राष्ट्रीय आन्दोलन
357.
सत्याग्रह स्थगित
1934
गांधीजी ने कांग्रेस की औपचारिक सदस्यता छोड़ दी
थी और अक्सर कहते थे कि वह पार्टी के चवन्निया सदस्य भी नहीं हैं। उन्होंने कांग्रेस
की चवन्नी सदस्यता से भी त्यागपत्र देकर जवाहर लाल नेहरू
से कहा था कि कांग्रेस की कमान अब युवाओं के हाथ में रहनी चाहिए। लेकिन कांग्रेस उनको अकेला छोड़ने का जोखिम नहीं
उठा सकती थी। सेवाग्राम की गाँधी कुटी में वह अपना दिन बिता रहे थे। गाांधीजी मूल
रूप से आध्यात्मिक समाज सुधारक थे। उस समय के राजनीतिक हालात उन्हें बार बार राजनीति में खींच लाते थे।
इस समय तक गांधीजी इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि वे जहां भी रहते वही जगह राजनीतिक गतिविधियों का
केंद्र बन जानी थी। इसलिए यह नई जगह (सेवाग्राम) भी राजनीतिक तीर्थयात्रा का
केंद्र बन गयी थी। उनसे जब सलाह मांगी जाती वह दे देते। वास्तव में सक्रिय राजनीति
से गांधीजी का अलगाव यथार्थ से अधिक रणनीतिक था। इससे उन्हें अपनी खुद की शक्तियों
को तैयार और प्रशिक्षित करने की स्वतंत्रता और संभावना प्राप्त होती थी जिसे वह
समय पर इस्तेमाल कर सकें।
1934 तक कांग्रेस और उसके सहयोगी संगठनों को
अवैध घोषित कर दिया गया और उनके कार्यालय और धन जब्त कर लिए गए। लगभग सभी गांधी
आश्रमों पर पुलिस ने कब्ज़ा कर लिया। शांतिपूर्ण धरना देने वालों, सत्याग्रहियों और जुलूस निकालने वालों पर
लाठियाँ बरसाई गईं, उन्हें पीटा गया और अक्सर उन्हें कठोर कारावास
और भारी जुर्माना लगाया गया, जो
उनकी ज़मीन-जायदाद को औने-पौने दामों पर बेचकर वसूला गया। जेल में कैदियों के साथ
बर्बर व्यवहार किया गया। सज़ा के तौर पर कोड़े मारना आम बात हो गई। ग्रामीण भारत
के विभिन्न हिस्सों में कर-मुक्ति अभियानों के साथ बहुत सख्ती बरती गई। ज़मीनें, घर, मवेशी, कृषि उपकरण और अन्य संपत्ति को बेरहमी से जब्त कर लिया गया।
पुलिस ने खुलेआम आतंक फैलाया और अनगिनत अत्याचार किए। गुजरात के एक गाँव रास में, कर न देने वाले किसानों को नंगा किया गया, सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए और बिजली के
झटके दिए गए। सरकार का कोप महिलाओं पर विशेष रूप से कठोर था। महिलाओं को सत्याग्रह
से डराने के इरादे से जेलों की स्थितियाँ बेहद कठोर बना दी गईं। आंदोलन पर
रिपोर्टिंग या टिप्पणी करने, यहाँ
तक कि राष्ट्रीय नेताओं या सत्याग्रहियों के चित्र छापने की प्रेस की स्वतंत्रता
भी सीमित कर दी गई। 1932 के पहले छह महीनों के भीतर 109 पत्रकारों और अट्ठानवे
मुद्रणालयों के खिलाफ कार्रवाई की गई। राष्ट्रवादी साहित्य - कविताएँ, कहानियाँ और उपन्यास - पर बड़े पैमाने पर
प्रतिबंध लगा दिया गया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन शिथिल होता जा रहा था। लोगों
ने प्रतिरोध किया। लेकिन गांधीजी और अन्य नेताओं के पास आंदोलन की गति बढ़ाने का
समय नहीं था और यह लंबे समय तक जारी नहीं रह सका। आंदोलन को कुछ ही महीनों में
