गांधी और गांधीवाद
भोजन केवल शरीर यात्रा के लिये ही हो, भोग के लिये कभी नहीं। इसलिए उसे औषध समझकर संयम पूर्वक लेने की ज़रुरत है। इस व्रत का पालन करने वाला, ऐसे मांस, मसाले वगैरह का त्याग करेगा, जो विकार उत्पन्न करें। -- महात्मा गांधी
20. शाकाहार और गांधी
प्रवेश
महात्मा गाँधी अपने पेशे से तो अध्यापक नहीं थे, परन्तु उनके जीवन का महत्त्वपूर्ण अंश-धर्म, जाति, वर्ग-वर्ण या स्त्री-पुरुष के वर्ग भेद से ऊपर उठकर, जीवन भर मानव जाति का अध्यापक होना था। मनुष्य-जीवन में वे सामाजिक एवं नैतिक गुणों के विशेष आग्रही थे। उनका यह अटूट विश्वास था कि भारत के लोगों के लिए स्वतंत्र एवं उच्च जीवन-निर्माण- हेतु ये गुण आवश्यक ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य हैं । 4 सितम्बर 1888 को गांधी जी बम्बई के बन्दरगाह से विलायत बैरिस्टर की उपाधि
ग्रहण करने के लिए रवाना हुए। गांधी का जन्म शाकाहारी परिवार में हुआ था। अपने
द्वारा लिए गए प्रण के अनुसार उन्होंने जहाज पर और लन्दन पहुँचने के बाद भी
मांसाहार ग्रहण नहीं किया। इसके कारण उन्हें बहुत सी मुसीबतों का सामना करना पडा, लेकिन उनका गांधीजी ने सफलतापूर्वक सामना किया।
जहाज पर
राजकोट
के देहाती से वातावरण से निकल कर आए गांधीजी के लिए जहाज का सार्वदेशिक वातावरण एक अजूबा जैसा था। उस समय वह बेहद शर्मीले
स्वभाव के थे। पश्चिमी ढंग के भोजन और यूरोपीय वेशभूषा एक बड़ा परिवर्तन था। विलायती शिष्टाचार अपनाना उनके लिए बड़ी ही कष्टदायक क्रिया
थी। खासकर नेकटाई उनके लिए गले का फंदा बनी हुई थी। कांटे चम्मच
से खाना उन्हें आता नहीं था। अंग्रेज़ी
में वार्तालाप करना बड़ा कठिन काम था। अंग्रेज़ी भाषा से परिचय तो था उनका पर यह स्कूली
भाषा थी, आम बोल-चाल की तो नहीं ही
थी। साथ के यात्री जब बोलते या पुकारते तो उन्हें जवाब देते नहीं बनता। जब कभी बोलने के लिए मुंह
खोलते तो लगता अज्ञानता में कहीं कोई ग़लती न हो जाए।
इसलिए वह चुप ही रहते। अतः जहाज पर लोगों की बात समझने-समझाने में उन्हें
कठिनाई हो रही थी। शर्मीले गांधीजी किसी से मिलने व बात करने से कतराते थे। सारा
दिन अपने केबिन में ही रहते। मांस न खाने की उन्होंने प्रतिज्ञा ले रखी थी। लेकिन बैरे से पूछने में
वह संकोच का अनुभव करते। इसलिए वह खाने के टेबुल पर कभी
नहीं गए और घर से लाई हुई मिठाई और फल से अपना काम चलाते। कई सहयात्री कह रहे थे कि बिना मांस खाए काम
चलने वाला नहीं। पर गांधीजी ने अपना काम चलाया। सारा दिन अपनी कोठारी
में रहते। डेक पर भी कभी नहीं जाते।
घर परिवार की याद
29 सितम्बर, 1888, शनिवार के दिन साउथम्प्टन के बंदरगाह पर जब वह उतरे तो उन्होंने सफेद फलालेन का सूट पहन रखा था। सारी यात्रा उन्होंने काले कपड़े पहने थे, और अब जो कपड़े उन्होंने पहने थे वे इंग्लैंड के पतझड़ के मौसम से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता था। ठहरने के लिए वह विक्टोरिया होटल गए। अपने साथ गांधीजी कुछ सिफारिशी पत्र लाए थे, जिनमें से उन्होंने डॉक्टर प्राणजीवन मेहता से संपर्क किया। मेहता साहब शाम तक आए। उन्होंने गांधीजी को वहाँ के रीति-रिवाजों के बारे में ज्ञान दिया।
होटल में सदा के लिए तो
रहा नहीं जा सकता था। किराए का एक मकान ठीक किया गया और गांधीजी उसमें रहने लगे। शुरू
