शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

गांधीजी और नोबेल शांति पुरस्कार

 गांधीजी और नोबेल शांति पुरस्कार

आज साल 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार वेनेज़ुएला की राजनेता मरिया कोरीना मचादो को "वेनेज़ुएला के लोगों के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों को बढ़ावा देने और न्यायपूर्ण और शांतिपूर्ण तरीक़े से तानाशाही के सामने लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने" के लिए दिए जाने की घोषणा की गयी है नोबेल कमिटी ने अपने बयान में कहा है कि "नोबेल शांति पुरस्कार ऐसी महिला को जा रहा है जिन्होंने गहराते अंधेरे के बीच लोकतंत्र की लौ को जलाए रखा है मरिया कोरीना मचादो हालिया समय में लैटिन अमेरिका में साहस के सबसे "असाधारण उदाहरणों" में से एक हैं ऐसे समय में जब लोकतंत्र ख़तरे में हो हर किसी चीज़ से यह सबसे ज़रूरी हो जाता है कि उसकी रक्षा की जाए"




मरिया कोरीना मचादो वेनेज़ुएला की विपक्षी नेता हैं वह लोकप्रिय पूंजीवाद की समर्थक हैं और मादुरो सरकार की समाजवादी नीतियों की मुखर आलोचक मानी जाती हैं उन्हें वेनेजुएला की आयरन लेडी भी कहा जाता है बीते साल राष्ट्रपति चुनावों में उनके खड़े होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था मरिया देश के विपक्ष की ऐसी नेता हैं जिनमें सड़कों और मतदान केंद्रों पर पर हज़ारों लोगों की भीड़ इकट्ठा करने की क्षमता है चुनाव के पोल्स बता रहे थे कि उनकी जीत तय है, लेकिन निकोलस मादूरो ने तीसरी बार चुनाव जीत लिया मचादो इस समय कहां रह रही हैं, इसके बारे में किसी को पता नहीं है वह अगस्त 2024 से छिपी हुई हैं।

इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के विजेता को साढ़े आठ करोड़ रुपये के क़रीब राशि मिलती है नोबेल दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कारों में से एक हैं नोबेल शांति पुरस्कार उन छह पुरस्कारों में से एक है जिसकी शुरुआत स्वीडन के वैज्ञानिक, बिज़नेसमैन और समाजसेवी एलफ्रेड नोबल ने की थी विगत कई बार नोबेल पुरस्कारों की घोषणा विवादों में रहा है अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबेल पुरस्कार दिए जाने पर विवाद उठ खड़ा हुआ था ख़ुद ओबामा इस पुरस्कार के मिलने से हैरान थे उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, "किस लिए" वह नौ महीने पहले ही राष्ट्रपति बने थे ओबामा के पद ग्रहण करने के सिर्फ 12 दिनों बाद ही नोबेल पुरस्कार के नॉमिनेशन की प्रक्रिया ख़त्म हो गई थी जिस कमेटी ने ये फ़ैसला लिया था, उन्हें बाद में इस पर अफ़सोस हुआ था पूर्व फलस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात को 1994 में ये पुरस्कार इसराइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री येत्‌ज़ाक रॉबिन और इसराइल के विदेश मंत्री शिमोन पेरेस के साथ ओस्लो शांति समझौते के लिए दिया गया था इसकी आलोचना हुई क्योंकि अराफ़ात पहले अर्धसैनिक गतिविधियों में शामिल थे फ़ैसले के विरोध में एक सदस्य, केयर क्रिस्टेइन्सन ने इस्तीफ़ा दे दिया था

नोबेल शांति पुरस्कार कई लोगों को नहीं दिए जाने के कारण भी चर्चा में रहा है। सबसे बड़ा विवाद तो गांधीजी को यह पुरस्कार नहीं दिए जाने को लेकर होता रहा है। आज तक गांधीजी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया गया। प्रश्‍न उठना स्वाभाविक है कि क्या गांधीजी की शांतिपूर्ण तकनीकों में कोई कमी थी? क्या परोक्ष या प्रत्यक्ष तरीक़े से ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें इस सम्मान से वंचित रखा? या फिर यह पुरस्कार भी यूरोपीय रंग-भेद नीतियों और पश्चिमी साम्राज्यवादी योजनाओं का टोकन मात्र है?


14 मार्च 1934 में क्रिश्‍चियन संचुरी नामक एक पाश्चात्य पत्रिका के संपादकीय में यह बात बड़े सशक्त शब्दों में कही गई थी कि अगर गांधी नोबेल पुरस्कार के सबसे योग्य प्रत्याशी नहीं होते तो ऐसे पुरस्कार के औचित्य पर विचार होना चाहिए।

एक बार एक ब्रिटिश महिला अगाथा हैरिसन ने बिहार के भूकम्पग्रस्त इलाक़ों के दौरे पर गांधीजी को उस संपादकीय की प्रति दिखा कर जब उनकी प्रतिक्रिया जाननी तो गांधीजी ने बड़ी संज़ीदगी से काग़ज़ के एक टुकड़े पर लिख दिया था, क्या आपने कभी ऐसे सच्चे सेवाव्रती का नाम सुना है जो सेवा के लिए नहीं बल्कि अनुदान के लिए सेवा कार्य करता है।

महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए पांच बार नॉमिनेट किया गया था। 1937 में गांधीजी पहली बार नोबेल शांति पुरस्कार के प्रत्याशी के रूप में विश्‍व के सामने आए। 1938 और 1939 में भी गांधीजी को मनोनीत किया गया। पर पुरस्कार नहीं दिया गया। क्या उस समय मैदान में और बेहतर प्रत्याशी थे? ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रिटेन की साम्राज्यवादी और रंगभेदपूर्ण नीति का ही परिणाम रहा होगा कि गांधीजी को इस सम्मान से वंचित रखा गया। 1937 में, नॉर्वे संसद के एक सदस्य ओले कोल्बजॉर्नसन ने महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया और उन्हें तेरह उम्मीदवारों में से एक के रूप में चुना गया। पैनल में उनके कुछ आलोचकों ने कहा कि गांधीजी लगातार शांतिवादी नहीं थे और अंग्रेजों के खिलाफ उनके कुछ अहिंसक अभियान हिंसा और आतंक में बदल जाएंगे।

फिर 1944 तक कोई नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया गया। 1944 में यह पुरस्कार रेड क्रॉस को दिया गया। 1947 के लिए गांधीजी का नाम एक बार फिर मनोनीत किया गया। लेकिन इस बार भी इस पुरस्कार से उन्हें वंचित रखा गया।

1948 में अंतिम बार गांधीजी को नोबेल पुरस्कार के प्रत्याशी के रूप में मनोनीत किया गया। पर उनकी मौत मनोनीत किए जाने की तिथि के पहले ही हो चुकी थी इसलिए उन्हें क़ानूनन नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जा सकता था। किसी को भी मरणोपरांत नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया गया था।

साल 2006 में नार्वे के इतिहासकार और तब के शांति पुरस्कार की कमेटी के अध्यक्ष गेर लुंडेस्टैड ने कहा था कि गांधीजी की उपलब्धियों को सम्मान नहीं देना नोबेल इतिहास की सबसे बड़ी चूक में से एक हैं

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