रविवार, 6 अक्टूबर 2024

97. कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन

 गांधी और गांधीवाद

97. कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन

प्रवेश

जब गांधीजी दक्षिण अफ़्रीका से भारत पहुंचे, उसी समय देश की राजधानी कलकत्ते में उस साल (1901, दिसम्बर) दिनशॉ एदलजी वाचा की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महासभा का 17वां वार्षिक अधिवेशन हो रहा था। सर दिनशॉ एदलजी वाचा (2 अगस्त 1844 - 18 फरवरी 1936) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में प्रमुख योगदान देनेवाले सर फिरोज शाह मेहता तथा दादा भाई नौरोजी के साथ बंबई के तीन मुख्य पारसी नेताओं में से एक थे। गांधीजी को लगा कि चूंकि कलकत्ते में सारे दिग्गजों का जमावड़ा होगा इसलिए शायद वहां भारत की नब्ज पकड़ में आ जाए। इसी सोच के साथ गांधीजी ने उस अधिवेशन में जाना तय किया। वे कलकत्ते में एक नए अनुभव से गुज़रने वाले थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उनका यह पहला अनुभव जो होने वाला था। यह संगठन सोलह वर्ष का हो चुका था। इसकी स्थापना एक अंग्रेज़ एलन ओक्टेवियन ह्यूम ने की थी। ए.ओ. ह्यूम 1907 तक इसके सचिव रहे। तत्कालीन वायसराय, लॉर्ड डफ़रिन इस कांग्रेस को अधिक भारतीय बनाकर और मज़बूत बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने भारतीय से इसका नेतृत्व संभालने और इसे संगठित करने का आग्रह किया था। इसके उद्देश्य सामाजिक और राजनीतिक थे। यह संगठन देश में उठने वाली राष्ट्रीयता की भावनाओं का प्रतिनिधि था। सामान्य कल्याण और देश की भावनाओं को यथा-संभव व्यक्त करने की कोशिश करता भी था। लेकिन उस समय देश में निरक्षरता नब्बे प्रतिशत से अधिक थी। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि यह संगठन मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवियों, वकीलों, व्यापारियों और ऐसे ही लोगों की एक सभा बन कर रह गई थी। उन दिनों जो भी विचार अंग्रेज़ी हुक़ूमत के समक्ष यह संगठन पेश करता, बड़े ही संकोच से और सतर्कतापूर्वक। फिर भी यही एकमात्र संस्था थी जो भारत के बारे में बात कर सकती थी।

सर फिरोज शाह मेहता से मुलाक़ात

बम्बई (मुम्बई) से जिस गाड़ी से मुम्बई के शेर सर फिरोज शाह मेहता, चले उसी गाड़ी से गांधीजी भी रवाना हुए। सर मेहता के डब्बे में गांधीजी को एक स्टेशन तक जाने की अनुमति मिली। सर मेहता के लिए खास सलून का प्रबंध किया गया था। वैसे भी वे शाही खर्च और ठाट-बाट से रहने वाले व्यक्ति थे। गांधीजी उनकी इस शान-ओ-शौकत की ज़िन्दगी से अनभिज्ञ नहीं थे। जिस स्टेशन पर फिरोज शाह मेहता के डब्बे में गांधीजी को जाने की अनुमति मिली थी, उस स्टेशन पर गांधीजी उसमें पहुंचे। उस समय उस डिब्बे में पहले से ही दिनशॉ जी और चिमनलाल सेतलवाड़, मशहूर वकील, मौज़ूद थे। उनके बीच राजनीतिक चर्चा चल रही थी। गांधीजी का मुख्य उद्देश्य, दक्षिण अफ़्रीका में रह रहे लगभग एक लाख भारतीयों के पक्ष में एक प्रस्ताव पेश करने का था। गांधीजी का विचार सुनकर फिरोज शाह ने कहा, गांधी, तुम्हारा काम पार न पड़ेगा। तुम जो कहोगे, सो प्रस्ताव हम पास तो कर देंगे, पर अपने देश में ही हमें कौन से अधिकार मिलते हैं? मैं तो मानता हूं कि जब तक अपने देश में हमें सत्ता नहीं मिलती, तब तक उपनिवेशों में तुम्हारी स्थिति सुधर नहीं सकती।

