1885
गांधी और राष्ट्रीय
आन्दोलन
14. भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस का उदय
प्रवेश
1857 की क्रांति के बाद भारत में राष्ट्रीयता की भावना का अच्छा-खासा विकास हुआ। यह भावना तब तक
एक आन्दोलन का रूप नहीं ले सकती थी, जब तक इसका नेतृत्व
और संचालन करने के लिए एक संस्था भारतीयों के बीच नहीं स्थापित होती। इल्बर्ट बिल
विवाद के बाद ख़ास तौर से यह महसूस किया जाने लगा कि अपने
अधिकारों की रक्षा के लिए भारतीयों को संगठित होकर संघर्ष करना पडेगा। तब एक ऐसे
राजनीतिक संगठन की ज़रुरत महसूस की जाने लगी जो राष्ट्रीय स्तर पर सभी वर्गों को एक
साथ ला सके और सभी वर्गों के राजनीतिक अधिकारों और सुधारों के लिए प्रयास करे।
इसके बाद बड़ी तेज़ी से इस दिशा में प्रयास शुरू हुए और जल्द ही अखिल भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। कुछ लोगों का मानना
है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की
बुनियाद अंग्रेज़ों के इशारे पर डाली गयी। लाला लाजपत राय यह मानते थे कि कांग्रेस
लॉर्ड डफ़रिन के दिमाग की उपज थी। रजनी पाम दत्त का कहना है कि इसके लिए ब्रिटिश
शासन ने गुपचुप योजना तैयार की थी, ताकि उस समय आसन्न हिंसक क्रांति को टाला जा
सके। इन वर्गों का यह भी कहना है ए.ओ. ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना ‘सुरक्षा वाल्व’ के रूप में की थी।
लेकिन बिपन चंद्र सुरक्षा वाल्व को महज कपोल-कल्पना मानते हैं और कहते हैं कि यह
उस राजनीतिक चेतना की पराकाष्ठा थी, जो 1860 के दशक में भारतीयों
में पनपने लगी थी। उस समय के राष्ट्रवादी नेताओं ने ए.ओ. ह्यूम का हाथ इसलिए पकड़ा
था कि शुरू-शुरू में सरकार उनकी कोशिशों को कुचल न दे।
इंडियन नेशनल कांग्रेस का उदय
कलकत्ता और बंबई के कुछ लोग 1860
के दशक के अंतिम वर्षों में और 1870 के दशक के आरंभिक वर्षों में आई.सी.एस. के लिए या
क़ानून पढ़ने के लिए लंदन गए थे और वहां दादा भाई नौरोजी के प्रभाव में आए थे।
दादाभाई नौरोजी तब इंग्लैंड में ही बस चुके थे। ऐसे लोगों में प्रमुख नाम है –
फीरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयबजी, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, मनमोहन घोष, लालमोहन घोष,
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, आनंदमोहन बोस और रमेश चंद्र दत्त। इनमें से जो प्रशासनिक
सेवा में भरती नहीं हुए थे उन्होंने कलकत्ता में द्वारकानाथ गांगुली, पूना में
जी.वी. जोशी और रानाडे, बंबई में के.टी. तैलंग, मद्रास में जी. सुब्रमण्यम अय्यर,
बीरराघवाचारी और आनंद चार्लू के नेतृत्व वाले साधारण ब्रह्म समूह के साथ मिलकर
अनेक स्थानीय समितियों का गठन किया। 1875 से 1885 के दौरान जो नई राजनीतिक चेतना पनपी वह मुख्यतः युवा
वर्ग की देन थी। पुराने दकियानूसी संगठनों को त्याग कर उन्होंने नया संगठन बनाया।
इनमें से जो अधिक महत्वपूर्ण संगठन थे उनके नाम थे, पूना सार्वजनिक सभा (1870), सुरेन्द्रनाथ
बनर्जी और आनंद मोहन दास द्वारा बंगाल में इंडियन एसोसिएशन (1876), एम.वी. राघव
चेरियार, जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर और पी. आनंद चारलू द्वारा मद्रास में मद्रास
महाजन सभा (1884),
और के.टी. तेलंग और फिरोजशाह मेहता द्वारा बंबई में बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन (1885)। इन संस्थाओं का निर्माण
होने से राजनीतिक जीवन में एक चेतना जागृत हुई। इन संस्थानों को अखिल
भारतीय स्तर पर लाने के प्रयास भी होने लगे थे। राजनीतिक दृष्टि से प्रबुद्ध
भारतीय इस तथ्य के प्रति सजग थे कि एक व्यापक आधार पर चलाए जाने वाले स्वतंत्रता
संघर्ष के लिए और जनता को शिक्षित करने के लिए एक अखिल भारतीय संगठन की ज़रुरत है।
इस प्रकार के संगठन की सामाजिक बुनियाद तो मज़बूती के साथ रख दी गयी थी। दिसंबर
