बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

364. औपनिवेशिक भारत में सांविधानिक घटनाक्रम

राष्ट्रीय आन्दोलन

364. औपनिवेशिक भारत में सांविधानिक घटनाक्रम

 


भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Councils Act) 1861

विधायी निकायों में गैर-अधिकारियों के प्रतिनिधियों का जो सिद्धांत स्वीकृत किया गया था, 1861 का अधिनियम उसे आगे बढ़ाता है। यह प्रावधान रखा गया था कि विचार-विमर्श के बाद कानून बनाए जाने थे, और कानून को केवल उसी विचार-विमर्श प्रक्रिया द्वारा बदला जा सकता था। इस प्रकार कानून-निर्माण अब कार्यपालिका के हाथ की चीज़ नहीं रह गया था। लॉर्ड कैनिंग (1856 से 1862 तक भारत के गवर्नर-जनरल) द्वारा शुरू की गई पोर्टफोलियो प्रणाली ने भारत में कैबिनेट सरकार की नींव रखी। प्रशासन की प्रत्येक शाखा का सरकार में अपना आधिकारिक प्रमुख और प्रवक्ता था, जो इसके प्रशासन के लिए जिम्मेदार था। इस अधिनियम ने बंबई और मद्रास की सरकारों में विधायी शक्तियाँ निहित किया। अन्य प्रांतों में समान विधान परिषदों की संस्था के लिए प्रावधान करके अधिनियम ने विधायी हस्तांतरण की नींव रखी। हालाँकि, 1861 के अधिनियम द्वारा स्थापित विधान परिषदों के पास कोई वास्तविक शक्तियाँ नहीं थीं और उनमें कई कमजोरियाँ थीं। सरकार के पूर्व अनुमोदन के बिना परिषदें महत्वपूर्ण मामलों और किसी भी वित्तीय मामलों पर चर्चा नहीं कर सकती थीं। बजट पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। वे कार्यकारी कार्रवाई पर चर्चा नहीं कर सकते थे। विधेयक के अंतिम रूप से पारित होने के लिए वायसराय की स्वीकृति आवश्यक थी। वायसराय द्वारा अनुमोदित हो जाने पर भी, राज्य सचिव कानून को अस्वीकार कर सकता था। गैर-अधिकारियों के रूप में जुड़े भारतीय केवल संभ्रांत वर्गों के सदस्य थे।

भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Councils Act), 1892

1885 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी। कांग्रेस ने परिषदों के सुधार को "अन्य सभी सुधारों की जड़" के रूप में देखा। कांग्रेस की मांग थी कि विधान परिषदों का विस्तार किया जाए। भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 द्वारा केंद्रीय (शाही) और प्रांतीय विधान परिषदों दोनों में कि गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई। गवर्नर-जनरल (भारतीय विधान परिषद) की विधान परिषद का विस्तार किया गया। विश्वविद्यालयों, जिला बोर्डों, नगर पालिकाओं, जमींदारों, व्यापार निकायों और वाणिज्य मंडलों को प्रांतीय परिषदों के सदस्यों की सिफारिश करने का अधिकार दिया गया था। इस प्रकार प्रतिनिधित्व के सिद्धांत की शुरुआत हुई। यद्यपि अधिनियम में 'चुनाव' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था, किन्तु कुछ गैर-सरकारी सदस्यों के चयन में अप्रत्यक्ष चुनाव का तत्व समाहित था। विधायिकाओं के पटल पर प्रस्तुत किए जाने वाले वित्तीय विवरणों पर विधायिकाओं के सदस्य अब अपने विचार व्यक्त करने के हकदार थे। वे छह दिन का नोटिस देने के बाद सार्वजनिक हित के मामलों पर कार्यपालिका से निश्चित सीमा के भीतर सवाल भी कर सकते थे।

भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Councils Act), 1909

लोकप्रिय रूप से इस अधिनियम को मॉर्ले-मिंटो सुधार के रूप में जाना जाता है। इस अधिनियम ने देश के शासन में एक प्रतिनिधि और लोकप्रिय तत्व लाने का पहला प्रयास किया। इन सुधारों के तहत इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल की ताकत बढ़ा दी गई। गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद में पहली बार एक भारतीय सदस्य लिया गया। सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा गवर्नर-जनरल-या वायसराय की-कार्यकारी परिषद में कानून सदस्य के रूप में शामिल होने वाले पहले भारतीय थे। प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य बढ़ाये गये। केंद्रीय और प्रांतीय दोनों विधान परिषदों की शक्तियों में वृद्धि की गई। इस अधिनियम के तहत वास्तविक शक्ति सरकार के पास रही और परिषदों के पास आलोचना के अलावा कोई कार्य नहीं रह गया। मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की शुरूआत ने नई समस्याएं पैदा कीं। मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचिका के अतिरिक्त मुसलमानों को उनकी जनसंख्या शक्ति से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया। साथ ही, मुस्लिम मतदाताओं की आय योग्यता हिंदुओं की तुलना में कम रखी गई। चुनाव की प्रणाली बहुत अप्रत्यक्ष थी। इस प्रकार, बड़े पैमाने पर लोगों का प्रतिनिधित्व दूरस्थ और अवास्तविक बना रहा।

