गांधी और गांधीवाद
समुद्र जल राशियों का समूह है। प्रत्येक बूंद का अपना अस्तित्व है तथापि वे अनेकता में एकता के द्योतक हैं। -- महात्मा गांधी
29. दक्षिण अफ्रीका
जाने का प्रस्ताव
1892-93
प्रवेश
1884 में जन्मे हरिलाल आठ साल के हो चुके थे। 28 अक्तूबर 1892 को कस्तूरबाई
ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया। मोहन दास दो बेटों के पिता बन गए। इस पुत्र का नाम
मणिलाल रखा गया। उन दिनों राजकोट का पोलीटिकल एजेण्ट गांधी जी से नाराज़ था। इसलिए रियासत
का संरक्षण पाने की रही-सही आशा भी जाती रही। ब्रिटिश पोलीटिकल एजेंट के द्वारा
किए गए अपमान का घूंट पीना ज़हर पीने के सामान था। उनका अधिकांश काम तो उसी की
अदालत में रहता था। अनुचित रीति से उस अधिकारी को रिझाना गांधी जी के आचरण में
नहीं था। इस परिप्रेक्ष्य में अच्छी आमदनी की रोशनी दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी। बड़ी-बड़ी
आशाएं लेकर इंग्लैंड से लौटने वाला युवक मोहन राजकोट की बंद गली में खस्ते-हाल और
कुंठित होकर बैठा था। किधर जाएं, क्या करें इसका उन्हें ज्ञान नहीं था। इस बीच
उन्हें काठियावाड़ के रियासती षड्यंत्रों का भी कुछ अनुभव हुआ। गांधी जी निराश रहने
लगे। ऐसे में ईश्वर की कृपा हुई और जिस अपमानजनक स्थिति में वे फंसे हुए थे उससे
बाहर निकलने का रास्ता मिला। उनके पास एक साल के लिए दक्षिण अफ्रीका में नौकरी का
प्रस्ताव आया।
दक्षिण
अफ़्रीका जाने का प्रस्ताव
दक्षिण अफ्रीका में काफ़ी संख्या में भारतीय, व्यापार में
अपनी जड़ें जमा चुके थे। इसके अलावा काफ़ी सारे लोगों को अनुबंधित मज़दूरों के रूप
में वहां लाया गया था। भाई लक्ष्मी दास के पास पोरबंदर की एक मेमन फर्म दादा
अब्दुल्लाह एंड कं. का संदेशा आया। काठियावाड़ में एक मुसलमान की फर्म थी जिसका
दक्षिण अफ़्रीका में भारी व्यापारिक कारोबार था। उसने ही गांधीजी को दक्षिण अफ़्रीका
जाने का प्रस्ताव रखा ताकि वे वहां जाकर एक बड़े मुकदमें में उनके सलाहकार का
मार्गदर्शन और उसकी सहायता करें। उन्हें इस बात का कोई डर नहीं था कि गांधीजी के
जैसा अनभिज्ञ और नौसिखुआ वकील उनका मुकदमा बिगाड़ देगा। उन्हें मालूम था कि
इस भारतीय वकील को कोई अदालत में जाकर उनका मुकदमा नहीं
लड़ना था। उसे तो उनके नियुक्त किए हुए दक्षिण
अफ्रीका के धुरंधर वकीलों को समझाने का काम
यानी दुभाषिये का काम ही करना था। दक्षिण अफ़्रीका की अदालत में इस व्यापारिक फर्म
का एक बड़ा मुकदमा कई सालों से लटका पड़ा था। यह चालीस हज़ार पौंड के दीवानी दावे का
काम था। उन्हें एक ऐसे वकील की तलाश थी जो दक्षिण अफ़्रीका में उनके काम की देख-रेख
कर सके और उनके मामले को उनके दक्षिण अफ़्रीकी वकील को अच्छी तरह से समझा सके। कंपनी के मालिक की इच्छा थी कि गांधीजी उनका मुक़दमा लड़ें क्योंकि
गांधी जी अच्छी तरह से अंगरेजी बोल सकते थे एवं उन्हें अंगरेजी क़ानून की भी अच्छी
जानकारी थी। इसके अतिरिक्त वे चाहते थे कि उनके फार्म के लिए अंगरेजी पत्राचार भी