गांधीजी यह सुनकर दंग रह गए। चिमनलाल ने हां-में-हां मिलाई। दिनशॉ ने गांधीजी की ओर दयार्द्र दृष्टि से देखा। गांधीजी ने कुछ समझाने की कोशिश की, पर उन दिनों के बम्बई के बेताज बादशाह को उन दिनों के गांधी समान आदमी क्या समझा सकता था? हां, गांधीजी को तो इतने से ही संतोष हुआ कि उन्हें कांग्रेस के अधिवेशन में प्रस्ताव पेश करने दिया जाएगा। सर दिनशॉ वाचा ने गांधीजी का उत्साह बढ़ाने के उद्देश्य से कहा, “गांधी, प्रस्ताव लिखकर मुझे बताना। गांधीजी ने उनका उपकार मानते हुए आभार प्रकट किया। दूसरे स्टेशन पर जैसे ही गाड़ी खड़ी हुई वे उस डब्बे से उतर कर अपने डब्बे की ओर चल दिए।

कांग्रेस कैंप की अव्यवस्था

गांधीजी कलकत्ते पहुंचे। गांधीजी ने इससे पहले कभी कांग्रेस अधिवेशन में भाग नहीं लिया था। शहर में या कांग्रेस के उच्च पद पर भी उनका कोई मित्र या करीबी परिचित नहीं था। स्टेशन पर अध्यक्ष आदि बड़े नेताओं को लिवा जाने के लिए बड़ी भीड़ थी। पूरे ताम-झाम और धूम-धाम से सारे नेताओं का स्वागत किया जा रहा था। स्वागत समिति द्वारा अध्यक्ष को बड़े उत्साह के साथ उनके शिविर में ले जाया गया। कांग्रेस बीडन स्क्वायर के एक विशाल तंबू में आयोजित की गई थी, और अध्यक्ष के साथ आमतौर पर महाराजाओं के लिए जगह आरक्षित थी और उन्हें सम्मान के साथ व्यवहार किया गया था। प्रतिनिधियों को स्थानीय कॉलेजों में ठहराया गया था।


लोकमान्य बालगंगाधर तिलक

गांधीजी ने किसी स्वयं सेवक से पूछा, “मुझे कहां जाना चाहिए?” वह गांधीजी को रिपन कॉलेज ले गया। वहां बहुत से प्रतिनिधि ठहराए गए थे। जिस विभाग में गांधीजी को ठहराया गया था, उसी विभाग में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक भी ठहरे हुए थे। तिलक ने स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है नारा दिया था। गांधीजी के पहुंचने के एक दिन बाद तिलक वहां पहुंचे थे। तिलक जी के साथ दरबार लगा हुआ था। उनसे मिलने अनगिनत लोगों का तांता लगा रहता था। उनसे मिलाने ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ के मोतीबाबू भी पहुंचे थे। तिलक बिस्तर पर बैठे हुए दरबार में बैठे थे, और राजसी सहनशीलता के साथ अपने आगंतुकों की भीड़ का स्वागत कर रहे थे। गांधीजी स्वयं उनके प्रति बहुत सम्मान रखते थे, लेकिन उनकी राजनीति से प्रभावित नहीं थे। हालाँकि, उन्होंने अन्य चीजों में भी गहरी रुचि ली, जिन्हें उस समय के राजनेता शायद घृणा के योग्य मानते थे।

