गांधी और गांधीवाद
358. गांधीजी
पर जानलेवा हमला – पहला
1934
महात्मा गांधी की ज़िंदगी एक खुली किताब की तरह थी। वह कोई
काम छिपाकर नहीं करते। सबको उनका कार्यक्रम मालूम रहता था। लेकिन इस खुलेपन की
वजह से गांधीजी को जान का ख़तरा भी कम नहीं रहता था। भारत में उन पर छह
बार जानलेवा हमले हुए। छठी बार उनकी जान चली गई और उसके पहले के पांच प्रयास बेकार
गए। पहला हमला पुणे में हुआ था और अंतिम
जानलेवा हमला करने वाले का भी संबंध पूना से था।
25 जून, 1934 को हुए इस जानलेवा हमले में वे बाल-बाल
बचे। 19 जून को गांधी मुंबई से पूना पहुंचे। गांधीजी अपनी ‘हरिजन यात्रा’ में थे। 25
जून को म्युनिसिपल हॉल में गांधीजी को भाषण देने का प्लान था। पूना म्यूनिसिपैलिटी
ने उनके अस्पृश्यता निवारण के काम लिए किए जा रहे देश-व्यापी ‘हरिजन यात्रा’ के
महान उद्देश्य को ध्यान में रखकर सरकार की इच्छा के विरुद्ध जाकर सम्मानित करने का
कार्यक्रम तय किया था। गांधीजी अपने दल सहित पूना म्युनिसिपैलिटी का मानपत्र ग्रहण
करने के लिए दो मोटरकारों से म्युनिसिपल हॉल की तरफ़ जा रहे थे, तभी उनकी जान लेने
की कोशिश की गई। एक व्यक्ति ने उनके दल पर बम फेंका। हमलावर ने उस कार पर बम फेंका, जिसके बारे में हमलावर को लगा कि वह कार गांधी को ले जा रही
थी और वे म्युनिसिपल बिल्डिंग में एक सम्मान ग्रहण करने जा रहे थे। जुलूस में सबसे
आगे वाली गाड़ी पर बम फेंका गया। अपराधी ने भूल से एक दूसरी कार को गांधीजी की कार
समझ लिया था। गांधीजी तो बच गए, लेकिन दो पुलिस कांस्टेबल और म्युनिसिपैलिटी के
चीफ ऑफिसर समेत सात लोगों को गहरी चोटें आईं। जिस कार पर बम फेंका गया था वह
अन्नासाहेब भोपाटकर की कार थी। गांधीजी को कोई चोट नहीं आई, क्योंकि वे पीछे वाली गाड़ी में थे। उनकी गाड़ी में कस्तूरबाई
और तीन लड़कियाँ थीं, और यह सोचकर ही उन्हें सिहरन हो गई
कि क्या हुआ होगा। उन्होंने कहा, “जो लोग मेरे बचे हुए
जीवन से नाराज़ हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि मेरे
शरीर को खत्म करना सबसे आसान काम है।” असल में गांधीजी को इस
घटना के बारे में म्युनिसिपल हॉल पहुँचने के बाद ही पता चला। सिटी म्युनिसिपल हॉल
में प्रोग्राम तय समय के मुताबिक हुआ। गांधीजी शाम 7.30 से 8 बजे तक वेन्यू पर रहे
और भाषण दिया।
ऐसा माना जाता है कि अपराधी गांधीजी के अस्पृश्यता निवारण
के काम से चिढ़ा हुआ था। गांधीजी ने बम फेंकने वाले अज्ञात व्यक्ति पर रहम खाते हुए
कहा था, “मैं शहीद नहीं होना चाहता, लेकिन यदि जिसे मैं
अपना परम कर्तव्य समझता हूं, लाखों हिन्दुओं के साथ जिस अवधारणा में मेरा पूर्ण विश्वास
है, उसकी रक्षा की राह
में अगर मौत भी आए तो मैं उसे सहर्ष गले लगा लूंगा।”
एक प्रेस स्टेटमेंट में, उन्होंने कहा कि इस
बुरी घटना ने हरिजन मुद्दे को आगे बढ़ाया है: "मुझे यकीन नहीं हो रहा कि कोई
भी समझदार सनातनवादी आज शाम हुए पागलपन वाले काम को बढ़ावा दे सकता है। हालांकि, मैं चाहूंगा कि सनातनवादी दोस्त बोलने वालों और लिखने वालों
