गांधी और गांधीवाद
जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब कुछ चीजों के लिए हमें वाह्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। हमारे अंदर से एक हल्की-सी आवाज हमें बताती है, ‘तुम सही रास्ते पर हो, दाएं-बाएं मुड़ने की जरूरत नहीं है, सीधे और संकरे रास्ते पर आगे बढ़ते जाओ।’ -- महात्मा गांधी
21. अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े
प्रवेश
आरंभिक जीवन में जब गांधीजी में आत्मा की आवाज का विकास नहीं हुआ था, तो उन्होंने बुद्धि का निर्देश ग्रहण करके तरह-तरह की त्रुटियां की हैं, जिसका संकेत उन्होंने अपनी जीवन में स्पष्ट रूप से किया है। चेतना के परिष्कार के क्रम में उन्होंने अपने दृष्टिकोण में परिष्कार किया। गांधीजी की बुद्धि ने अगर उन्हें अंध परंपरा और अंध श्रद्धा के जाल में फंसने से बचाया है तो उनके हृदय ने बुद्धि के द्वारा प्राप्त निष्कर्षों को समाज में प्रयोग की सार्थक भूमिका पर कस कर उनकी सार्थकता और निरर्थकता पर विचार करने की शक्ति प्रदान किया है। हर कार्य उनके लिए शिक्षा का साधन रहा है। गांधी जी लंदन में जहां
एक तरफ़ शाकाहार के लिए संघर्ष कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ़ उनके मित्रों को लग रहा था कि अपनी
वेश-भूषा और रहन-सहन के कारण वे वहां के समाज में घुल मिल भी नहीं पाएंगे और खासा
जंगली बन कर रह जाएंगे। अपने आलोचकों को निरुत्तर करने के लिए और यह सिद्ध करने के
लिए कि शाकाहारी भी अपने को नये वातावरण में ढाल सकता है उन्होंने ‘अंग्रेजी संस्कृति’ की तड़क-भड़क अपनाने का निश्चय किया।
शिष्ट और सहज होने की कोशिश
घुटनों तक धोती एवं कठियावाड़ी पोशाक पहनने वाले
गांधीजी जब इंग्लैंड पहुंचे तो उन्हें ‘जेन्टलमैन’ बनने की धुन चढ़ी। वह अपने साथ पश्चिमी कपड़े लाए थे, लेकिन बॉम्बे कट सिर्फ़ बॉम्बे कट था। अंग्रेजी समाज में
ऐसा नहीं चलेगा। उन्होंने अपनी जेब और रिवाज के अनुरूप अंग्रेज़ी रीति-रिवाजों के प्रति यथासंभव शिष्ट और सहज होने की कोशिश किया।
अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “मैंने निश्चय किया कि मैं जंगली नहीं रहूंगा। सभ्य के लक्षण
ग्रहण करूंगा। मैंने सभ्यता सीखने के लिए अपनी सामर्थ्य से परे का और छिछला रास्ता
पकड़ा।” पूरी तरह से अंग्रेजी
तौर-तरीके अपनाने का निश्चय कर लेने के बाद, उन्होंने इसके लिए न धन की परवाह की, न समय की। जब अंग्रेजियत का मुलम्मा चढ़ाने का फैसला
कर ही लिया तो वह बढ़िया से बढ़िया होना चाहिए, कीमत चाहे जो भी देनी पड़े। लन्दन के ‘आर्मी एण्ड नेवी स्टोर्स’ से नए फैशन
के कपड़े ख़रीद लाए। उन्होंने पार्टियों आदि में जाने के लिए लंदन के बौंड
स्ट्रीट के सबसे अच्छे और फैशन में अग्रणी दर्जियों से सूट सिलवाये। एक रेशमी हैट ख़रीदा। घड़ी में लगाने के लिए
भारत से सोने की बढिया चेन मंगवाई। उन्हें लगा कि सभी पुरुष को नाचना चाहिए। सभी पुरुष को लच्छेदार
भाषण करना चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति
के लिए वक्तृत्व कला और नृत्य सीखना शुरु कर दिया। चलने का ढंग सीखने के लिए ‘बाल’ डांस स्कूल
ज्वान किया। संगीत, वायलिन बजाने की विधिवत्
शिक्षा विशेषज्ञों से लेनी शुरु कर दी। टाई बांधने की कला सीखी। सर पर टोपी डालना
शुरु किया। बालों को व्यवस्थित रखने की सभ्य क्रिया सीधी मांग निकालने में पारंगत
हुए।
आइने के सामने खड़े होकर स्टाइल से बाल काढ़ते। सजने-संवरने में घंटों बर्बाद करते।
सदाचार से सभ्य बनने का प्रण
गांधी जी के विवरण से पता
चलता है कि इन कामों में उन्होंने कई महीने लगाए। अपनी माता को दिए वचनों पर अडिग
रहने की ज़िद से जो नुकसान पहुंचा था, उसे अपनी सामाजिक भद्रता, जिसे वह “अंग्रेज़ भद्रलोक की
