गांधी और गांधीवाद
भूल करने में पाप तो है ही, परन्तु उसे छिपाने में उससे भी बड़ा पाप है। --
महात्मा गांधी
1883
8. कुसंगति
का असर और प्रायश्चित
महाभारत
में कहा गया है,
हीयते हि मतिस्तात् , हीनैः
सह समागतात् ।
समैस्च समतामेति , विशिष्टैश्च विशिष्टितम् ॥
अर्थात् हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है, समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है।
अपनी किशोरावस्था में गांधीजी ने गंभीर
दुस्साहस का काम किया। कुसंगति का असर, युवा गांधी को चकले तक ले गया। शेख माहताब उनको एक वेश्या के
पास लेकर गया। परन्तु
गांधीजी के शर्मीले स्वभाव ने उन्हें बचा लिया। लिखते हैं, “मैं पाप के इस घरौंदे में लगभग अंधा-गूंगा बनकर
रह गया। मैं उस स्त्री के बिस्तर पर उसके पास बैठा था, मगर मेरी ज़बान गूंगी थी।
स्वाभाविक था कि मेरे बारे में उसका सब्र जाता रहा और उसने मुझे गालियां देकर और
मेरी बेइज़्ज़ती करके दरवाज़े का रास्ता दिखा दिया। मुझे तब लगा गोया मेरी मर्दानगी
पर चोट की गई है और मैं शर्म के मारे ज़मीन में धंस जाना चाहता था। लेकिन फिर मैं
ईश्वर का आभारी रहा हूं कि उसने मुझे बचा लिया।” उन्होंने कभी भी कस्तूरबाई से विश्वासघात नहीं किया।
धूम्रपान
कुसंगति ने उन्हें बीड़ी पीने
की आदत भी डाल दी। अपने एक रिश्तेदार के साथ उनको बचपन
में बीड़ी पीने की लत पड़ गई थी। उन्हें धुआँ उड़ाने में बहुत मज़ा आता था। बचपन में उनके पास इतने पैसे नहीं होते थे कि बीड़ी खरीदकर पी सके। उनके चाचा
बीड़ी पीते थे। वह बीड़ी पीकर जो 'ठूंठ' फेंक देते थे, उसको चुनकर गांधीजी और उनके रिश्तेदार
ने पीना शुरू किया। लेकिन ये ठूंठ हर समय नहीं मिलते और उनमें से बहुत धुआं भी नहीं
निकलता और इसमें मज़ा भी नहीं आता था। ख़रीदकर बीड़ी पीने के पैसे नहीं थे, इसलिए
नौकरों के पैसे चुराने लगे। जब यह भी
ज़्यादा दिनों तक काम नहीं आया तो एक जंगली पौधे की डंठल को पीने लगा। यह तो और भी
तकलीफ़देह थी।
आत्महत्या का ख़्याल
बचपन में 14 वर्ष की
उम्र में गांधीजी के मन में आत्महत्या का ख्याल आया। अभी तो बस उनके विवाह को एक
ही साल हुआ था। वे अपना जीवन समाप्त कर देना चाहते थे। ऐसी कौन सी विपदा आन पड़ी
थी। बीड़ी पीने की लत पड़ने के बाद उनको लगा कि हर कुछ उनको
बड़ों से ही पूछकर करना पड़ता है। अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकते। स्वच्छंदता
नहीं थी। यहां तक कि उन्हें चोरी छुपे धूम्रपान करना पड़ता था। उसके लिए कभी कभार
नौकर की जेब खर्च के पैसे चुराने पड़ते थे। वह ऊब गये और इस समस्या से निजात पाने
के लिए उन्होंने आत्महत्या का तरीक़ा अपनाने को सोचा। वे अपने उस रिश्तेदार के साथ आत्महत्या की योजना बनाने लगे। अब सवाल यह था कि आत्महत्या कैसे करें, तो इसके लिए उन्होंने धतूरे के बीज को चुना। उन्होंने सुन रखा था कि धतूरे के बीज खाने से
जहर की तरह का असर होता है। वे जंगल में जाकर बीज ले आए। काम को अंजाम देने के लिए
शाम का समय तय किया। सूने केदारनाथजी के मंदिर पहुंचे। मंदिर की दीपमाला में घी चढ़ाया, दर्शन किये और एकांत खोज लिए।
यहां पर उनका साहस जवाब दे गया। खाने के पहले मन में आया अगर तुरंत ही मृत्यु न हुई
तो क्या होगा? मरने से लाभ
