गांधी और गांधीवाद
115. गांधीजी के विदेशी सहयोगी-2. मिस
सोंजा श्लेसिन
मोहनदास गांधी और हरमन कालेनबैक
के साथ मिस सोंजा श्लेसिन
सन 1903 में गांधीजी की पहली
स्टेनोग्राफर मिस डिक के चले जाने के बाद उनके साथ शॉर्टहैंड और टाइपिंग का काम
करने वाला कोई नहीं था, इसलिए दफ़्तर की व्यवस्था फिर गड़बड़ा गई। पत्रों का
अम्बार एक बार फिर से लगने लगा। गांधीजी के अभिन्न यूरोपीय मित्र थे हरमन कालेनबैक
(Hermann Kallenbach)। तगड़ी कद-काठी और चपटे
सिर वाले हरमन एक वास्तुकार थे। उनका जन्म पोलैंड में हुआ था और परवरिश जर्मनी में
हुई थी। काफ़ी कम उम्र में ही वे
दक्षिण अफ़्रीका आ गए थे। यहां पर वे कई धनी-मानी लोगों का घर डिजाइन कर चुके थे। जोहानिस्बर्ग
से थोड़ी दूर पर स्थित उनका खुद का मकान भव्यता और सुन्दरता का एक बेहद खूबसूरत
नमूना था। वे अविवाहित थे और उनके पास खर्च करने के लिए समय और पैसों की कोई कमी
नहीं थी।
एक दिन
हरमन कालेनबैक सतरह साल की प्रसन्नचित्त एक छोटी मोटी युवती जिसने बुरी तरह से कटी हुई पोशाकें पहन रखी थीं, को लेकर गांधीजी के पास
आए। कालेनबैक उस युवती के चाचा के परिचित थे। वे जर्मनी के उसी शहर के निवासी थे, जहां के कालेनबैक थे। वह युवती अपनी मां के कहने पर
कालेनबैक के अभिभावकत्व में आई थी। उसका नाम था मिस सोंजा श्लेसिन (Sonja Schlesin)। 6 जून 1888 को मास्को, रूस में जन्मी, रूसी-यहूदी मूल की यह लड़की एक दक्षिण अफ़्रीकी हाईस्कूल
में शिक्षिका का काम करती थी। उसके पिता का नाम इसिडोर श्लेसिन (Isidor Schlesin) और माता का नाम हेलेना डोरोथी (Helena Dorothy) था। श्लेसिन परिवार जून 1892 में मास्को से दक्षिण
अफ़्रीका के केप ऑफ गुडहोप आकर बस गया था।
सोंजा
श्लेसिन ने 1903 में केप ऑफ गुडहोप के
विश्वविद्यालय से मैट्रिक पास किया था और शॉर्टहैंड और टाइपिंग का काम जानती थी।
कालेनबैक जब सोंजा को गांधीजी के पास लाए तो उन्होंने कहा था, “वह समझदार और ईमानदार है, लेकिन बहुत शरारती और घमंडी है। शायद अहंकारी भी। अगर
उसे संभाल सकते हों तो रखिए।”
वह
स्पष्टवादी, मनमौजी, मजाकिया स्वभाव की और रंगभेद के विचार से कोसों दूर
थी। वह नौकरी करने के विचार से नहीं, अनुभव प्राप्त करने के उद्देश्य से वहां गई थी, लेकिन अपनी मर्ज़ी से वहीं ठहर गई। वह काफ़ी सुलझी हुई महिला थी और किसी का अपमान करने
से नहीं डरती थी। वह लोगों पर धौंस जमाती और उसके मन में जिसके बारे में जो विचार
आते उसे उनके मुंह पर कहने से बिल्कुल भी नहीं झिझकती। वह अपनी मर्ज़ी की मालकिन
थी और खुद को सही मानने वाली प्रवृत्ति की नटखट बाला थी। उसके इस शरारती स्वभाव के
कारण गांधीजी कभी-कभी परेशानी में भी पड़ जाते थे। लेकिन वह बहुत ही सरल और शुद्ध
स्वभाव की थी। उसका निष्कपट स्वभाव इतना आकर्षक था कि उसकी हज़ारों शैतानियां
क्षम्य थीं।
उसकी
