मंगलवार, 9 जुलाई 2024

10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए

 

गांधी और गांधीवाद

 

सत्य एक विशाल वृक्ष की तरह है। आप जितना उसका पोषण करेंगे, उतने ही ज्यादा फल यह देगा। सत्य की खान को जितना ही गहरा खोदेंगे, सेवा के नये-से-नये मार्गों के रूप में, यह उतने ही अधिक हीरे-जवाहरात देगा। -- महात्मा गांधी

 

10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए

महात्मा गांधी की खेलों में कोई बहुत रुचि नहीं थी। यहां तक कि वे अंग्रेज़ी कहावत 'A sound mind lives in a sound body' (स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है) को भी ग़लत बताते थे। वे सवाल करते थे कि कोई पहलवान हो, उसका जिस्म गठा हुआ हो, लेकिन क्या ज़रूरी है कि उसका दिमाग़ भी सुंदर हो? गुजरात, काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत राजकोट में एल्फ्रेड हाई स्कूल में गांधीजी तीनों ही भाई पढ़ते थे। गांधीजी पढाई के मामले में अच्छे थे। पाँचवीं तथा छठी कक्षा में उन्हें प्रतिमास चार और दस रुपयों की छात्रवृति भी मिली थी गांधीजी अपने आचरण के प्रति बहुत सजग रहते थे। वह हमेशा यह प्रयास करते थे कि उनके हाथों कोई ऐसा काम हो जिससे डांट सुननी पड़े। दूसरी कक्षा में उन्हें एक बार मार पड़ी थी, जिसको लेकर वह कई दिनों तक दुखी रहे। जब गांधीजी सातवीं कक्षा में थे, तो उस स्कूल के प्रधानाध्यापक थे दोरावजी एदलजी। अनुशासन के मामले में वह बड़े कठोर थे। उन्होंने ऊंची कक्षा के छात्रों के लिए कसरत और क्रिकेट अनिवार्य कर दिया था। ग़ैर हाज़िर रहने वाले किसी भी छात्र का वह कोई बहाना नहीं मानते थे। गांधीजी को इन खेलों में कोई रुचि नहीं थी। उस समय गांधीजी का यह मानना था कि शिक्षा के साथ कसरत का कोई संबंध नहीं है। बाद में उन्हें यह समझ आया की विद्याभ्यास में शारीरिक और मानसिक शिक्षा का सामान स्थान होना चाहिए। हाँ वह कसरत की क्षतिपूर्ति टहलने से कर लिया करते थे। गांधीजी को कसरत और खेल की कक्षा में न जाने का एक कारण यह भी था कि वे स्कूल से सीधे घर पहुंचकर बीमार पिता की सेवा में लग जाते थे। एक शनिवार के दिन सुबह का स्कूल था। शाम को चार बजे कसरत के लिए जाना था। आसमान में बादल घिरे थे। गांधीजी को समय का अंदाज़ा नहीं हुआ। जब वह कसरत के लिए पहुंचे तो सारे विद्यार्थी मैदान से जा चुके थे। दूसरे दिन प्रधानाध्यापक ने चौदह वर्षीय मोहन की ओर कड़ी नज़र से देखते हुए पूछा, शनिवार को खेल के घंटे से तुम ग़ैर-हाज़िर क्यों थे? मोहन ने जवाब दिया, सर मैं अपने पिताजी की तीमारदारी कर रहा था। वह बीमार हैं। मेरे पास घड़ी नहीं है। बादलों के कारण धोखा हुआ और समय का सही अंदाजा नहीं लगा सका। जब मैं पहुंचा तो सब लड़के जा चुके थे। प्रधानाध्यापक ने रुखाई से कहा, झूठ बोल रहे हो? झूठे होने का आरोप मोहन सह नहीं सका। फूट-फूट कर रोने लगा। उसने सच ही कहा था। उसे समझ में नहीं रहा था कि अपनी सच्चाई का विश्वास वह कैसे दिलाए? इस घटना पर उसने बहुत सोचा। वह इस नतीजे पर पहुंचा, सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए।उसने तय कर लिया कि आगे कभी ऐसा मौक़ा ही नहीं आने देगा, जिससे उसकी किसी बात को झूठ समझा जाए। मोहन तो पढ़ाई में तेज़ था, ही खेल में। स्वभाव से शांत और शर्मीला था। लड़कों के सामने उसके मुंह से बोल फूटते थे। औसत दर्जे का विद्यार्थी होने की उसे कोई विशेष चिंता नहीं रहती थी। हां सच बोलने का उसे बहुत गर्व था। चरित्र के प्रति वह सदैव जागरूक रहता था। उसके पिता करमचंद और दादा उत्तमचंद भी अपनी ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध थे।

