मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

106. मुम्बई जाकर वकालत

 गांधी और गांधीवाद

106. मुम्बई जाकर वकालत



1902

प्रवेश

बनारस की संक्षिप्त यात्रा को समाप्त करते हुए, गांधीजी ने अपनी यात्रा फिर से शुरू की। उन्हें आगरा में ‘संगमरमर में सपना’ देखने लायक लगा, और जयपुर में अल्बर्ट संग्रहालय ‘कलकत्ता के संग्रहालय से कहीं बेहतर इमारत’ लगा। कला अनुभाग अपने आप में एक अध्ययन कक्ष था और कला विद्यालय अपने बंगाली अधीक्षक के अधीन फल-फूल रहा था। पालनपुर में उनकी मुलाकात अपने पुराने मित्र और संरक्षक रणछोड़दास पटवारी से हुई, जो अब वहां के मुख्यमंत्री थे। ट्रेन में पांच रातें बिताने के बाद गांधीजी 26 फरवरी 1902 को राजकोट पहुंचे और वहीं से अपने भविष्य की योजनाएं बनाने लगे।

अपूरनीय क्षति

गांधीजी कस्तूरबा को राजकोट में छोड़कर कलकत्ते चले गए थे। इधर कस्तूरबा अकेले रह गई थीं। जब से भारत भूमि पर उनके क़दम पड़े थे, उनके लिए ख़ुशी और ग़म के मिले जुले भाव का अवसर था। राजकोट के घर में तो उत्सव का माहौल था। महिलाएं, संगी और रिश्तेदारों का तांता लगा हुआ था। कस्तूरबा परिवार की पहली महिला थीं जिसने विदेश की यात्रा की हो। बा भी अपने समुद्री यात्रा के किस्से सबको बड़े चाव से सुनाया करती थीं। बच्चे भी लोगों के बीच किसी हीरो से कम नहीं थे। इन सब उल्लास और उत्तेजनाओं के बीच कभी-कभी बा बहुत अकेली और उदास हो जाया करतीं। उनके जीवन में कई अपूरनीय क्षति हो चुकी थी। इन पांच वर्षों के विदेश प्रवास के दौरान उनके माता, पिता गोकुलदास और व्रजकुंवरबा कपाडिया का निधन हो चुका था। अपने सारे दुख उन्होंने दिल में दबा कर रख लिया था।

राजकोट में वकालत

26 फरवरी, 1902 को गांधीजी राजकोट पहुंचे। गोखले जी की इच्छा थी कि गांधीजी बम्बई में बस जाएं। वहां वे बैरिस्टर का धन्धा शुरु करें और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सार्वजनिक सेवा के काम में उनका हाथ बंटाएं। उन दिनों सार्वजनिक सेवा का मतलब था कांग्रेस की सेवा। गांधीजी की भी यही इच्छा थी। पर वे बम्बई में वकालत शुरु करने के लिए पर्याप्त आत्मविश्वास जुटा नहीं पा रहे थे। पिछले अनुभव अच्छे नहीं थे। ख़ुशामद तो वे कर नहीं सकते थे, फिर केस मिलेगा इसकी कोई गारण्टी नहीं थी। उन्होंने राजकोट में बस जाना चाहा। 1902 में गांधीजी ने राजकोट में ही वकालत शुरु की, लेकिन आत्मविश्वास के बिना। अपने कानूनी काम के लिए एक क्लर्क को नियुक्त करके उन्होंने एक टाइपराइटर खरीदा। पिछली असफलताओं की याद उन्हें परेशान कर रही थी। वकालत करने का एक फ़ायदा यह हुआ कि उन्हें कुछ दिन आराम करने का समय भी मिला जिसकी उन्हें सख़्त ज़रूरत थी। बर्मा में डॉ. मेहता ने कहा भी था कि उन्हें आराम की बहुत ही आवश्यकता है। कुछ दिनों तक तो नाम मात्र के मामले उनके पास आए। उनके पुराने हितैषी केवलराम मावजी दवे ने तीन मुकदमे सौंपे। इनमें से दो तो अपीलें थीं, काठियावाड़ कोर्ट में। इसमें डर की कोई बात नहीं थी। तीसरा इब्तदाई मुकदमा जामनगर में था। यह महत्वपूर्ण मुकदमा था। गांधीजी जोखिम उठाना नहीं चाहते थे। केवलराम जी ने समझाया, “हारेंगे तो हम हारेंगे न। तुमसे जितना हो सके, तुम करो। मैं भी तो तुम्हारे साथ रहूंगा ही न।

बंबई वकालत के लिए

गांधीजी ने पूरी तैयारी की। दक्षिण अफ़्रीका का अनुभव भी साथ था। मुकदमें में उनकी जीत हुई। लगातार तीन मुकदमे जीतने से राजकोट में गांधीजी की वकील के रूप में प्रतिष्ठा बनी। इस सफल मामले ने उनका आत्मविश्वास भी बढ़ाया। जल्द ही उन पर दबाव पड़ने लगा कि वे अपना दफ्तर मुंबई ले जाएं जहां एक बैरिस्टर और जन सेवक दोनों रूप में उन्हें बेहतर अवसर मिलेंगे। ऐसा उन्हें भी लगने लगा कि अब वे बम्बई (मुम्बई) जाकर वकालत कर सकते हैं। गोखले जी ने भी तो कहा था कि उन्हें बम्बई में सेटल करना चाहिए। वहीं वकालत भी करनी चाहिए। और सार्वजनिक काम को भी हाथ में लेना चाहिए। मन ही मन उन्होंने कई बार इस पर सोच-विचार किया। केवलराम मावजी दवे, वकील जो इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई करने के उनके फैसले के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार थे, ने जोर देकर कहा कि वह एक छोटे से प्रांतीय शहर में अपनी प्रतिभा बर्बाद कर रहे हैं और बंबई में बेहतर करेंगे। बिना समय गंवाए उन्हें बम्बई चला ही जाना चाहिए। लेकिन उन्हें अपने परिवार के साथ रहना अच्छा लगता था, उनकी तबीयत खराब थी, डॉक्टर कह रहे थे कि कम से कम उन्हें दो या तीन महीने आराम करना चाहिए, और उन्हें यकीन नहीं था कि वह बंबई के अच्छे वकील बन पाएंगे। उन्होंने पूरा वसंत और आधी गर्मी राजकोट में बिताई।

