गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

94. लॉर्ड कर्ज़न का कार्यकाल

 गांधी और राष्ट्रीय आन्दोलन

94. लॉर्ड कर्ज़न का कार्यकाल


1899

प्रवेश

लॉर्ड कर्ज़न का कार्यकाल भारत के वायसराय के तौर पर 6 जनवरी, 1899 से 18 नवंबर, 1905 तक रहा। उसका पूरा नाम जॉर्ज नैथानिएल कर्ज़न था 1859 में जन्मे 39 साल की उम्र में कर्ज़न भारत के सबसे कम उम्र का वायसराय बना था उसकी प्रशासनिक नीतियों और सुधारों का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और भारत में औपनिवेशिक सरकार की भविष्य की नीतियों पर भी बहुत प्रभाव पड़ा।

प्रशासन की कार्यकुशलता

वायसराय लॉर्ड कर्जन का कार्यकाल प्रशासन की कार्यकुशलता के लिए विख्यात रहा है। उसने कहा भी था, मेरी दृष्टि में शासित लोगों के संतोष का दूसरा नाम ही प्रशासन है। हालांकि उसने प्रशासनिक लालफीताशाही पर अंकुश लगाने का प्रयास किया लेकिन वह निष्ठावान अधिकारियों का कोई समूह नहीं बना सका और 1905 में उसने त्यागपत्र दे दिया।

अकाल से संबंधित सुधार

1899 में, जब कर्जन को वायसराय के रूप में नियुक्त किया गया था, भारत के कई क्षेत्र, विशेष रूप से दक्षिणी और पश्चिमी भाग, बड़े पैमाने पर अकाल से पीड़ित थे। कर्जन ने सुनिश्चित किया कि प्रभावित लोगों को पर्याप्त राहत मुहैया कराई जाए। लोगों को भुगतान के आधार पर काम दिया जाता था और किसानों को राजस्व के भुगतान से छूट दी जाती थी।

कृषि से संबंधित सुधार

पंजाब भूमि अलगाव अधिनियम 1900 में आया, जिसने किसानों से साहूकारों को धन के हस्तांतरण की अनुमति नहीं दी थी, जब किसान अपने कर्ज का भुगतान करने में असमर्थ थे। कर्जन ने इसके लिए कुछ मानक सिद्धांत तय किया। सहकारी ऋण समितियां अधिनियम, 1904 में बना ताकि नागरिकों को मुख्य रूप से जमा और ऋण के लिए समाज का गठन करने में सक्षम बनाया जा सके। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य किसानों को धन की आवश्यकता वाले साहूकारों के पास जाने से बचाना था, क्योंकि वे साहूकारों से अत्यधिक ब्याज दर वसूलते थे।

रेलमार्ग के निर्माण में प्रगति

उसने 1901 में एक रेलवे आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष श्री रॉबर्टसन थे। इस आयोग ने दो साल बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसकी सिफारिशों को कर्ज़न ने स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप उसके समय में रेलमार्ग के निर्माण में काफी प्रगति हुई और 6,000 मील नई रेल लाइनें बिछाई गईं। इतनी लंबी रेल लाइनें किसी अन्य वायसराय के कार्यकाल में नहीं बिछाई गईं। इसके अलावा, रेलवे का प्रशासन लोक निर्माण विभाग, जो पहले रेलवे को नियंत्रित करता था, के बजाय एक नवगठित रेलवे बोर्ड को सौंप दिया गया था, जिसमें तीन सदस्य शामिल थे,

आर्थिक नीतियाँ 

वर्ष 1899 में ब्रिटिश मुद्रा को भारत में कानूनी निविदा घोषित किया गया और एक पाउंड को पन्द्रह रुपए के बराबर घोषित किया गया था। नमक-कर की दर को कम किया गया।  इसके अतिरिक्त आयकर दाताओं को छूट दी गई। कर्ज़न ने वित्तीय विकेंद्रीकरण की नीति का समर्थन किया और इस प्रचलन को समाप्त कर दिया।

विक्टोरिया मेमोरियल स्मारक

कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल स्मारक बनाने की उसने योजना की आधारशिला रखी।