कार्य-क्षमता पर तो संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अपना सारा काम वह समय पर
संपन्न कर देती थी। यही नहीं, काम समय पर और सही ढंग से
पूरा हो, इसमें वह किसी तरह की
कोताही बर्दाश्त नहीं करती थी। रोज़ साढ़े सात बजे गांधीजी
छह मील की साइकिल सवारी कर अपने घर से जोहानिस्बर्ग शहर के मध्य अपने दफ़्तर
पहुंचते थे। सुबह का अख़बार पढ़कर वे सोंजा को साढ़े दस बजे तक डिक्टेशन दिया करते
थे। उसके अंग्रेज़ी-ज्ञान से गांधीजी काफ़ी प्रभावित थे और उन्होंने स्वीकार किया
कि उसका अंग्रेज़ी-ज्ञान उनसे अधिक है। इस कारण उसके द्वारा टाइप किए बहुत से पत्रों को दुबारा
जांच किए बिना ही, वे हस्ताक्षर कर दिया करते
थे। गांधीजी को विश्वास था कि
सोंजा श्लेसिन उनके विचार एवं जीवन-दर्शन को अच्छी तरह समझती है, सो उसके मसौदे में बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं होगी।
समय के साथ, गांधीजी के दर्शन और विचारों को उसने पूर्णतः आत्मसात
कर लिया था। गांधीजी भी उसकी त्यागवृत्ति से काफ़ी प्रभावित थे। काफ़ी अरसे तक
उसने सिर्फ़ छह पौंड प्रति माह पर काम किया। जब तक वह गांधीजी के साथ रही, उसने दस पौंड से अधिक वेतन कभी नहीं लिया। जब भी कभी गांधीजी उसे अधिक तनख़्वाह लेने को कहते, उसका जवाब होता, “मैं वेतन के लिए यहां काम नहीं कर रही। मुझे आपके साथ यह
काम करना अच्छा लगता है और आपके आदर्श मुझे पसंद हैं, इसलिए मैं यहां टिकी हूं।” उसने गांधीजी से साफ़-साफ़ कह दिया था, “मुझे अधिक की आवश्यकता नहीं है और यदि मैंने आवश्यकता
से अधिक लिया, तो वह उस सिद्धांत के साथ
छल होगा, जिसने मुझे आपकी ओर आकृष्ट
किया है।” उनका आदर्श था शोषितों की सेवा करना और खुद से बड़े उद्देश्य के लिए खुद को
समर्पित करना। इसमें वह सफल रहीं और उनकी योग्यता पर कभी कोई संदेह नहीं हुआ। एक बार ज़रूरत पड़ने पर
उसने गांधीजी से 40 पौंड लिए थे, लेकिन उधार। 1920 में गांधीजी के भारत लौट जाने के बाद वे चालीस पौंड, श्लेसिन ने मनी-ऑर्डर से उन्हें भेज दिए थे।
सोंजा
के बाल लड़कों की तरह छोटे-छोटे थे। वह ऐनक लगाती थी। काला स्कर्ट और सफेद शर्ट
पहना करती थी। वह नेक टाई भी बांधती थी। वह छोटे कद और भारी बदन की थी। उम्र से
बड़ी दिखती थी पर उसमें बचपना भरा था। उसकी नटखट हरकतों से कालेनबैक चिढ़ते थे और गांधीजी परेशान
हो उठते थे। उसके नटखटपन की एक कथा श्रीमती सुमित्रा गांधी कुलकर्णी (गांधीजी की
पोती और श्री रामदास गांधी की पुत्री) ने अपनी पुस्तक में लिखी है। गांधीजी को
सिगरेट पीने से सख्त नफ़रत थी। सोंजा श्लेसिन भी सिगरेट नहीं पीती थी। लेकिन गांधीजी
को चिढ़ाने के इरादे से उसने एक दिन दफ़्तर में सिगरेट सुलगा ली। इतना ही नहीं
उसने सिगरेट का धुआं गांधीजी की तरफ़ छोड़ दिया। गांधीजी क्रोधित हुए। उन्होंने
श्लेसिन को दो तमाचे जड़ दिए। मज़ाक़ की भी एक सीमा होती है। सोंजा ने तो आज हद ही
