गांधी और गांधीवाद
हमारा जीवन सत्य का एक लंबा अनुसंधान है और इसकी पूर्णता के लिए आत्मा की शांति आवश्यक है। -- महात्मा गांधी
28. अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद
1892
प्रवेश
जब गांधीजी
ने सांसारिकता में कदम रखा तो उन्होंने अपने आप से यह प्रश्न किया कि मुझे अनैतिकता, असत्य और तथाकथित राजनीतिक लाभ से पूर्णतया मुक्त रहने के लिए क्या करना चाहिए। शुरू में, यह एक कठिन संघर्ष था। क़ानून के व्यवसाय के लिए रिश्वत देने, रसूख का इस्तेमाल करने, साजिश और
घटिया राजनीति की आदत से गांधीजी
को घृणा थी। वह धंधा उन्हें अनीतिपूर्ण
लगता था। इसीलिए मौक़ा मिलते ही वह सबकुछ छोड़-छाड़कर चल पड़ने के लिए तैयार बैठे थे। यहां तक कि जब वे वकालत
करते थे, तब भी, इच्छानुसार किसी मुकदमे से हाथ खींच लेने का अपना अधिकार वे नहीं छोड़ते
ते। खासतौर से तब जब उन्हें यह पता होता था कि उन्हें अन्याय का पक्ष लेना है। कुछ समय बाद उन्होंने इस धंधे
को छोड दिया।
राजकोट में वकालत
मुंबई में
छह महीने तक अपनी क़िस्मत से
लड़ने की कोशिशें करने के बाद निराश होकर क़ानून
की प्रैक्टिस करने के लिए गांधीजी अपने घर राजकोट चले आए। वहां अपने जीविकोपार्जन के लिए दूसरे वकीलों के अर्ज़ी
दावे लिखने लगे। इससे इतनी आमदनी होने लगी कि
उनका अच्छी तरह गुज़ारा हो सके। हर महीने औसतन रू. 300 की आमदनी होने लगी। फिरभी उनके जीवन का यह कोई सुखी काल नहीं था। बड़े भाई के साथ काम करने वाले वकील की वकालत जमी हई थी। उनके
पास जो बहुत महत्त्व के अर्जी-दावे आते अथवा जिन्हें वे महत्त्व का मानते, उनका काम तो
बड़े बैरिस्टर के पास ही जाता था। उनके गरीब मुवक्किलों के अर्जी-दावे लिखने का काम गांधीजी
को मिलता था। यह काम ज्योंही जमने लगा
था कि एक नई मुसीबत ने आ घेरा। अंग्रेज
अधिकारी कैसे होते हैं, इसे वह कानों से तो सुनते रहे थे, पर आँखों से देखने का
मौका अब मिला।
अपमान का घूँट
इसी समय एक ऐसी घटना हुई जो काफी महत्वपूर्ण साबित हुई। उनके बड़े भाई, लक्ष्मी दास, पोरबंदर के राजा (राणा) के मंत्री और सलाहकार के रूप में काम करते थे। उन पर आरोप था कि उन्होंने राणा साहब को ग़लत सलाह दी थी। ऐसा आरोप था कि राणा ने राज्य के खजाने से कुछ जेवरात निकाल लिए थे। ऐसा माना जा रहा था कि राणा ने यह काम लक्ष्मी दास की सलाह पर किया था। राणा को ग़लत सलाह देने की तोहमत के साथ यह शिकायत उस समय के पोलिटिकल एजेंट चार्ल्स ओलीवेंट से कर दी गई थी। बड़े भाई, लक्ष्मी दास ने गांधीजी को राजकोट स्थित ब्रिटिश अधिकारी चार्ल्स ओलीवेंट के साथ मध्यस्थता करने हेतु कहा, ताकि यह काम आसानी से हो सके। लक्ष्मी दास को मालूम था कि अपने लंदन प्रवास के समय से ही गांधीजी की इस अधिकारी से जान पहचान ही नहीं अच्छी दोस्ती थी। उससे मिलकर मामला संभालने के लिए बड़े भाई ने आग्रह किया। गांधी जी को यह बात नहीं जंची। उनका मानना था कि यदि लक्ष्मी दास ने बुरा काम किया है तो सिफ़ारिश से क्या होगा? और अगर वह निर्दोष हैं तो उन्हें प्रार्थना पत्र दे कर अपनी निर्दोषिता साबित करनी चाहिए। बड़े भाई को गांधी जी का यह तर्क नहीं जंचा। उन्होंने गांधी जी को कहा, “तुम्हें अभी दुनियादारी सीखनी है।” गांधी जी भाई की इच्छा नहीं टाल सके।
