सोमवार, 8 जुलाई 2024

9. गांधीजी के जीवन-सूत्र

 

गांधी और गांधीवाद

 

केवल सत्य और प्रेम-अहिंसा-ही महत्वपूर्ण है। जहां ये हैं, वहां अंततः सब कुछ ठीक हो जाएगा। इस नियम का कोई अपवाद नहीं है।-- महात्मा गांधी

 

9. गांधीजी के जीवन-सूत्र

धर्म

स्टेडफ़ोर्ड क्रिप्स का गांधीजी के बारे में कहना था, Religion was his life and life was religion. अर्थात्  धर्म उनका जीवन था और उनका जीवन धर्म था। हमारे जीवन का उद्देश्य सांसारिकता से मुक्ति पाकर आध्यात्मिक सुख को प्राप्त करना है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर गांधीजी की विचारधारा का जब हम अध्ययन करते हैं तो समाज की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का संतुलित रूप हमारे समक्ष उजागर होती है। गांधीजी अपनी आत्मकथा में धर्म की शिक्षा का हवाला देते हुए कहते हैं कि उन्हें स्कूल में धर्म की शिक्षा कहीं नहीं मिली। उनके लिए धर्म एक उदार अर्थ में आत्मबोध, आत्मज्ञान था। वैष्णव परिवार में जन्में गांधी जी को जो परिवार में न मिला वह धाय रंभा से मिला। रामनाम का मूलमंत्र रंभा ने ही तो उन्हें दिया था। रामायण पारायण और श्रवण उन्हें अच्छा लगता था। इन्हीं दिनों भागवत भी उन्होंने पढा। इन सब से गांधी जी में सब सम्प्रदायों के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा मिली। गांधी जी कहते थे, ‘बचपन में पड़े हुए शुभ-अशुभ संस्कार बहुत गहरी जड़ें जमाते हैं।’ इसी अवस्था से उनके मन में दूसरे धर्मों के प्रति समभाव जागा। धर्म गांधीवाद की आधारशिला है। गांधी जी स्वरूप से राजनीतिज्ञ और हृदय से धार्मिक संत थे। उनका धर्म रूढ़िवादी नहीं था। वे धर्मान्धता के विरोधी थे। उनके अनुसार धर्म का काम मानव की सम्पूर्ण शक्तियों को संचालित करना है। धर्म जीवन का कोई एक विशेष अंग नहीं, वरन्‌ मनुष्य का सम्पूर्ण बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन धर्म से ही प्रेरित होना चाहिए।’ धर्म के प्रति उनकी यह अवधारणा परम्परागत अवधारणा से बिल्कुल अलग है। वे धर्म के मूल में विवेक को मानते थे। वे धार्मिक सिद्धांतों को विवेक के तराजू पर तौलने के समर्थक थे। गाँधीजी के अनुसार धर्म और राजनीति को अलग नहीं किया जा सकता है क्योंकि धर्म मनुष्य को सदाचारी बनने के लिए प्रेरित करता है। स्वधर्म सबका अपना-अपना होता है पर धर्म मनुष्य को नैतिक बनाता है। सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, परदु:खकातरता, दूसरों की सहायता करना आदि सभी धर्म यही सिखाते हैं ।

सत्य

उनका मानना था कि यह संसार नीति पर टिका है। नीति मात्र का समावेश सत्य में है। सत्य को खोजना ही होगा। उनके अनुसार सत्य ही धर्म का मूल है। इसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। सत्य के सर्वाधिक महत्व को स्वीकार करते हुए महात्मा गांधी ने अपनी जीवनी का नाम ‘मेरे सत्य के प्रयोग’ रखा है। उनके अनुसार सत्य ही जीवन और जगत्‌ का सार है। वे इसे सार्वभौम और सर्वव्यापक सत्य मानते हैं। वे सत्य और ईश्वर में अभिन्नता बताते हुए कहते थे कि सत्य ही ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है। चंपारण सत्याग्रह के सफल हो जाने के बाद वहाँ के सहयोगियों ने जब उनसे पूछा अब आप बताइए कि हमें और क्या करना होगा जिससे हम अपने देश के काम आ सकें और अन्याय से लोगों की रक्षा कर सकें। गांधीजी ने कहा चंपारण में हमें जिन तीन नियमों ने खड़ा किया, उनके सामने दुनिया की बड़ी से बड़ी तानाशाही हुकूमतें ढह जाती हैं।  ये तीन सूत्र हैं- सत्य ग्रहण करना, भय का त्याग करना और गरीबी को अख्तियार करना। जिन कार्यकर्ताओं में ये तीन गुण आ जाएंगे, वे बड़ी से बड़ी जुल्म करने वाली सत्ता को झकझोर देंगे। गांधी के बताए ये सूत्र चंपारण से निकलकर दुनिया भर में फैल गए।

