गांधी और गांधीवाद
मैं स्वयं को एक साधारण व्यक्ति मानता हूं जिससे अन्य मनुष्यों की ही तरह ग़लतियां हो सकती हैं। हां, मेरे अंदर इतनी विनम्रता जरूर है कि मैं अपनी ग़लतियों को स्वीकार कर सकूं और उनका सुधार कर सकूं। मैं-- महात्मा गांधी
1885
18. गांधीजी के पिता की मृत्यु
16 नवम्बर 1885 को मोहन के पिता की मृत्यु हो गई। गांधीजी तब 16 साल के थे। मोहन इस घटना का वर्णन विस्तार से करते हैं। फिस्टुला
(भगंदर) से
पीड़ित
उनके पिता बिस्तर
पर
पड़े
थे।
गांधीजी नियमित रूप से अपने पिता के
घाव
पर
पट्टी
बाँधने, पिता
को
दवा
देने
और
जब
भी
घर पर दवाएँ बनानी होती थीं, तो उन्हें मिलाने का काम किया करते थे। हर
रात वह अपने पिता के पैरों की मालिश किया करते थे और जब पिता
सो जाते थे, तभी गांधीजी सोने जाते थे। पिता
की हालत दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही थी। डॉक्टर ने ऑपरेशन की सलाह दी थी। लेकिन
भगवान को कुछ और ही मंजूर था। चिकित्सक
ने ऑपरेशन की अनुमति नहीं दी।
आखिर वह मनहूस घड़ी आ ही गई। गांधीजी रोगी पिता की
मालिश कर रहे थे, लेकिन उनका ध्यान पत्नी कस्तूरबाई के पास भटक रहा था जो संभवतया
बिस्तर में लेटी उनके आने का इंतज़ार कर रही थीं। पिता के
पैरों
की
मालिश
करने
में
व्यस्त
गांधीजी का मन
शयनकक्ष
में
भटकता
रहता
और
वह
भी
ऐसे
समय
में
जब
कस्तूरबाई
गर्भवती
थीं।
गांधीजी के चाचा
उस
समय
राजकोट में थे। चाचा अपने बीमार भाई को देखने आए थे। चाचा पूरे दिन गांधीजी के
पिता के बिस्तर के पास बैठते थे और रात में उनके
बिस्तर के पास ही सोते थे। चाचा
ने मालिश कर रहे
गांधीजी को राहत देने की पेशकश
की। जब चाचा ने उनकी जगह लेने की बात कही, तो उनका मन खुशियों
से उछलने लगा। वह सीधे अपने शयन कक्ष की ओर भागे। पत्नी गहरी नींद में थी। उसे
जगाया। कुछ ही देर बाद दरवाज़े पर दस्तक हुई। आगन्तुक ने कहा, “पिताजी नहीं रहे!”
गांधीजी को
बहुत
शर्म
और
दुख
महसूस हुआ। वह अपने पिता के कमरे की ओर
भागे। पिता का पार्थिव शरीर सामने था। गांधीजी के मन में आया अगर पशुवत वासना ने मुझे अंधा न कर
दिया होता, तो मैं अपने पिता
से उनके अंतिम क्षणों में अलग होने की यातना से बच जाता। मैं उनकी मालिश कर रहा
होता, और वे मेरी बाहों में मर जाते। लेकिन अब यह सौभाग्य मेरे चाचा
को मिला था। यह एक ऐसा दाग था
जिसे वह कभी मिटा नहीं पाए। पिता के मरने की नाज़ुक घड़ी में काम-वासना से ग्रस्त होने की शर्मिन्दगी एक ऐसा
कलंक थी जिसे मोहन कभी भुला नहीं सके। गांधीजी
इसे दोहरी शर्म की बात मानते थे। एक तो उन्होंने खुद को संयमित नहीं किया, जैसा कि उन्हें करना चाहिए था, और
दूसरी बात, इस शारीरिक वासना
ने उन्हें उस कर्तव्य पर विजय प्राप्त कर ली जिसे वे अपना सबसे बड़ा कर्तव्य मानते
थे, अपने माता-पिता की सेवा। इस घटना के बाद गांधीजी को अपने व्यवहार
पर बहुत पछतावा हुआ। उनके पहले बच्चे का निधन जन्म के कुछ ही समय बाद हो गया, तो गांधीजी ने इसे अपने पाप के लिए
ईश्वर का दंड माना था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और
गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और
गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और
गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा
दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह -
विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर
और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के
जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को
चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय
राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल
विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना
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