राष्ट्रीय आन्दोलन
353. वर्धा में रहने का निश्चय
1933
साबरमती छोडने के बाद गांधीजी
और उनके सहयोगियों के स्थाई ठिकाने की
जरूरत महसूस हो रही थी। इस
बार गांधीजी मध्य भारत में किसी गांव में रहना चाहते थे। उनके नये ठिकाने के लिए सेगाँव का चुनाव किया
गया। सेगाँव नाम का एक दूसरा स्टेशन भी था जिसके कारण लोग गलत जगह पहुँच जाते थे। इसलिए सेगाँव
का नाम बदलकर सेवाग्राम कर दिया गया था।
गांधीजी ने यह जगह कई कारण से चुनी थी।
गांधीजी आम देहातियों की तरह वैसा ही ग्रामीण जीवन जीना चाहते थे जैसे भारत के सात लाख गांवों
में लोग रहते हैं। दूसरे यह जगह भारत के लगभग मध्य में स्थित है जहां पूरे देश से आसानी से पहुंच
सकते हैं। 1933 के सितंबर में
गांधीजी वर्धा के सेवाग्राम आ गए। 1939 तक मीरा सहित क़रीब सौ लोग सेवाग्राम (जो तब सीगांव के नाम
से जाना जाता था) में रह रहे थे। यह भारत की स्वाधीनता की लड़ाई का नया राजनैतिक
केन्द्र बन गया। गांधी जी ने भी आत्ममंथन के बाद आत्मविश्वास फिर से पा लिया था।
वर्धा भारत के सबसे गरम इलाकों में से है।
सख्त, पथरीली ज़मीन और जगह-जगह बलुआ पत्थर के चट्टानों के कारण गरमी और बढ़ जाती थी।
मई-जून में तो तापमान काफ़ी अधिक हो जाता था। बापू सिर पर गीला कपड़ा लपेट लेते थे।
बा-और बापू कुटिया में साथ रहते थे। बापू का आदेश था कि कुटिया के बनाने में केवल
स्थानीय सामग्री का प्रयोग किया जाए और उनकी कुटिया बनाने पर 500 सौ रुपए से ज़्यादा खर्च न किए जाए। एक एकड़ की
ज़मीन तय की गई। यही वजह है कि सेवा ग्राम आश्रम की गांधी कुटी इतनी साधारण दिखाई देती है कि
यह पूरे विश्व में सादगी की प्रतीक बन गयी है। प्रसिद्ध चिंतक ईवान इलिच ने इस
कुटी में थोड़ा सा समय बिताने के बाद अपने अनुभव को अलौकिक बताया है।
मीरा बहन की देख रेख में एक बड़ा कमरा बनाया गया
जो 30 फुट लंबा और 15 फुट चौड़ा था। मिट्टी की मोटी दीवार बनाई गई और
बरामदे खुले रखे गए। छत बांस और ताड़ के पत्तों, मिट्टी के लेप और खपड़े से बनाई गई।
एक साल के अंदर-अंदर दूसरे लोग भी साथ रहने आ गए। उनमें से कुछ तो अहमदाबाद के
पुराने सहयोगी थे। बड़ा वाला कमरा धीरे-धीरे भर गया। ज़्यादा लोग गांधी जी के साथ ही
रहना चाहते थे। लोग दखल देते गए, गांधी जी मीरा की कुटिया में चले गए। मीरा बहन ने
अपनी अलग कुटिया बनवा लीं। दूसरे मकान भी जल्दी ही बन गए।
गांधी सेवा संघ के माध्यम से वहां विभिन्न
रचनात्मक कार्य किये जाने लगे। किशोर लाल मशरूवाला संघ के अध्यक्ष
बने और जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और राजेन्द्र प्रसाद आदि संघ के सक्रिय सदस्य थे जिनके कुशल
संचालन में खादी, हरिजन सेवा और ग्रामोधोग के कई रचनात्मक काम शुरू किये गये। गांधी जी की
कुटिया शीघ्र ही एक कम्यून में बदल गई। खादी की कताई और पशुपालन वहां की दिनचर्या का हिस्सा बन