अहिंसा

गांधीजी स्वयं को एक व्यावहारिक आदर्शवादी मानते थे। सत्य और अहिंसा गांधीवादी विचारधारा के 2 आधारभूत सिद्धांत हैं। गांधीजी का मानना था कि जहाँ सत्य है, वहाँ ईश्वर है तथा नैतिकता इसका आधार है। अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है। यह सामान्य लोगों के लिए भी है। अहिंसा का अर्थ होता है प्रेम और उदारता की पराकाष्ठा। गांधीजी के अनुसार अहिंसक व्यक्ति किसी दूसरे को कभी भी मानसिक व शारीरिक पीड़ा नहीं पहुँचाता। अहिंसा के मार्ग का पहला कदम यह है कि हम अपने दैनिक जीवन में परस्पर सच्चाई, विनम्रता, सहिष्णुता और प्रेममय तथा दयालुता का व्यवहार करें। उनका व्यक्तित्व सत्य और केवल सत्य पर आधारित था। अहिंसा इस दर्शन का एक और अंतर्निहित तत्व था। गांधीजी का मानना था कि अहिंसा के बिना सत्य का शोध और उसकी प्राप्ति असंभव है। अहिंसा साधन है और सत्य साध्य है। यदि हम साधन को ठीक रखें तो देर-सबेर साध्य तक पहुंच ही जाएंगे। यंग इंडिया में उन्होंने लिखा है, अहिंसा मेरा भगवान है और सत्य मेरा भगवान है। जब मैं अहिंसा को खोजता हूं तो सत्य कहता है, 'इसे मेरे माध्यम से ढूंढो।और जब मैं सत्य को खोजता हूं तो अहिंसा कहती है 'इसे मेरे माध्यम से ढूंढो' अहिंसा  कायरता की आड नहीं हैबल्कि यह वीर का सर्वोच्च गुण है। अहिंसा मनुष्य की प्रतिशोध लेने की भावना का सचेतन और जाना-बूझा संयमन है। अहिंसा का मार्ग हिंसा के मार्ग की तुलना में कहीं ज्यादा साहस की अपेक्षा रखता है। क्षमा और भी ऊंची चीज है। प्रतिशोध दुर्बलता है। अहिंसा की कसौटी यह है कि अहिंसक संघर्ष में कोई विद्वेष बाकी नहीं रहता और अंत में शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। पारस्परिक सहिष्णुता अहिंसा है। 

सत्याग्रह

गांधीजी के सिद्धांतों या प्रतिज्ञाओं के रूप में जाने वाले सिद्धांतों में  ब्रह्मचर्य, स्वदेशी और अस्पृश्यता निवारण जैसे आदर्श भी शामिल थे। इन दिशानिर्देशों ने न केवल आश्रमवासियों के जीवन को आकार दिया, बल्कि राष्ट्रीय आंदोलनों को भी प्रभावित किया। गाँधीजी का मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन की ओर ही बढ़ना चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानते थे। उनके लिये सत्याग्रह का अर्थ सभी प्रकार के अन्याय, अत्याचार और शोषण के खिलाफ शुद्ध आत्मबल का प्रयोग करने से था। गांधी जी का कहना था कि सत्याग्रह को कोई भी अपना सकता है, उनके विचारों में सत्याग्रह उस बरगद के वृक्ष के समान था जिसकी असंख्य शाखाएँ होती हैं।

