गुरुवार, 11 जुलाई 2024

12. राजनीतिक संगठन

 

गांधी और राष्ट्रीय आन्दोलन

 


संपूर्ण
विश्व का इतिहास उन व्यक्तियों के उदाहरणों से भरा पडा है जो अपने आत्म-विश्वास, साहस तथा दृढ़ता की शक्ति से नेतृत्व के शिखर पर पहुंचे हैं। -- महात्मा गांधी

12. राजनीतिक संगठन

प्रवेश

गांधीजी के राष्ट्रीय संघर्ष के क्षितिज पर उदय होने के पहले भारत में कई राजनीतिक संघ का उदय हो चुका था, जो राष्ट्रीयता की भावना को बल प्रदान कर रहे थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत का पहला राजनीतिक संगठन नहीं था। 19वीं शताब्दी में अनेक राजनीतिक संगठन बनाए गए। भारत के नए शिक्षित वर्ग ने राजनीतिक शिक्षा के प्रसार और देश में राजनीतिक कार्य-कलाप शुरू करने के लिए राजनीतिक संघों की स्थापना की। इनका उद्देश्य अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए संगठित होकर प्रयास करना था। हालांकि यह धारणा एकदम नई थी कि जनता अपने शासकों के विरुद्ध राजनीतिक ढंग से संगठित हो सकती है, फिर भी 1857 के विद्रोह के पहले ऐसी अनेक संस्थाएं अस्तित्व में आ चुकी थीं। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अधिकांश राजनीतिक संघों में धनी और कुलीन तत्वों का वर्चस्व था। वे या तो स्थानीय थे या क्षेत्रीय। उनमें से अधिकांश ने ब्रिटिश संसद में लंबी याचिकाओं के माध्यम से प्रशासनिक सुधार, प्रशासन में भारतीयों को शामिल किए जाने और शिक्षा के प्रसार की मांग की। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के राजनीतिक संघों में शिक्षित मध्य-वर्ग वकील, पत्रकार, डॉक्टर, शिक्षक, आदि का वर्चस्व बढ़ता गया और उनका दृष्टिकोण व्यापक और एजेंडा बड़ा था।

राजा राममोहन राय पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने राजनैतिक सुधार के लिए आन्दोलन का सूत्रपात किया। बंगभाषा प्रकाशन सभा का गठन 1836 में राजा राममोहन राय के सहयोगियों द्वारा किया गया था। राजा राममोहन राय ने अखबार की स्वतंत्रता, जूरियों द्वारा मुक़दमे की सुनवाई, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अलगाव, उच्चतर पदों पर भारतीयों की नियुक्ति, ज़मींदारों के दमन से रय्यत की रक्षा और भारतीय उद्योग व्यापार के विकास के लिए संघर्ष किया।

1837 में ज़मींदारी एसोसिएशन, जिसे जमींदार सभा ('लैंडहोल्डर्स सोसाइटी') के नाम से अधिक जाना जाता है, की स्थापना बंगाल, बिहार और उड़ीसा के जमींदारों के हितों की रक्षा के लिए की गई थी। इसके प्रमुख नेता प्रसन्न कुमार ठाकुर, राजा राधाकांत देव, द्वारकानाथ ठाकुर थे। इस सभा की प्रमुख मांगें थीं, मुक्त ज़मीन का अधिग्रहण बंद करना, अदालतों में बंगला भाषा का प्रयोग करना, अदालतों की खर्च में कमी करना और भारतीय श्रमिकों को मौरीशस ले जाना बंद करना। अपने उद्देश्यों में सीमित ही सही, लैंडहोल्डर्स सोसाइटी ने एक संगठित राजनीतिक गतिविधि की शुरुआत की और शिकायतों के निवारण के लिए संवैधानिक आंदोलन के तरीकों का इस्तेमाल किया।

बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसाइटी की स्थापना 1843 में ब्रिटिश भारत के लोगों की वास्तविक स्थिति से संबंधित जानकारी के संग्रह और प्रसार के उद्देश्य से की गई थी। इसमें अँग्रेज़ भी शामिल थे। इसके अध्यक्ष जॉर्ज थॉम्पसन थे। इस संस्था का उद्देश्य शांतिमय और क़ानूनी साधनों का सहारा लेकर सभी वर्ग के हितों की रक्षा करना था। बाद में किसानों की सुरक्षा को लेकर इस संगठन में फूट पड गयी और ज़मींदार इससे अलग हो गए।

1851 में लैंडहोल्डर्स सोसाइटी और बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसाइटी दोनों का विलय होकर ब्रिटिश इंडियन सोसाइटी की स्थापना हुई। इसने ब्रिटिश संसद को एक याचिका भेजकर कंपनी के नए चार्टर में अपने कुछ सुझावों को शामिल करने की मांग की, जैसे एक लोकप्रिय चरित्र की एक अलग विधायिका की स्थापना, कार्यपालिका को न्यायिक कार्यों से अलग करना, उच्च अधिकारियों के वेतन में कमी और नमक शुल्क, आबकारी और स्टांप शुल्क को समाप्त करना। इन्हें आंशिक रूप से तब स्वीकार किया गया था जब 1853 के चार्टर अधिनियम में विधायी उद्देश्यों के लिए गवर्नर-जनरल की परिषद में छह सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान किया गया था। इसकी शाखाएं बंगाल के बहार भी खुलीं।

1852 में मद्रास नेटिव एसोसिएशन की स्थापना हुई। इसे पर्याप्त जन समर्थन नहीं मिला। 1852 में ही बंबई एसोसिएशन की स्थापना हुई। शुरू में इसका रुख सरकार समर्थक था, लेकिन बाद में इसमें परिवर्तन आया और यह सरकार विरोधी बन गया। इसने भारत में सिविल सर्विस परीक्षा कराने, सरकारी पदों पर भारतीयों की नियुक्ति और सरकारी आर्थिक नीतियों में परिवर्तन की मांग की थी। ईस्ट इंडिया एसोसिएशन का संगठन 1866 में लंदन में दादाभाई नौरोजी द्वारा भारतीय प्रश्न पर चर्चा करने और भारतीय कल्याण को बढ़ावा देने के लिए इंग्लैंड में सार्वजनिक कार्यों से जुड़े लोगों को प्रभावित करने के लिए किया गया था। बाद में, प्रमुख भारतीय शहरों में संघ की शाखाएँ शुरू की गईं। कुछ ही दिनों में दादाभाई नौरोजी अपने समकालीनों के बीच ‘भारत के महान वृद्ध पुरुष के रूप में विख्यात हुए।

पूना सार्वजनिक सभा की स्थापना 1870 में न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे, गणेश वासुदेव जोशी, एस.एच. चिपलुणकर और अन्य लोगों द्वारा की गई थी, जिसका उद्देश्य सरकार और जनता के बीच एक सेतु का काम कर सामंजस्य स्थापित करना था। इसने भारतीय राजाओं और ब्रिटिश सरकार के साथ संबंध निर्धारित करने, सेना में भारतीय और यूरोपीय सिपाहियों के संबंध निश्चित करने और ब्रिटिश संसद में भारतीयों को प्रतिनिधित्व देने जैसी मांगें रखीं।

