह कान्ति, वह रूप और उसके बोलने का ढंग उस समय (संयोग के समय) तो अमृत के तुल्य लगते थे, पर अब (वियोग के समय) वे ही सन्ताप दे रहे हैं।
इसमें तत् आदि शब्द उस समय के अनुभवगम्य अर्थ को प्रकाशित करते हैं और ये शब्द इस प्रकार विप्रलम्भ श्रृंगार की अभिव्यंजना करते हैं। अतएव यहाँ पदद्योत्य असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य (रसध्वनि) व्यंग्य है।
नीचे दिए गए श्लोक में संयोग श्रृंगार व्यंग्य है और यह भी पदद्योत्य असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि का उदाहरण है-
मुग्धे मुग्धतयैव नेतुमखिलः कालः किमारभ्यते
मानं धत्स्व धृतिं वधान ऋजुतां दूरे कुरु प्रेयसि।
सख्यैवं प्रतिवोधिता प्रतिवचस्तामाह भीतमाना
नीचैः शंस हृदि स्थितो हि ननु मे प्राणेश्वरः श्रोष्यति।।
अर्थात् हे मुग्धे, तुम इस भोलेपन में ही अपना सारा समय (यौवन) क्यों बिता रही हो, तात्पर्य यह कि तुम्हारा इस प्रकार भोली बने रहने से तुम्हारे वश में नहीं आएंगे। उन्हें वश में करने के लिए तुम्हें धैर्य के साथ मान (ईर्ष्यायुक्त क्रोध) करो और प्रियतम के प्रति अपनी इस सरलता को छोड़ो। सखी के इस प्रकार समझाने पर भयभीत भाव से नायिका उससे बोली- हे सखि, धीरे-धीरे बोलो, नहीं तो मेरे हृदय में बैठे मेरे प्राणेश्वर सुन लेंगे।
यहाँ भीतानना अर्थात् भययुक्त मुखमुद्रा वाली व्यंजक पद है, जो धीरे-धीरे बोलने के औचित्य़ की प्रतीति कराता है।
उपर्युक्त श्लोक अमरुकशतक से लिया गया है। महाकवि बिहारीलाल ने निम्नलिखित दोहे में इसका बड़ा ही अच्छा हिन्दी पद्यानुवाद किया है-
सखी सिखावत मान विधि, सैननि बरजति बाल।
हरुए कहु मो हिय बसत, सदा बिहारीलाल।।
यहाँ बिहारी की नायिका अपनी सखी की सिखाई हुई मान की विधि को सुनकर मुँह से नहीं बोलती, बल्कि आँख के इशारे से मना कर रही है- सैननि बरजति बाल। क्योंकि मुँह से बोली बात को हृदय में बैठे प्राणेश्वर सुन लेंगे। लेकिन मो हिय बसत सदा बिहारीलाल में तो अद्भुत चमत्कार देखने को मिलता है। क्योंकि अमरुकशतक की नायिका के प्राणेश्वर तो हृदय में बैठे हैं, लेकिन बिहारी की नायिका ने तो अपने हृदय में उस बिहारी को वश में कर लिया है, जिसका काम सदा विहार करना है। निश्चित रूप से इसमें महाकवि बिहारीलाल का कोई जबाब नहीं है। उक्त श्लोक की तरह ही यहाँ भी सैननि व्यंजक पद है और यह दोहा पदद्योत्य असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि का उदाहरण है।
अब संलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि के पदद्योत्य शब्दशक्त्युत्थ ध्वनि के दो भेदों- वस्तुध्वनि और अलंकारध्वनि के उदाहरण लेते हैं। अन्य लोगों की उपस्थिति में उपनायक के आ जाने से अप्रस्तुतप्रशंसा (अप्रस्तुत की प्रशंसा के द्वारा प्रस्तुत कासंकेत करना। यह एक प्रकार का अलंकार है) के बहाने से नायिका अपने हर्ष को व्यक्त करती हुई कहती है-
