राष्ट्रीय आन्दोलन
352. साबरमती
आश्रम का विसर्जन
1933
पूना की बैठक में समझौता प्रस्ताव
जैसे ही गांधीजी पूरी तरह स्वस्थ हुए, 12 से 14 जुलाई
तक पूना में देश की राजनीतिक स्थिति पर विचार करने के लिए एक बैठक हुई। बैठक में
रखे गए तीन प्रस्तावों में से, पहला, जो सविनय अवज्ञा को बिना शर्त वापस लेने के
पक्ष में था, अस्वीकार कर दिया गया; दूसरा प्रस्ताव, जो
व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा अपनाने के पक्ष में था, गिर गया; वायसराय
के साथ एक सशर्त साक्षात्कार पारित किया गया। सरकार से समझौता करने के लिए वायसराय
से मिलकर बातचीत करने का अधिकार गांधीजी को दे दिया गया। गांधीजी ने वायसराय लॉर्ड
विलिंगडन से मिलने का समय मांगा, लेकिन उसने मिलने से इंकार कर दिया। उसी समय, राज्य सचिव सर सैमुअल होरे ने हाउस ऑफ कॉमन्स
में साहसपूर्वक घोषणा की: "हमने कहा है कि हम बातचीत के लिए तैयार नहीं
हैं, और हम इस स्थिति पर कायम रहेंगे। श्री गांधी
स्वयं को भारत सरकार के साथ वार्ताकार की स्थिति में रखना चाहते हैं और सविनय
अवज्ञा का बिना शर्त हथियार भी अपने पास रखते हैं। मैं दोहराता हूँ कि कांग्रेस के
साथ कानून का पालन करने वाले नागरिकों के सामान्य दायित्वों को स्वीकार करने की
शर्त के रूप में सौदेबाजी करने का कोई सवाल ही नहीं उठता।" अब सम्मान की बात थी। व्यक्तिगत सत्याग्रह
करने का निर्णय लिया गया। गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का प्रारम्भ अपने पास की
मूल्यवान वस्तुओं के परित्याग से किया। इसके बाद साबरमती आश्रम को भी त्याग देने
की उन्होंने निश्चय किया। अठारह महीनों तक चले इस जन आंदोलन के दौरान, 1,00,000 लोगों को जेल में डाला गया।
साबरमती
आश्रम का विसर्जन
18 जुलाई को गांधीजी अंततः पूना स्थित लेडी ठाकरसे की
आतिथ्यपूर्ण "पर्णकुटी" से अहमदाबाद के लिए रवाना हुए, जहाँ उनका उद्देश्य साबरमती आश्रम के निवासियों के साथ
आगामी व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा अभियान में उनकी भूमिका पर चर्चा करना था। जब सरकार
ने उन्हें बेशर्त रिहा कर दिया, तो उन्होंने खुद
पर प्रतिबन्ध लगा दिया की वे हाल में मिली एक साल की सजा की बाकी मुद्दत के दौरान
किसी भी प्रकार का अवज्ञा आन्दोलन नहीं चलाएंगे।
जिनके प्रति गांधीजी के मन में गहरी निष्ठा थी, उन राजनीतिक उद्देश्यों की ओर उनका ध्यान अधिक दृढ़ता से
गया। इसे वे ‘मेरा रचनात्मक कार्य’ कहा करते थे। उपवास से लेकर
द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने तक उन्होंने राजनीति से दूर रहकर अस्पृश्यों, ग्रामीण महिलाओं और बच्चों, ‘बुनियादी
शिक्षा’ और चरखे की सेवा में बिताया। ये काम उनके
अंतरतम को भाते थे। बहुत लोगों का मानना था कि गांधीजी ने ‘राजनीति से संन्यास’ ले लिया था। लेकिन सच तो यह था कि वे अपने
आपको भारतीय जनजीवन में किसी भी क्षेत्र से बाहर रख ही नहीं सकते थे।
अस्पृश्यता विरोधी अभियान से उत्पन्न समस्याओं और उसके कारण
उत्पन्न रूढ़िवादिता के कड़े प्रतिरोध से जूझते हुए, गांधीजी की ऊर्जा