की भाषा पर कंट्रोल करें, जो उनकी तरफ से बोलने का दावा कर
रहे हैं। इस दुखद घटना ने बेशक हरिजन मुद्दे को आगे बढ़ाया है। जो लोग उनके लिए
खड़े होते हैं, उनकी शहादत से मुद्दों को आगे
बढ़ते देखना आसान है। मैं शहादत के लिए तरस नहीं रहा हूं, लेकिन अगर यह मेरे रास्ते में आता है, जिसे मैं लाखों हिंदुओं के साथ अपने विश्वास की रक्षा के
लिए सबसे बड़ा कर्तव्य मानता हूं, तो मैंने इसे अच्छी
तरह से कमाया होगा और भविष्य के इतिहासकार के लिए यह कहना मुमकिन होगा कि मैंने
हरिजनों के सामने जो कसम खाई थी कि अगर ज़रूरत पड़ी, तो छुआछूत को खत्म
करने की कोशिश में मैं मर जाऊंगा, वह सचमुच पूरी हुई। जो
लोग मुझसे इस दुनियावी ज़िंदगी में जो कुछ भी बचा है, उससे नाराज़ हैं, उन्हें पता होना चाहिए
कि मेरे शरीर को खत्म करना सबसे आसान काम है। क्यों फिर मेरी जान लेने के लिए कई
बेगुनाह लोगों की जान खतरे में डाल दी, जिसे वे पाप मानते थे? अगर बम मुझ पर और मेरे ग्रुप पर गिरा होता, जिसमें मेरी पत्नी और तीन लड़कियां शामिल थीं, जो मुझे बेटियों की तरह प्यारी हैं और उनके माता-पिता ने
मुझे सौंपी हैं, तो दुनिया क्या कहती? मुझे यकीन है कि बम फेंकने वाले का उन्हें कोई नुकसान
पहुंचाने का इरादा नहीं रहा होगा। मुझे उस अनजान बम फेंकने वाले पर बहुत दया आती
है। अगर मेरी चलती, और अगर बम फेंकने वाला जाना-पहचाना
होता, तो मैं ज़रूर उसे बरी करने की मांग
करता, जैसा मैंने साउथ अफ्रीका में उन
लोगों के मामले में किया था जिन्होंने मुझ पर हमला करने में कामयाबी हासिल की थी।
सुधारकों को बम फेंकने वाले या उसके पीछे जो लोग हो सकते हैं, उनसे नाराज़ नहीं होना चाहिए। मैं चाहूंगा कि सुधारक देश को
छुआछूत की जानलेवा बुराई से छुटकारा दिलाने के लिए अपनी कोशिशें दोगुनी कर दें।”
आक्रमणकारी भाग गए। किसी जांच या गिरफ़्तारी का कोई उल्लेख
नहीं मिलता। शक के आधार पर पाँच लोगों को हिरासत में लिया गया। इस घटना के कारण गांधीजी
को एक बार फिर बंदूक और बम के पंथ के खिलाफ बोलने का मौका लिया। उन्होंने कहा: जब
मैं 1915 में भारत लौटा, तो मैंने भविष्यवाणी
की थी कि अगर बम इस ज़मीन पर बस गया, तो चाहे वजह कुछ भी हो, वह सिर्फ़ उसी वजह तक सीमित नहीं रहेगा। वह भविष्यवाणी एक
से ज़्यादा बार सच साबित हुई है। मैं इस मौके पर यह सच भी बताना चाहूंगा कि अगर हम
सोच और बात से हिंसा को अपना रहे हैं, तो उसे किसी न किसी
दिन पक्का रूप लेना ही होगा, और यह सिर्फ़ अच्छे
मकसद तक सीमित नहीं रह सकती।
सी.
राजगोपालाचारी ने भी इस घटना की बुराई करते हुए एक बयान जारी किया और कहा: पूना
में हुए गुस्से से उन लोगों को समझ आनी चाहिए जो हल्के में यह मानते हैं कि अच्छे
मकसद के लिए हिंसा जायज़ है और अधिकारों को पाने के लिए इसे बर्दाश्त किया जा सकता
है।
गांधीजी
की जान लेने की इस घिनौनी कोशिश के खिलाफ हर तरह की जनमत बहुत ज़्यादा भड़क गई और
अखबारों ने भी बम बनाने की इस कोशिश की खुलकर बुराई की।
*** *** ***
मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।