1989
गांधी और गांधीवाद
मैं किसी भी रूप या आकार में अपने आपको संत अनुभव नहीं करता। लेकिन अनजाने में हुई भूलचूक के बावजूद मैं अपने आपको सत्य का पक्षधर अवश्य अनुभव करता हूं।-- महात्मा
गांधी
23. असत्य के विष को बाहर निकाला
प्रवेश
अहिंसा के मार्ग का पहला कदम यह है कि हम अपने दैनिक जीवन में परस्पर सच्चाई, विनम्रता, सहिष्णुता और प्रेममय दयालुता का व्यवहार करें। यदि मनुष्य में ... गर्व और अहंकार हो तो उसमें अहिंसा नहीं टिक सकती। विनम्रता के बिना अहिंसा असंभव है। जब-जब गांधीजी से कोई त्रुटि हुई, उन्होंने विनम्रता से उसे स्वीकार किया। गहनतम अन्धकार की स्थिति में किसी अदृष्ट शक्ति ने उनका मार्गदर्शन किया और उन्हें सही रास्ता दिखाया। शाकाहारी समिति की कार्यकारिणी में गांधीजी चुन तो लिए गए थे, लेकिन उसकी
बैठकों में उनका मुंह खुलता ही नहीं था। उन्हें सब सदस्य खुद से अधिक जानकार लगते थे।
शर्मीले स्वभाव के गांधीजी की पांच-सात लोगों के बीच भी बोलने में हिचकिचाहट होती
थी। गांधीजी हर चीज़ में कुछ-न-कुछ सकारात्मक खोज ही लेते हैं। अपने इस न बोल पाने
के बारे में कहते हैं, “एक
बड़ा फायदा तो यह हुआ कि मैं शब्दों का मितव्यय करना सीखा। मुझे अपने विचारों पर
काबू रखने की आदत सहज ही
पड़ गयी। मेरी जबान या कलम से बिना सोचे-विचारे या बिना तौले शायद ही कोई शब्द कभी निकलता है।”
वह मानते थे कि सत्य के प्रत्येक पुजारी के लिए मौन का सेवन इष्ट है।
विवाहित
होने की बात छिपाई
जब गांधीजी लन्दन में थे, तो विवाहित होने पर भी खुद को कुंवारा बताने का
रिवाज-सा पड़ गया था। उस समय स्कूल या कॉलेज में पढ़ने वाला कोई विद्यार्थी विवाहित नहीं होता था। भारत
के युवकों को यह स्वीकार करते हुए शर्म महसूस होती थी कि वह विवाहित हैं। विवाह की
बात छिपाने का एक कारण यह था कि अगर विवाह की बात सामने आ जाए, तो जिस परिवार में वह रहते हैं उसकी जवान लड़कियों
के साथ घूमने-फिरने और हंसी-मजाक
करने का मौका नहीं मिलता। गांधीजी भी इस फंदे में फँस ही गए। पाँच-छह साल से विवाहित
और एक लड़के का
बाप होते हुए भी उन्होंने अपने आपको कुंवारा बताने में संकोच नहीं किया! अपने
शर्मीले स्वभाव के प्रभाव को बताते हुए गांधीजी कहते हैं, “जब मैं बोल ही न पाता था, तो कौन लड़की बैठी थी जो मुझसे बात करती? मेरे साथ घूमने के लिए तो शायद ही कोई लड़की निकलती।”
जिस परिवार में गांधीजी रहते थे उसकी लड़की गांधीजी को बेंटनर के आसपास की सुन्दर
पहाड़ियों पर घूमने ले गयी। पहाड़ की चोटी पर जब वे पहुंचे, तो नीचे उतरते वक़्त वह लड़की बिजली की तरह उतर
गयी, जबकि गांधीजी को
काफी मशक्कत करनी पड़ी। उसने गांधीजी की काफी खिल्ली भी उडाई।
असत्य
के विष को बाहर निकाला
इसी तरह एक बार समुद्र के किनारे घूमने के लिए गांधीजी गए।
जिस होटल में वह खाने के लिए गए थे, उसमें उनके टेबुल पर बैठी एक वृद्ध महिला से उनका परिचय
हुआ। उसने गांधीजी को लन्दन का अपना पता दिया और हर रविवार को अपने घर भोजन के लिए आने का
न्योता। गांधीजी उसके यहाँ जाने लगे। जवान स्त्रियों से गांधीजी को मिलवाकर वह
उनके शर्मीलेपन को छुडाने का प्रयत्न करती। अपने घर की एक महिला से बातचीत के लिए
गांधीजी को प्रेरित करती। गांधीजी शादीशुदा थे, और यह स्थिति उस महिला के सामने स्पष्ट कर देने के
उद्देश्य से उन्होंने एक पत्र लिखा। उन्होंने अपनी शादी की बात उस पत्र में बताया।
उस महिला का जवाब आया और उसने गांधीजी की स्पष्टवादिता की तारीफ करते हुए कहा