भारत सरकार अधिनियम, 1919

संविधान सुधारों को मांग देश में जोर पकड़ती जा रही थी। इससे सबसे विवश होकर भारत सचिव एडविन मोंटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को घोषणा की कि उसका उद्देश्य धीरे-धीरे भारत में जिम्मेदार सरकार की शुरुआत करना है, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के एक अभिन्न अंग के रूप में। इस घोषणा के बाद मांटेग्यू भारत के लिए जल्द-से-जल्द एक नए अधिनियम के निर्माण में लग गया। उस समय भारत का वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड था। नवंबर 1917 में मोंटेग्यू भारत आया। मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड ने भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श कर उत्तरदायी शासन की स्थापना के संबंध में उनके विचार एकत्र किए। अपनी योजना तैयार कर 8 जुलाई, 1918 को उन्होंने इसे प्रकाशित किया।

अधिनियम पारित होने के कारण

यह अधिनियम उस पर आधारित था जिसे लोकप्रिय रूप से मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के रूप में जाना जाता है। 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधारों से भारतीय संतुष्ट नहीं हो। इसने हिन्दू-मुसलिम के बीच की खाई को पटाने के बजाए इसे चौड़ा करने का ही काम किया। इसने न तो कांग्रेस को संतुष्ट किया और न ही मुसलिम लीग को ही। मुसलमानों में राष्ट्रीय जागरण हुआ और वे अँग्रेज़ विरोधी हो गए। ब्रिटिश सरकार ने सुधारों द्वारा उदारवादियों को खुश करने और क्रांतिकारियों को कुचलने की जो नीति अपनाई उसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई। राष्ट्रवादियों की स्वशासन की मांग जोर पकड़ती जा रही थी, जिससे सुधारों की आवश्यकता पड़ी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने भारतीय सहयोग प्राप्त करने के लिए अनेक घोषणाएँ की थी, लेकिन युद्ध के बाद भारतीयों की आशाएं पूरी होती नहीं दिखी, जिससे उनमें असंतोष बढ़ा। एनी बेसेंट के स्वशासन आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने कडा कदम उठाया, जिससे राष्ट्रीय एकता बढ़ी। 1916 के कांग्रेस-लीग समझौता (लखनऊ पैक्ट) के बाद कांग्रेस की स्वराज की मांग को लीग ने समर्थन दिया। उपर्युक्त कारणों के कारण देश में सुधार अधिनियम बनाना ज़रूरी हो गया था।

सुधार योजना पर प्रतिक्रिया

तिलक ने रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया और इसे "अयोग्य और निराशाजनक-एक धूप रहित सुबह" कहा। श्रीमती एनी बेसेंट ने इसकी आलोचना करते हुए कहा, यह योजना प्रस्तुत करना इंग्लैण्ड की शान के खिलाफ है और इसे स्वीकार करना भारत की शान के खिलाफ। कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में इस योजना को निराशाजनक और असंतोषप्रद बताया गया। मुस्लिम लीग ने भी कुछ इसी तरह के विचार व्यक्त किए। कांग्रेस ने तुरंत उत्तरदायी शासन की मांग की। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में उदारवादी कांग्रेस से अलग होकर ‘लिबरेशन फेडरेशन की स्थापना की और इस सुधार योजना को स्वीकृति दे दी। गांधीजी ने कहा था, मोंटफोर्ड सुधार... केवल भारत की संपत्ति को और कम करने और उसकी दासता को लंबा करने का एक तरीका था। दिसंबर, 1919 में ब्रिटिश संसद ने इस सुधार योजना को पास कर दिया। यही योजना भारत सरकार अधिनियम, 1919 बना, जिसे 1920 में लागू कर दिया गया। जिन्ना के ही पहल पर चितरंजन दास आदि की आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस ने सुधारों पर अमल करने पर सहमति दी थी।

अधिनियम के प्रावधान

भारत सरकार अधिनियम, 1919 द्वारा भारत को अंग्रेजी साम्राज्य का अभिन्न अंग रखते हुए यह निश्चय किया गया कि भारत में स्वशासी संस्थाओं का धीरे-धीरे विकास होगा और ब्रिटिश संसद संवैधानिक प्रगति के पथ का निर्धारण करेगी। इसके लिए भारतीयों को प्रशासनिक मामलों से संबद्ध करना, स्वायत्त शासन का विकास करना, प्रान्तों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करना और धीरे-धीरे उन्हें केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने की व्यवस्था की गई।