पुलिस में सुधार

1902 मेंलॉर्ड कर्ज़न ने ब्रिटिश भारत के प्रत्येक प्रांत में पुलिस के प्रशासन और कामकाज को देखने के लिए सर एंड्रयू फ्रेजर के तहत एक पुलिस आयोग का गठन किया। इस आयोग की सिफारिश पर उसने पुलिस में सुधार के नाम पर पुलिस की संख्या काफी बढ़ाई जिससे सरकारी ख़र्च में डेढ़ करोड़ रुपए सालाना की वृद्धि हुई। सिपाही और अधिकारी दोनों के लिए प्रशिक्षण स्कूल स्थापित किए गए।

कलकत्ता निगम अधिनियम, 1899

कलकत्ता के यूरोपीय समुदायों की हितों की रक्षा के लिए उसने कलकत्ता नगर निगम में भारतीय सदस्यों की संख्या कम कर दी। यह अधिनियम स्वशासन की अवधारणा के खिलाफ था क्योंकि इसने निर्वाचित विधायिकाओं की संख्या को कम करते हुए मनोनीत विधायिकाओं की संख्या में वृद्धि की। इस प्रकार, इस अधिनियम ने भारतीयों को सीधे विधायिका में निर्वाचित होने से वंचित कर दिया।

प्राचीन स्मारक अधिनियम, 1904

इस अधिनियम ने एक पुरातत्व विभाग की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया जिसका नेतृत्व एक निदेशक करता था। इस विभाग को ऐतिहासिक स्मारकों की मरम्मत, सुरक्षा और जीर्णोद्धार की जिम्मेदारी दी गई थी।

विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904

कर्जन ने 1902 में विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रवाद के उठते ज्वार से ब्रिटिश राज की रक्षा के लिए उसने 1904 में विश्वविद्यालय अधिनियम लाया और सेनेट के सदस्यों की संख्या कम कर दी तथा बजट में कमी कर दी। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयों पर औपनिवेशिक सरकार के नियंत्रण को बढ़ाना था।

सेना में सुधार

लॉर्ड किचनर को 1902 में भारत के कमांडर-इन-चीफ के रूप में नियुक्त किया गया था। उसने कर्जन की देखरेख में सेना में कई सुधार किए। सेना को दो कमानों, उत्तरी कमान और दक्षिणी कमान में विभाजित किया। सेना के प्रत्येक डिवीजन में तीन ब्रिगेड की स्थापना की गई। इन तीन ब्रिगेड में से दो भारतीय बटालियन से और एक अंग्रेजी बटालियन से आई थी। सेना के लिए आवश्यक तोपों, राइफलों, बारूद और अन्य सभी उपकरणों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए कई कारखाने भी स्थापित किए गए थे।

न्यायपालिका में सुधार

कर्ज़न ने कलकत्ता हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि की। न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन में वृद्धि की गई। भारतीय नागरिक प्रक्रिया संहिता में भी संशोधन किया गया था।

बंगाल विभाजन अधिनियम 1905

कर्ज़न के द्वारा उठाया गया सबसे अलोकप्रिय कदम था, बंग-भंग। यह कदम जान-बूझकर ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के तहत उठाया गया था। प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से 1874 में असम और सिलहट को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग कर दिया गया था। बंगाल विभाजन के उसके इस कदम के पीछे हिंदू-मुसलमान के बीच तनाव को जन्म दिया। वह पश्चिमी और पूर्वी बंगाल के राजनीतिज्ञों के बीच दरार उत्पन्न करना चाहता था। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के विभाजन से एक तरफ़ तो विरोध का स्वर उठा ही, दूसरी तरफ़ बंगालियों में एकता की भावना भी बढ़ी। लोगों में एक नया आत्मविश्वास जगा।  लोगों ने इसे एक राष्ट्रीय अपमान समझा। बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आन्दोलन के कारण 1905 में कर्ज़न भारत छोड़कर ब्रिटेन चला गया, लेकिन यह आंदोलन कई वर्षों तक चलता रहा। अंतत:  वर्ष 1911 में बढ़ते विरोध के कारण लॉर्ड हार्डिंग ने बंगाल विभाजन को रद्द करने की घोषणा की।