गांधीजी का क्रिकेट से लगाव

इसके बावजूद गांधीजी की ज़िंदगी में ऐसे तमाम क़िस्से मिलते हैं जिसमें वह खेलों में दिलचस्पी लेते दिखाई देते हैं। पोरबंदर और राजकोट में क्रिकेट उन दिनों भी बहुत लोकप्रिय खेल हुआ करता था। भारतीय क्रिकेट को पोरबंदर और राजकोट ने बहुत से खिलाड़ी दिए हैं। गांधीजी की क्रिकेट में रुचि पैदा हो गई। एक बार खेल में बॉल उनके हाथ में आई। उनका एक दोस्त था शेख़ महताब। उसने गांधीजी से कहा कि बॉलिंग करो। गांधीजी ने दौड़ लगाई और बॉल फेंकी। विकेट के तीनों डंडे उखड़कर दूर गिर गए और बल्लेबाज़ आउट हो गया। गांधीजी को लगा कि ये तो बहुत अच्छा काम है, इसको करना चाहिए। जब क्रिकेट का मैच होता था तो स्कूल की टीमें बनती थीं और दूसरे स्कूलों की टीमें भी आती थीं। सबकी कोशिश होती थी कि गांधीजी उनकी टीम में जाएं। वक्त के साथ गांधीजी क्रिकेट से बहुत दूर चले गए। दूसरे खेलों में भी उनकी दिलचस्पी धीरे-धीरे कम होती गई। आज़ादी की लड़ाई में, दक्षिण अफ्रीका के आंदोलनों में, इंग्लैंड की पढ़ाई के समय वे खेलों से दूर होते गए। लेकिन क्रिकेट से एक खेल के तौर पर उनका जो लगाव था वह क़ायम रहा। 1910-11 में बल्लू पालवंकर नाम के एक खिलाड़ी हुआ करते थे। वह दलित थे और बहुत अच्छे बॉलर थे। चूंकि गांधीजी ख़ुद बॉलर रहे थे इसलिए उन्हें ये समझ में आता था कि पालवंकर कमाल कर रहे हैं। इंग्लैंड के दौरे पर हिंदुस्तान की टीम गई तो पालवंकर ने कुल 23 मैचों की सिरीज़ में 114 विकेट लिए और सबसे कामयाब बॉलर रहे। 18 रन प्रति विकेट की उनकी औसत थी। लेकिन इस कामयाब खिलाड़ी को टीम का कप्तान नहीं बनाया गया क्योंकि वह दलित थे। गांधी को ये बात बिल्कुल नागवार गुज़री। टीम तो लौट आई लेकिन 1920 में नागपुर की एक जनसभा में गांधी ने बल्लू का उदाहरण देते हुए दलीलें पेश की कि दलितों का, हरिजनों का इस देश की मुख्य धारा में शामिल होना क्यों ज़रूरी है। बल्लू तो भारतीय टीम के कप्तान नहीं बन पाए लेकिन बाद में उनके छोटे भाई विट्ठल उस टीम के कप्तान बने। ये ज़रूर हुआ कि गांधीजी से अपनी निकटता महसूस करने वाले बल्लू बाद में आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए।

यह सिर्फ़ क्रिकेट का मसला नहीं था। यह समझना कि गांधीजी खेलों में रुचि नहीं रखते थे या क्रिकेट उन्होंने बचपन में खेला और छोड़ दिया, ऐसा भी नहीं था। 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' का नारा देने के बाद गांधीजी की गिरफ़्तारी हुई और उन्हें पूना के पास आग़ा खां पैलेस में रखा गया। आग़ा खां पैलेस में खेलने-कूदने की जगह थी, तमाम तरह की सहूलियतें थीं। गांधीजी को ये पसंद नहीं आता था। वह कहते थे कि आप जेल में हैं तो जेल की तरह ही रहें। इतने लवाज़मात, इतनी सारी चीज़ें लेकर अगर कोई जेल में बंद है तो हम हिंदुस्तान के लोगों के साथ अन्याय ही कर रहे हैं। ये कोई जेल में बंद होना नहीं है। लेकिन वक़्त काटना था और गांधी ने वहां बैडमिंटन खेलना शुरू किया। वह मनु गांधी और कस्तूरबा के साथ बैडमिंटन खेलते थे। वह जब कोई शॉट मारें तो शटल कॉक जाकर नेट में फंस जाए। यह बार-बार होता रहा तो गांधी को लगा कि यह ठीक नहीं है। फिर गांधीजी ने पिंगपॉन्ग की गोल बॉल मंगाई और उससे बैडमिंटन खेलना शुरू किया। जेल में उन्होंने कैरम भी खेला। गांधीजी की रुचियां इतनी विविध हैं, इतनी तरह की हैं कि आपको हैरान कर देती हैं। वह जिस इलाक़े में, जिस काम में दाख़िल होते थे, ऐसा लगता है कि वह उसे कर ही डालेंगे। क्रिकेट उनके बचपन का खेल था लेकिन ज़िंदगी में उन्होंने क्रिकेटरों के प्रति कभी कोई असम्मान जैसी कोई बात नहीं की। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ उनके दोस्त थे। वह क्रिकेट के ख़िलाफ़ तमाम चीज़ें कहा करते थे और गांधीजी उनसे जब भी मिले, हर बार बात हुई, तमाम मुद्दों पर बात हुई मगर क्रिकेट को छोड़कर।

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मनोज कुमार

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