गृह सरकार - इंडिया काउंसिल

भारत के शासन का जो भाग इंग्लैण्ड में काम करता था गृह सरकार कहलाता था सम्राट, मंत्रिमंडल, संसद, भारत मंत्री और उसकी काउन्सिल इसके मुख्य अंग थे। भारत मंत्री का पद सबसे  महत्त्वपूर्ण था। भारत सरकार के विधायी, प्रशासकीय और आर्थिक मामलों पर उसका पूर्ण नियंत्रण था। वह ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। 1919 के अधिनियम के अंतर्गत भारत सचिव की शक्तियों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। भारत सचिव की परिषद् में भारतीय सदस्यों की संख्या दो से बढाकर तीन कर दी गई, जिनका कार्य भारत सचिव को परामर्श देना था। परिषद् का कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया। भारतीय मामलों का अंतिम नियंत्रण और निर्देश गृह सरकार के हाथ में था। दूसरे शब्दों में कहें, तो भारत का शासन व्हाईट हॉल से होता था, न कि दिल्ली से। इस अधिनियम द्वारा एक त्रुटि ज़रूर दूर की गई कि इसके खर्च का भार अब भारतीय राजस्व पर नहीं था।

हाई कमीशन

इस अधिनियम के अंतर्गत एक हाई कमीशन (उच्च आयुक्त) की व्यवस्था की गई जिसकी नियुक्ति भारत सचिव की स्वीकृति से गवर्नर जनरल करता। उसका वेतन भारत में होने वाली आय से दिया जाता। उसका काम भारतीय व्यापारियों की देखभाल, इंग्लैण्ड में भारतीय विद्यार्थियों की सुविधाओं का ध्यान रखना और भारतीय शासन से संबंधित सामग्री की खरीददारी करना था। इस नए पद से भारतीयों को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, बल्कि यह संस्था भारतीयों के स्वशासन के रास्ते में एक बाधा ही साबित हुआ।

अखिल भारतीय स्तर पर सरकार के लिए अधिनियम में किसी उत्तरदायी सरकार की परिकल्पना नहीं की गई थी। यहाँ ऐसे मामले जो राष्ट्रीय महत्त्व के थे या एक से अधिक प्रांतों से संबंधित थे, केंद्र स्तरीय सरकार द्वारा  शासित थे, जैसे: विदेश मामले, रक्षा, राजनीतिक संबंध, सार्वजनिक ऋण, नागरिक और आपराधिक कानून, संचार सेवाएं आदि को शामिल किया गया था।

केन्द्रीय सरकार

केन्द्रीय स्तर पर कार्यपालिका सरकार, गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी परिषद् से मिलकर बनती थी। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में छः सामान्य सदस्य थे, जिनमें से तीन भारतीय थे। ये सदस्य केन्द्रीय विधान सभा के प्रति नहीं, गवर्नर जनरल और भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी थे।

वायसराय की कार्यकारिणी

इस अधिनियम ने वायसराय को मुख्य कार्यकारी प्राधिकारी बनाया। प्रशासन के लिए दो सूचियाँ होनी थीं- केंद्रीय और प्रांतीय। वायसराय की आठ सदस्यीय कार्यकारी परिषद में तीन भारतीय थे, लेकिन इन्हें कम महत्त्वपूर्ण विभाग, जैसे शिक्षा, श्रम और उद्योग ही दी गए थे। वायसराय ने प्रांतों में आरक्षित विषयों पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखा। उसे अनुदानों में कटौती करने का अधिकार था, केंद्रीय विधायिका द्वारा खारिज किए गए बिलों को प्रमाणित कर सकता था और अध्यादेश जारी कर सकता था।

विषयों की सूची

इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकार के स्तर पर कार्यपालिका के लिए द्वैध शासन की शुरुआत की। केन्द्रीय और प्रांतीय विषय अलग कर दिए गए। रक्षा, राजनीतिक संबंध, डाक-तार, संचार, क़ानून और प्रशासन जैसे महत्त्वपूर्ण विषय केन्द्रीय सूची में शामिल किए गए थे। प्रांतीय सूची में सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, सामान्य प्रशासन, चिकित्सा सुविधाएं, भूमि-राजस्व, जल आपूर्ति, अकाल राहत, कानून और व्यवस्था, कृषि आदि। केंद्र और प्रान्तों के बीच राजकीय आय का बंटवारा हुआ।

केन्द्रीय व्यवस्थापिका

एक द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था पेश की गई थी, जिसमें उच्च सदन या राज्य परिषद (Upper House or Council of State) और  निम्न सदन या केंद्रीय विधानसभा (Lower House or Central Legislative Assembly) शामिल थी।