का उपयोग एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र में हुआ। यह था साबरमती आश्रम और उसके कार्य।
गांधीजी के लंबे कार्य समय का एक बड़ा हिस्सा आश्रम की समस्याओं को सुलझाने में
व्यतीत होता था। आश्रम में सभी प्रकार के लोग रहते थे - विभिन्न पृष्ठभूमि वाले, विभिन्न शैक्षिक उपलब्धियां या उनका अभाव, विभिन्न रुचियां,
स्वभाव और विशिष्टताओं वाले लोग और
आश्रम के प्रबंधक, नरेंद्रदास गांधी,
संघर्षों, झगड़ों और आपसी
संदेहों से बहुत परेशान थे,
जो हर समय उत्पन्न होते रहते थे और जो
संस्थान के सुचारू संचालन के लिए लगातार खतरा पैदा करते थे। बड़ी संख्या में आश्रम
वासी समय-समय पर गांधीजी को पत्र लिखते थे, जिनमें अक्सर
उन्हें सौंपे गए काम या उनके द्वारा किए गए काम के बारे में नहीं, बल्कि उन व्यक्तिगत समस्याओं के बारे में लिखा जाता था
जिनका उन्हें सामना करना पड़ता था,
कुछ लोगों द्वारा उनके प्रति रखे गए
संदेह, ईर्ष्या और दुर्भावना के बारे में। तरह-तरह की शिकायतें
थीं। गांधीजी उन पर विचार करते और हर शिकायत का जवाब देने की कोशिश करते, कभी नसीहत से,
कभी सांत्वना भरे शब्दों से, कभी ज्ञानवर्धक सलाह से।
गांधीजी के लिए यह वर्ष गहन उत्साह, अनेक कष्टों और
अनेक दिशा-परिवर्तनों का वर्ष था। उपवास के बाद गांधीजी जुलाई में अहमदाबाद गए।
किसी मित्र के घर ठहरे। 26 जुलाई को अचानक ही उन्होंने अपने अनुयायियों को घोषणा
की कि वे अपने आश्रम को,
जो अठारह वर्षों से उनका घर था, भंग करने का प्रस्ताव रखते हैं। नमक सत्याग्रह के समय देश
के अनगिनत ग़रीबों ने अपनी जान गंवाई थी। जब देश के हज़ारों ग़रीबों ने इतना सहन
किया, तो गांधीजी को लगा कि उनको भी देश के चरणों में कुछ न्यौछावर करना चाहिए।
साबरमती आश्रम गांधीजी के लिए तप-भूमि थी। आश्रम, जिसके लिए 1916
में साबरमती में ज़मीन खरीदी गई थी,
एक पूरी तरह से गैर-राजनीतिक संस्था थी
जो रचनात्मक गतिविधियों के लिए समर्पित थी। उस समय इस परिसर में कुल 107 लोग रहते
थे (पुरुष 42, महिलाएँ 31,
लड़के 12 और लड़कियाँ 22)। आश्रम में
लगभग 3,00,000 रुपये की अचल संपत्ति और पुस्तकों सहित लगभग 2,00,000 रुपये की चल संपत्ति थी। वह चल संपत्ति अपने मित्रों को
सौंपना चाहते थे, जो उसका उपयोग जनहित में करेंगे। जहाँ तक अचल संपत्ति का
प्रश्न था, गांधीजी ने सुझाव दिया कि सरकार उस पर कब्ज़ा कर ले। यदि
सरकार भूमि पर कब्ज़ा करने से इनकार करती है, तो भी आश्रम 31
जुलाई को, जब सविनय अवज्ञा आंदोलन की स्थगन अवधि समाप्त हो जाएगी, खाली कर दिया जाएगा। 30 जुलाई को गांधीजी ने बॉम्बे सरकार
के गृह सचिव को सूचना दी कि वे 1 अगस्त की सुबह आश्रम खाली कर देंगे और यदि उन्हें
मुक्त छोड़ दिया गया तो वे 32 साथियों के साथ, जिनमें से आधी महिलाएं होंगी, रास तक आसान चरणों में मार्च करेंगे। उन्होंने इस आश्रम को
सरकार को देने का निश्चय किया। उनका मानना था कि जब सरकार किसानों की ज़मीन ज़ब्त कर
रही हो, तब आश्रम अपनी सम्पत्ति क्यों सुरक्षित रखे? सरकार ऐसे समाज-सुधार के
चक्कर में नहीं थी। इसलिए आश्रम हरिजन सेवा संघ को दे दिया गया। आश्रम का
पुस्तकालय अहमदाबाद की नगरपालिका को सौंप दिया गया। आश्रम के अधिकांश सदस्य जेल
