शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

6. डर और रामनाम

 

गांधी और गांधीवाद

वीरतापूर्वक सम्मान के साथ मरने की कला के लिए किसी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। उसके लिए परमात्मा में जीवंत श्रद्धा काफी है। - महात्मा गांधी

 

1870-81

6. डर और रामनाम

किशोर मोहनदास का स्कूल का जीवन साधारण था। वे न तो पढ़ाई में तेज थे और न ही खेल में। स्वभाव से ही शान्त, झेंपू और एकान्तप्रिय थे। पढाई के लिए कोई विशेष रुझान नहीं था। साथियों से घबराहट होती थी। मुंह से लोगों के सामने बोली तक नहीं निकलती थी। वे स्कूल जाते, फिर वहां से भाग आते थे, ताकि उन्हें किसी से बातचीत न करनी पड़े। औसत दर्जे का विद्यार्थी समझे जाने की उनको जरा भी फिक्र न थी, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के प्रति वे अतीव सतर्क रहते थे। उन्हें इस बात का गर्व था कि अपने शिक्षकों और सहपाठियों से वे कभी झूठ नहीं बोलते। लेकिन छोटी-छोटी बातों से उन्हें घबराहट होने लगती थी।

मन के अंदर होने वाली घबराहट को अकसर डर कहा जाता है। हमारे जीवन में कई ऐसी बातें होती हैं जिनके बारे में सोचकर हम घबराने लगते हैं या फिर अंदर ही अंदर डर लगने लगता है। डर एक सामान्य बात है जो हर किसी व्यक्ति में होता है। गांधीजी बहुत डरपोक थे। उन्हें काल्पनिक चीजों का भय सताता रहता था। चोर, भूत, सांप आदि के डर से सदैव घिरे रहते थे।  काल्पनिक चीज़ों की नकारात्मक भावना उनके मन में घर कर गई थी। रात में कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। अंधेरे में तो कहीं जाते भी न थे। बिना प्रकाश के सो भी नहीं पाते थे। कहीं भूत ना आ जाए। कहीं चोर न घुस जाए। कहीं से सांप न निकल जाए। डर की भावना उनके स्वास्थ्य और कल्याण, रिश्तों, सीखने की क्षमता, सामुदायिक भागीदारी और जीवन-अवसरों को नुकसान पहुंचा रहा था। हममें से बहुत से लोग अपने सपनों को नहीं जी पाते क्योंकि वे अपने डर को जी रहे होते हैं।

स्कूल की शिक्षा में उन्हें धर्म की शिक्षा नहीं मिली। उनके अनुसार धर्म का मतलब आत्मबोध, आत्मज्ञान था। डर कहीं और नहीं बस आपके दिमाग में होता है। रम्भा गांधीजी के परिवार की पुरानी नौकरानी थी। वह गांधी जी को बहुत प्यार करती थी। भूत-प्रेत से गांधी जी के डरने के बारे में जब रम्भा को पता चला तो रामनाम जपने की सलाह रम्भा ने उन्हें दी थी। रम्भा ने उन्हें समझाया कि डर की दवा रामनाम है। इसलिए बचपन में भूत-प्रेतादि से बचने के लिए गांधीजी ने रामनाम जपना शुरु किया। हालाकि यह जप बहुत दिनों तक नहीं चला पर बचपन में रम्भा द्वारा जो बीज बोया गया था, वह नष्ट नहीं हुआ। बाद में गांधी जी रामनाम को अपने लिए अमोघ शक्ति मानते थे। उन्होंने राम-रक्षा को भी कंठाग्र कर लिया था और प्रतिदिन नियमपूर्वक उसका पाठ करते थे।

पर जिस चीज़ का उनके मन पर गहरे असर पड़ा वह था रामायण के पारायण का। तेरह साल की उम्र के बालक के मन को रामायण पाठ में खूब रस आता था। वे तुलसीदास की रामचरितमानस को भक्तिमार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानते थे।

महात्मा गांधी ने सूरत के आर्यसमाज उत्सव में 3 जनवरी 1916 को भाषण देते हुए कहा था,

डरने वाला व्यक्ति स्वयं से डरता है, उसको कोई डराता नहीं है

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मनोज कुमार

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