उच्च सदन या राज्यसभा

उच्च सदन या राज्य परिषद में 60 सदस्य थे, जिनमें से 26 वायसराय द्वारा मनोनीत सदस्य थे और 34 निर्वाचित सदस्य। निर्वाचित सदस्यों में से 20 जनरल, 10 मुस्लिम, 3 यूरोपीय और 1 सिख सदस्य का निर्वाचन होना था। मनोनीत सदस्यों में से 20 सदस्य सरकारी और 6 गैर सरकारी सदस्य होते थे। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का था और इसमें केवल पुरुष सदस्य थे। मताधिकार अत्यन्त सीमित थे। जो लोग 10,000 से 20,000 रूपए वार्षिक आय पर कर चुकाते थे या 750 से 5,000 तक भूमि कर चुकाते थे उन्हें ही मताधिकार प्राप्त था। इसके अलावा विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्यों को, म्यूनिसिपल कमेटियों और जिला बोर्ड के प्रधानों को और विशेष प्रकार की उपाधियों से विभूषित व्यक्तियों को मताधिकार प्रदान किया गया। ये शर्तें इतनी कड़ी थीं कि 1925 में 1,500 व्यक्ति ही राज्य सभा के चुनाव के लिए मतदान कर सके। वायसराय सदन की बैठक बुला सकता था, इसे स्थगित या भंग भी कर सकता था।

निम्न सदन  या केंद्रीय विधान सभा

निचले सदन या केंद्रीय विधान सभा में 145 सदस्य थे। इनमें से  104 निर्वाचित सदस्यों में से 52 सामान्य, 30 मुस्लिम, 2 सिख, 20 विशेष वर्गों (यूरोपियन, ज़मींदार, व्यापारिक संगठन) के लिए आरक्षित थे। 41 मनोनीत सदस्यों में से 26 आधिकारिक और 15 गैर-सरकारी सदस्य थे केंद्रीय विधान सभा का कार्यकाल 3 वर्ष था। विधायिका पर वायसराय का पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया गया था।

प्रांतीय सरकार—द्वैध शासन की शुरुआत

इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकार के स्तर पर कार्यपालिका के लिए द्वैध शासन (Dyarchy) यानी, दो-कार्यकारी पार्षदों और लोकप्रिय मंत्रियों, की शुरुआत की। गवर्नर प्रांत का  कार्यकारी प्रमुख था। विषयों को दो सूचियों में विभाजित किया गया था: 'आरक्षित' जिसमें कानून और व्यवस्था, वित्त, भूमि राजस्व, सिंचाई, आदि जैसे विषय शामिल थे, और शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय सरकार, उद्योग, कृषि, उत्पाद शुल्क, आदि जैसे 'स्थानांतरित' विषय शामिल थे। द्वैध शासन (Diarchy) को आठ प्रांतों में लागू किया गया था जिसमें असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे, मद्रास और पंजाब प्रांत शामिल थे। मंत्रियों को विधायिका के प्रति जिम्मेदार होना था और यदि विधायिका द्वारा उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जाता, तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ता, जबकि कार्यकारी पार्षद विधायिका के प्रति जिम्मेदार नहीं थे। प्रांत में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में गवर्नर हस्तांतरित विषयों का प्रशासन भी अपने हाथ में ले सकता था।

विधान - सभा

प्रांतीय विधान परिषदों का और विस्तार किया गया और 70 प्रतिशत सदस्यों का चुनाव किया गया। सभी प्रान्तों में सदस्यों की संख्या सामान नहीं थी। सांप्रदायिक और वर्गीय मतदाताओं की व्यवस्था को और मजबूत किया गया। महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार दिया गया। विधान परिषदें कानून शुरू कर सकती थीं लेकिन गवर्नर की सहमति आवश्यक थी। गवर्नर विधेयकों को वीटो कर सकता था और अध्यादेश जारी कर सकता था। विधान परिषद बजट को अस्वीकार कर सकती थी लेकिन यदि आवश्यक हो तो गवर्नर इसे बहाल कर सकता था। गवर्नर मंत्रियों को किसी भी आधार पर बर्खास्त कर सकता था। विधायकों को बोलने की आजादी थी।

सुधारों से लाभ

अधिनियम ने प्रांतों में द्वैध शासन की शुरुआत की, जो वास्तव में भारतीय लोगों को सत्ता हस्तांतरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस अधिनियम के लागू हो जाने से भारतीयों को प्रशासन के बारे में सूचना मिली और वे अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुए। भारतीयों में राष्ट्रवाद और जागृति की भावना पैदा हुई और यह स्वराज के लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम साबित हुआ। चुनाव क्षेत्रों का विस्तार हुआ जिससे लोगों में मतदान के महत्त्व के प्रति समझ बढ़ी। भारत में प्रांतीय स्वशासन की शुरुआत हुई। लोगों को  प्रशासन करने का अधिकार मिला जिससे सरकार पर  प्रशासनिक दबाव बहुत कम हो गया। भारतीयों को प्रांतीय प्रशासन में ज़िम्मेदारियों का निर्बहन करने हेतु तैयार किया। अधिनियम द्वारा पहली बार प्रांतीय और केंद्रीय बजट को अलग किया गया। साथ ही प्रांतीय विधानसभाओं को अपने बजट बनाने के लिए अधिकृत किया गया। भारत के लिए एक उच्चायुक्त नियुक्त किया गया, जिसे छह साल के लिए लंदन में अपना कार्यालय संभालना था और जिसका कर्तव्य यूरोप में भारतीय व्यापार की देखभाल करना था। अब तक भारत के राज्य सचिव द्वारा किए गए कुछ कार्यों को उच्चायुक्त को स्थानांतरित कर दिया गया था। भारत के राज्य सचिव, जो भारतीय राजस्व से अपना वेतन प्राप्त करते थे, अब ब्रिटिश राजकोष द्वारा भुगतान किया जाना था, इस प्रकार 1793 के चार्टर अधिनियम में एक अन्याय को समाप्त कर दिया।