एक दिन केवलराम दवे उनके पास आए और कहा: "गांधीजी, हम आपको काठियावाड़ में दफन नहीं होने देंगे। आपको सार्वजनिक कार्य करना है। आपको बम्बई में ही बसना चाहिए।" प्रस्ताव की अचानकता से हैरान होकर गांधीजी ने पूछा, "वहां मेरे लिए काम कौन करेगा?" "आपको इस बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है," दवे ने जवाब दिया। "हम इसका ध्यान रखेंगे। हम आपको यहां से ड्राफ्टिंग के काम के लिए भेज देंगे, और कभी-कभी आपको बम्बई से एक बड़े बैरिस्टर के रूप में यहां लाएंगे। बैरिस्टर बनाना या बिगाड़ना हम वकीलों के हाथ में है। आप कब शुरू करेंगे?" गांधीजी ने जवाब दिया कि उन्हें दक्षिण अफ्रीका से कुछ पैसे मिलने की उम्मीद है, जिससे वे बम्बई में एक कार्यालय स्थापित करने का खर्च उठा सकेंगे। जैसे ही पैसे आएंगे, वे बम्बई चले जाएंगे।

तो, एक और प्रमुख समस्या थी – वित्तीय। उसका भी हल मिल ही गया। दक्षिण अफ़्रीका एक बकाया, तीन हजार रुपये से अधिक के, आ गया था। 11 जुलाई 1902 को वे बम्बई चले आए।

हाई कोर्ट के निकट पेन गिल्बर्ट और सयानी के दफ्तरों में 20 रुपये मासिक किराए पर कमरा लेकर वे बस गए। अपने निवास के लिए उन्होंने गिरगांव बैक रोड स्थित केशवजी तुलसीदास के बंगले का एक हिस्सा किराये पर लिया। अगस्त के पहले सप्ताह में कस्तूरबा और तीन बच्चे भी बम्बई आ गए। कस्तूरबाई को फिर से एक नया घर बसाना पड़ा। गांधीजी की वकालत भी थोड़ी चलने लगी। दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों के साथ उनका इतना घनिष्ठ संबंध हो गया था कि उस देश से हिंदुस्तान लौटे हुए मुवक्किल ही उन्हें इतना काम दे देते थे, जिससे उनका जीवन निर्वाह आसानी से हो रहा था। गांधीजी जैसा सुयोग्य, उत्साही और निष्ठावान कार्यकर्ता पाकर गोखलेजी काफी खुश थे।

बंबई में शेष जीवन बिताने की चाह

वे सर फिरोजशाह मेहता से आशीर्वाद मांगने गएफिरोजशाह ने हर संभव मदद का वादा कियागोखलेजी ने भी आशीर्वाद दियाकेवलराम मावजी दवे ने वादा किया कि वे काठियावाड़ के सभी महत्वपूर्ण मामलों को उनके पास भेजेंगे। अगस्त तक गांधीजी गंभीरता से अपना शेष जीवन बंबई के वकील के रूप में बिताने के बारे में सोच रहे थे। उन्होंने एक मित्र को लिखा: "मैं निराश नहीं हूँ। मैं नियमित जीवन और बंबई द्वारा किसी पर थोपे गए संघर्ष की सराहना करता हूँ। इसलिए, जब तक कि यह असहनीय न हो जाए, मैं बंबई से बाहर जाने की इच्छा नहीं रखूँगा।"

जीवन का बीमा करवाया

एक विवाहित व्यक्ति के रूप में एक शांत पेशेवर कैरियर शुरू करने के बाद, गांधीजी ने खुद का जीवन बीमा करवाने के बारे में सोचना शुरू कर दिया। यदि वह मर जाते हैं, तो उसकी पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण उसके भाई लक्ष्मीदास द्वारा किया जाएगा, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि उन्हें परिवार की तरफ से ज़्यादा कुछ मिलेगा। तदनुसार, जब एक अमेरिकी बीमा एजेंट उनके कक्ष में उनसे मिलने आया, तो वह बीमा करवाने के लिए उत्सुक हुए। अमेरिकी बीमा एजेंट ने सुझाव दिया कि गांधीजी को एक पॉलिसी खरीदनी चाहिए जो उनके परिवार को उनकी मृत्यु पर दस हज़ार रुपये देगी। यह आंकड़ा उचित लगा, और कुछ महीनों तक गांधीजी ने अपने पॉलिसी के किस्तों का भुगतान जारी रखा, बाद में वह बीमा एजेंट द्वारा बिछाए गए जाल में फंसने के लिए खुद से नाराज़ हो गए, और उन्होंने पॉलिसी को समाप्त होने दिया। "अपने जीवन का बीमा करवाकर मैंने अपनी पत्नी और बच्चों की आत्मनिर्भरता को छीन लिया," उन्होंने तर्क दिया। "उनसे खुद की देखभाल करने की उम्मीद क्यों नहीं की जानी चाहिए? दुनिया में असंख्य गरीबों के परिवारों का क्या हुआ? मैं खुद को उनमें से एक क्यों न मानूँ?"

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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