पार कर दी थी। दफ़्तर के सभी सदस्यों के सामने सोंजा को सज़ा मिली थी। लेकिन सोंजा
ने इसका बुरा नहीं माना। न ही गांधीजी के प्रति उसके आदर भाव में कोई कमी आई। उस अवसर को याद करते हुए गांधीजी कहते हैं, “पहली बार मेरे सामने रोई और मुझसे माफ़ी मांगी और बाद
में मुझे लिखा कि भविष्य में वह ऐसा कभी नहीं करेगी।”
गांधीजी
के जीवनीकार रोबर्ट पेन ने सौन्जा को अराजकतावादी कहा। उनके अनुसार सोंजा श्लेसिन
हुक्म चलाने के लिए बनी स्त्रियों में से थीं और गांधीजी स्वेच्छा से उसके शिकार
बने। उन्होंने सोंजा को टेढ़ी, उतावली, घोर दुराग्रही, मर्दाना, दुस्साहसी और बेवकूफ़ आदि विशेषणों
से नवाजा है। पेन यह भी बताते हैं कि
उसे सताए गए लोगों की सेवा करने से संतुष्टि मिलती थी। भारतीय समुदाय की सहायता के
लिए मिली पोलाक (हेनरी पोलाक की पत्नी) ने जब 1909 में ट्रांसवाल इंडियन विमेन्स एसोसिएशन की स्थापना की
तो सोंजा श्लेसिन को उसका सचिव बनाया गया। उसने इस काम को भी बहुत ही कुशलता
पूर्वक निभाया।
सोंजा
श्लेसिन फौलादी संकल्प वाली, काफ़ी हिम्मती और निर्भीक लड़की थी। वह काम और धुन की
पक्की थी। दिन-रात की परवाह किए बगैर वह अपना काम पूरा किया करती थी। आधी को रात
को भी कहीं जाना होता, तो वह अकेली ही चली जाती।
जंगल की राह और फिनिक्स जैसे जीव-जंतु से भरे स्थान में भी वह किसी का साथ न
मांगती और कभी यदि गांधीजी किसी को साथ ले जाने को कहते तो वह मना कर देती। अपनी
जिम्मेदारी वह भली-भांति समझती थी। एक
बार जब गांधीजी और उनके अधिकतर सहयोगी जेल में थे, तब उसने, लगभग अकेले ही
सत्याग्रह-आंदोलन चलाया था।
अपनी उम्र के बावजूद सोंजा
श्लेसन गांधीजी की एक ऐसी सहकर्मी बन गईं जिन पर उन्हें धन और प्रमुख कार्यों के
लिए भरोसा था। वह लाखों पौंड का हिसाब-किताब रखती और गांधीजी का सारा
पत्र-व्यवहार करती थी। तेरह वर्ष के देवदास गांधी के साथ उसने ‘इंडियन ओपिनियन’ का सारा काम सम्भाला हुआ था। कई बार सत्याग्रह के ताजा
समाचार देर रात को पहुंचते। तब तक साप्ताहिक का मैटेरियल सेट होकर मशीन पर चढ़ा
होता था। लेकिन श्लेसिन उस बने-बनाए सेट को उतारती, ताजा समाचार को सेट में बैठाती और सुबह से पहले उसे छापकर
आतुर पाठकों तक पहुंचा देती। उन दिनों जनता बेसब्री से “इंडियन ओपिनियन” के आने की प्रतीक्षा करती थी। अनेक बाधाएं आई पर वह बहादुर महिला मानों थकना जानती
ही न हो। श्लेसिन ने गांधीजी के
दक्षिण अफ़्रीका के सत्याग्रह आंदोलन में भी सहयोग दिया। गांधीजी ने खुद स्वीकार किया है, “तब वह सिर्फ़ सोलह साल की थी, लेकिन अपने खुलेपन और बचाव करने की तत्परता से उसने
मेरे मुवक्किलों और साथी सत्याग्रहियों का मन मोह लिया। वह शीघ्र ही न केवल मेरे
कार्यालय की बल्कि संपूर्ण आंदोलन की नैतिकता की प्रहरी बन गई।”
गांधीजी
के साथ काम करते हुए कुछ ही दिनों में वह गांधी परिवार में घुल-मिल गई। हालाकि