कमियां

अधिनियम में अखिल भारतीय स्तर पर किसी भी ज़िम्मेदार सरकार की परिकल्पना नहीं की गई। प्रत्येक सदन में सदस्यों का बहुमत होना था जो सीधे चुने गए थे। इसलिए, प्रत्यक्ष चुनाव की शुरुआत की गई, हालांकि संपत्ति, कर या शिक्षा की योग्यता के आधार पर मताधिकार बहुत सीमित था। एक अनुमान के अनुसार, केंद्रीय विधायिका के लिए मतदाताओं की संख्या लगभग पंद्रह लाख तक बढ़ा दी गई थी, जबकि भारत की जनसंख्या लगभग 26 करोड़ थी। त्रुटिपूर्ण चुनावी प्रणाली और सीमित मताधिकार के कारण ये सुधार लोकप्रियता नहीं हासिल कर सके। इसके अलावे एक अलग चुनावी प्रणाली ने सांप्रदायिकता की भावना को बढ़ावा दिया। सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को मुसलमानों के अलावा सिखों, ईसाइयों और एंग्लो-इंडियन के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों के साथ विस्तारित किया गया था। हालांकि केंद्र और प्रांतों के बीच विषयों का सीमांकन किया गया था फिर भी संरचना एकात्मक और केंद्रीकृत बनी रही। केंद्र में, वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद पर विधायिका का कोई नियंत्रण नहीं था। इससे दोनों के बीच लगातार टकराव की स्थिति बनी रहती थी। प्रांतीय क्षेत्र में द्वैध शासन विफल रहा। केंद्रीय विधानमंडल के पास सरकार को बदलने की कोई शक्ति नहीं थी। कानून और वित्तीय नियंत्रण के क्षेत्र में भी इसकी शक्तियां सीमित थीं। केंद्र में विषयों का विभाजन संतोषजनक नहीं था। प्रांतों को केंद्रीय विधायिका के लिए सीटों का आवंटन प्रांतों के 'महत्व' पर आधारित था - उदाहरण के लिए, पंजाब का सैन्य महत्व और बॉम्बे का व्यावसायिक महत्व। प्रांतों के स्तर पर, विषयों का विभाजन और दो भागों का समानांतर प्रशासन तर्कहीन था और इसलिए अव्यावहारिक था। सिंचाई, वित्त, पुलिस, प्रेस और न्याय जैसे विषय 'आरक्षित' थे। प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाहों पर कोई नियंत्रण नहीं था। महत्वपूर्ण मामलों पर भी अक्सर मंत्रियों से सलाह नहीं ली जाती थी; वास्तव में, उन्हें राज्यपाल द्वारा किसी भी मामले पर खारिज किया जा सकता था जिसे बाद वाला विशेष मानता था। गवर्नर को अप्रतिबंधित शक्तियाँ प्राप्त थीं, वह अपनी परिषद और मंत्रियों के निर्णय के विरुद्ध भी निर्णय ले सकता था प्रशासन से संबंधित लगभग सभी महत्त्वपूर्ण मामले राज्यपाल पर निर्भर थे। मंत्रियों को उत्तरदायित्व तो सौंपा गया था लेकिन गवर्नर को इतने विस्तृत अधिकार मिले थे कि मंत्री नाममात्र के मंत्री थेहालांकि भारतीय नेताओं को पहली बार इस अधिनियम के तहत एक संवैधानिक ढांचे में कुछ प्रशासनिक अनुभव प्राप्त हुआ, लेकिन जिम्मेदार सरकार की मांग की पूर्ति नहीं हुई।

परिणाम और उपसंहार

उदार साम्राज्यवादी इतिहासकार मोंटफोर्ड सुधारों को लेकर काफी उत्साहित दिखते हैं। वे मानते हैं कि ये सुधार मूलतः अंग्रेजों की नेकनीयती के प्रमाण हैं। उन विचारकों द्वारा मांटेग्यू को सुधार के लिए जिहाद करनेवाले के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह घोषणा पुरानी ब्रिटिश नीति से अलग थी। भारत के सांविधानिक विकास के इतिहास में इन सुधारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह प्रतिनिधि सरकार की बात करती थी। हालाकि मताधिकार सीमित था फिर भी इस व्यवस्था से देश के मतदाताओं में मत देने की व्यावहारिक समझ विकसित हुई। इस अधिनियम द्वारा भारत में प्रांतीय स्वशासन तथा आंशिक रूप से उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई। केंद्र में जहाँ द्विसदनीय व्यवस्थापिका की व्यवस्था हुई, वहीं केंद्र की कार्यकारी परिषद में भारतीयों को पहले से तिगुना प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान था।