हमारी मैत्री कायम रहेगी। अपनी आत्मकथा में गांधीजी लिखते हैं, “इस प्रकार मैंने अपने अन्दर घुसे हुए असत्य के विष
को बाहर निकाल दिया, और फिर तो अपने
विवाह की बात करने में मुझे कभी घबराहट नहीं हुई।”
सीमा
लांघने से बचे
अगला वाकया तब का है जब गांधीजी 20 साल के हो चुके थे। 1890 में पोर्टस्मथ में शाकाहारियों
का एक सम्मेलन हुआ था। उसमें गांधीजी ने भाग लिया। उन्हें और उनके एक मित्र को एक
महिला के घर ठहराया गया था। सभा ख़त्म होने के बाद रात को वे घर लौटे। भोजन के बाद
ताश खेलने बैठे। ताश खेलते हुए हंसी-मजाक भी चलता रहा। धीरे-धीरे विनोद अपनी
सीमाएं लांघने लगा। गांधीजी को इस विनोद में रस आने लगा। वे भी इसमें शामिल हो गए।
इसके पहले कि गांधीजी कोई लक्ष्मण रेखा लांघते, उनके एक भले साथी ने कहा, “अरे, तुम में यह कलियुग
कैसा! तुम्हारा यह काम
नहीं है। तुम यहाँ से भागो।” गांधीजी शरमाए, सावधान
हुए। दिल से मित्र का उपकार माना। माता के समक्ष की हुई प्रतिज्ञा याद करते हुए वहाँ से भागे। अपनी
कोठरी में पहुंचे। उस रात सो नहीं सके। सम्मेलन ख़त्म होते ही पोर्टस्मथ से विदा
हुए।
उपसंहार
गांधीजी ने यह समझा कि ईश्वर ने उन्हें बचा लिया है। उन्होंने अपने अनुभव के बारे में अपनी
आत्मकथा में लिखा है, “जब हम सारी उम्मीदें छोड़कर बैठ जाते हैं, तब कहीं-न-कहीं से मदद आ पहुँचती है। यदि हम
हृदय की निर्मलता को पा लें, उसके तारों को सुसंगठित रखें, तो उनमें से जो
सुर निकलते हैं वे गगनगामी होते हैं। मुझे इस विषय में कोई शंका नहीं हैं कि विकाररूपी
मलों की शुद्धि के लिए हार्दिक उपासना एक रामबाण औषधि है।” एक मनोविकार के भोगकाल में अन्य मनोविकार दबे रहते हैं। वे उचित आलंबन और उद्दीपन को पाने पर स्वयंमेव प्रकट हो जाते हैं। इस तरह कोई भी एक मनोविकार अनेक मनोविकारों का जनक बनता रहता है। जैसे वटवृक्ष एक छोटे से बीज से पैदा होता है, पर विकसित होने पर वह सबको आच्छादित कर लेता है। ठीक यही मनोविकार भी करता है। उसका पहला काम विवेक पर परदा डालना है, दूसरा काम अहम् की वृद्धि करना है। तीसरा काम व्यक्ति को असामाजिक कार्यों में लिप्त करना है। मनोविकारों का वेग इतना प्रबल होता है कि व्यक्ति उनसे पराभूत होकर असामाजिक कार्य संपादित करता है। अतएव व्यक्ति और समाज की शान्ति के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति उन पर नियंत्रण करना सीखे। अपने जीवन में गांधीजी बार-बार गिरे, उठे, अपमानित हुए, शारीरिक और मानसिक यातना के बीच गुजरे, फिर भी अपने मनोयोग से पीछे नहीं हटे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और
गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और
गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और
गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा
दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह -
विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर
और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के
जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को
चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय
राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल
विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े,
22. सादगी से जीवन अधिक सारमय
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