गांधीजी का मुख्य उद्देश्य दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के हित में इस राष्ट्रीय संस्था से यथासंभव सहयोग प्राप्त करना था। वह यह भी जानने के इच्छुक थे कि कांग्रेस अपना कामकाज किस प्रकार संचालित करती है। कलकत्ते की इस कॉन्फ्रेंस में गांधीजी यह सोच कर आए थे कि वहां उन्हें भारत की सामर्थ्य के दर्शन होंगे और यह समझने का मौक़ा मिलेगा कि भविष्य के लिए भारत के क्या सपने हैं। उसकी जगह उन्हें यह देखने को मिला कि जातिवाद ने कांग्रेस को कितना बेकार कर दिया है। उन्हें कांग्रेस के संगठन और संचालन को देखकर संतोष नहीं हुआ। जहां कॉन्फ्रेंस हो रही थी वहां की व्यवस्था से गांधीजी काफ़ी हतोत्साहित हुए। कांग्रेस कैंप की अव्यवस्था, समय-बरबादी और गंदगी कल्पना से परे थी। कॉलेज में सफाई व्यवस्था परेशान करने वाली थी। शौचालय बंद और गंदे थे।  

संगठनात्मक पक्ष में कुप्रबंधन

कांग्रेस के संगठनात्मक पक्ष में भयावह कुप्रबंधन था। स्वयंसेवक कच्चे, अप्रशिक्षित और अनुशासनहीन थे। उन्होंने देखा कि स्वयंसेवक में राष्ट्र सेवा की भावना तो थी, किंतु अनुभव और अनुशासन की कमी थी। प्रबंधकों के बीच काम का ठीक-ठीक बंटवारा नहीं था। स्वयंसेवक एक-दूसरे से टकराते रहते थे। जो काम जिसे सौंपा जाता वह ख़ुद उसे नहीं करता। वह फ़ौरन ही दूसरे को पुकारता। दूसरा तीसरे को। यह सिलसिला चलता रहता। बाहर से आए प्रतिनिधि की दुर्गत ही बनी हुई थी। स्वभाव के अनुरूप गांधीजी ने अनेक स्वयंसेवकों से मित्रता करनी शुरु कर दी। उनसे दक्षिण अफ़्रीका की बातें करते। उन्हें सेवा-धर्म की बातें समझाते। कुछ समझते। कुछ टाल जाते। सेवा की बात आसानी से तो आदमी की फ़ितरत में शुमार नहीं होती। उसके लिए इच्छा चाहिए। उसके लिए अभ्यास भी ज़रूरी है। उन स्वयंसेवकों में इच्छा की कमी नहीं थी, पर तालीम और अभ्यास वे कहां से पाते? कांग्रेस साल में तीन दिन के लिए इकट्ठी होती और फिर सो जाती थी। साल में तीन दिन की तालीम से कोई क्या सीख पाता? ... और फिर उन्हें गांधीजी सरीखे प्रेरक नेतृत्व भी तो नहीं मिला था।

प्रतिनिधियों के बीच छुआछूत व्याप्त

वहां आए प्रतिनिधि भी कुछ कम नहीं थे। उन्हें भी तो इतने ही दिन मिलते थे कुछ सीखने को। कांग्रेस के कामकाज के ढ़ंग ने गांधीजी को प्रभावित नहीं किया। प्रतिनिधि उम्मीद करते थे कि उनके लिए सब कुछ स्वयंसेवक ही करेंगे, जो बदले में दूसरे स्वयंसेवकों को आदेश देते थे। उन्हें प्रतिनिधियों के बीच एकता की कमी का एहसास हुआ। वे अंग्रेजी में वार्तालाप कर रहे थे। उनके हावभाव एवं बातचीत में पाश्चात्य शैली टपक रही थी। वे अपने हाथ से कोई काम नहीं करते। उन्होंने पाया कि भारत में राजनीतिज्ञ बातें बहुत अधिक करते हैं और काम बहुत कम। सब बातों में उनके हुक्म निकलते, “स्वयंसेवक यह लाओ; स्वयं सेवक वह लाओ। प्रतिनिधियों के बीच जातीय श्रेष्ठता को लेकर बहुत दंभ था। ऊपर से डेलिगेट की छुआछूत और खानपान की लंबी-चौड़ी व्यवस्था, दकियानुसी रंग-ढंग देख कर गांधीजी को बड़ा आश्चर्य हुआ, साथ ही दुख भी। जब कांग्रेस प्रतिनिधियों के बीच इतना छुआछूत व्याप्त है तो उसके घटकों में मौजूद छुआछूत की तो कल्पना ही नहीं की सकती थी। छुआछूत को मानने वाले वहां बहुत से लोग उपस्थित थे। द्रविड़ रसोई बिल्कुल अलग थी। उन प्रतिनिधियों को तो ‘दृष्टिदोष’ भी लगता था। उनके लिए कॉलेज के अहाते में चटाइयों का रसोईघर बनाया गया था। उसमें धुआं इतना रहता था कि आदमी का दम घुट जाए। खाना-पीना सब उसी के अन्दर। वह रसोईघर क्या था, एक तिजोरी थी। वह कहीं से भी खुला न था।