1883 में ‘इन्डियन एसोसिएशन’ ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन भी कर
दिया था। इस नई सामाजिक शक्तियों के प्रतिनिधियों का प्रयास रंग लाया और अंततः 1885 में इंडियन नेशनल
कांग्रेस का उदय हुआ।
उस समय अंग्रेज़ इस
गुमान में थे कि भारत में उनका राज्य चिरस्थाई है। 1877 में भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के अंग होने की घोषणा अंग्रेज़ शासकों
द्वारा कर दी गई थी। यह तो इतिहास की विडंबना ही है कि भारत से अंग्रेज़ी शासन को
समाप्त करने वाली इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रणेता और संस्थापक आई.सीएस. अधिकारी
एलन ओक्टेवियन ह्यूम एक अंग्रेज़ थे। 1913 में प्रकाशित ए.ओ. ह्यूम की जीवनी लिखने वाले विलियम वेडरबर्न के अनुसार
ह्यूम भारत सरकार के कृषि सचिव थे। 1880 के दशक में भारतीय सिविल सेवा के लगभग नौ सौ पदों में सोलह को छोड़कर शेष
सभी पर यूरोपीय विराजमान थे। इंडियन सिविल सर्विस की तीस साल की नौकरी के बाद ए.ओ.
ह्यूम ने जब 1882 में अवकाश ग्रहण
किया, तो वे भारतीय जनता से राजनीति में भाग लेने की अपील करने लगे। 1 मार्च, 1883 में उन्होंने कलकत्ता
विश्वविद्यालय के स्नातकों के नाम एक पत्र प्रकाशित किया, जिसमें भारत के मानसिक, सामाजिक, नैतिक एवं राजनीतिक उत्थान के लिए एक संगठन बनाने की अपील की गई थी। वे
राजनीतिक सुधार आंदोलन चलाए जाने के पक्षपाती थे, न कि सामाजिक सुधार आंदोलन के।
उन्हें लगता था कि अंग्रेज़ों द्वारा भारत में शांति तो स्थापित हो चुकी है लेकिन
यहां की आर्थिक समस्याओं को वे हल नहीं कर सके हैं। इसलिए प्रशासन में भारतीयों का
कुछ प्रतिनिधित्व बहुत ही ज़रूरी है। भारतीय मध्यवर्ग की उच्चाकांक्षा उन्हें अपने
विचार और विरोध प्रस्तुत करने को प्रेरित करती थीं। कलकत्ता, बंबई, मद्रास और पूना
में प्रांतीय समितियां बन चुकी थीं। ह्यूम सुधार लाने के उद्देश्य से एक
राष्ट्रव्यापी संस्था की स्थापना करना चाहते थे। ह्यूम के प्रयास ने भारतवासियों को प्रभावित किया और राष्ट्रीय नेताओं तथा सरकार के
उच्च पदाधिकारियों से विचार-विमर्श के बाद ह्यूम ने 1884 में “इंडियन नेशनल यूनियन” की स्थापना की।
हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने इसे कोई खास गंभीरता से नहीं लिया था, फिर भी ह्यूम को
एक ऐसे संगठन की ज़रूरत महसूस हुई जो ब्रिटिशों के ही कार्य से उत्पन्न महान और
विकसित होती हुई शक्ति की रोकथाम कर सके और एक ‘सुरक्षा वाल्व’ का काम करे तथा एक
और गदर को रोका जा सके। वेडरबर्न के अनुसार एक अति विशेष सूत्र (एक धार्मिक नेता)
से मिली जानकारी के आधार पर ह्यूम को लगा कि ब्रिटिश शासन पर एक गंभीर विपत्ति आने
वाली है, तो उन्होंने असंतोष के सुरक्षित निकास के लिए एक सुरक्षा वाल्व बनाने का
फैसला किया। उस समय के वायसराय लॉर्ड डफ़रिन से मई 1885 में शिमला में मिलकर जब
उन्होंने सामाजिक और राजनैतिक प्रश्नों पर चर्चा करने के लिए एक अखिल भारतीय
वार्षिक सम्मेलन की अपनी योजना बताई तो वायसराय ने अभिजात्यपूर्ण तिरस्कार के साथ
शुरू में यह कहकर कर अस्वीकार कर दिया कि “वे (ह्यूम) चतुर और सज्जन हैं, किंतु लगता है उनका दिमाग कुछ चला गया है।” बाद में डफ़रिन ने ह्यूम के
प्रस्ताव पर यह सलाह दी कि उस सम्मेलन में प्रशासन संबंधी प्रश्नों पर भी चर्चा
होनी चाहिए। कुछ दिनों के बाद ह्यूम इंग्लैंड गए और
वहाँ ब्रिटिश प्रेस तथा सांसदों से बातचीत कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के
स्थापना की पृष्ठभूमि तैयार कर ली। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद ह्यूम ने दादा भाई
नौरोजी के सुझाव पर इंडियन नेशनल यूनियन का नाम बदलकर “इंडियन