उसने विवाह न करने का निश्चय किया हुआ था, किन्तु उसके व्यवहार में मातृत्व की सहज प्रवृत्तियां
स्पष्ट झलकती थीं। गांधीजी और कस्तूरबा आंदोलन के कारण सतत व्यस्त रहते या जेल
जाते रहते थे, लेकिन सोंजा श्लेसिन ही गांधीजी
के पुत्र रामदास आदि को शिक्षा-दीक्षा देती थी और उनकी परवरिश करती थी। रामदास गांधी ने बाद में स्वीकार किया है कि मिस श्लेसिन से
उन्होंने काफ़ी कुछ सीखा है। वो गुस्सा करती तो थीं, पर उनका गुस्सा क्षणिक होता था। वास्तव में जब इतनी
आत्मीयता उस परिवार के प्रति वो रखती थीं, तो गुस्सा भी उसी अधिकार से करती थी। वह हमेशा हंसती रहती
थी, और उसके गालों में बने
डिम्पल बड़े मोहक लगते थे। फिनिक्स आश्रम के सब बड़े लोग जब जेल में होते, तो सोंजा श्लेसिन सब बच्चों की पढ़ाई-लिखाई ज़ारी
रखती। उनके अभ्यास का क्रम टूटने नहीं देती। बच्चों में उत्साह कायम रखने के लिए
खेलकूद प्रतियोगिताओं का आयोजन करती। बच्चों में पुरस्कार का वितरण करती। बच्चों
को डरबन ले जाकर चिड़ियाघर, संग्राहालय, वनस्पति उद्यान, अस्पताल आदि घुमाती थी। समुद्र स्नान और पिकनिक पर भी ले
जाती। वह भी तब जब गांधीजी सींखचों के पीछे बंद थे। मुश्किल से दो व्यस्क लोगों के
साथ सत्रह नादान बच्चों को मिस श्लेसिन ने छह महीने तक संभाला और आश्रम-प्रवृत्ति का निर्वाह किया।
जनवरी 1911 में उसने केप ऑफ गुडहोप से
ही इंटरमीडिएट ऑफ आर्ट्स की परीक्षा पास की। दूसरे विश्व युद्ध के बाद श्लेसिन ने 1920 से 1924 के बीच बी.ए. और एम.ए. भी
पास किया। 1914 में गांधीजी दक्षिण
अफ़्रीका से भारत वापस लौट आए। श्लेसिन उसके बाद ट्रांसवाल के एक स्कूल
क्रूगर्सड्रॉप में अध्यापिका बन गई। अध्यापिका के रूप में काम करते वक़्त उसने
काला पोशाक धारण कर लिया था। लोग उसे एकांतप्रिय और सनकी शिक्षिका के रूप में याद
करते हैं। वह वहां बच्चों को लैटिन
पढ़ाती रही। जून 1933 में 55 साल की उम्र में उसने
अध्यापन के पेशे से अवकाश ग्रहण कर लिया। इस दरमियान उसके सिर्फ़ दो विद्यार्थी परीक्षा में असफल
हुए।
उसके
आवास का नाम ‘हेरिटेज’ (विरासत) था। गांधीजी के साथ उसके पत्र-व्यवहार 1947 तक चलते रहे। गांधीजी बहुत
स्नेह के साथ उसे “प्यारी बेटी” कहकर संबोधित करते थे। भारत लौटने के बाद गांधीजी को
सोंजा का स्थानापन्न तलाश करने में पूरे दो साल लग गए, तब जाकर उन्हें महादेव देसाई मिले। कलेक्टेड वर्क्स
के 15वें जिल्द के अनुसार 2 जून 1919 को लिखे एक पत्र में गांधीजी
ने सोंजा को लिखा था, “कितनी शिद्दत से चाहता हूं
कि तुम यहां होती, कई कारणों से! लेकिन मुझे
अकेला ही चलना है। यहां कोई डोक नहीं है। कोई कैलेनबैक, कोई पोलाक भी नहीं है। ... सुनकर तो अजीब लगेगा, लेकिन यहां मैं दक्षिण अफ़्रीका से ज़्यादा अकेला
महसूस करता हूं। ... मुझमें सुरक्षा का वैसा एहसास नहीं है जो तुम सबसे वहां मिलता
था। ...”