शौचालय एवं मूत्रालय की सफाई

वहां व्याप्त आम वातावरण से वह काफी निराश हुए। यह सब गांधीजी को चिंता में डाल रहा था। कांग्रेस में आनेवाले प्रतिनिधि जब इतनी छुआछूत मानते थे, तो उन्हें भेजने वाले लोग कितनी रखते होंगे? ऊपर से गंदगी की हद नहीं थी। कैम्प की अनिवार्य ज़रूरतों, जैसे साफ-सफाई आदि की तरफ किसी का जरा भी ध्यान नहीं था। शौचालय जाम था और चारों तरफ़ मल और पानी ही पानी फैल रहा था। शौचालयों की संख्या ज़रूरत से कम थी। दुर्गन्ध चारों तरफ़ फैल रही थी। एक स्वयंसेवक को गांधीजी ने गन्दगी दिखाई। उसने कहा यह काम तो भंगी का काम है। गांधीजी उन्हें सबक सिखाना चाहते थे। उनसे गंदगी और बदबू सहन नहीं हुई। बहुत परिश्रम से उन्होंने एक झाड़ू खोज निकाला। चुपचाप उन्होंने शौचालय एवं मूत्रालय की सफाई शुरु कर दी। पर यह साफ़-सफ़ाई तो उनकी अपनी सुविधा के लिए हुई थी। भीड़ इतनी अधिक थी और शौचालय इतने कम कि हर बार के उपयोग के बाद उनकी सफ़ाई होनी ज़रूरी थी। वह काम गांधीजी अकेले तो कर नहीं पाते। यदि उनका वश चलता तो शौचालयों की सफ़ाई वे स्वयं ही करते, लेकिन उन्हें उसी शौचालय की सफ़ाई पर ही संतोष करना पड़ा, जिसे वे स्वयं इस्तेमाल कर रहे थे। गांधीजी ने अपने लिए तो वह काम कर लिया और उन्होंने यह पाया कि वहां आए लोगों को वह गन्दगी ज़्यादा अखरती भी नहीं थी।

लोगों की सफ़ाई का स्तर इतना गिरा हुआ था कि प्रतिनिधिगण रात में कमरे के बाहर सामने वाले बरामदे में ही टट्टी-पेशाब कर देते थे। उठने-बैठने, चलने-फिरने की जगह पर ऐसी गंदगी और बदबू थी कि वहां रहना असह्य था। सवेरे गांधीजी ने स्वयंसेवकों को मैला दिखाया, पर कोई उसे साफ़ करने को तैयार न था। उन्होंने जवाब दिया, यह काम मेरा नहीं है, भंगियों का है। गांधीजी उसे साफ़ करने लगे। लोगों ने उनसे पूछाआप क्यों अछूतों का काम कर रहें हैं?”

गांधीजी का जवाब था क्योंकि सवर्ण लोगों ने इस जगह को अछूत बना दिया है

उपसंहार

गांधीजी इस सम्मेलन के राजनीतिक मंच पर बहादुराना प्रदर्शन करने से अधिक नैतिक पतन और राष्ट्रीय असहायता के मूल कारणों को लेकर कहीं अधिक चिंतित थे। अब तक जनता की निगाह में तो नहीं लेकिन उनके अन्दर का वास्तविक गाँधी उभर चुका था। वह एक व्यावहारिक समाज सुधारक थे।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

 

 


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