चले गए थे। जो शेष थे वे अपने अपने प्रदेशों में काम में लग गए थे। आश्रम भंग हो
गया। आश्रम के ऐसे 15-16 बच्चे थे जिनके माता-पिता जेल में थे। ऐसे बच्चों को रखने का दायित्व अनसूया बहन
ने उठा लिया। इन बच्चों में गांधीजी के ज्येष्ठ पुत्र हरिलाल गांधी की सबसे छोटी
पुत्री मनु गांधी भी थी।
उन्होंने साबरमती आश्रम छोड़ने के
कई कारण बताए, लेकिन सभी कारण ठोस नहीं थे। यह
अहमदाबाद की कपड़ा मिलों की छाया में तब तक विकसित हुआ जब तक कि यह एक बड़े निवेश
का प्रतिनिधित्व नहीं करने लगा। गांधी ने इसे "एक अच्छी-खासी बाग़
बस्ती" बताया और इसकी कुल कीमत 6,50,000 रुपये आंकी। सौ से ज़्यादा लोग वहाँ स्थायी रूप से रहते थे, और लगभग एक हज़ार लोगों ने इसकी
कार्यशालाओं में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। उन्हें इस जगह से गहरा लगाव था, क्योंकि यह सामुदायिक जीवन के एक
उन्नत रूप का प्रतीक था; यहीं उन्होंने चरखे के साथ अपने
पहले प्रयोग शुरू किए थे; यहीं, या इसके आस-पास, उन्होंने हड़तालियों को संबोधित
किया था और मिल मालिकों के खिलाफ उनके विद्रोह का नेतृत्व किया था। गांधीजी ने
साबरमती आश्रम को जानबूझकर छोड़ने को एक प्रायश्चित बलिदान माना। वह प्रायश्चित के
रूप में अपनी सबसे करीबी और प्रिय चीज़ को अर्पित कर रहे थे। लेकिन आश्रम के प्रति
उनके असंतोष के कई अन्य कारण भी थे। समय-समय पर सरकार यह माँग करती थी कि आश्रम को
अपने राजस्व पर कर देना चाहिए। पिछले दो वर्षों से गांधीजी ने कर देने से इनकार कर
दिया था, जिसका अनिवार्य परिणाम यह हुआ कि नोटिस
आ गए और बकाया करों के मूल्य के बराबर संपत्ति ज़ब्त कर ली। उन्होंने दावा किया कि
सरकार को ऐसा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन ऐसी विकट परिस्थितियों में आश्रम का प्रबंधन
करना स्पष्ट रूप से कठिन था। गांधीजी ने इस समस्या का समाधान यह निकाला कि पूरा
आश्रम, उसकी ज़मीन, इमारतें और फसलें, सरकार को दे दी जाएँ। सरकार ने इस
प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, और आश्रम के स्वामित्व का प्रश्न अधर में लटक गया।
फिर
गिरफ़्तारी
गांधीजी का जेल जाने-आने का सिलसिला ख़त्म ही
नहीं हो रहा था। उन दिनों व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा के रूप में एक नए ढंग का आंदोलन
शुरू हो रहा था। गांधीजी ने पहल करने की ठानी। अधिकारियों को नोटिस दिया। बच्चों
को अनसूया साराभाई के यहां रखने के बाद गुजरात के किसानों को सविनय अवज्ञा सिखाने
के अभिप्राय से रवाना होने वाले थे। तय यह था कि मार्च में आश्रम के उनके तैंतीस
साथी शामिल थे, और वे गाँव-गाँव पैदल चलेंगे, हर जगह एक दिन और रात से ज़्यादा नहीं बिताएंगे, हमेशा चलते रहेंगे और तब तक चलते रहेंगे जब तक
कि उनमें से आखिरी गिरफ्तार न हो जाए।
गांधीजी महादेव देसाई सहित कुछ साथियों के साथ
रात बिताने के लिए रणछोड़लाल के बंगले पर गए। जैसा कि उन्होंने योजना बनाई थी, उन्हें अगली सुबह अपना मार्च शुरू नहीं करना
था। पुलिस रात में आई - महादेव देसाई के अनुसार, एक बजकर बीस मिनट पर - और उन्हें, कस्तूरबा गांधी, महादेव