विदेश नीतियाँ

कर्ज़न ने अपने पूर्ववर्तियों शासकों के विपरीत उत्तर-पश्चिम में ब्रिटिश कब्ज़े वाले क्षेत्रों के एकीकरण, शक्ति और सुरक्षा की नीति का अनुसरण करना शुरू कर दिया। उसने चित्राल को ब्रिटिश नियंत्रण में रखा और पेशावर और चित्राल को जोड़ने वाली एक सड़क का निर्माण किया, जिससे चित्राल की सुरक्षा की व्यवस्था की गई। खैबर दर्रा, खुर घाटी, वज़ीरिस्तान आदि स्थानों से लॉर्ड कर्ज़न ने ब्रिटिश सैनिकों  को वापस बुला लिया। मध्य एशिया और फारस की खाड़ी क्षेत्र में रूसी विस्तार के डर से लॉर्ड कर्ज़न की अफगान नीति को राजनीतिक और आर्थिक हितों से जोड़ा गया था। शुरुआती दौर से ही अफगानों और अंग्रेज़ों के बीच संबंधों में दरार आ गई थी। अब्दुर रहमान (तत्कालीन अफगान अमीर) और अंग्रेज़ों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे, जिसके तहत बाद में अफगानिस्तान को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये प्रतिबद्ध किया गया था, इस प्रकार किसी  भी तरह के अफगान संबंधी तनाव से ब्रिटिश शासकों ने स्वयं को सुरक्षित किया। ब्रिटिश हित के लिये यह अनिवार्य था कि वह फारस की खाड़ी क्षेत्र में ब्रिटिश प्रभाव बनाए रखे क्योंकि रूस, फ्राँस, तुर्की आदि उस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। उस क्षेत्र में ब्रिटिश प्रभाव को सुरक्षित करने के लिये वर्ष 1903 में लॉर्ड कर्ज़न व्यक्तिगत रूप से फारस की खाड़ी क्षेत्र में गया और वहाँ ब्रिटिश हितों की रक्षा हेतु कड़े कदम उठाया। लॉर्ड कर्ज़न की तिब्बत नीति भी इस क्षेत्र में रूसी प्रभुत्व के डर से प्रभावित थी। वर्ष 1890 में तिब्बतियों ने अंग्रेज़ों के साथ एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये थे, लेकिन जब तक लॉर्ड कर्ज़न ने भारत का वायसराय पद संभाला, तब तक तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच व्यापार संबंध पूरी तरह से समाप्त हो चुका  था। लॉर्ड कर्ज़न के प्रयासों ने  इन दोनों के बीच व्यापार संबंधों को पुनर्जीवित किया था जिसके तहत तिब्बत अंग्रेज़ों को भारी क्षतिपूर्ति देने के लिये सहमत हुआ।

प्रभाव

कर्ज़न की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने भारतीयों में राष्ट्रवादी भावनाओं की एक नई भावना को प्रज्वलित किया और भारतीयों को औपनिवेशिक शासन के असली रंगों के बारे में जागरूक किया। स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन जैसे लगभग प्रमुख राष्ट्रवादी आंदोलनों का जन्म हुआ। राष्ट्रवाद की एक नई लहर पैदा हुई। कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने सांप्रदायिक संघर्ष को जन्म दिया जो आने वाले दशकों में और बढ़ गया।

उपसंहार

कर्ज़न एक निरंकुश शासक और नस्लवादी था और उसके बोल अपमानजनक होते थे। शिक्षित भारतीयों के प्रति पूरे कार्यकाल के दौरान उसका वैमनस्य बना रहा। वह भारत में ब्रिटिश राज को सुदृढ़ता से स्थापित करना चाहता था। वह कांग्रेस को ‘गंदी वस्तु’ मानता था। उसने निर्णय लिया था कि कांग्रेस पर कभी ध्यान नहीं देगा। वह कांग्रेस को राजद्रोहात्मक और ब्रिटिश सरकार के लिए खतरनाक मानता था। कर्ज़न को भारत को स्थायी रूप से ब्रिटिश राज के अधीन रहने उम्मीद  की थी। लेकिन उसके द्वारा किये गए बंगाल विभाजन और उसके बाद हुए भारी बहिष्कार और विरोध ने कॉन्ग्रेस को पुनर्जीवित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कर्ज़न, जिसने 1900 के दशक में कान्ग्रेस को 'इसके पतन के लिये  लड़खड़ाहट या डगमगानेवाले' के रूप में संबोधित किया, अंततः  भारत को कान्ग्रेस के साथ अपने इतिहास में उस समय की तुलना में अधिक सक्रिय और प्रभावी बना दिया।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

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