इन तथ्यों के बावजूद यह स्पष्ट है कि सुधारों की वास्तविक योजना राष्ट्रवादियों की मांगों की तुलना में अत्यंत नगण्य थी। कैंब्रिज इतिहासकारों का यह मानना कि 1919 के एक्ट से निर्वाचक मंडलों की संख्या में विस्तार हुआ और राजनीतिज्ञों को अधिक जनतांत्रिक शैली अपनाने के लिए बाध्य होना पडा, अपूर्ण है। दरअसल यह योजना भारतीयों के लिए वस्तुतः झगड़े की जड़ सिद्ध हुई। सुधार की प्रक्रिया की सूक्ष्मता से जांच करने पर पता चलता है कि इसमें नया कुछ भी नहीं था। हालाकि प्रांतीय शासन के क्षेत्र में भारत-सचिव की शक्तियों में कुछ कमी गई लेकिन इससे भारतीय प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआइस अधिनियम में इतनी कमियाँ थी कि इससे भारतीयों को घोर निराशा हुई। यह भारतीयों की आकांक्षाओं को धूल-धूसरित कर रहा था पी.ई. रॉबर्ट्स ने अपन मत रखते हुए कहा था, दोहरी कार्यपालिका का द्वैध शासन लगभग हर सैद्धांतिक आपत्ति के लिए खुला था। इस द्वितन्त्रीय सरकार का मतलब था – राज्यों में एक तरह का दुहरा शासन। यह अधिनियम भारतीयों की स्वशासन की मांग को पूरी तरह से अस्वीकार कर रहा था अधिनियम ने भारतीयों और अंग्रेज़ों दोनों में सत्ता के लिये संघर्ष को प्रोत्साहित किया। पर्याप्त कोशिश और बलिदान के बाद भारत में जो एकता स्थापित हुई थी, वह नष्ट हो गई। जो सांप्रदायिक संस्थाएं पहले से कम कर रही थीं, उन्हें इस योजना से बल मिला। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए जो वर्ष 1922 से 1927 तक  जारी रहे। 30 सदस्यों का चुनाव पृथक मुसलमान निर्वाचन मंडल के द्वारा चुना जाता था, जो केवल मुसलमान होंगे। सिखों को भी सांप्रदायिक राजनीति के अंतर्गत विशेषाधिकार प्रदान किए गए। सिखों को भी पृथक निर्वाचन मंडल में शामिल किया गया। मुसलमान और सिखों को जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि उनके राजनीतिक महत्व के आधार पर प्रांतीय विधान मंडलों में स्थान प्रदान किया गया। वर्ष 1923 में स्वराज पार्टी की स्थापना हुई तथा उसने चुनावों में मद्रास को छोड़कर  पर्याप्त संख्या में सीटें जीती। जबकि पार्टी बंबई और मध्य प्रांतों में मंत्रियों के वेतन के साथ अन्य वस्तुओं की आपूर्ति को अवरुद्ध करने में सफल रही। इस प्रकार दोनों प्रांतों के गवर्नरों को द्वैध शासन को समाप्त करने हेतु मजबूर होना पड़ा और स्थानांतरित विषयों को अपने नियंत्रण में ले लिया गया। प्रांतीय स्तर पर प्रशासन का दो स्वतंत्र भागों में बँटवारा राजनीति के सिद्धांत व व्यवहार के विरूद्ध था। उस समय मद्रास के मंत्री रहे के.वी.रेड्डी ने व्यंग्य भी किया था- ‘मैं सिंचाई मंत्री था किंतु मेरे अधीन सिंचाई विभाग नहीं था।’ इस अधिनियम का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह भी था कि इसमें प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं था। नौकरशाही मंत्रियों की अवहेलना तो करती ही थी, कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर मंत्रियों से मंत्रणा भी नहीं की जाती थी। उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को राजनीतिक शक्ति देने का प्रस्ताव तो मात्र एक बहाना बनाया था, वास्तविक शक्ति तो अभी भी अंग्रेजों के ही हाथों में ही थी। मोतीलाल नेहरू ने ठीक ही कहा था, 'ऐसा लगता है जैसे जो कुछ एक हाथ से दिया गया उसे दूसरे हाथ से ले लिया गया।'