देसाई और उनके बेटे नारायण देसाई के साथ ले गई। 1 अगस्त को अहमदाबाद में
गिरफ़्तारी के बाद गांधीजी को साबरमती केंद्रीय कारागार ले जाया गया। उन्होंने
तुरंत जेल अधीक्षक आडवाणी को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि यदि आवश्यक हो तो सरकार से
तार द्वारा अनुमति ली जाए ताकि वे जेल से हरिजन का काम पहले की तरह जारी रख सकें। जेल
अधिकारियों ने गांधीजी को बताया कि कस्तूरबा को मीरा बहन के साथ रखा गया था।
4 अगस्त को उन्हें इस शर्त पर छोड़ दिया गया कि
वह यरवदा ग्राम की सीमा छोड़ कर पूना जाकर रहें। गांधीजी ने इस आदेश को नहीं माना। उन्हें
फिर गिरफ़्तार कर लिया गया और यरवदा जेल में अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष
मुकदमा चलाया गया। संक्षिप्त मुक़दमे के दौरान उन्होंने अपना पेशा "कताई
करने वाला,
बुनकर
और किसान" और
अपना स्थायी पता "यरवदा जेल" बताया। अदालत में दिए गए बयान में, उन्होंने कहा कि एक गठित प्राधिकारी के आदेशों
का उल्लंघन करना उनका एक कष्टदायक कर्तव्य है। मजिस्ट्रेट ने उन्हें बॉम्बे स्पेशल
पावर्स एक्ट 1932 की धारा 14 के तहत दोषी पाया और एक वर्ष के साधारण कारावास की
सजा सुनाई। बा के साथ उन्हें लंबी अवधि (एक वर्ष की सज़ा) का कारावास दे
दिया गया। उन्हें यरवदा जेल की काल-कोठरी में भेज दिया गया। ये वर्ष राजनीतिक
उथल-पुथल का वर्ष था।
व्यक्तिगत
सविनय अवज्ञा
गांधीजी के कारावास के बाद, सभी प्रांतों में व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा का
अभियान शुरू हो गया। कार्यवाहक कांग्रेस अध्यक्ष अणे को उनके तेरह साथियों के साथ
14 अगस्त को अकोला से मार्च शुरू करते समय गिरफ्तार कर लिया गया। पहले ही सप्ताह
में सैकड़ों कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत सत्याग्रह किया और उन्हें जेल में
डाल दिया गया।
गांधीजी ने गृह सचिव, बंबई को पत्र लिखकर आडवाणी को लिखे अपने पत्र की ओर ध्यान
आकर्षित किया, जिसमें उन्होंने अस्पृश्यता विरोधी कार्य को
पूर्ववत जारी रखने की अनुमति मांगी थी, और
सोमवार, 7 अगस्त तक जवाब देने का अनुरोध किया। उन्होंने
लिखा, "यह कार्य मेरे जीवन के जोखिम के अलावा किसी भी
कीमत पर बाधित नहीं किया जा सकता।" गृह सचिव ने उत्तर दिया कि अनुरोध सरकार के
विचाराधीन है, लेकिन 7 अगस्त तक कोई निर्णय संभव नहीं है।
16 अगस्त
से आमरण उपवास, जो एक सप्ताह चला
उन्होंने जेल से हरिजन-कार्य करते रहने के लिए सुविधाएं मांगीं, किंतु सरकार ने इंकार कर दिया और उन्हें अस्पृश्यों
के लिए अपना काम जारी रखने की अनुमति नहीं दी गई। उन्होंने आमरण अनशन की धमकी दी जब तक कि उन्हें
यह विशेषाधिकार वापस नहीं दिया गया। सरकार ने जवाब दिया कि वह अपने कारावास की
शर्तें तय कर रहे थे,
और उनके हाल के व्यवहार को
देखते हुए यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि उनके साथ नरमी से पेश आया जाएगा।
उन्होंने अस्पृश्यों के लिए “बिना किसी रोक-टोक” के काम करने की अनुमति मांगी। सरकार ने उन्हें तब तक समायोजित
करने का कोई कारण नहीं देखा जब तक कि वह सविनय अवज्ञा को पूरी तरह से त्याग न दें और