भुक्तिमुक्तिकृदेकान्तसमादेशनतत्परः।
कस्य नानन्दनिस्यन्दं विदधाति सदागमः।।
अर्थात् भुक्ति और मुक्ति प्रदान करनेवाला, नियम से एकान्त सेवन और हित-साधन का सम्यक उपदेश देने में तत्पर सदागम (सद्+आगम – उत्तम आगम अर्थात् वेद) या सद्ग्रंथ किसके लिए आनन्ददायक नहीं होता है। यह इस शलोक का वाच्यार्थ है।
यहाँ भुक्ति का अर्थ सुरतभोग, मुक्ति का विरहजन्य दुख से मुक्ति, एकान्त-सेवन-तत्पर का अर्थ मिलन के लिए एकान्त स्थान का संकेत करने में तत्पर और सदागम का अर्थ सुन्दर प्रिय का आगमन किस स्त्री के लिए आनन्ददायक नहीं होता। यह इसका व्यंग्यार्थ है। यहाँ नायिका संकेत करनेवाले उपनायक को मुख्य व्यंजना-वृत्ति से कह रही है। उक्त व्यंग्य सदागम पद से होने के कारण यहाँ पदद्योत्य वस्तुध्वनि है।
इसके बाद अलंकार-ध्वनि का उदाहरण लेते हैं-
रुधिरविसरप्रसाधितकरवालरुधिरभुजपरिघः।
झटिति भृकुटिविटङ्कितललाटपट्टो विभासि नृप! भीम।।
अर्थात् रक्त के प्रवाह से रंगी तलवार से शत्रुओं और मित्रों के लिए क्रमशः भयंकर और मनोहर भुजा के अर्गल (भुजा से रोकने की क्षमता) से युक्त तथा तुरंत भृकुटि से अंकित ललाटवाले हे राजन, आप भीम (के लमान) लग रहे हैं, अर्थात् आप भीम के समान भयंकर लग रहे हैं।
यहाँ भीम पद का अर्थ भयंकर और भीमसेन उपमान के रूप मे भी लिया गया है। यह भीम पद से ध्वनित हो रहा है। अतएव यहाँ उपमालंकार व्यंग्य है। इसे पदद्योत्य शब्दशक्त्युत्थ अभिधामूल-अलंकार ध्वनि का उदाहरण माना गया है।
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ज्ञान का खजाना है आपकी यह श्रृंखला।
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है आप लोग इन सभी आलेखों को एक जगह जरूर एकत्र कर रहे होंगे ताकि शृंखला समाप्त होते ही एक ई किताब की शक्ल दे कर मेरे जैसे व्यक्तियों को इसे मुहैया कराया जा सके
जवाब देंहटाएंबेहद ज्ञानवर्धक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंआपकी इन पोस्टों को पढ़ना हमेशा लाभदायक रहा है.अच्छी श्रृंखला
जवाब देंहटाएंनवीन जी का ख्याल भी अच्छा है. ज्ञानवर्धक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक आलेख..
जवाब देंहटाएंउत्तम...अच्छी जानकारी.
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी पोस्ट!
जवाब देंहटाएंसाहित्य के विद्यार्थियों तथा साहित्य साधकों के लिए यह ज्ञानवर्धक शृंखला बहुत उपयोगी है। आपका आभार,
जवाब देंहटाएंवाकई ...!
जवाब देंहटाएंअनूठा ज्ञान दे रहे हैं आप ! शुभकामनायें !
संस्कृत और हिंदी दोनों पर आपका सामान अधिकार है...वाकई ज्ञान का खज़ाना हैं आपके लेख...
जवाब देंहटाएं"सखी धीरे-धीरे बोलो , नहीं तो वे सुन लेंगे" ...पूरे हाव-भाव आँखों के आगे चित्रित हो गए । उम्दा आलेख आचार्य जी
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