सोमवार, 29 जुलाई 2024

27. आजीविका के लिए वकालत

 

गांधी और गांधीवाद

 

निर्मल चरित्र एवं आत्मिक पवित्रता वाला व्यक्तित्व सहजता से लोगों का विश्वास अर्जित करता है और स्वतः अपने आस पास के वातावरण को शुद्ध कर देता है।-- महात्मा गांधी

 

27. आजीविका के लिए वकालत

1891

प्रवेश

1891 में गांधी जी विलायत से भारत लौटे। उसी समय कुछ महान लोगों ने उन्हें भविष्य की झलक जगा दी। उनमें से एक थे दादा भाई नौरोजी। दादा भाई राष्ट्रीयता के प्रवर्तक थे। गांधी जी ने जन-जीवन में अहिंसा के क्रियात्मक व्यवहार की प्राथमिक शिक्षा उन्हीं से पाई। वह शिक्षा थी वीरतापूर्ण सहनशीलता की। आवेशदीप्त चित्त का वह प्रयास था पाप के प्रतिरोध का – वह भी पाप से नहीं, प्रेम से! वापसी उनकी विषाद से भरी थी। कुछ समय पहले ही मां की मृत्यु हो चुकी थी। यह खबर उन्हें जान-बूझ कर नहीं दी गई थी, ताकि माता को खोने का आघात हलका हो। जाति से बहिष्कृत गांधी जी ने उसमें प्रवेश करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। न ही किसी जाति के किसी मुखिया के प्रति कोई रोष मन में रखा। जाति के कुछ सगे-संबंधी उन्हें छिपे तौर पर खिलाने-पिलाने को तैयार भी थे, पर जो काम खुले तौर पर न किया जा सके, उसे छिपकर करने के लिए उनका मन तैयार नहीं हुआ।

जाति से बहिष्कृत और शुद्धिकरण

राजकोट में परिवार से मिलने के पहले गांधीजी के भाई उनको नासिक ले गए। विलायत यात्रा के दंड-स्वरूप उन्हें वणिक जाति से बहिष्कृत कर दिया गया था। गांधीजी को गोदावरी के पवित्र जल में शुद्धि-स्नान के लिए नासिक जाना पड़ा। राजकोट पहुँचने पर जाति भोज दिया गया। इस क्रिया से जाति के सिर्फ एक वर्ग का समाधान हुआ। दूसरे वर्ग ने जो रोक लगा रखी थी उसे उठाने के लिए गांधीजी ने साफ इंकार कर दिया। इसे उन्होंने अत्याचार कहा। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और बहिष्कार को मंजूर कर लिया। उन्होंने जाति के किसी मुखिया के प्रति मन में कोई रोष रखा। जाति के बहिष्कार सम्बन्धी क़ानून का वह पूरी तरह से आदर करते थे। अपने सास-ससुर के घर अथवा अपनी बहन के घर में पानी तक नहीं पीते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि समय के साथ जातिवालों का विरोध कम हो गया। जो प्रबल विरोधी थी बाद में उनके कई राजनैतिक सामाजिक कार्यक्रमों के प्रबल समर्थक हो गए। राजकोट जाने के बाद बिरादरी के बुजुर्गों को मनाने के लिए एक भोज भी देना पड़ा।

आजीविका के लिए वकालत

घरवालों को गांधीजी से बहुत उम्मीदें थीं। उनकी शिक्षा पर घर बहुत सारा धन व्यय किया गया था। लोग उनसे धन, यश और नाम तीनों की आस लगाए बैठे थे। वे मित्रमंडली के सहयोग से गांधीजी को मुक़दमे में लाना चाहते थे। 11 जून, 1891 को युवा बैरिस्टर ने बंबई उच्च न्यायालय में पंजीकरण कराया। लेकिन बैरिस्टरी कोई जादू नहीं था कि हाथ घुमाया और सोना बरसने लगे।

मित्रों की सलाह हुई कि उन्हें कुछ समय के लिए मुम्बई जाकर हाईकोर्ट में वकालत का अनुभव प्राप्त करना चाहिए। साथ ही उन्हें हिन्दुस्तान के क़ानून का अध्ययन करना चाहिए। वे मुम्बई चले आए। मुम्बई के हाई कोर्ट में उन्होंने वकालत शुरु की। बैरिस्टर की औपचारिक योग्यता के अलावा गांधीजी का भारतीय क़ानूनों का ज्ञान लगभग नहीं के बराबर था। इसलिए वे भारतीय क़ानून के अध्ययन में जुट गए। कुछ ही दिनों में वह ‘साक्ष्य अधिनियम’ को छान डाला। मेइन के ‘हिन्दू लॉ’ का मनन कर डाला, ‘दीवानी प्रक्रिया संहिता’ में पारंगत हो गए। क़ानून की उनकी समझ तो बढ़ी लेकिन आमदनी नहीं। दलालों को कमीशन देकर मुकदमा पाना गांधीजी अपमानजनक समझते थे। ख़ुद से मुकदमे आने से रहे। लंबे इंतज़ार के बाद ममीबाई नामक एक ग़रीब औरत का मुकदमा उन्हें मिला।

पहला मुकदमा

ममीबाई का केस लड़ने के लिए उन्होंने तीस रुपए फीस ली। वह पहली बार स्मॉल कॉज कोर्ट में प्रवेश किए। वे प्रतिवादी की तरफ़ से थे। इसलिए उन्हें जिरह करनी थी। लेकिन जब गवाह से जिरह करने का समय आया तो उनकी जन्मजात घबराहट उनके आड़े आ गई। उनकी धिग्गी बंध गई। बुरी तरह घबरा गए। मुंह से बोल न निकला। हाथ-पांव कांपने लगे। सिर चकराने लगा। कुर्सी थाम कर किसी तरह अपने को गिरने से बचाया। वे बैठ गए और उन्होंने अपने मुवक्किल के प्रतिनिधि से कहा कि यह मुकदमा उनके वश का नहीं है। वे किसी दूसरे को कर लें। मुवक्किल के फीस के पैसे लौटा दिए। मन घोर निराशा से भर गया। अपना भविष्य उन्हें अंधकारमय दिखने लगा। भारत में बैरिस्टर के रूप में पहली और आखिरी पेशी थी!

अब वे अर्ज़ी-दावे लिखने का काम करने लगे। पर इस शर्माने वाले बैरिस्टर के लिए मुम्बई की महंगाई और जीवन-स्तर बूते के बाहर की बात थी।

मास्टरी का आवेदन

बंबई के एक हाई स्कूल में, इंग्लैंड से बैरिस्टरी की परीक्षा पास कर आया व्यक्ति, पचहत्तर रुपए मासिक पर कुछ घंटों के लिए मास्टरी के लिए आवेदन भेज दिया। गांधीजी को उम्मीद थी कि वह लंदन से मैट्रिक्यूलेशन पास थे और लैटिन उनकी दूसरी ज़बान थी, इसलिए यह काम उन्हें मिल जाएगा। लेकिन स्कूल किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय का स्नातक चाहता था। इसलिए गांधीजी को स्कूल के शिक्षक की नौकरी नहीं मिली।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां

गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी तौर-तरीक़े, 22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी

 

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