क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक खाने
की हिम्मत ही न पड़ी। आगे हिम्मत जवाब दे
गई। उन्हें एहसास हुआ कि आत्महत्या का ख्याल जितना आसान है, उतना उसे अंजाम देना नहीं।
दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि रामजी के मंदिर में जाकर दर्शन करके शांत हो
जाएं और आत्महत्या की बात भूल जाएं। इसके बाद गांधीजी को न तो आत्महत्या का ख्याल
कभी आया न ही उन्होंने कभी धुम्रपान ही की।
चोरी की
हर किसी किशोर युवक की तरह मोहन भी ग़लतियां करता
था, लेकिन नैतिक आधार पर उन ग़लतियों का हल ढूंढता था। हर अपराध के बाद उसने आगे
वैसा अपराध न करने की कसम खाई और हमेशा उस क़सम को निभाया। यह उनकी आत्मोन्नति की प्रबल लालसा को दर्शाता है। स्वयं की खोज के लिए स्वयं के प्रति सच्चा बनना पड़ता है। आत्म-नियंत्रण से
असीम नियन्त्रण शक्ति प्राप्त होती है। आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलेंगे तो
दूसरे भी महत्व देंगे। बाद में
उन्होंने कहा भी था, “किसी शुद्ध नैतिक दृष्टिकोण से इन सभी अवसरों को
नैतिक भटकाव कहना चाहिए।”
आत्महत्या के ख्याल वाली घटना के बाद बीड़ी पीने की आदत तो छूटी, पर अब समस्या थी की 25 रुपये का क़र्ज़ कैसे चुकाया जाए। इसके लिए उपाय यह ढूंढा गया कि भाई के हाथ के सोने के कड़े से सोना काट कर बेच
कर क़र्ज़ उतारा जाए। कडा काटा गया और क़र्ज़ भी अदा हुआ। लेकिन इस बात ने गांधी जी
की अंतरात्मा को धिक्कारा। मोहन की आत्मा इस अपराधबोझ को
सह न सकी। उन्होंने चोरी न करने का
निर्णय तो लिया ही साथ ही यह भी सोचा कि पिताजी के सामने जाकर अपनी ग़लती स्वीकार
लें। पर उन्हें कहने की हिम्मत नहीं हुई।
फिर
उन्होंने अपना अपराध पूरी तरह स्वीकारते हुए सारी बात एक पत्र में लिख कर पिताजी
को सौंप दिया। उनसे माफी मांगी। उस पत्र में उन्होंने
पिताजी से दंड देने का अनुरोध किया। साथ ही उन्होंने यह भी प्रण किया कि वे फिर
कभी चोरी नहीं करेंगे। पत्र देने के बाद उनके सामने बैठ गए। पिता जी जब चिट्ठी पढ
चुके तो उन्हें लगा कि अब कुछ बोलेंगे, डांटेंगे।
पर पिता की आंख से आंसू की बूंदें बह चली। पिता और
पुत्र दोनों एक साथ रो पड़े। मोहन ने पश्चाताप के आंसू बहाए, करमचंद ने माफी के। पिता ने चिट्ठी फाड़ डाली, और लेट
गए। गांधीजी पश्चाताप के आंसू
रोए। पिताजी की वेदना और उनके आंसू ने उन्हें शुद्ध बना डाला। पिता के प्रति अगाध
श्रद्धा और प्रेम से उनका हृदय भर गया। गांधी
जी कहते हैं ‘इस प्रेम को तो अनुभवी ही
जान सकता है।’
बाद में
चल कर यह प्रेम भाव उनकी अहिंसा की नीति का आधार बना। ऐसी अहिंसा जब व्यापक रूप ले
ले तो इसकी शक्ति से कौन बच सकता है! क्षमा
में बहुत बड़ी शक्ति निहित है। व्यक्ति का निष्कपट भाव से अपना अपराध स्वीकार कर
लेना सबसे बड़ा प्रायश्चित है। अपने
दोषों तथा कमियों को जान लेना उन पर विजय प्राप्त करने की ओर पहला कदम है। गांधीजी ने सत्य का सहारा लिया। सत्य
कर्म युद्ध क्षेत्र में जीतने का पहला साधन है। सत्य और अहिंसा के द्वारा जीवन की हर लड़ाई जीती जा सकती है। गांधीजी ने जीता
भी!
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मनोज कुमार
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