लॉर्ड कर्जन ने टिप्पणी की थी, जब मंत्रिमंडल ने 'परम स्वशासन' की अभिव्यक्ति का प्रयोग किया तो उन्होंने संभवतः 500 वर्षों की एक मध्यवर्ती अवधि पर विचार किया। इन सुधारों के साथ ‘द्विशासन’ प्रणाली लागू तो हो गई लेकिन वास्तविक प्रशासनिक शक्तियां वायसराय के हाथों में ही केंद्रित थी। शिक्षा और सफाई जैसे कम महत्त्व वाले विभागों की ज़िम्मेदारी प्रांतीय विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित सदस्यों में से चुने गए मंत्रियों को सौंपी गई थी, जबकि वित्त, पुलिस और सामान्य प्रशासन जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग कार्यकारी परिषद् के सदस्यों के लिए आरक्षित कर दिए गए थे। स्थानीय व्यय को स्थानीय रूप से अर्जित और प्रबंधित राजस्व से ही चलाने का उत्तरदायित्व था।  वायसराय भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था, भारतीय जनता के प्रति नहीं। वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान रखा गया था, परंतु भारत के सदस्यों को प्रशासन के कम महत्वपूर्ण विभाग दिए गए। भारत के सदस्य वायसराय के प्रति उत्तरदायी थे तथा वायसराय भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। इसका मतलब यह था कि महत्त्वपूर्ण विभागों का नियंत्रण उन नौकरशाहों के हाथ में था, जो ब्रितानी सरकार और उसकी संसद के प्रति ज़िम्मेदार थे। केन्द्रीय सरकार का चरित्र पहले जैसा बना रहा। वह पहले की तरह संसद के प्रति ज़िम्मेदार रही। विधान मंडल का, वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद् पर, न कोई नियंत्रण था, न ही उनके बारे में बोलने का अधिकार। केन्द्रीय सरकार को प्रान्तों पर नियंत्रण रखने के सभी अधिकार प्राप्त थे। सुमित सरकार कहते हैं, बड़ी चालाकी से भारतीय राजनीतिज्ञों को संरक्षण की चूहा-दौड़ में डाल दिया गया था जिससे संभवतः उनकी विश्वसनीयता कम होती थी। इन सुधारों के संबंध में काफी विवाद रहा है कि इनमें लन्दन (भारत सचिव) का योगदान अधिक था या दिल्ली (वायसराय) का। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार प्रस्तावों ने ‘द्विशासन’ प्रणाली लागू की, किन्तु इसने जिम्मेदारियों की रेखाओं को धुंधला कर दिया

भारत सरकार अधिनियम, 1935

1919 के अधिनियम के तहत भारतीय विधायिका केवल एक गैर-संप्रभु कानून बनाने वाली संस्था थी और सरकारी गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में कार्यपालिका के समक्ष शक्तिहीन थी। 1919 के अधिनियम में यह प्रावधान किया गया था कि अधिनियम के कामकाज पर रिपोर्ट करने के लिए दस साल बाद एक रॉयल कमीशन नियुक्त किया जाएगा। नवंबर 1927 में, समय से दो साल पहले, ब्रिटिश सरकार ने एक ऐसे आयोग की नियुक्ति की घोषणा की- भारतीय वैधानिक आयोग (साइमन कमीशन) आयोग ने 1930 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसने सिफारिश की कि द्वैध शासन को समाप्त कर दिया जाना चाहिए, प्रांतों में जिम्मेदार सरकार का विस्तार किया जाना चाहिए, ब्रिटिश भारत और रियासतों का एक संघ स्थापित किया जाना चाहिए और सांप्रदायिक निर्वाचन जारी रखा जाना चाहिए। प्रस्तावों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा तीन गोलमेज सम्मेलन बुलाए गए। इसके बाद मार्च 1933 में ब्रिटिश सरकार द्वारा संवैधानिक सुधारों पर एक श्वेत पत्र प्रकाशित किया गया जिसमें एक संघीय व्यवस्था और प्रांतीय स्वायत्तता के प्रावधान शामिल थे। योजना पर आगे विचार करने के लिए लॉर्ड लिनलिथगो के तहत ब्रिटिश संसद के सदनों की एक संयुक्त समिति की स्थापना की गई थी। 1934 में प्रस्तुत इसकी रिपोर्ट में कहा गया था कि यदि कम से कम 50 प्रतिशत रियासतें इसमें शामिल होने के लिए तैयार हों तो एक संघ की स्थापना की जाएगी। इस रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया बिल ब्रिटिश संसद द्वारा 1935 का भारत सरकार अधिनियम बनने के लिए पारित किया गया था।