भूमिका निबाहने” का प्रयास कहते थे, से पूरा करने का प्रयत्न करते रहे। पर इसी क्रम में उनके
हाथ एक पुस्तक लगी। उन्होंने भाषण कला सीखने के लिए बेल की “स्टैण्डर्ड एलोक्युशनिस्ट” पुस्तक ख़रीदी। इस बेल साहब ने उनके कान में ऐसी घंटी
बजाई के वे जाग उठे। गांधीजी इन प्रयोगों में अपने को पूर्ण स्वच्छंदता और सहज भाव
से नहीं लगा सके। आत्म-निरीक्षण की अपनी आदत को वह कभी नहीं छोड़ सके। उन्हें लगा
कि वह कौन इंग्लैण्ड में सारा जीवन बिताने वाले हैं? लच्छेदार भाषण सीख कर वह क्या करेंगे? नाच-नाचकर वे सभ्य कैसे बनेंगे? वायलिन तो भारत वापस जाकर भी सीखा जा सकता है। वे तो
यहां एक विद्यार्थी हैं। उन्हें विद्या-धन बढाना चाहिए। अपने पेशे से संबंध रखने
वाली तैयारी करनी चाहिए। उन्होंने अनुभव किया कि दर्जी, बजाज और नाचघर उन्हें ‘अंग्रेज साहब’ तो जरूर बना
सकते हैं लेकिन यह साहबियत सिर्फ शहराती और ऊपरी होगी। उन्होंने निश्चय किया कि वे
अपने सदाचार से सभ्य बनेंगे।
क़ानून की पढाई में जुटे
उन्होंने अपनी इस सभ्य
बनने की होड़ में बन आई अपनी छवि पर ग़ौर किया। छोटा सा हिन्दू लड़का, सीधे खड़े कान, भेदती आंखें, और दुबला-पतला चेहरा, कड़ा कालर और चिकने-चुपड़े बाल। उन्हें यह छवि बड़ा ही
हास्यास्पद लगी। उनके जीवन में ऐसा समय कभी भी नहीं था जब वे अपने आप पर हंस नहीं
सके हों या हंसे न हों। दरअसल आमतौर पर अपने पर हंसना, तथा मृदु व सहज हास्य उनकी अनिवार्यता थी। हास्य के
इस दुर्लभ गुण ने उन्हें संकटकाल में भी जीवंतता प्रदान की थी। अंत में उन्होंने
एक दिन, अचानक यह सब पूरी तरह से
छोड़ दिया। 6 नवंबर 1888 को, यानी लंदन पहुंचने के लगभग
पांच सप्ताह बाद, उन्होंने औपचारिक रूप से
इनर टेम्पल की माननीय सोसायटी में प्रवेश के लिए आवेदन किया। वह क़ानून की अपनी
पढाई में जुट गए। अब वे विद्यार्थी थे।
उपसंहार
महात्मा गांधी के नैतिक दर्शन में साध्य और साधन का विचार बड़ा महत्त्वपूर्ण है। ऐच्छिक
कर्म ही नैतिक निर्णय का विषय है। नैतिक दृष्टि से उचित काम हम उसे कहते हैं जिसे
अपनी स्वतः इच्छा शक्ति से, सोच-समझ कर बिना वाह्य
दबाव या आन्तरिक प्रलोभन के हम करते हैं। यह काम हमारी स्वतंत्र इच्छा शक्ति या
संकल्प से सम्पन्न होता है। महात्मा गांधी मानते हैं कि जो कार्य ऐच्छिक नहीं वह
नैतिक भी नहीं। परन्तु ऐच्छिक कार्य में साध्य और साधन, परिणाम और हेतु, फल और कारण दोनों सम्मिलित हैं। गांधी जी के अनुसार शुभ
साध्य के लिए शुभ साधन भी होना चाहिए। साध्य साधन को प्रमाणित नहीं कर सकता। यही
आदर्श है। इस आदर्श के अनुसार ही मानव को आचरण करना चाहिए। विषम परिस्थितियां
उत्पन्न हो सकती हैं, परन्तु व्यक्ति को इस
परिस्थिति से विचलित नहीं होना चाहिए। नैतिक वही व्यक्ति हो सकता है जिसमें धैर्य
और शान्ति हो। आदर्श के अनुकूल आचरण वही कर सकता है जिसके हृदय में आस्था और
बुद्धि में विश्वास हो।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और
गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और
गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और
गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा
दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह -
विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर
और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के
जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को
चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय
राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल
विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी
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