अपनी सारी ऊर्जा सामाजिक कार्यों पर केंद्रित न करें। गांधी ने समझौता करने से इनकार
कर दिया और 16 अगस्त, 1933 को आमरण अनशन पर बैठ गए। अनशन के एक सप्ताह बाद उनकी अवस्था बड़ी तेज़ी से गिरने लगी। वे ससून अस्पताल भेज दिए गए। वे तब भी क़ैदी थे। हरिजन-कार्य के लिए सरकार मान नहीं रही थी। उन्होंने अपने को बिल्कुल ढीला छोड़ दिया था। उन्होंने जीने की इच्छा खो दी थी, पानी पीने से इनकार कर दिया था, और स्पष्ट रूप से अपने अपरिहार्य अंत के लिए
खुद को तैयार कर रहे थे। उनके जीवित रहने की संभावना कम रह गई थी। उन्होंने सबसे अंतिम विदा कही और अपने निजी सामान लोगों में बांट दिए।
बिना
शर्त रिहाई
सरकार उन्हें अपने हाथों में मरने देना नहीं चाह रही थी। उन्हें, बा और महादेव देसाई के साथ जेल से और 23 अगस्त को बिना शर्त रिहा कर दिया। अस्पताल
छोड़ने से पहले, गांधीजी ने प्रार्थना की और एक गिलास संतरे के
जूस से अपना उपवास तोड़ा। फिर उन्हें एक एम्बुलेंस में "पर्णकुटी" ले
जाया गया।
जेल से बिना शर्त रिहा तो हो गए, लेकिन गांधीजी के सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि अब उन्हें क्या करना था? वे उलझन में थे। अब गांधीजी ने अपने को बडी ही विषम स्थिति में फंसा हुआ
पाया। अगर गिरफ्तार होते हैं
तो सरकार जेल में हरिजन-कार्य करने की सुविधा नहीं देती। अगर विरोध में उपवास करते
हैं तो सरकार रिहा कर देती है। 'बिल्ली-चूहे का यह खेल' उनके स्वभाव के प्रतिकूल था। इसलिए उन्होंने यह घोषणा की कि जबतक सज़ा की अवधि, उस समय साढ़े दस महीने बाक़ी थे, समाप्त न हो जाए, तब तक कोई अवज्ञा आंदोलन नहीं चलाएंगे और खुद को गिरफ़्तार भी नहीं कराएंगे और हरिजन-कार्य को करते रहेंगे। साथ ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं से भी मिलते रहेंगे उन्हें सलाह देते रहेंगे।
फिर से वे लेडी ठाकरसी की पर्णकुटी में रहने
लगे। जेल से रिहा होने के बाद भी उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था। उनकी प्राणरक्षा का बहुत-कुछ श्रेय सी.एफ़. एन्ड्रूज़ को जाता है, जो गांधीजी के मना करने के बावज़ूद भी भागते हुए भारत चले आए थे। वे पर्णकुटी में ही रहे। उन्होंने गांधीजी से कहा कि जीने
का निश्चय कर लो तो अपने आप स्वस्थ होने लगोगे। मित्र की चेष्टा-चिकित्सा से
गांधीजी ठीक होने लगे। यह उनके जीवन के एक दौर का अंत और दूसरे दौर की शुरुआत थी।
साबरमती आश्रम, सविनय अवज्ञा, सरकार के साथ चूहे-बिल्ली का खेल, कांग्रेस से उनका नाता—ये सब छूट गए थे। नेहरू उनसे लेडी
ठाकरे के घर मिलने आए और उन्होंने अपनी भविष्य की योजनाओं और संभावनाओं पर चर्चा
की। गांधीजी कांग्रेस से पूरी तरह हटना चाहते थे और उसे युवा लोगों के हाथों में
सौंपना चाहते थे,
लेकिन नेहरू ने उन्हें कुछ
छोटे-छोटे, नाज़ुक सूत्र बनाए रखने के लिए मना लिया। वे
कोई प्रस्ताव नहीं रखते थे, बल्कि
पूछे जाने पर सलाह देते थे। बाकी के लिए, वे अस्पृश्यों
के प्रति अपना कर्तव्य समझते थे।
23 सितंबर 1933 को उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर
दिया। साल भर के अन्दर उन्होंने तीन उपवास कर डाले। वे सिर्फ़ अपनी अंतरात्मा की
आवाज़ पर चलते थे। किसी के कहने पर नहीं। गांधीजी के व्यक्तिगत जीवन में संकट आते
ही रहते थे। सच तो यह है कि एक संकट टलता नहीं कि दूसरा उनके सामने खड़ा हो जाता
था। सविनय अवज्ञा अब भी कांग्रेस का कार्यक्रम था। कांग्रेस एक अवैध संस्था घोषित कर दी गई थी। ब्रिटिश सरकार उसे कुचलने का काम कर रही थी।
असहयोग और सविनय अवज्ञा आदोलनों ने गांधीजी की अनोखी तथा शक्तिशाली देन को संसार के सामने रखा। उन्होंने जनता में साहस और पौरुष भरा। साहस के बिना न कोई नैतिकता है, न कोई धर्म न प्रेम। गांधी जी का कहना था,
“जबतक हम भय के पात्र बने हुए हैं तबतक सत्य या प्रेम का अनुसरण नहीं कर सकते। उनका यह भी कहना था, “कायरता हिंसा से भी अधिक घृणास्पद है। अनुशासन इस बात का संकल्प और इस बात की गारंटी है कि मनुष्य में कार्य करने की लगन है। त्याग, अनुशासन और संयम के बिना कोई मुक्ति नहीं, कोई आशा नहीं। अनुशासन बिना कोरा त्याग निरर्थक है।” इस तरह उन्होंने लोगों को अनुशासन और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया। हंसते-हंसते देश के प्राण-न्यौछावर करने की शक्ति प्रदान की। नम्रता के साथ-साथ लोगों में गर्व की भावना का संचार किया।
साम्यवादियों का आरोप
साम्यवादियों का मानना था कि कांग्रेसी नेताओं का लक्ष्य सरकार पर जनता का दबाव डालकर भारतीय पूंजीपतियों और ज़मींदारों के हित में औद्योगिक और व्यावसायिक रियायतें प्राप्त करना रहा है। कांग्रेस किसानों, मध्यम वर्ग की निचली श्रेणी के लोगों और औद्योगिक मज़दूरों के आर्थिक और राजनैतिक असंतोष के बहाने उसे बंबई, अहमदाबाद और कलकत्ते के मिल-मालिकों और पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाती है, उनसे उनके फ़ायदे के लिए काम करवाती है। ये पूजीपति परदे के पीछे बैठकर कांग्रेस-कार्यसमिति को पहले एक सार्वजनिक आंदोलन चलाने का हुक्म देते हैं और जब वह आंदोलन विशाल और संकट-जनक रूप धारण कर लेता है, तो वे उसे स्थगित करने या गौण बना देने को कहते हैं। दरअसल कांग्रेसी नेता अंगेज़ों को भारत से जाने देना ही नहीं चाहते, क्योंकि भारत की भूखों मरती जनता को नियंत्रण में रखने और उनका पोषण करने के लिए उनकी ज़रूरत है और भारत के मध्य श्रेणी के लोग अपने को इस योग्य नहीं समझते।
यह बड़े ही आश्चर्य का विषय था। उनकी सोच ग़लत थी। वे भारत के राष्ट्रीय आंदोलन को यूरोपीय मज़दूरों के मापदंड से मापते थे। यूरोप में मज़दूर नेताओं का मज़दूर-आंदोलन के साथ बराबर धोखा करना कोई नई बात नहीं थी, इसलिए वे यही कसौटी भारत पर भी लागू करते थे।
1921-1930 तक
गांधी जी के नेतृत्व में जो भी आंदोलन हुआ वह जनता के दवाब के कारण नहीं बल्कि
गांधी जी ने प्रायः अपने बलबूते पर उसका संचालन किया और उसे असहयोग आंदोलन से जोड़
दिया। 1930 में अगर गांधी जी ने ज़रा भी विरोध किया होता,
तो सीधी कार्रवाई का कोई आक्रमणात्मक या कारगर आंदोलन कभी संभव न होता।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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