गया। खजूर से गुड बनाने की एक मशीन लगाई गई। शिल्पकारी के प्रशिक्षण और प्रचार के
लिए केन्द्र के लिए दो इमारतें भी बन गईं। सामाजिक तौर पर गांधीजी ने अपने
संस्थागत प्रयोग भी शुरू कर दिए। मगनवाड़ी में अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ का
मुख्य दफ़्तर बनाया गया। इसमें एक तरफ़ तेलघानी चलती थी, तो दूसरी तरफ़ हाथ-काग़ज़ बनता
था। जगह-जगह मधुमक्खी-पालन की पेटियां लगाई गईं। विविध प्रकार के आटा पीसने
चक्कियां भी थीं। ग्रामोद्योग की शिक्षा देने के लिए विद्यालय भी चलाया जाता था। ‘भारत
के अर्थशास्त्र की कुंजी तो ग्रामोद्योग में ही है’, इस मंत्र को मानने वाले
जे.सी. कुमारप्पा और उनके छोटे भाई भारतन कुमारप्पा की देख-रेख में ग्रामोद्योग के
कार्यक्रम कुशलतापूर्वक चलाए जा रहे थे। जे.सी. कुमारप्पा के सम्पादकत्व में
साप्ताहिक ‘ग्रामोद्योग पत्रिका’ भी प्रकाशित की जाने लगी।
साबरमती आश्रम से यहां कुछ भिन्नता भी थी।
आश्रम के सदस्यों को संयम के 11 संकल्प लेने पड़ते थे। इसके सिवा आचरण संबंधी कोई प्रतिबंध
नहीं था। साबरमती में आश्रम की घंटी लोगों पर राज करती थी। सेवाग्राम में समय
सारिणी थी मगर आश्रमवासियों को अपना दिन अपने हिसाब से बिताने की काफ़ी आज़ादी थी।
गांधीजी के रसोई के प्रयोग भी यहां चलते थे।
सोयाबीन में क्या-क्या गुण हैं इसकी चर्चा होती थी। फिर सोयाबीन के प्रयोग शुरू हो
गए। बाद में उत्साह ठंडा हुआ तो वे प्रयोग बंद हो गए। सूरजमुखी के तेल का प्रयोग,
नीम के कड़वे पत्तों की चटनी का प्रयोग, इमली का प्रयोग आदि होने लगे। गांधीजी कहते
थे इमली तो ग़रीबों का फल है। लेकिन उसका उपयोग जीभ के स्वाद के लिए करने की जगह
शरीर-पोषण के लिए किया जाना चाहिए। चूल्हों पर भी अलग-अलग प्रयोग किए जाते थे। किस
प्रकार के चूल्हे में कम लकड़ियां ख़र्च होती हैं, यह शोध का विषय होता था। देशी तेल
से जलने वाली लालटेन का प्रयोग भी हुआ। शोधों के परिणामस्वरूप ‘मगन चूल्हा’
और ‘मगन-दीप’ का ईज़ाद हुआ। नीरा से गुड़ बनाने और खजूर के पत्तों से अन्य
चीज़ें बनाने के प्रयोग भी किए गए।
वर्धा ज़िले में मलेरिया, टायफॉयड, आंत्रशोथ और
पेचिश फैली हुई थी। आश्रम में लोग बीमार पड़ते रहते थे। गांधी जी लोगों की सेवा और
प्राकृतिक चिकित्सा करते रहते थे।
ग्राम-उद्योग
के पुनरुद्धार का कार्यक्रम
गांधीजी की सच्चाई पर आघात करके लोग अपने ही
हित का नुकसान पहुंचा रहे थे। वे सत्य की प्रतिमूर्ति थे। वे सदा सत्य के मार्ग पर
चलने की चेष्टा करते थे। उनके नेतृत्व में उन दिनों ग्राम-उद्योग के पुनरुद्धार का
कार्यक्रम चल रहा था। इसके तहत हाथ की कताई और बुनाई पर बल दिया जा रहा था। क्या
यह उद्योगपतियों को फ़ायदे के लिए चलाया जाने वाला आंदोलन था?