गांधी जी ही करें।
अंधा क्या मांगे दो आंखें।
दक्षिण
अफ्रीका जाने का प्रस्ताव स्वीकार किया
दादा अब्दुल्ला के साझी सेठ अब्दुल करीम झावेरी ने गांधी
परिवार को बताया कि गांधीजी को ज़्यादा काम नहीं करना होगा। वहां गांधीजी को इस
मुकदमे में आगे की कार्रवाई के बारे में तथा फ़र्म के अंग्रेज़ी पत्र-व्यवहार व अन्य
मामले में मदद करनी थी। पोरबंदर के प्रवासी व्यापारी दादा अब्दुल्ला के फ़र्म के इस
दीवानी मुकदमे के सिलसिले में एक साल का इकरारनामा के साथ आने-जाने के फ़र्स्ट
क्लास के किराये और रहने-खाने के ख़र्च के अलावा 105 पौंड मिलने की बात थी। यह
कोई बढिया प्रस्ताव नहीं था। पारिश्रमिक भी अधिक नहीं थी। यह भी तय नहीं था कि वे
क़ानूनी सलाहकार की हैसियत से जा रहे थे या क्लर्क की। पर इतना तो तय था कि यह
बैरिस्टरी नहीं, नौकरी थी। बाद में उन्हें बताया गया कि उन्हें बैरिस्टर की हैसियत से
नहीं मात्र क़ानूनी सलाहकार की हैसियत से ले जाया जा रहा था जो वहां के बड़े वकील की
मदद करेगा। लेकिन गांधी जी उस समय की परिस्थिति से ऊबे हुए थे। आजीविका की
आवश्यकता तो थी ही, काठियावाड़ के उस समय विषाक्त सामाजिक वातावरण से भी गांधी जी
ऊब चुके थे, उस पर से अपमान करने वाले अंग्रेज़ अधिकारी की अदालत में वकालत न करने
की मंशा उन्होंने बना ली थी। ऊपर से गांधीजी के समक्ष उस समय नौकरी का और कोई
विकल्प भी मौजूद नहीं था। इन सब के कारण गांधी जी ने विदेश जाने का निश्चय कर
प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
परिवार
से विदा
बात कस्तूरबाई को बताई गई। बा ने भी अपने पति को एक वर्ष के
लिए दक्षिण अफ़्रीका जाने की हामी भर दी। दोनों पुत्र, हरिलाल और
मणिलाल, और पत्नी से बिछड़ना उन्हें अखर तो रहा था पर अफ्रीका के आकर्षण ने
वियोग को सह्य बना दिया। उन्होंने पत्नी से कहा, “एक साल के बाद तो हम फिर
मिलेंगे ही।” भारी मन से मोहन दास अपने परिवार से विदा लेकर पानी के जहाज
से दक्षिण अफ़्रीका के नेटाल रवाना होने के लिए मुम्बई पहुंचे। इस समय को अनुभव
करते हुए गांधी जी लिखते हैं, “वियोग का जो दुख विलायत जाते समय हुआ था, वैसा दक्षिण अफ़्रीका
जाते समय नहीं हुआ।”
गांधीजी को दादा अब्दुल्ला के बॉम्बे वाले एजेण्ट के जरिये टिकट खरीदनी थी। पर स्टीमर में कोई केबिन खाली नहीं थी। अगर यह मौक़ा हाथ से निकल जाता तो गांधीजी को एक महीने और रुकना पड़ता। एजेंट ने तो हाथ खड़े कर दिए थे। लेकिन वे इस बात के लिए तैयार न थे कि तीसरे दर्ज़े के यात्री की हैसियत से जहाज पर चढें। स्थानाभाव के कारण दादा अब्दुल्ला के एक एजेण्ट ने ऐसा प्रबंध किया कि गांधी जी जाएं तो डेक-यात्री बनकर, किन्तु नाश्ता और खाना वे ऊंचे दर्ज़े के यात्रियों के भोजनगृह में कर सकें। फर्स्ट क्लास में सफ़र करने वाले बैरिस्टर गांधीजी को डेक पर जाना मंजूर नहीं था। स्टीमर के बड़े अधिकारी से जाकर मिले। उसने कहा कि इस स्टीमर से मोजाम्बिक के गवर्नर-जनरल जा रहे हैं, इससे सारी जगहें भर गयी हैं। लेकिन उसने प्रस्ताव दिया कि उसके केबिन में एक जगह खाली वह गांधीजी को उसमें ले जा सकता है। उस अधिकारी का आभार मानते हुए गांधीजी ने टिकट कटवाया। एस.