गांधी और गांधीवाद
मुझे भरोसा करने में विश्वास है। भरोसा करने से भरोसा मिलता है। संदेह दुर्गंधमय है और इससे सिर्फ सड़न पैदा होती है। जिसने भरोसा किया है, वह दुनिया में आज तक हारा नहीं है।-- महात्मा
गांधी
19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए
प्रवेश
गांधीवाद
सिद्धांतों, वादों, नियमों और आदर्शों का
संग्रह नहीं वरन् जीवनयापन की एक शैली या जीवन-दर्शन है। यह एक नई दिशा की ओर
संकेत करता है। जीवन की अर्वाचीन समस्यायों के लिए प्राचीन समाधान प्रस्तुत करता
है। गांधीवाद कोई नया दर्शन नहीं, परन्तु नया मार्ग अवश्य है।
गांधीजी के कानून की पढाई के लिए विदेश जाने की तैयारी में भी यही दिखता है।
1887
मैट्रिक
की परीक्षा पास की
18 वर्ष की आयु में 1887 में मोहन ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। एक साल
पहले पिता की मृत्यु हो चुकी थी। उनकी मृत्यु से घर की आर्थिक दशा बहुत ही ख़राब हो गई। घर
में पढ़ाई ज़ारी रखने वाला वह एक मात्र लड़का थे। परिवार को उनसे बड़ी उम्मीदें थीं। परिवार
की आर्थिक दशा संतोषजनक न रही थी, इसलिए आगे पढ़ने के लिए उन्हें बम्बई न भेजा जा
सका। चूंकि तब राजकोट में कोई कॉलेज नहीं था, इसलिए आगे की पढ़ाई के लिए पड़ोसी
रियासत भावनगर के शामल दास कालेज में उनका दाखिला कराया गया। लेकिन मुश्किल यह थी
कि वहां की पढ़ाई अंग्रेज़ी में होती थी। मोहन को अंग्रेज़ी में दिए गए लेक्चर समझ
में नहीं आते थे। वह निराशा की स्थिति में थे।
इंग्लैंड
जाकर क़ानून पढ़ने का सुझाव
भावनगर की कॉलेज की पढ़ाई की समस्या से मोहन जूझ ही रहे थे
कि परिवार के एक मित्र मावजी दवे ने सुझाया कि मोहन को लंदन के मशहूर इनर टेम्पल में
क़ानून की पढ़ाई करनी चाहिए। उन दिनों इंग्लैंड से बैरिस्टरी करना काफी आसान था।
उसकी तुलना में भारत के विश्वविद्यालयों से डिग्री हासिल करना न सिर्फ़ मुश्किल था
बल्कि धन और समय भी अधिक लगते थे। साथ ही उन डिग्रियों का कोई अधिक महत्त्व भी
नहीं था। बंबई से डिग्री हासिल कर लेने से कलर्की से ज़्यादा क्या मिलती, लेकिन
विदेश से हासिल डिग्री लेकर दादा-पिता की तरह किसी रियासत का दीवान तो बन सकता थे
मोहन। विदेश जाकर पढ़ने की बात सुनकर मोहन की ख़ुशियों का ठिकाना न रहा। भवनगर के
अध्यापक के लेक्चर उनकी समझ में आते नहीं थे। इस कॉलेज से छुटकारा मिलेगा। बड़े भाई
को भी यह प्रस्ताव पसंद आया। गांधीजी ने सोचा कि डाक्टरी पढेंगे, पर घर के लोग इसके विरुद्ध थे। यह धर्म विरुद्ध
माना गया क्योंकि इसमें शरीर के अंगों की चीड़-फाड़ की जाती थी। वह तो वैष्णव
परिवार था। उनको आगे पढवाने का अंतिम उद्देश्य तो था दीवान पद को संभालना। एक
डॉक्टर किसी रजवाड़े का प्रमुख मंत्री नहीं बन सकता। इस पद के लिए क़ानून की
जानकारी सबसे अधिक महत्व की बात थी।
लेकिन समस्या यह थी कि इतना पैसा कहां से आएगा?