नेशनल कांग्रेस” कर दिया। इंडियन नेशनल कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन पूना में होनेवाला था। प्लेग की बीमारी के कारण प्रथम इंडियन नेशनल कांग्रेस की वार्षिक सभा 28 दिसम्बर, 1885 को कलकत्ता के प्रमुख बैरिस्टर व्योमेशचन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में बम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई।
भारत के विभिन्न भागों से आए हुए इंडियन नेशनल कांग्रेस के 72 प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया, जिनमें
से 54 हिंदू थे, 2 मुस्लिम और
बाकी जैन और पारसी सदस्य थे। सरकारी पदाधिकारियों ने भी इसकी कार्यवाही देखी। इस
सम्मेलन में डब्ल्यू.सी. बनर्जी ने कहा था, “भारत
में शक्तिशाली ब्रिटिश शासन लाने के लिए उस करुणानिधान परम पिता परमेश्वर को
कोटिशः धन्यवाद। .... यूरोप के ढंग की शासन-प्रणाली की अभिलाषा करना राजद्रोह नहीं
है।”
सम्मेलन
में भाग लेने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सूची ज़ारी करते हुए कहा गया था, “कांग्रेस
की स्थापना का लक्ष्य यह है कि राष्ट्रीय उत्थान में लगे तमाम उत्साही कार्यकर्ता
एक-दूसरे को अच्छी तरह से जान लें।” कांग्रेस के पहले
अध्यक्ष डब्ल्यू.सी. बनर्जी ने कहा था, “कांग्रेस
का उद्देश्य, भाईचारे के माध्यम से भारतीय जनता के बीच सभी तरह के जाति, वर्ण व
क्षेत्रीय पूर्वाग्रहों को समाप्त करना और देश के लिए काम करने वालों
के बीच भाईचारे और दोस्ती को और मज़बूत बनाना है।” बंबई के इस सम्मेलन
में जिन लोगों ने हिस्सा लिया था, उनके लिए बुनियादी लक्ष्य ही सबसे ज़्यादा
महत्त्वपूर्ण थे। बुनियादी लक्ष्य यह था कि एक ऐसा राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया जाए,
जिसके तहत देश के विभिन्न भागों में काम कर रहे राजनीतिक कार्यकर्ता इकट्ठा होकर
अखिल भारतीय स्तर अपनी राजनीतिक गतिविधियां चला सकें। इसमें सामाजिक सुधार का
कार्यक्रम नहीं था। राष्ट्रीय आंदोलन और सामाजिक विचारधारा का सवाल उस समय गौण था।
उस समय राष्ट्रीय आन्दोलन को शुरू करने के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व को जन्म देने की
ज़रूरत थी।
उपसंहार
भारतीय राष्ट्रीय कान्ग्रेस
का गठन राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को बढ़ावा देने की दिशा में एक प्रयास था। 1885 में भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय न तो अप्रत्याशित घटना थी, और न ही ऐतिहासिक दुर्घटना।
भारतीयों में कई दशकों से पनप रही राजनीतिक चेतना और जागरूकता की यह पराकाष्ठा थी।
भारतीय राजनीति में सक्रिय बुद्धिजीवी राष्ट्रीय हितों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर
संघर्ष करने के लिए छटपटा रहे थे। उनको सफलता मिली और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
की स्थापना हुई। कांग्रेस की स्थापना भारत की राष्ट्रीय
चेतना का स्वाभाविक विकास था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ ही एक अखिल भारतीय राजनीतिक मंच का
जन्म हुआ। कांग्रेस की स्थापना के साथ ही भारतीय स्वाधीनता संग्राम का निर्णायक दौर शुरू
होता है क्योंकि कांग्रेस के रूप में भारतीयों को एक
माध्यम मिल गया जो स्वतंत्रता की लड़ाई में आज़ादी मिलने तक उनका
नेतृत्व करता रहा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और
गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और
गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और
गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा
दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह -
विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर
और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के
जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को
चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय
राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल
विवाद
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