इंडियन लीग की शुरुआत 1875 में शिशिर कुमार घोष ने लोगों में राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ाने और राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से की थी। इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ कलकत्ता (जिसे इंडियन नेशनल एसोसिएशन के नाम से भी जाना जाता है) ने इंडियन लीग का स्थान ले लिया। इसे 1876 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस के नेतृत्व में बंगाल के युवा राष्ट्रवादियों द्वारा स्थापित किया गया था। वे ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की रूढ़िवादी और जमींदार समर्थक नीतियों से असंतुष्ट थे। पूर्व कांग्रेस संघों में इंडियन एसोसिएशन सबसे महत्वपूर्ण था और इसका उद्देश्य लोगों की राजनीतिक, बौद्धिक और भौतिक उन्नति को हर वैध तरीके से बढ़ावा देना था। राजनीतिक सवालों पर एक मजबूत जनमत बनाना, और आम राजनीतिक कार्यक्रम में भारतीय लोगों को एकजुट करना इसका प्रमुख लक्ष्य था। इसने 1877 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा के उम्मीदवारों के लिए आयु सीमा में कमी का विरोध किया। एसोसिएशन ने इंग्लैंड और भारत में एक साथ सिविल सेवा परीक्षा आयोजित करने और उच्च प्रशासनिक पदों के भारतीयकरण की मांग की थी। इसने दमनकारी शस्त्र अधिनियम और स्थानीय प्रेस अधिनियम के खिलाफ अभियान चलाया था। एसोसिएशन की शाखाएं बंगाल के अन्य कस्बों और शहरों में और यहां तक कि बंगाल के बाहर भी खोली गईं। संघ की ओर गरीब वर्गों को आकर्षित करने के लिए सदस्यता शुल्क कम रखा गया था। एसोसिएशन ने एक अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित किया जो 28 से 30 दिसंबर, 1883 को कलकत्ता में हुआ था। इसमें देश के विभिन्न हिस्सों से सौ से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। एक तरह से एसोसिएशन अखिल भारतीय राष्ट्रवादी संगठन के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अग्रदूत था। बाद में 1886 में इसका भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विलय हो गया।

मद्रास महाजन सभा की स्थापना 1884 में एम. विराराघवाचारी, जी. सुब्रमण्य अय्यर और पी. आनंदचार्लु ने की थी। बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन की शुरुआत बदरुद्दीन तैयबजी, फिरोजशाह मेहता और के.टी. तैलंग ने 1885 में की थी।

उपसंहार

1857 तक अनेक राजनीतिक संघ अस्तित्व में आ चुके थे। ये सभी स्थानीय किस्म के थे और इन पर प्रायः धनाढ्य व्यापारियों और ज़मींदारों का प्रभुत्व बना रहा। ये सभी संगठन विशेष वर्गीय हितों की सुरक्षा के लिए बनाए गए थे। 1857 के विद्रोह की असफलता से यह स्पष्ट हो गया कि उच्च वर्गों (ज़मींदारों, भू-स्वामियों) के नेतृत्व में ब्रितानी शासन के विरुद्ध चलने वाला राजनैतिक प्रतिरोध सफल नहीं हो सकता। शिक्षित वर्ग ने यह अनुभव किया कि राजनीतिक संघों की स्थापना संकीर्ण दृष्टि से की गयी है और बदली हुए परिस्थिति में यह लाभकारी नहीं होंगे। राष्ट्रवादी राजनीतिक संगठनों की आवश्यकता महसूस की गयी और ऐसे अनेक संगठन अस्तित्व में आए। अपने प्रयासों द्वारा इन संगठनों ने क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक अधिकारों की मांग की और भारतीयों में राष्ट्रीय भावना को जगाने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनके इन महत्त्वपूर्ण योगदान के बावजूद 1885 तक किसी अखिल भारतीय राजनीतिक संगठन का विकास नहीं हो सका। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी पहले भारतीय थे जिन्हें देशव्यापी लोकप्रियता मिली। हालाकि सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इन्डियन एसोसिएशन को अखिल भारतीय स्वरुप देने का प्रयास किया लेकिन उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका। फिर भी हम देखते हैं कि 1883 में एसोसिएशन ने जो एक अखिल भारतीय सम्मेलन का कलकत्ता में आयोजन किया था, वह पहली बार सभी राजनीतिक संगठन को एक मंच पर लाने का सफल प्रयास था। यह एक संयुक्त अखिल भारतीय संगठन की स्थापना की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम साबित हुआ। इसके एक वर्ष बाद ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई।

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मनोज कुमार

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