जीवन के संबंध में गांधीजी का दृष्टिकोण थोड़ा
अलग था। वे आराम-तलब जीवन के पक्षपाती नहीं थे। वे तो कठोर मार्ग पर चलते थे। सत्य
के कठोर मार्ग पर। उनका मानना था कि कोमलता और विलासिता से जीवन में कुरूपता आ
जाती है। उससे सद्गुणों का नाश हो जाता है। ग़रीबों और अमीरों के रहन-सहन में काफ़ी
अन्तर है। एक लंबी-चौड़ी खाई। इस खाई को पार कर गांधीजी ग़रीबों की तरफ़ चले गए थे।
उनके सुधार के लिए जहां वे एक तरफ़ काम कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने उनके
रहन-सहन और वेश-भूषा को अपना लिया था। ग़रीबों और अमीरों के रहन-सहन के इस अंतर का
सबसे बड़ा कारण वे विदेशी राज और उनके शोषण को मानते थे। उनके अनुसार दूसरा प्रमुख
कारण पश्चिम देशों की पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता और उसकी प्रतिमूर्ति बड़ी-बड़ी मशीनें।
वे इन दोनों का विरोध करते थे। इसको दूर करने के लिए उन्होंने गांवों की ओर रुख
किया। गांव स्वतंत्र और स्वावलंबी थे। वहां उत्पादन, विभाजन और उपभोग में कमोबेश
संतुलन था। वहां अमीरों और ग़रीबों में अधिक अंतर नहीं था। वे शहरों के दुर्गुणों
से दूर थे।
गांधीजी की भाषा आम लोगों की भाषा होती थी। वे
स्पष्ट और ज़ोरदार आवाज़ में अपनी बात रखते थे। उनके विचार धार्मिक और नैतिक
सिद्धांतों से प्रेरित होते थे। उनके विचारों में नैतिक तत्वों की प्रमुखता होती
थी। वे साध्य के लिए कभी अयोग्य साधनों का समर्थन नहीं करते थे। उनका मानना था कि
इससे व्यक्ति और जाति का सर्वनाश हो जाएगा। उन्हें भारतीय गांव और वहां की
जीवन-स्थिति का पूरा ज्ञान था। इसलिए अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने चरखा और
ग्राम-उद्योगों को लेकर अपनी योजना बनाई। उनके अनुसार अगर देश के अनगिनत बेकारों
और बेरोज़गारों को फ़ौरन राहत पहुंचानी थी तो उन्हें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाना बेहद
ज़रूरी था। और इस काम को अंजाम देने के लिए लागत या पूंजी
की आवश्यकता न हो यह भी ध्यान में रखना ज़रूरी था।
भारत में पूंजी की कमी और श्रम-बल की बहुतायत
थी। जो श्रम-बल बर्बाद जा रहे थे उन्हें कैसे प्रयोग में लाया जाए यह प्रमुख
प्रश्न था। इस प्रश्न का उत्तर बड़े-बड़े मशीनों के लगाने से नहीं मिलने वाला था।
मशीनों की स्थापना से कोई सामाजिक लाभ नहीं मिलने वाला था। इसलिए मनुष्य-बल को
उत्पादन के काम में लगाना बहुत ही आवश्यक था। मशीनों के वे विरोधी भी नहीं थे।
उनका कहना था कि मशीन मुख्य रूप से मज़दूरों को काम में लगाने के उपयोग में आए, न
कि नई बेकारी पैदा करने के काम में।
गांधीजी ने गांवों की दशा सुधारने का काम भी
अपने हाथ में लिया। वर्धा में वह मगनवाड़ी में रहते थे। पड़ोस के सिन्दी गांव में
उन्होंने सफाई का काम शुरू किया। इस काम में महादेव देसाई उनका हाथ बंटाते थे। उस
गांव के लोग कई महीने तक गांधीजी, महादेव देसाई और उनके साथियों को साफ-सफाई करने
वाले भंगी ही मान बैठे थे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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