विनम्रता

गांधीजी कहते थे, विनम्रता के बिना अहिंसा असंभव है। जब तक मनुष्य अपने आपको स्वेच्छा से अपने सहचरों में सबसे अंतिम स्थान पर खड़ा न कर दे तब तक उसकी मुक्ति संभव नहीं। अहिंसा विनम्रता की चरम सीमा है। उन्होंने हमें सिखाया कि विनम्र होना और दूसरों की मदद करना महत्वपूर्ण है। गांधीजी ने हमें दिखाया कि सच्ची महानता निस्वार्थ होने और दूसरों की मदद करने से आती है। हम विनम्र होकर और दूसरों की सेवा करके दुनिया को एक बेहतर जगह बना सकते हैं। सत्यशोधक के लिए अहंकारी होना संभव नहीं है। जो दूसरों के लिए अपने जीवन का बलिदान करने को तत्पर होउसके पास इस संसार में अपने लिए स्थान सुरक्षित करने का समय कहां? विनम्रता पर गांधीजी की शिक्षाएँ हमें विनम्र होने और दूसरों को खुद से पहले रखने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। गांधीजी कहते हैं, ‘पाप से घृणा करोपापी से नहीं', यह एक ऐसा नीतिवचन है जिसे समझना तो काफी आसान हैपर उस पर आचरण शायद ही कभी किया जाता है। इसीलिए दुनिया में घृणा का विष फैलता चला जा रहा है।’

गांधीजी कहते हैं, लोगों के अंदर इतनी विनम्रता जरूर होनी चाहिए कि वे अपनी गलतियों को स्वीकार कर सकें और उनका सुधार कर सकें। मैंने अपने अनेक पापों को बिलकुल स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। लेकिन मैं इन पापों की गठरी को अपने कंधों पर लादकर नहीं चलता।  मुझे पता है कि मेरी सादगीमेरे उपवास और मेरी प्रार्थनाएं-तब कोई मूल्य नहीं रखेंगी जब मैं अपने को सुधारने के लिए उन्हीं पर आश्रित हो जाऊंगा। जब भी मैं किसी दोषी व्यक्ति को देखता हूं तो मैं अपने आप से कहता हूं की मैंने भी गलतियां की हैंजब मैं किसी कामुक व्यक्ति को देखता हूं तो अपने आप से कहता हूं की मैं भी कभी ऐसा ही थाऔर इस प्रकार दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति के साथ मैं अपनी नातेदारीअपनी बंधुता अनुभव करता हूं और यह अनुभव करता हूं कि जब तक हम में से सर्वाधिक दीन व्यक्ति सुखी नहीं होगामैं भी सुखी नहीं हो सकता। मैं जहां भी कोई बुराई देखता हूं तो उसे दूर करने का प्रयास करता हूंउसके लिए दोषी व्यक्ति को चोट पहुंचाने की कोशिश नहीं करताचूंकि मैं भी तो यह नहीं चाहूंगा कि मुझसे निरंतर होनेवाली गलतियों के लिए कोई मुझे चोट पहुंचाए। मैं जान-बूझकर किसी प्राणी को चोट नहीं पहुंचा सकता और साथी मानवों को तो और भी नहींभले ही वह मेरे साथ कितनी ही बुराई से पेश आएं।

जीवन-सूत्र

उन्होंने एक छप्पय के संदेशों को अपना जीवन-सूत्र बना डाला – 

  • जो हमें पानी पिलाए, उसे हम अच्छा भोजन कराएं।
  • जो आकर हमारे सामने सिर नवाए, उसे हम उमंग से दण्डवत्‌ प्रणाम करें।
  • जो हमारे लिए एक पैसा खर्च करे, उसका हम मुहरों की क़ीमत का काम कर दें।
  • जो हमारे प्राण बचावे, उसका दुःख दूर करने के लिए हम प्राण तक निछावर कर दें।
  • जो हमारा उपकार करे, उसका तो हमें मन, वचन और कर्म से दस गुना उपकार करना ही चाहिए।
  • लेकिन जग में सच्चा और सार्थक जीना उसी का है, जो अपकार करने वाले के प्रति भी उपकार करता है।

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मनोज कुमार

पुरानी कड़ियां

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