के दिनों में गांधीजी को इंग्लैंड में काफी अकेलापन महसूस होता था।
घर, परिवार और बच्चे की याद बहुत सताती थी। रात होती कि वह रोने लगते। उन्हें लगता कि वह यहाँ
कैसे
तीन साल बिता पाएंगे। उसपर
से मांस न खाने की प्रतिज्ञा उसके लिए निरन्तर परेशानी का कारण
बनी रही। निरामिष भोजन की अपनी प्रतिज्ञा के कारण हमेशा उन्हें आधे पेट रहने को
मज़बूर होना पड़ता था। उन्होंने तो शाकाहार का
व्रत लिया था। शाकाहारी अधपके बेस्वाद भोजन बड़ी मुश्किल से गले के नीचे उतरता था।
वे लगभग भूखे ही रहते थे। लोग उनकी खिल्ली भी उड़ाते। उनके
मित्र कहते थे कि खान-पान का परहेज उनके स्वास्थ्य को नष्ट कर देगा। वह
वहां समाज में घुल मिल भी नहीं सकेंगे। डॉक्टर
मेहता की सलाह पर गांधीजी ने एक एंग्लो इन्डियन के यहाँ वेस्ट केन्सिग्टन में रहने
लगे।
शाकाहारी गांधी
एक दिन लंदन के फेरिंग्डन
स्ट्रीट में घूमते हुए उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां मिल गया। लंदन आने के बाद से
पहली बार उस होटल में उन्होंने भरपेट खाना खाया। निरामिष
भोजन, जो पहले उनके लिए परेशानी
का कारण था, अब एक
महत्वपूर्ण गुण बन गया। वहीं से उन्होंने शाकाहार का समर्थन करने वाली हेनरी
एस. साल्ट रचित एक पुस्तक ‘ए प्ली फॉर वेजीटेरियनिज़्म’ (शाकाहार
की हिमायत) ख़रीदी। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद शाकाहार उनके विश्वास और आस्था का विषय बन
गया। इसके तर्क उनके मन को भा गए। शाकाहार उनके जीवन का लक्ष्य
बन गया। अन्नाहार पर उनकी श्रद्धा
दिन पर दिन बढती ही गई। जो भी पुस्तक मिलती उसे पढ जाते। हावर्ड विलियम्स की ‘आहार-नीति’, डॉक्टर
मिसेज एना किंग्सफर्ड की ‘उत्तम आहार की रीति’ आदि। डॉ.
एलिन्सन के आरोग्य वर्धक लेखों ने भी गांधीजी की अच्छी मदद की। डॉ. एलिन्सन स्वयं अन्नाहारी
थे और बीमारों को केवल अन्नाहार की ही सलाह देते थे। इन पुस्तकों के
अध्ययन का फल यह हुआ कि अब तक जो निरामिष भोजन उनके लिए धर्म के कारण और अपनी मां
को दिए गए वचन का पालन करने के आधार पर लिया गया व्रत था, अब इन
पुस्तकों को पढ़ने के बाद यह तर्कसंगत, विश्वास और आस्था बन गया। उन्होंने
जितने भी लेखकों को पढ़ा, वे सभी नैतिक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि 'निम्न
श्रेणी के जानवरों पर मनुष्य की श्रेष्ठता का अर्थ यह नहीं है कि पहले वाले को
दूसरे का शिकार करना चाहिए, बल्कि यह है कि उच्च
श्रेणी के जानवरों को निम्न श्रेणी के जानवरों की रक्षा करनी चाहिए, और
दोनों के बीच मनुष्य और मनुष्य के बीच की तरह पारस्परिक सहायता होनी चाहिए।' शाकाहार
के प्रति दृष्टिकोण के इस परिवर्तन से गांधीजी में एक नए आत्मविश्वास का उदय हुआ। इसने एक
ऐसे शारीरिक और मानसिक अनुशासन को जन्म दिया जिससे भविष्य में उनका जीवन ही बदल
गया। उन्हें एक सिद्धांत के लिए आधार मिल गया। उनका शाकाहार
उतना ही स्वाभाविक और सहज था, जितना कि मनुष्य के लिए कोई दूसरी सहज बात।
शाकाहार का प्रचार
तर्क-सम्मत शाकाहार का
तात्कालिक परिणाम तो यह हुआ कि युवा गांधी में एक नए संतुलन का जन्म हुआ! वे संकोच
के पाश से मुक्त होकर समाज में रुचि लेने लगे। वह अब निरामिष भोजन का ज़ोर-शोर से प्रचार भी
करने लगे। इंग्लैंड में अन्नाहार आंदोलन के समर्थक और “वेजिटेरियन” समाचार-पत्र के संपादक डॉ.