इंग्लैंड जाने के लिए क़र्ज़
लिया गया
समस्या यह थी कि ख़र्च के लिए धन कहां से जुटाया जाए? परिवार की अर्थिक
स्थिति बहुत बुरी थी। मोहन पोरबंदर राज्य के हाकिम लेली से वज़ीफ़ा मांगने गए।
लेकिन वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। उसने कहा, “पहले
बंबई से डिग्री हासिल कर लो, फिर वज़ीफ़े की बात करना।” फिर
भी मोहन ने हिम्मत नहीं हारी। वह पत्नी के गहने बेचने की सोचने लगे।
लेकिन बड़े भाई ने रुपयों का इंतजाम करने का आश्वासन दे दिया। अंततः क़र्ज़ लिया गया।
1888
परिजनों
की आपत्ति
लेकिन इंग्लैण्ड जाना भी तो इतना आसान नहीं था। आपत्ति कई ओर से उठे, बिरादरी, जातिवाले, चाचा, और मां। सबके अपने-अपने तर्क थे। मां
की परेशानी यह थी कि अपने छोटे बेटे को समंदर पार कैसे भेज सकेगी? वहां अनेक तरह
के खतरे होंगे? काश मोहन के पिता जीवित होते! उन्होंने मोहन को काका के पास
सलाह-मशविरा लेने के लिए भेजा। काका से मिलने मोहन पोरबंदर पहुंचे। काका धर्म-भ्रष्ट करने वाली
समुद्री यात्रा के लिए राज़ी नहीं थे।
माता पुतली बाई ने जब सुना कि वे इंग्लैंड जाने
वाले हैं, तो बहुत परेशान हो गईं। मां एक सीधी-सादी धर्मभीरु महिला थीं। उन्होंने सुन रखा था कि लड़के इंग्लैंड जाकर बिगड़ जाते हैं और
मांस-मदिरा का सेवन करने लगते हैं। उनके मन में चिंता थी कि समुद्रपार उस नए वातावरण में पुत्र कहीं रास्ते से
भटक न जाए। गांधीजी ने उन्हें विशावास
दिलाने की कोशिश की कि वे ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे, तो माता ने कहा, “मैं यह कैसे मान लूं कि तू सात समुंदर पार जाकर ऐसे
काम नहीं करेगा। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा। मैं स्वामी जी से पूछूंगी।”
मां को इत्मिनान
संत बेचरजी स्वामी नामक
जैन मुनि ने मां की शंका दूर करने के लिए
गांधीजी को शपथ दिलाई कि वह मांस-मदिरा और पराई स्त्री से दूर रहेंगे। उनकी मां को पूर्ण संतुष्टि हुई। इस शपथ ने गांधीजी को नीचे
गिरने से बचाया। अपनी आत्मकथा में गांधीजी लिखते हैं, “इसका श्रेय मुझे नहीं, बल्कि मेरी अनपढ़ माता को है।
उसने अपने बेटे को शपथ के एक धागे से बांध रखा और गिरने से बचा लिया।”
नई समस्या
अब एक नई समस्या बिरादरी
वालों की तरफ से सामने आ खड़ी हुई। बिरादरी वाले की अलग परेशानी थी। उन दिनों कोई समुद्रपार
गया तो उसे बिरादरी से बाहर कर दिया जाता था। विदेशियों से मेल-जोल,
विदेशी भोजन करने और छुआछूत आदि के प्रश्न सामने
आ जाते थे। इंग्लैंड जाकर आने वालों को विधर्मी समझा जाता था।
गांधी जी इन सब बातों से डरते नहीं थे। बम्बई
पहुंचने पर उन्हें जात-बिरादरी से सम्बन्धित कई कठिनाइयों से जूझना पड़ा।
गांधीजी की जाति के बड़े-बूढ़े मोढ़ बनियों ने जाति पंचायत की। उनके जाति
बंधु समुद्र पार करने के ख़िलाफ़ सदियों पुराने पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे क्योंकि
समुद्र को वे अशुद्धि का कारण मानते थे और उससे भयभीत रहते थे। जिस मोढ़ बनिया जाति के गांधीजी थे, उसकी
पंचायत ने साफ-साफ शब्दों में कह दिया कि इंग्लैंड जाना हिन्दू धर्म
के ख़िलाफ़ है। यह धमकी दी गई कि यदि विदेश
यात्रा के विरुद्ध उसके आदेश का उल्लंघन किया गया तो वह पूरे परिवार को जाति से
बहिष्कृत कर देगी। यह सुनकर उन्नीस वर्षीय मोहन
अपनी जाति के बुजुर्गों और नेताओं के सामने तन गया। उसकी इस बेअदबी से पंच नाराज़
हो गए। बिरादरी की एक बड़ी सभा
हुई। उसमें यह फैसला हुआ कि गांधी जी का हुक्का-पानी बंद कर दिया जाए यानी जाति
से बहिष्कृत कर दिया जाए। गांधी जी ने बिना किसी हील-हुज्जत के यह फैसला
स्वीकार कर लिया। वे जीवनपर्यंत जाति से बाहर रहे। जिस मोहन को भारतीय समाज “महात्मा” मान कर जात-पात के बंधनों से
ऊपर मान लिया था वह अपनी बिरादरी से बाहर कर दिया गया। सरपंच का आदेश था, “यह
लड़का आज से जातिच्युत माना जायेगा।” गांधीजी का कहना था, “हिन्दू धर्म-ग्रन्थों का विश्वासी होने के कारण मेरे लिए यह
आवश्यक नहीं कि मैं उनके प्रत्येक शब्द और प्रत्येक वाक्य को ईश्वर प्रेरित
स्वीकार करूं। वह चाहे कितना ही विद्वतापूर्ण क्यों न हों, मैं
उनके ऐसे किसी अर्थ में अपने को बंधा नहीं मान सकता जो विवेक और नैतिक भावना के
प्रतिकूल हों।” गांधीजी धार्मिक सिद्धांतों को भी विवेक की तराजू पर तौलने
के समर्थक थे।
क़ानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड रवाना
जाति के लंबरदारों का
नादिरशाही हुक्म आता उसके पहले ही वे क़ानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड जाने के
लिए तैयार हो गए।
4 जुलाई 1888 को राजकोट के हाईस्कूल में उनके सम्मान में, एक
विदाई समारोह का आयोजन किया गया। इस घटना की रिपोर्ट “काठियावाड़ टाइम्स” के 12 जुलाई के अंक में छपी। मोहन ने सावधानी बरतकर
धन्यवाद-ज्ञापन के दो शब्द लिखे थे। लेकिन वे दो शब्द भी मुश्किल से बोल सके। जब
वह पढ़ने के लिए उठे तो उनका पूरा शरीर कांप रहा था। इधर कस्तूरबाई ने पुत्र को
जन्म दिया था उधर मोहन विदेश जाने की तैयारियों में व्यस्त था। 4
सितंबर 1888
को पत्नी की गोद में कुछ महीनों का बालक छोड़कर क़ानून की
पढ़ाई के लिए गांधी जी बम्बई से इंग्लैंड जलयान द्वारा रवाना हुए।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और
गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और
गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और
गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा
दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह -
विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर
और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के
जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को
चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय
राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल
विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु
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