जब गांधीजी इस अंग्रेज़ अधिकारी
से मिले तो वह गांधीजी की दखलंदाजी से बहुत ज़्यादा नाराज़ हो गया। उसने न सिर्फ़ मदद
करने से इंकार कर दिया बल्कि गांधी जी की बात सुनने तक को भी राज़ी नहीं हुआ। उसने
यहां तक कहा कि तुम पहले के परिचय का लाभ उठाने के लिए यहां आए हो। गांधी जी ने
कहा कि वह उनकी बात तो सुने, तब उस अधिकारी ने कहा कि उनका भाई प्रपंची है और वह कुछ सुनना नहीं
चाहता। जब गांधीजी अपनी बात कहने पर अड़ गए तो उसने अपने चपरासी को आदेश दिया कि
गांधीजी को उसके कमरे से धक्के मार कर बाहर कर दे। चपरासी ने गांधी जी को धक्के
देकर दरवाज़े के बाहर कर दिया। इस घटना से गांधीजी को गहरा आघात हुआ।
गांधीजी ने तुरंत एक पत्र
लिखा, “आपने मेरा अपमान किया है। चपरासी के ज़रिए मुझ पर हमला किया है। आप माफी नहीं माँगेंगे, तो मैं आप पर मानहानि का विधिवत दावा करूंगा।” गांधीजी ने वह चिट्ठी भेज दी। थोड़ी देर में उस अधिकारी का जवाब आ गया। उसने लिखा था: “तमने मेरे साथ असभ्यता का व्यवहार किया।
जाने के लिए कहने पर भी तुम नहीं गये, इससे मैंने ज़रूर अपने चपरासी को तुम्हें दरवाजा दिखाने के लिए कहा।
चपरासी के कहने पर भी तुम दफ्तर से बाहर नहीं गये, तब उसने तुम्हें दफ्तर से बाहर कर देने के लिए आवश्यक बल का उपयोग किया। तुम्हें जो
करना हो सो करने के लिए तुम स्वतंत्र हो।”
निराश गांधीजी घर लौटे और भाई
को सारी बात बताई। तय यह हुआ कि उस अधिकारी पर मान हानि का दावा किया जाए। इस काम
के लिए फ़ीरोज़शाह मेहता से सम्पर्क किया गया। फ़ीरोज़शाह मेहता ने समझाया, “तुम अभी
नए हो। विलायत की खुमारी तुम पर छाई हुई है। ऐसे अनुभव तो वकील को होते रहते हैं।
मामला चलाने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। इस तरह का मुकदमा तो तुमको खुद ही तबाह कर देगा।
अगर वह कुछ सीखना चाहता है, तो तुम्हें इस अपमान को पी जाना चाहिए।”
उपसंहार
उन दिनों ब्रिटिश हुकूमतों का
बोलबाला था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म तो हो चुका था, फिर भी राष्ट्रीय जागरण अभी हुआ नहीं
था। अंग्रेज़ अफ़सरों के गुस्सों से नौजवानों का प्रायः सामना होता रहता था। यह घटना
गांधी जी के लिए विष के समान थी। पोलिटिकल एजेंट से झगड़ा हो गया था। उसी की कचहरी में
उनका ज़्यादातर काम रहता था। यह सब उन्हें ज़हर पीने के समान लगा। लेकिन बड़ों की
सलाह मानकर उन्होंने इस कड़वे घूंट को पिया। इस आघात ने उनके जीवन की दशा बदल दी। उन्होंने भविष्य में कभी भी किसी की सिफ़ारिश न
करने की क़सम खाई। जो भी हो इस घटना ने उनकी जीवन धारा ही बदल दी। इस घटना ने
उन्हें अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद चखा दिया साथ ही उन्हें अंग्रेजों को भारत
से खदेड़ने की प्रेरणा मिली। दक्षिण अफ्रीका में इसी तरह की एक और घटना ने उन्हें
सबक सिखाया जब मार्टिज़बर्ग स्टेशन पर ब्रिटिश रेल अधिकारी द्वारा उन्हें घोर
अपमान का सामना करना पड़ा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े,
22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत
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