एस. सफारी से 19 अप्रैल, 1893 को यात्रा शुरू हुई। कप्तान के साथ शतरंज खेलते हुए यात्रा चालू रही। 13 दिनों के बाद लामू बंदरगाह आया। स्टीमर वहां तीन-चार घंटे ठहरा। लामू से मुम्बासा और वहाँ से जंजीबार पहुचाँ। स्टीमर को जंजीबार में आठ-दस दिन रुकना था। इसके बाद मोजाम्बिक होते हुए 23 मई 1893 को स्टीमर नेटाल पहुंचा।
दक्षिण
अफ़्रीका की धरती पर
नेटाल के बन्दरगाह को डरबन कहते हैं। अप्रैल में
गांधीजी डरबन के लिए चले थे, और 23 मई, 1893 को डरबन पहुंचे। मई का महीना था, लेकिन दक्षिणी गोलार्द्ध होने के कारण नटाल में जाड़ों का मौसम था। डरबन बंदरगाह पर
जब वह उतरे तो उनका उद्देश्य था मुकदमा जीतना, कुछ रुपया पैदा
करना और शायद आखिर में अपनी जीविका शुरू करना। उनके
मुवक्किल नेटाल के सबसे धनी व्यापारियों में से एक सेठ अब्दुल्ला ने बंदरगाह पर
उनका स्वागत किया। बंदरगाह पर के लोगों की बातचीत और व्यवहार से गांधीजी ने भांप
लिया की वहाँ के लोग हिन्दुस्तानियों की इज्ज़त नहीं करते थे। वे लोग भारतीयों के
प्रति बहुत ही असभ्यता दिखा रहे थे। गांधीजी उस समय 'फ्रोक कोट’ पहने
थे और सिर पर पगडी पहनी थी। अब्दुल्ला सेठ गांधीजी को अपने घर ले गये। गांधीजी की साहबी
रहन-सहन उन्हें खर्चीली लगी। डरबन में एक सप्ताह रुकने के बाद वह प्रिटोरिया चले
गए जहां उन्हें सेठ अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ना था। प्रतिवादी तैयब हाजी खान महमद प्रिटोरिया
में रहता था। मुक़द्दमा ट्रांसवाल में चल रह था। उस समय गांधीजी की उम्र 24 वर्ष थी।
दक्षिण अफ़्रीका की धरती पर पैर रखने वाले वह पहले भारतीय बैरिस्टर थे, और साथ ही
वे वहां बसे भारतीयों में सबसे अधिक शिक्षित भी। अब्दुल्ला सेठ बहुत कम पढ़े-लिखे
थे,
पर
उनके पास अनुभव का ज्ञान बहुत था। बातचीत करने लायक अंग्रेजी का ज्ञान उन्होंने
प्राप्त कर लिया था। हिन्दुस्तानी उनकी बहुत इज्जत करते थे। उनके साथ रहकर गांधीजी
को इस्लाम का काफी व्यवहारिक ज्ञान हो गया।
दक्षिण
अफ्रीका के विभिन्न भाग
दक्षिण अफ्रीका के विभिन्न भागों में से एक भाग जोहानिसबर्ग
है। सोने की खदानों के कारण उस शहर का काफी विकास हुआ और वह दक्षिण अफ्रीका के
सबसे सुन्दर शहरों में से एक है। उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में दो हुकूमतें हुआ
करती थीं, अंगरेजी और पुर्तगाली। पुर्तगाली भाग डेलागोआ बे कहा जाता था। वहाँ से
दक्षिण की ओर पहला ब्रिटिश उपिनवेश नेटाल है। उसका बन्दरगाह डरबन कहलाता है। डरबन
नेटाल का सबसे बड़ा शहर है। पीटर-मेरित्सबर्ग नेटाल की राजधानी है।
नेटाल को छोड़ कर आगे जाने पर ट्रांसवाल आता है।
सोने के उत्पादन में यह उपनिवेश सबसे अव्वल है। यहाँ हीरे भी मिलते हैं। ट्रांसवाल