जोशुआ ओल्डफील्ड से गांधी जी का परिचय हुआ। ‘वेजीटेरियन’ (शाकाहारी) पत्रिका में लेख लिख कर उन्होंने पत्रकार
बनने की दिशा में पहला कदम उठाया। गांधी जी ने अन्नाहार पर ‘वेजिटेरियन’ पत्रिका में नौ लेख लिखे। इनमें भारतीयों के भोजन, आदतों, सामाजिक प्रथाओं, त्यौहारों के वर्णन थे। जब वे भारत लौटने लगे, तो “वेजिटेरियन” के 13 जून 1891 के अंक में विदाई भाषण के
साथ उनका इंटरव्यू भी प्रकाशित हुआ। 1890 में उन्होंने शाकाहारी आंदोलनों में भाग लिया। वे लंदन की शाकाहारी
संस्था की कार्यकारिणी के सदस्य बन गये। उन्होंने इस संस्था के सदस्य बनाने का काम भी
अपने जिम्मे ले लिया। बैजवाटर में, जहां वह कुछ समय तक रहे थे, उन्होंने एक शाकाहारी क्लब
की स्थापना भी की। उनकी पाकशास्त्र में रुचि विकसित हुई। मिर्च मसालों में स्वाद
जाता रहा और वह इस तर्कसंगत निर्णय पर पहुंचे कि स्वाद का केन्द्र रसना न होकर मन
है। स्वाद पर नियंत्रण उस आत्मानुशासन की दिशा में पहला कदम था, जो कई वर्ष बाद पूर्ण इन्द्रिय-निग्रह में अपने
चरमबिन्दु पर पहुंचा।
उपसंहार
अपने पूरे जीवनकाल में
गांधीजी शाकाहारी थे और भोजन और आहार पर उनके मजबूत विचार थे। गांधीजी का शाकाहार उनके परिवार और समुदाय की
प्रथाओं के साधारण पालन से विकसित होकर नैतिक आधार और अन्य जीवों के प्रति करुणा
में बदल गया। गांधी जी ने The Moral Basis of
Vegetarianism किताब लिखी है। इसमें उन्होंने शाकाहारी भोजन पर प्रकाश डाला
है। उनका मत है कि शाकाहारी भोजन के सेवन से मन सात्विक होता है और शरीर में
सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। साथ ही आर्थिक दृष्टि से यह लाभप्रद है। फलों
और सब्जियों में सभी पोषक तत्व पाए जाते हैं, जिनसे व्यक्ति सदैव सेहतमंद रह सकता है। वहीं, मांसाहारी भोजन करने से व्यक्ति कभी भी सात्विकता को
नहीं पा सकता है। उसका मन कभी स्थिर नहीं रह सकता है। लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी के सदस्य के रूप में, गांधीजी ने सार्वजनिक भाषण के अपने डर पर काबू पा
लिया और पहली बार किसी मुद्दे के लिए संघर्ष करने वाले एक कार्यकर्ता बने। शाकाहारी
समुदाय से जुड़कर गांधीजी ने शाकाहार को कई सुधारवादी कारणों और अहिंसा की व्यापक
संकल्पना से जोड़ा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और
गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और
गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और
गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा
दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह -
विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर
और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के
जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को
चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय
राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल
विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए
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