अधिनियम, 451 खंडों और 15 अनुसूचियों के साथ, एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना पर विचार करता है जिसमें राज्यपालों के प्रांत और मुख्य आयुक्तों के प्रांत और वे भारतीय राज्य जो एकजुट होने के लिए शामिल हो सकते हैं, शामिल किए जाने थे। शामिल होने के इच्छुक प्रत्येक रियासत के शासक को 'विलय के साधन' पर हस्ताक्षर करना था, जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि किस हद तक अधिकार संघीय सरकार को सौंपे जाने थे। साइमन कमीशन द्वारा अस्वीकार की गई द्वैध शासन व्यवस्था को संघीय कार्यकारिणी में शामिल किया गया था। संघीय विधानमंडल में दो सदन, राज्यों की परिषद और संघीय विधान सभा, होनी थी। काउंसिल ऑफ स्टेट्स (उच्च सदन) को एक स्थायी निकाय होना था। सदनों के बीच गतिरोध की स्थिति में संयुक्त बैठक का प्रावधान था। तीन विषय सूचियाँ थीं- संघीय विधान सूची, प्रांतीय विधान सूची और समवर्ती विधायी सूची। अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ गवर्नर-जनरल के विवेक के अधीन थीं। यहां तक ​​कि अगर कोई विधेयक संघीय विधायिका द्वारा पारित किया गया था, तो गवर्नर-जनरल इसे वीटो कर सकता था, जबकि गवर्नर-जनरल द्वारा स्वीकृत अधिनियमों को भी किंग-इन-काउंसिल द्वारा अस्वीकृत किया जा सकता था। प्रांतों में द्वैध शासन को समाप्त कर दिया गया और प्रांतों को स्वायत्तता दी गई, यानी आरक्षित और हस्तांतरित विषयों के बीच का अंतर समाप्त कर दिया गया और कुछ सुरक्षा उपायों के अधीन पूर्ण जिम्मेदार सरकार की स्थापना की गई। प्रांतों ने अपनी शक्ति और अधिकार सीधे ब्रिटिश क्राउन से प्राप्त किए। उन्हें स्वतंत्र वित्तीय अधिकार और संसाधन दिए गए। प्रांतीय सरकारें अपनी सुरक्षा पर धन उधार ले सकती थीं। प्रांतीय विधानमंडलों का और विस्तार किया गया। मद्रास, बंबई, बंगाल, संयुक्त प्रांत, बिहार और असम के छह प्रांतों में द्विसदनीय विधायिकाएँ प्रदान की गईं, अन्य पाँच प्रांतों में एक सदनीय विधायिकाओं को बनाए रखा गया। 'सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल' और 'महत्त्व' के सिद्धांतों को आगे चलकर दबे-कुचले वर्गों, महिलाओं और श्रमिकों तक बढ़ाया गया। मताधिकार का विस्तार किया गया, जिसमें कुल आबादी के लगभग 10 प्रतिशत को मतदान का अधिकार मिला। अधिनियम ने 1935 के अधिनियम की व्याख्या करने और अंतर-राज्य विवादों को निपटाने के लिए मूल और अपीलीय शक्तियों के साथ एक संघीय न्यायालय (जो 1937 में स्थापित किया गया था) के लिए भी प्रदान किया, लेकिन लंदन में प्रिवी काउंसिल को इस अदालत पर हावी होना था। राज्य सचिव की भारतीय परिषद को समाप्त कर दिया गया था। अधिनियम में जिस अखिल भारतीय संघ की कल्पना की गई है, वह भारत के विभिन्न दलों के विरोध के कारण कभी अस्तित्व में नहीं आया। ब्रिटिश सरकार ने 1 अप्रैल, 1937 को प्रांतीय स्वायत्तता लागू करने का निर्णय लिया, लेकिन केंद्र सरकार 1919 के अधिनियम के अनुसार मामूली संशोधनों के साथ शासित होती रही। 1935 के अधिनियम का ऑपरेटिव हिस्सा 15 अगस्त, 1947 तक लागू रहा। 1935 का अधिनियम भारत को एक लिखित संविधान देने का एक प्रयास था, भले ही भारतीय इसके निर्माण में शामिल नहीं थे, और यह भारत में पूर्ण जिम्मेदार सरकार की दिशा में एक कदम था। हालांकि, अधिनियम ने एक कठोर संविधान प्रदान किया जिसमें आंतरिक विकास की कोई संभावना नहीं थी। संशोधन का अधिकार ब्रिटिश संसद के लिए आरक्षित था। साम्प्रदायिक निर्वाचक मंडलों की प्रणाली के विस्तार और विभिन्न हितों के प्रतिनिधित्व ने अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जिसकी परिणति भारत के विभाजन के रूप में हुई। 1935 के अधिनियम की लगभग सभी वर्गों ने निंदा की और कांग्रेस द्वारा सर्वसम्मति से खारिज कर दिया गया। इसके बजाय, कांग्रेस ने स्वतंत्र भारत के लिए एक संविधान बनाने के लिए वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित एक संविधान सभा बुलाने की मांग की। 1935 के अधिनियम के बाद कई अन्य विकास हुए। 1940 का अगस्त प्रस्ताव, 1942 का क्रिप्स प्रस्ताव, 1944 का सीआर फॉर्मूला, मुस्लिम लीग, के सहयोग की कोशिश कर रहा था, 1945 की वेवेल योजना और कैबिनेट मिशन। फिर 1947 में माउंटबेटन योजना और अंत में भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 आया।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

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