6 जनवरी 1956 को जोहान्सबर्ग के गौटेंग
(Gauteng) के जेनरल अस्पताल में
श्लेसिन का देहावसान हो गया। उनके अंतिम दिनों में उनकी बहन रोज़ ने उनकी काफ़ी
देख-भाल की। उच्च कोटि के चरित्र बल के माध्यम से उन्होंने गांधीजी के व्यावसायिक
और राजनीतिक जीवन को सफल बनाया। गांधीजी द्वारा प्राप्त प्रारंभिक सफलताओं का
श्रेय सोंजा की प्रबंधन क्षमता को दिया जा सकता है। ऐसा कोई काम नहीं था
जिसे वो पुरुषों के मुकाबले अच्छा न करती हो। ज़रूरत पड़ने पर गांधीजी के साथ
वाद-विवाद करने से भी नहीं कतराती। उनका बलिदान, उनकी निर्भीकता, सिद्धांतवादिता, विचारों की शुद्धता और कर्मठता अद्वितीय थी। तभी तो, स्त्री-शक्ति की प्रतीक श्लेसिन की कर्तव्यपरायणता से
प्रभावित होकर गोखले जी ने एक बार गांधीजी से कहा था, “इतना त्याग, इतनी पवित्रता, इतनी निर्भयता और इतनी कुशलता मैंने बहुत थोड़ों में देखी
है। मेरी दृष्टि में तो मिस श्लेसिन तुम्हारे साथियों में प्रथम पद की अधिकारिणी
है।”
सभी प्रकार के भारतीय मदद या सलाह के लिए श्लेसिन के पास
जाते थे, और गांधीजी ने उन्हें अपने कार्यालय और आंदोलन का 'प्रहरी और संरक्षक' माना था। गांधीजी के साथ अपने व्यवहार में सोंजा ने एक ऐसी
स्वतंत्रता का पालन किया जो गांधीजी को स्पष्ट रूप से पसंद थी। वह चाहते थे कि वह
उनके साथ अनुबंधित हो जाए और वकील बने, इसलिए उन्होंने उसकी ओर से लॉ सोसायटी में आवेदन किया। इस आधार पर कि वह एक
महिला थी,
आवेदन को अस्वीकार कर दिया गया। गांधीजी के सहयोगियों की चर्चा करते हुए गोखले ने सोनिया
श्लेसिन को उनकी ऊर्जा,
योग्यता और बिना किसी पुरस्कार
की अपेक्षा के की गई सेवा के लिए 'गौरवशाली स्थान'
दिया। गांधीजी को उनके जन्मदिन (02.10.1947) पर सोनिया श्लेसिन से प्राप्त पत्र ने बहुत प्रभावित किया
था,
"125 वर्ष की आयु
तक जीने की आपकी इच्छा खत्म होने के बजाय, दुनिया की प्रेमहीनता और उसके परिणामस्वरूप होने वाले दुख के बारे में बढ़ते
ज्ञान से आपको और अधिक लंबे समय तक जीने का दृढ़ संकल्प लेना चाहिए ... आपने कुछ
समय पहले मुझे लिखे पत्र में कहा था कि हर किसी को 125 वर्ष की आयु प्राप्त करने की इच्छा रखनी चाहिए, आप इससे पीछे नहीं हट सकते।" अपनी आत्मकथा में गांधीजी लिखते हैं, “मुझे स्फटिक
मणि जैसी
पवित्र और क्षत्रिय को भी चौंधियाने
वाली वीरता से युक्त जिन महिलाओं
के समर्पक में आने
का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उनमें
से एक इस बाला को मैं मानता हूँ।”
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मनोज कुमार
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