की राजधानी प्रिटोरिया है। वह जोहानिसबर्ग से 36 मील दूर है। अधिक भीतरी प्रदेश में
औरेंज फ्री स्टेट का उपिनवेश आता है। उसकी राजधानी ब्ल्यूमफोंटीन है। केप कॉलोनी
दक्षिण अफ्रीका का सबसे बड़ा उपिनवेश है। उसकी राजधानी केप टाउन
है, यह केप कॉलोनी का
सबसे बड़ा बंदरगाह है।
ऐसा माना जाता है कि अमेरिका में जिस समय गुलामी का बोलबाला था, उस समय अमेरिका
से भागकर कुछ हबशी दक्षिण अफ्रीका में बस गये। वे लोग जूलू, स्वाज़ी, आदि नामों से
जाने जाते हैं। ये हबशी ही दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासी माने जाते हैं। लगभग 400 वर्ष पहले डच लोगों
ने जहाँ अपनी छावनी डाली, उसे केप कॉलोनी के नाम से जाना जाता है। धीरे-धीरे अंग्रेज
भी दक्षिण अफ्रीका आए। हब्शियों को वश में करने के लिए अंग्रेजों और डचों के हित
आपस में टकराए और दोनों के बीच युद्ध भी हुआ। प्रसिद्द बोअर-युद्ध 1899 से 1902 तक
चला। इन दोनों के बीच जब पहली मुठभेड़ हुई तब डचों में से बहुत से लोग दक्षिण अफ्रीका
के भीतरी प्रदेशों में चले गये, फलस्वरूप ट्रांसवाल और औरेंज फ्री स्टेट का जन्म
हुआ। ये ही डच लोग दक्षिण अफ्रीका में ‘बोअरʼ के नाम से
पुकारे जाने लगे। दक्षिण अफ्रीका उस समय ब्रिटिश साम्राज्य का एक डोमीनियन (अधिराज्य) था।
उपसंहार
गांधीजी तो केवल एक ही मुकदमे के लिए वहाँ गए थे। वहां जाने
की दृष्टि स्वार्थ और कुतूहल की थी, आमदनी का स्वार्थ
और नई जगह घूमने का कुतूहल। गांधीजी के लिए स्वार्थ की दृष्टि से दक्षिण अफ्रीका
का कोई महत्व नहीं था। जहाँ अपमान और तिरस्कार हो
वहाँ पैसे कमाने या मुसाफिरी करने का उन्हें जरा भी लोभ नहीं था, बल्कि ऐसा करना उन्हें बिलकुल
नापसंद था। धर्मसंकट के बीच गांधीजी ने मुसीबतें सह कर भी हाथ में लिया हुआ काम
पूरा करने की सोची। तब 24 वर्ष के गांधीजी को इस बात का भी कोई अंदाज़ा नहीं था कि अफ्रीका
में रह कर उनका जीवन ही बदल जाने वाला था। दक्षिण अफ़्रीका में जन-सेवा और
आत्म-विकास के जो अपूर्व अवसर मिलने वाले थे, उनकी तो गांधी जी ने
सपने में भी कल्पना नहीं की थी। और उस घमंडी अंग्रेज़ अफसर को ही कहां पता था कि
एक युवक बैरिस्टर को अपने ऑफिस से धकियाकर उसने अनजाने ही ब्रिटिश साम्राज्य का कितना
बडा अहित कर डाला था! नियति गांधीजी को एक
नई राह पर ले जाना चाह रही थी, कि जब वे वहां से भारत लौटेंगे तो एक राष्ट्र नायक के रूप में
लौटेंगे। एक महात्मा के रूप में लौटेंगे। 1894 से 1914 की 21 वर्षों की उनकी
कर्म साधना के बारे में रोमां रोलां का कहना है, “उनकी यह कर्म
साधना आत्मा का एक महाकाव्य है, जो इस युग में अतुलनीय है – केवल अविचलित आत्मत्याग
की अपनी शक्ति के कारण नहीं, अपनी अंतिम विजय के कारण भी।”
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े,
22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद
पूरी शृंखला पढ़ूँगा एक साथ । आगे और लिखिए सर ।
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