प्रभावी रूप से कुचल दिया गया। जनता ने आशा लगा रखी थी कि सविनय अवज्ञा की लड़ाई थोड़े
दिन और चलेगी और जल्दी से उसका मनचाहा परिणाम सामने आ जाएगा। गांधीजी सविनय अवज्ञा
को सत्याग्रह का अंग मानते थे और सत्याग्रह को जीवन का ऐसा तरीक़ा जिसके द्वारा
वैयक्तिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी तरह की समस्याओं का हल निकाला जा सके। क्रांतिकारी
आंदोलन, चाहे वह कितना भी अहिंसात्मक क्यों न हो, उसके उफान और जोश को अनिश्चित
काल तक कायम नहीं रखा जा सकता। 78,000 कांग्रेसी जेल में
थे। कितनों ने अमन, सुख, चैन खो दिया था। कइयों के स्वास्थ्य, घर-बार सब चौपट हो
चुके थे। सविनय
अवज्ञा के चार साल बाद भी अंग्रेज़ों का हृदय-परिवर्तन नहीं हुआ था। उनकी कटुता,
कठोरता और कांग्रेस के प्रति नफ़रत और बढ़ गई थी। हालाँकि, आंदोलन
अप्रैल 1934 की शुरुआत तक जारी रहा, जब 7
मई, 1934 को गांधीजी ने इसे वापस लेने का अपरिहार्य निर्णय लिया। उस समय की
परिस्थिति में गांधीजी इस नतीज़े पर पहुंचे कि जनता अहिंसा के उनके संदेश को पूरी
तरह से आत्मसात नहीं कर पाई है। इसलिए देश को अहिंसा-व्रत में पूरी तरह दीक्षित
करने के लिए सविनय अवज्ञा आन्दोलन और सत्याग्रह को स्थगित करने की घोषणा की गई।
आंदोलन ने जो मोड़ ले लिया था उससे राजनीतिक
कार्यकर्ता हताश हो गए। कई लोगों ने पूछा, हमने
क्या हासिल किया है? जवाहरलाल जैसे उत्साही और सक्रिय व्यक्ति ने भी
निराशा की इस भावना को—जो उनकी बीमार पत्नी से वियोग के कारण और भी तीव्र हो गई
थी—जून 1935 में अपनी जेल डायरी में एक पंक्ति लिखकर व्यक्त किया: 'जहाँ तुम्हारी आवाज़ थी वहाँ उदास हवाएँ थीं; जहाँ मेरा दिल था वहाँ आँसू, आँसू थे; और हमेशा मेरे साथ, बच्चे, हमेशा
मेरे साथ, जहाँ आशा थी वहाँ सन्नाटा था।' इससे पहले, जब
गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया था, जवाहरलाल
ने 'दर्द के एक झटके के साथ' महसूस
किया था कि गांधीजी के साथ उनका लंबा जुड़ाव समाप्त होने वाला था। सुभाष चंद्र बोस
और विट्ठलभाई पटेल गांधीजी के नेतृत्व के कहीं अधिक आलोचक थे। यूरोप से एक कड़े
बयान में उन्होंने 1933 में कहा था कि 'एक राजनीतिक नेता के रूप में श्री गांधी विफल रहे हैं'।
वैसे भी कांग्रेस में भी कई गुट बन गए थे।
कांग्रेस के भीतर के रूढ़िवादी हिंदुओं को यह बात खल रही थी कि ब्रिटिश सरकार जेल
में गांधीजी को हरिजन कार्यक्रम चलाने दे रही है। मालवीयजी अब उनसे दूर जाने लगे
थे। हिंदू के कुछ नेताओं को इस बात से क्षोभ था कि गांधीजी ने मैकडोनल्ड के निर्णय
की अन्य बातों से कोई सरोकार रखना अस्वीकार कर दिया था जिसके अनुसार पंजाब में
मुसलमानों को 49 प्रतिशत और बंगाल में 48.6 प्रतिशत प्रतिनिधित्व
दिया गया था। बंगाल के रूढ़िवादी हिंदुओं को इस बात पर आपत्ति थी कि पूना समझौते ने
सदा के लिए सवर्णों को अल्पसंख्यकों की हैसियत प्रदान कर दी है।
1934 में जून में हुई
कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने ‘न स्वीकार न इंकार’ का फॉर्मूला अपनाया, जिसके
फलस्वरूप मालवीय ने एक अलग कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी बनाई। जगह-जगह सनातनियों द्वारा
गांधीजी की हरिजन सभाओं को भंग किया जाने लगा। जिसकी परिणति गांधीजी पर जानलेवा
हमले के रूप में हुआ। गांधीजी के हरिजन कल्याण कार्यों के बहुत दूरगामी प्रभाव
हुए। इसने ग्रामीण समाज के निम्नतम और सबसे शोषित वर्गों तक राष्ट्रवाद का संदेश
पहुंचाने का कार्य किया। देश के अधिकांश भागों में दलित कांग्रेस के प्रति
पारंपरिक निष्ठा की भावना से बंध गए। गांधीजी के इस आंदोलन में विस्तार के साथ
नियंत्रण भी था। उन्होंने जानबूझकर हरिजन आंदोलन को दलितों के लिए सार्वजनिक कुआं,
सड़क, मंदिरों को खुलवाना, मानवतावादी कार्य जैसे सामाजिक सुधार तक ही सीमित रखा
था। डॉक्टर अंबेडकर ने टिप्पणी की थी, “जाति-व्यवस्था को नष्ट
किए बिना अछूतों का उद्धार संभव नहीं है।”
यद्यपि 1930 से 1934
तक के सत्याग्रह आंदोलन को स्वतंत्रता नहीं मिली थी और उसे अस्थायी रूप से कुचल
दिया गया था, भारतीय लोगों का और
अधिक परिवर्तन हो गया था। लड़ने की इच्छाशक्ति और भी मजबूत हो गई थी; ब्रिटिश शासन में
विश्वास पूरी तरह से चकनाचूर हो गया था। लेबर पार्टी के पत्रकार एच.एन.
ब्रेल्सफोर्ड ने राष्ट्रवादियों के हालिया संघर्ष के परिणामों का आकलन करते हुए
लिखा था कि ‘भारतीयों ने अपने मन को मुक्त कर लिया था, उन्होंने अपने दिलों
में स्वतंत्रता हासिल कर ली थी।'
आंदोलन में यह विराम मुख्यतः
विश्राम और पुनः संगठित होने के लिए था। आंदोलन को वापस लेने का मतलब हार या
जनसमर्थन का नुकसान नहीं था; इसका मतलब केवल था, जैसा कि डॉ. अंसारी ने
कहा था, 'काफी लंबे समय तक
लड़ने के बाद हम विश्राम के लिए तैयार हैं, ताकि अगले दिन और अधिक और बेहतर
संगठित बल के साथ एक बड़ी लड़ाई लड़ी जा सके।'
अपने समकालीनों में अकेले गांधीजी ही सविनय अवज्ञा आंदोलन
के वास्तविक स्वरूप और परिणाम को समझते थे। उन्होंने सितंबर 1933 में नेहरू को
लिखा: 'मुझे हार का कोई एहसास
नहीं है और मुझमें यह आशा है कि हमारा देश अपने लक्ष्य की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है, और यह आशा 1920 की तरह
ही प्रज्वलित है।' उन्होंने अप्रैल 1934
में कांग्रेस नेताओं के एक समूह के सामने यह विचार दोहराया: 'मुझे अपने अंदर कोई
निराशा महसूस नहीं हो रही है... मैं खुद को असहाय महसूस नहीं कर रहा हूँ...
राष्ट्र में वह ऊर्जा है जिसकी आपको कल्पना नहीं है, लेकिन मुझे है।' बेशक, उन्हें अधिकांश अन्य
नेताओं पर बढ़त हासिल थी। हालाँकि उन्हें अपनी राजनीतिक सक्रियता की भावना को बनाए
रखने के लिए एक आंदोलन की आवश्यकता थी, लेकिन उनके पास रचनात्मक कार्य का
विकल्प हमेशा उपलब्ध था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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